Saturday, 28 June 2025

वैदिक तथ्यों-तर्कों के आधार पर महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ब्राह्मण थे?

 महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ब्राह्मण थे? 

एक शब्द में इसका जवाब है- हां। इसपर ना किसी तरह का विवाद है, ना ही होना चाहिए। असल मुद्दा यह है कि क्या उनके ब्राह्मण होने के पीछे उनका किसी व्यक्ति विशेष के यहां जन्म लेना कारण है? जवाब है- नहीं। आज वैदिक तर्कों के साथ इसी पर बात करेंगे। जन्मजाति के अंहकार में डूबे कुछ लोगों को मेरा यह लेख पसंद नहीं आएगा। उसका कारण भी स्पष्ट है कि लोगों ने धर्म की, परंपराओं की, व्यवस्थाओं की, अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्या कर ली है और उसे व्यावहारिक बना लिया है। 

एक और समस्या है। जिनकी सैकड़ों-हजारों पीढ़ियों ने अध्ययन करने और कराने का काम पूरी जिम्मादारी से किया, उन जन्म आधारित ब्राह्मणों ने दूसरों को दीक्षित करने की जिम्मेदारी तो छोड़िेए, खुद भी अध्ययन करना छोड़ दिया है। गूगल बाबा और वॉट्सऐप विश्वविद्यालय के क्रैश कोर्स में जो आधी-अधूरी जानकारी मिलती है, उसी को सत्य मान लेते हैं। तो आज ऐसे कुपढ़ ‘ब्राह्मणों’ पर भी बात करना बेहद जरूरी हो गया है। यह ब्लॉग लिखने की जरूरत क्यों महसूस हुई, वह भी जान लीजिए। 

दरअसल एक बालक ने सुप्रसिद्ध कवि और वक्ता डॉ. कुमार विश्वास जी के वक्तव्य को शेयर करते हुए कुछ लिखा, मेरी पत्नी को आपत्ति हुई तो उसने जवाब दिया। इसके बाद उस बालक ने मेरी पत्नी से कहा- ‘आप मुझे नहीं जानतीं भाभी जी, गौरव भैया से मेरे बारे में पूछिएगा।’ मेरी पत्नी ने जिज्ञासावश मुझसे पूछा तो मेरे ध्यान में नहीं आया कि वह कौन है। मेरी पत्नी ने नंबर पता करके दिया तो मैंने फोन किया। बातचीत में पता लगा कि कभी किसी विषय को लेकर बात हुई होगी तो वह मुझे जानता होगा। लेकिन जब उसने बताया कि उसने लिखा क्या था तो सामान्य तौर पर मैंने पूछा कि ’वेदव्यास’ तो उपाधि है, उनका असली नाम क्या था? जवाब था- नहीं पता। मैंने पूछा कि उनके पिता का नाम क्या था? जवाब था- मुझे यह सब नहीं पता लेकिन हमारे सप्तऋषि ब्राह्मण ही थे। मुझे बेहद दुःख हुआ कि सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों की आवाज बुलंद करने वाला एक 25-26 साल का लड़का अपने खुद के इतिहास के बारे में शून्य है। उसे यह तक नहीं पता कि महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास सप्तऋषियों में तो सम्मिलित ही नहीं हैं। खैर, मुझे लगा कि संक्षेप में इस विषय पर बात करना बेहद जरूरी है।

 

पहले बात करते हैं महर्षि वाल्मीकि पर। महर्षि वाल्मीकि के जन्म को लेकर दो मान्यतायें प्रचलित हैं। एक वर्ग स्कन्द पुराण के आधार पर कहता है कि महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है, इसलिये इन्हें प्राचेतस् नाम से उल्लेखित किया जाता है। उपनिषद के विवरण के अनुसार ये भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए इनके शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से, जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे। 

अब यदि स्कंद पुराण के आधार पर महर्षि वाल्मीकि के जन्म को प्रमाणिक मानें तो उसी पुराण में एक बात और भी कही गई है- 

'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते ॥' (स्कन्द 6.239.31)

