Tuesday 8 November 2016

क्यों वामपंथियो! बगिया में बहार है?

4 दिन पहले केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक न्यूज चैनल (एनडीटीवी इंडिया) पर देश की सुरक्षा के साथ समझौता करने के आरोप में 24 घंटे का बैन लगाया। साथ ही मंत्रालय ने चैनल को एक शो कॉज नोटिस भेजा। नोटिस के जवाब में चैनल की ओर से प्रणव राय ने कल मंत्रालय के सामने अपना पक्ष रखा। चैनल का पक्ष सुनने के बाद मंत्रालय ने अपने ही फैसले पर रोक लगा दी। मंत्रालय के फैसले पर उसी के द्वारा रोक लगाए जाने के बाद सोशल मीडिया की बगिया में एक ‘बहार’ देखने को मिली। किसी ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट से डरकर सरकार ने अपने ही फैसले को होल्ड पर डाला’ तो किसी ने कहा, ‘सोशल मीडिया की ताकत की वजह से सरकार को अपना फैसला बदलने पर मजबूर होने लगा।’ लेकिन इन सबके बीच एक विशेष बात जिसने मुझे सबसे ज्यादा सम्मोहित किया, वह यह थी कि जो लोग अफजल के मुद्दे पर कोर्ट को घेरने से, न्यायिक व्यवस्था को घेरने से नहीं चूक रहे थे, उनमें एक ‘गजब’ तरह का परिवर्तन दिखा।

4 दिन पहले एक सुप्रसिद्ध चैनल के प्राइम टाइम ऐंकर द्वारा उनके इंट्रो में हमने बालक नचिकेता की कहानी सुनी। निश्चित ही अथॉरिटी का अर्थ जवाबदेही ही होता है लेकिन वह जवाबदेही किसके प्रति होती है? अपने देश और उसके नागरिकों के प्रति या फिर दुश्मन मुल्क के प्रति? मेरा स्पष्ट मत है कि सवाल पूछने की आजादी और अपनी बात रखने की आजादी यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर एक व्यक्ति का अधिकार है। उस मौलिक अधिकार को छीनना, उसका हनन करना अनैतिक भी है और गैर संवैधानिक भी। लेकिन क्या संविधान के अनुच्छेद 19 में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के विषय में पढ़ने वालों ने अनुच्छेद 51 के ‘अ’ खंड में बताए गए मौलिक कर्तव्यों के बारे में नहीं पढ़ा?

चलिए, अगर बात इतिहास की हो रही है तो आपको एक किस्से का छोटा सा हिस्सा बताता हूं। विभीषण, रावण के राज्य में रहने वाले एक ऐसा व्यक्ति थे, जिनके सहयोग के बिना श्रीराम को माता सीता वापस नहीं मिलतीं, जिनके सहयोग के बिना लक्ष्मण जी जीवित नहीं बचते, जिनके सहयोग के बिना रावण के राज्य की गोपनीय बातें हनुमान-श्रीराम को पता नहीं लगतीं। एक लाइन में कहें तो ‘सत्य और न्याय के लिए रिश्ते तक न्योछावर करने वाले एक व्यक्ति’, लेकिन… इतना कुछ होते हुए भी, आज उस घटना के हजारों सालों के बाद भी किसी पिता ने अपने बेटे का नाम ‘विभीषण’ नहीं रखा। जानते हैं क्यों? क्योंकि इस संस्कृति में आप राम भक्ति करें या ना करें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर राष्ट्रभक्ति नहीं की तो कभी माफ नहीं किए जाएंगे।

राष्ट्र के प्रति हर एक नागरिक की अपनी विशिष्ट जिम्मेदारी है और यदि कोई भी व्यक्ति या संस्था उस जिम्मेदारी से बचने की, उस जिम्मेदारी को बोझ समझने की या उस जिम्मेदारी का विरोध करने की कोशिश करे और इस पर सरकार कुछ करे या ना करे, अन्य जिम्मेदार लोग उसे सबक जरूर सिखा देंगे।

