अंश लेकर अश्विनी का, मर्म साधा हरिप्रिया का
चंद्र के सौभाग्य का, अब तुम्हीं बस प्रण प्रथम हो।
रीतियों संग मीत बनकर, मन सदा तुम ही बसोगी
धीति हो तुम इस हृदय की, जो अहिर्निश ही रहेगी।
सौगंध मुझको है तिलक की, तांबूल जैसे मैं रहूंगा
खीज भी होगी कभी तो, ओष्ठ स्मित फिर भी करूंगा।
आरंभ है, अनुभूति भी नव, मनभाव दिखलाऊं तो कैसे
कुछ दिनों में आ रही तुम, प्रण अभी बतलाऊं तो ऐसे
पूजनों के प्रथम तल पर, स्वास्तिवाचन होता है जैसे
अनुदिन सुबह उठकर करूंगा, निक्षण अधर पर मैं भी वैसे
नव-नवेले संबंध का, आगाज प्रतिष्ठित हो रहा है
योग के आनंद का, वैराज अधिष्ठित हो रहा है।
कलानिधि की नीति बन तुम, हर निशा द्युति से भरो
हर क्षया रतिदान कर, फिर वंश वर्धित भी करो।
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