स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम् उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद जी को बताया गया है कि जन्म से (प्रत्येक) मनुष्य शूद्र, संस्कार से द्विज बनता है। माना जाता है कि उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है। ‘उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’ किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। वेदाध्ययन के लिए जब बालक गुरु के सन्निकट जाता है, तब वह पूर्ण रूप से परिवार का मोह त्यागकर सिर्फ शिक्षा के लिए, ज्ञान के लिए, ब्रह्म के लिए समर्पित होता है- तब वह ब्राह्मण बनता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि जन्म से ‘ब्राह्मण’ कोई नहीं होता, वह ज्ञान-सिद्धि के आधार पर ब्राह्मण बनता है। यानि जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो, यदि कोई ब्रह्म के प्रति समर्पित है, ईश्वर के प्रति समर्पित है, ज्ञान के प्रति समर्पित है तो वह ब्राह्मण ही है। अब जन्म से रामनरेश यादव हो या शिवकुमार पासवान, यज्ञोपवीत संस्कार के बाद उसका उपनाम उसकी शिक्षा के आधार पर तय होता है। हमारी वैदिक परंपरा जो आज भी आपको संस्कृत शिक्षा में मिल जाएगी, उसमें शास्त्री जैसी उपाधियां शिक्षा के आधार मिलती हैं, जिन्हें उपनाम की तरह उपयोग में लाया जाता है। इसी उपनाम से पता लग जाता है कि सामने वाले व्यक्ति ने कितना अध्ययन किया है। वैदिक काल में ये उपाधियां थोड़ा विस्तृत थीं, जो कि ज्ञान और अध्ययन परंपरा के अनुसार दी जाती थीं। हालांकि ये सिर्फ ब्राह्मणों को ही मिलती थीं, और ब्राह्मण वही होता था जो अध्ययन करके फिर उसके विस्तार का दायित्व लेता था।


अब आते हैं महर्षि वाल्मीकि के जन्म को लेकर प्रचलित दूसरी मान्यता पर। उसके मुताबिक वाल्मीकि पहले ‘रत्नाकर’ नामक डाकू हुआ करते थे। यहां एक बात और बता दूं कि कुछ जगह पर जिक्र मिलता है कि वह डाकू बनने से पहले एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे, लेकिन बाद में एक शिकारी जोड़े के साथ रहने लगे। कुछ जगहों पर यह भी जिक्र आता है कि वह एक भील राजा थे। हालांकि हम इस विवाद में ना जाते हुए मूल विषय पर ही रहेंगे। रत्नाकर नामक डाकू लोगों पर हमला करके जबरन उनसे उनकी संपत्ति छीनने का काम करता था। ऐसा करते काफी समय हो गया, इसी बीच एक दिन अचानक नारद मुनि उसके सामने आए। रत्नाकर ने उन्हें डराने की कोशिश की लेकिन नारदजी बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए। नारदजी ने उससे एक प्रश्न किया कि तुम यह दूसरों को लूटने का जो काम करते हो, वह किसके लिए करते हो। रत्नाकर ने जवाब दिया- अपने परिवार को सुविधाएं देने और उनका भरण पोषण करने के लिए। नारदजी का अगला सवाल था- 'तुम अपने परिवार को लोगों से धन लूटकर दे रहे हो, क्या जब इस कर्म का परिणाम आने पर भी वो परिवार तुम्हारा साथ देगा। क्या इस डकैती के कर्म में तुम्हारा परिवार तुम्हारा सहभागी है?'


रत्नाकर के मन में भी जिज्ञासा उठी और वह नारदजी को एक पेड़ से बांधकर अपने परिवार से सवाल करने गया। तब उसके परिजनों यानी पत्नी और पिता दोनों ने साफ इनकार कर दिया कि वह भले ही लूट के धन से सुख-सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं लेकिन डकैती के कर्म का फल रत्नाकर को अकेले ही भोगना होगा, वह इस काम में उसके सहभागी नहीं हो सकते। परिवार के जवाब से हताश-निराश रत्नाकर नारद के पास वापस लौटा। उसको अहसास हुआ कि वह व्यर्थ के कामों में जीवन नष्ट कर रहा है, और जिनके लिए कर रहा है वह भी उसके साथी नहीं। उसके अंदर बदलाव की चाह जगी और तब नारद मुनि ने डाकू रत्नाकर को ‘राम’ नाम के विषय में बताया। और फिर रत्नाकर ‘राम नाम’ में इतना रमे कि वाल्मीकि बन गए।