कुछ मीडिया संस्थानों ने पत्रकारिता के पेशे को देश से भी ऊपर रख लिया और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भुला दिया। इन मीडिया संस्थानों ने निष्पक्षता के नाम पर अजेंडा चलाने का काम शुरू कर दिया। कुछ साल पहले तक मीडिया खबरें परोसता था, साधन ना होने के कारण आम जनता सवाल नहीं कर पाती थी लेकिन सोशल मीडिया ने इनकी पकड़ कमजोर कर दी। कुछ संस्थानों ने समय और टेक्नॉलजी में हुए इस परिवर्तन को स्वीकार किया लेकिन कुछ अपने पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे। उन्हीं तटस्थ संस्थानों को बर्दाश्त ही नहीं हुआ कि जनता इनके द्वारा परोसी गयी खबर पर सवाल करे। वास्तविकता यह थी कि इन्होंने खुद में सवाल का जवाब देने की आदत ही नहीं पनपने दी। यही वजह है कि अचानक से इन्हें देश में असहिष्णुता नजर आने लगी थी।

मैं जब पढ़ता था तो रवीश की रिपोर्ट को जरूर देखता था। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि रवीश की पत्रकारिता से यदि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को निकाल दिया जाए तो आजादी के बाद की विशुद्ध पत्रकारिता को नए आयाम देने वाले चुनिंदा लोगों में वह सबसे ऊपर ही दिखेंगे। लेकिन समस्या मात्र अजेंडा बेस्ड पत्रकारिता से है। कैसा अजेंडा? जब देश रोष में था, आम आदमी सड़कों पर उतरकर कसाब की फांसी की मांग कर रहा था, जब देश कह रहा था कि हम एक आतंकी को अपनी मेहनत की कमाई से ‘अय्याशी’ नहीं करने देंगे, तब उस आतंकी के मानवाधिकार की बात करने वाले कुछ चुनिंदा संस्थान ही थे। और ये मीडिया संस्थान किस विचारधारा से ‘प्रतिबद्ध’ थे, यह भी किसी से छिपा नहीं है। मानवीयताविहीन और संवेदना शून्य लोगों के लिए ना ही मैं किसी मानवाधिकार की आवश्यकता समझता हूं और ना ही किसी धार्मिक अधिकार की। ज्यादा पुरानी बात हो गई क्या? चलिए कुछ हालिया घटनाएं बताता हूं।

जब दादरी हुआ तो हर एक संवेदनशील व्यक्ति दोषी को सजा दिए जाने की मांग कर रहा था, तब इन ‘मानवतावादी’ चैनलों ने भी अच्छी रिपोर्टिंग की, 16-16 घंटे एक ही मसाला चलाया, सरकार को भी खूब सुनाया लेकिन तब जवाबदेही आरएसएस और केन्द्र सरकार की नहीं बल्कि प्रदेश सरकार की बनती थी। खैर, कोई बात नहीं, पूछ लो केन्द्र सरकार से भी सवाल लेकिन जब दिल्ली में डॉ. नारंग की हत्या हो जाती है तो उसे महज रोडरेज क्यों बताया जाता है? आखिर क्यों, पश्चिम बंगाल में एक समुदाय विशेष के कुछ उत्पाती लोगों के द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचार की खबर को उन ‘प्रतिबद्ध’ चैनलों द्वारा मात्र खानापूर्ति के लिए दिखाया जाता है?

जेएनयू में जब कुछ लफंगे भारत तोड़ने के नारे लगाते हैं, तो उसे अभिव्यक्ति की आजादी बताकर यदि सबसे पहले किसी ने देश की आवाज को बांटने की कोशिश की, तो वे यही ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थान थे। क्या स्वतंत्रता और स्वछंदता में कोई अंतर नहीं रह गया?

जब भारत के इतिहास में पहली बार कोई सरकार घाटी में पनप रहे घरेलू आतंकवाद का विनाश करने के लिए कठोर कदम उठाती है, तो इन ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थानों को पैलेट गन्स के छर्रे तो दिखते हैं लेकिन हमारे-आपके लिए पत्थर खाकर भी राशन पहुंचाने वाले सैनिकों का दर्द नहीं दिखता? संवेदनशीनता में यह दोहरापन क्यों?