अब यहां प्रश्न यह है कि अगर वाल्मीकि का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में भी हुआ होता, तो भी क्या आप उन्हें पूजते? नहीं। आप उन्हें इसलिए ही पूजते हैं क्योंकि उन्होंने राम को समझा, उन्होंने ब्रह्म को समझा और हमें रामायण दी। यानी यहां भी कर्म ही प्रधान है। 


अब बात करते हैं महर्षि वेद व्यास की। हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि प्रत्येक युग में स्वयं ईश्वर अवतार ग्रहण कर वेदों का युगानुरूप विस्तार करते हैं। एक गणना के अनुसार अब तक 28 व्यास हो चुके हैं। जिस मनवंतर में हम हैं, उसमें द्वापर युग में यह गौरव श्रीकृष्ण द्वैपायन को मिला। पुराणों के अनुसार वह व्यास ऋषि पराशर और सत्यवती के पुत्र थे। सत्यवती एक मछुवारे की पुत्री थीं। अब एक ब्राह्मण और मछुआरिन के बेटे को जन्म के आधार पर तो वर्णसंकर माना जाएगा, फिर उन्हें महर्षि क्यों कहा गया, वेदव्यास की उपाधि क्यों दी गई? अब आप कहेंगे कि वो तो पिता के आधार पर तय होता है। अच्छा? अगर ऐसा है तो फिर तो वर्णसंकर की अवधारणा को भी स्वीकार करते हुए उन्हें स्वीकृति ही नहीं मिलनी चाहिए। वैदिक परंपरा में तो वर्णसंकर की व्यवस्था तो स्वीकार ही नहीं थी। तो असल धारणा मैं आपको बताता हूं। 


दरअसल सनातन परंपरा में प्रत्येक व्यवस्था बेहद वैज्ञानिक और व्यवहारिक है। वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर तय होती थी। अपने वर्ण में विवाह की परंपरा को सही और दूसरे वर्ण में इसलिए उचित माना गया था, ताकि पति-पत्नी का कर्म एक ही रहे, जिससे परिवार में समन्वय बना रहे। यह तो हम आज भी महसूस करते हैं ना! पति और पत्नी एक ही पेशे में होते हैं तो व्यवस्था ठीक बनी रहती है।  

श्रीकृष्ण द्वैपायन ने वेद का प्रतिभाग करके श्रौतयज्ञ की आवश्यकता के अनुसार चार वेदों में सम्पादित किया, इसलिए वे ‘वेदव्यास’ कहलाते हैं। पुराणों के द्वारा वेद का उपबृंहण या व्याख्यात्मक विस्तार करने का कारण उन्हें व्यास कहा गया। वे 18 पुराणों और श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के सहित महाभारत, ब्रह्मसूत्र (जो भारतीय दर्शन की वेदान्त धारा के सीमान्त प्रस्थानों का शाश्वत स्रोत है) और पतंजलि कृत सूत्रों पर व्यासभाष्य के भी प्रणेता माने जाते है। वेदों के परमार्थ को, जो उपनिषदों में प्रतिष्ठित है, सूत्रबद्ध कर ‘ब्रह्मसूत्र’ की रचना करके उन्होंने भारतीय दार्शनिक चिन्तन का आधार प्रस्तुत कर दिया, जिसकी शताब्दियों तक विभिन्न दार्शनिक प्रस्थान अपनी-अपनी तरह से व्याख्या करते रहे। ‘व्यास-स्मृति’ के प्रणेता के रूप में वे स्मृतिकार हैं। हमारे लिए वह पूज्यनीय हैं। 


महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ब्राह्मण हैं, लेकिन इसका उनके जन्म से कोई लेना-देना नहीं है। ढेर सारे ऋषि-महर्षि हैं, जिनके जन्म पर बात ही नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए लेकिन हम उनके ज्ञान के कारण उन्हें पूजते हैं। एक और तर्क है। वर्तमान मनवंतर के सप्तऋषियों में प्रथम कश्यप ऋषि को समस्त देवताओं एवं मानवों का पूर्वज माना गया है। वह तो ऋषि यानी ब्राह्मण हैं, ऐसे में तो समस्त मानव जन्म से तो ब्राह्मण ही हुए। इसके आधार पर भी यह प्रमाणित होता है कि समस्त मनुष्य ब्राह्मण ही हुए। उन्हीं सप्तऋषियों में से एक महर्षि विश्वामित्र का जन्म तो क्षत्रिय कुल में हुआ था। जन्म के आधार पर यदि ब्राह्मण ही ऋषि अथवा महर्षि हो सकता तो विश्वामित्र महर्षि कैसे हुए? सोचिएगा।


ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वालों से अंत में एक ही बात कहूंगा। आपके पूर्वज ज्ञान परंपरा के आधार रहे हैं। आज के समय में हो सकता है कि आप कर्मकांड और अध्यापन ना कर पा रहे हों लेकिन कम से कम अध्ययन तो कर ही सकते हैं। पढ़ेंगे तभी मन में जिज्ञासा उठेगी, और फिर उस जिज्ञासा के समाधान के लिए और पढ़ेंगे। जन्म से मिले ‘ब्राह्मणत्व’ की रक्षा सोशल मीडिया पर कुतर्क करके नहीं होगी, ज्ञान से होगी। सोशल मीडिया के चक्कर में पड़ेंगे तो ब्राह्मणवंशी रावण को पूजना पड़ेगा और रावण को पूजने वाला रामभक्त हो ही नहीं सकता।


Tuesday, 29 April 2025

पूर्णकालिक प्रेयसी बने रहने का संकल्प लेने वाली प्राणवल्लभा के नाम पत्र

प्रिये,

पारिवारिक, सामाजिक और संवैधानिक रूप से एकत्व के 8 साल हो गए लेकिन आत्मिकता के आधार पर देखें तो 14 साल 2 महीने और 15 दिन बीत गए हैं। इस छोटे से समयकाल में तुम्हारी सिर्फ एक शिकायत रही है। शायद मेरी कमी है कि मैं तुम्हारी उस शिकायत को दूर नहीं कर पाया। आज कोशिश कर रहा हूं। 


पता है! मैं हमेशा सोचता हूं कि क्या सच में कोई इस धरती पर हुआ होगा, जिसने प्रेम किया हो और उसकी प्रेमिका/प्रेमी को अपने साथी से कोई शिकायत ना रही हो? प्रेम की शाश्वत परिभाषाओं के मानक व्यक्तित्व क्या सच में प्रेम में बिना झगड़े के जिये होंगे? शायद नहीं! मेरा ईश्वर भी जब इस धरती पर मनुष्य रूप में आया तो वह रोया, उसने विरह झेला, उसने अभूतपूर्व प्रेम किया, फिर क्या उनकी प्रेयसी ने उनसे प्रश्न नहीं पूछा होगा? क्या राजा जनक को विदेह होने के बाद पुत्री रूप में प्राप्त हुईं वैदेही ने अपने प्रेमी से यह नहीं पूछा होगा कि पिता के वचन का पालन करने की सौगंध लेने के बाद भी आप अपनी पत्नी, अपनी प्रेमिका को चंद पलों में रावण की कैद से मुक्ति दिला सकते थे, फिर आपने क्यों नहीं दिलाई? क्या अपराजिता किशोरी जी ने मुरलीधर से सुदर्शनधारी केशव बने आदिदेव अपराजित धर्माध्यक्ष द्वारिकाधीश से यह नहीं पूछा होगा कि उन्होंने दुनिया से लड़कर उन्हें अपनी पत्नी होने का अधिकार क्यों नहीं दिया? जरूर पूछा होगा, और उन्हें उत्तर भी मिला होगा। लेकिन मैं, उनके सिखाए, उनके दिखाए प्रेम-मार्ग पर चलने को आतुर प्रेम की पाठशाला का एक नव-विद्यार्थी तुम्हारे उस एकमात्र प्रश्न का उत्तर आजतक नहीं दे पाया, ऐसा उन सभी लोगों को लगता होगा, जो तुमसे या मुझसे हमारे बहाने इस प्रश्न का उत्तर जानने की कोशिश करते हैं।