उड़ी में जब भारत माता ने अपने 19 बेटे खोए तो पूरा देश गुस्से में आंखे लाल किए रो रहा था तो यही ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थान वाले अपने ‘ट्रोलर्स’ के सहारे इतिहास के आइने से मोदी को कोस रहे थे। और जब सेना ने राजनीतिक इच्छाशक्ति के बलबूते पर पीओके में घुसकर मारा, सर्जिकल स्ट्राइक की तो पूरा देश भारतीय जवानों के शौर्य पर जश्न मना रहा था लेकिन ये लोग सेना से सबूत मांगने का काम कर रहे थे। अरे साहब! जवाबदेही में यह दोहरा चरित्र क्यों? देश तुमसे पूछे कि तुमने दादरी पर तो ‘भयंकर’ रिपोर्टिंग की लेकिन ‘मालदा’ पर क्यूं चुप हो तो तुम कहोगे कि हमारा चैनल है, जो चाहेंगे दिखाएंगे? ऐसे तो नहीं चलता है साहब।

मेरे एक पत्रकार मित्र ने कुछ दिनों पहले फेसबुक पर लिखा, ‘अब तो खबर लिखने की अदा भी बताने लगी है कि खबर लिखने वाला वामपंथी है या संघी…’ बात सुनने में सच्ची तो लगती है लेकिन अच्छी नहीं लगती। सवाल यह है कि एक पत्रकार के लिए पहले पत्रकारिता धर्म है या पहले राष्ट्रधर्म… यह सवाल आज इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि कश्मीर के बारामूला में जब कुछ आतंकी हमला करते हैं तो हमारी रक्षा के लिए अपनी शहादत देने वाले नितिन के लिए देश के कुछ नामी चैनल्स और वेबसाइट्स ‘killed’ जैसे शब्द का प्रयोग करते हैं। क्या यह मान लिया जाए कि उन्हें ‘killed’ और ‘martyred’ में अंतर नहीं पता? या फिर यह मान लिया जाए कि उन मीडिया संस्थानों के लिए किसी के मारे जाने और किसी सैनिक की शहादत में कोई अंतर है ही नहीं? संभव है कि यह मात्र एक गलती हो लेकिन अगर यह मात्र एक गलती है तो देश को एक पत्रकार से ऐसी ‘गलतियां’ अपेक्षित नहीं हैं।

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि लोग तथाकथित निष्पक्षता के लिए अपने दायित्व को भी भूल गए हैं। उनका वह दायित्व जो उनकी मातृभूमि के प्रति है, देश की जनता के प्रति है। पिछले कई सालों से सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि एनडीटीवी चैनल देशद्रोही है, पाकिस्तान परस्त है, वामपंथी है। वामपंथी होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन क्या वामपंथ को शहादत का अर्थ नहीं पता? क्या वामपंथ के लिए एक सैनिक की शहादत और आतंकी की मौत में कोई अंतर नहीं लगता। केन्द्र सरकार द्वारा एनडीटीवी बैन पर जो फैसला लिया गया है, वह स्वागत योग्य है। वह फैसला इस बात को प्रमाणित करता है कि सरकार अपनी जवाबदेही से बच नहीं रही है। सोशल मीडिया के रुख को देखकर और चैनल के जवाब से, सरकार ने अपने फैसला का रिव्यू उचित समझा। सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा सरकार को भी है लेकिन पीड़ा तब होती है जब उसी सोशल मीडिया के यूजर्स किसी मीडिया संस्थान की ‘प्रतिबद्धता’ पर सवाल उठाते हैं तो उन्हें भक्त करार दिया जाता है। साहब! जवाबदेही तो बनती है। सरकार की भी और मीडिया की भी।

बात बस इतनी सी है कि अब ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थानों की बगिया की बहार जाने लगी है। मेरा स्पष्ट मत है कि स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंदता नहीं चलने दी जानी चाहिए। पेशे को कभी देश, देश के नागरिक और देश की सुरक्षा से ऊपर नहीं रखने दिया जाना चाहिए। और हां, ब्लॉग के शीर्षक में ‘बगिया’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया है क्योंकि ये ‘प्रतिबद्ध’  मीडिया संस्थान तो ‘नारीवाद यानी फेमनिस्ट’ विचारधारा के अग्रदूत हैं, अब अगर ‘बाग’ लिखते तो उनको बुरा लगता। तभी तो हम लिख डाले बगिया…

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