तुम हमेशा पूछती थी ना, कि तुमने जिससे पहली बार प्रेम किया, उसे इतने पत्र लिखे कि एक किताब बन गई, दो-तीन वर्षों में प्रेम में इतना कुछ लिख डाला, फिर हमारे इतने सालों के प्रेम में तुमने एक पत्र तक नहीं लिखा, हमारे प्रति प्रेम में कमी थी क्या?
नहीं! तुम्हारे प्रति प्रेम में कमी नहीं थी, दरअसल आवश्यकता ही नहीं पड़ी। संबंध जब कागजों की सीमाओं में बंधे होते हैं, तो वे अनुबंध होते हैं लेकिन प्रेम जब हर तरह की सीमाओं को पार कर जाता है, तभी वह देवत्व का गुण आत्मसात करता है। पता है! जब मन जुड़ जाता है ना, तो शब्दों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। पता नहीं क्यों और कैसे, तुम्हारे सामने बैठूं, या तुमसे सैकड़ों किलोमीटर दूर रहूं, मेरे बिना बोले सबकुछ समझ लेने की जो योग्यता तुम में है, उसके बाद लिखने को कुछ बचता ही कहां है?
मुझे पता है कि मैं आज जो तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं, वह तुम पहले से ही समझती हो, लेकिन यह पत्र असल में तुम्हें नहीं, उन सबको बताने के लिए है कि प्रेम आपको अच्छे से बेहतर और फिर बेहतर से बेहतरीन कैसे बनाता है।

पता है! हम दोनों इतने सारे ‘परफेक्ट’ कपल्स से मिलते हैं, लगता है कि अरे ये लोग झगड़ा नहीं करते होंगे, तभी तो इतने खुश हैं ना! मतलब मुझे तो ऐसा लगता है। लेकिन सच में, उसी के साथ एक बात और भी मन में आती है कि ये झगड़ा नहीं करते होंगे, तो प्रेम भी करते हैं क्या?

पता नहीं! लेकिन झगड़ा ना होना, एक-दूसरे से नाराज ना होना, गुस्से में एक-दूसरे की बात को चुपचाप बर्दाश्त कर लेना, यह प्रेम का मानक नहीं है, हो ही नहीं सकता। प्रेम तो वह है कि जब आप घनघोर क्रोध में अपने मन की बात अपने साथी से कहें और उस वक्त वह भी अपने मन की बात खुलकर कहे, लेकिन आप दोनों के क्रोध की सीमा क्या हो, यह समझना प्रेम है।

मैं ऐसा नहीं था, मैं अपने क्रोध की सीमा नहीं जानता था, दरअसल मैं जानना ही नहीं चाहता था कि दूसरे को मेरी बातें कैसी लग रही होंगी, तुमने मुझे यह सिखाया कि मैं अब किसी के भी सामने अपने व्यवहार की सीमा समझने लगा हूं। तुम कैसी हो यार! लालच के पाश की परिधि से दूर, संतुष्टि के सागर में ध्यान लगाकर बैठी विदुषी सी लगती हो।
कई बार मन में प्रश्न उठता है कि तुम्हारी निजी इच्छाएं, आकांक्षाएं क्यों समाप्त सी हो गई हैं? क्यों संबंधों के प्रति तुम इतना समर्पित हो जाती हो कि मेरी इच्छाओं और विचारों का भी सम्मान रखने से इनकार कर देती हो, क्यों तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम जो कर रही हो, वही सही है! लेकिन पता है, फिर खुद-ब-खुद इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। तुम्हारे निर्णय मुझे सर्वदा स्वीकार करने पड़ते हैं (ना चाहते हुए भी), क्योंकि तुम्हारे आचार, व्यवहार और विचार ने मुझे यह स्वीकार करा दिया है कि तुम्हारे फैसले भले ही तात्कालिक हित में ना हों, लेकिन दूरगामी परिणाम स्वरूप में किसी ना किसी रूप में लोकहितकारी अवश्य होंगे। 


मैंने प्रेम किया था, उस प्रेम ने मुझे स्वयं से मिलाया, मुझे बताया कि मैं क्या हूं, लेकिन तुमने मुझे मुझ में बसे ईश्वरत्व से साक्षात्कार कराया। तुमने बताया, तुमने सिखाया कि स्वयं से पहले दूसरों के बारे में, दूसरों के हित के बारे में विचार आना ही ईश्वरत्व है। कोशिश करूंगा कि तुमने जिस व्यक्तित्व से मेरी  पहचान कराई है, उसे बचाकर, बनाकर रखूं। 


वैवाहिक वर्षगांठ की अशेष मंगलकामनाओं के साथ

सिर्फ तुम्हारा,

-विश्व गौरव

Saturday, 25 January 2025

जनेऊ परपंरा नहीं, संस्कार है साहब! तब पहनिए, जब उसका मान रख सकें

आज जिस विषय पर लिखने जा रहा हूं, इसपर लिखने के लिए कई बार सोचा लेकिन यह विषय इतना बोझिल लगता था कि हर बार विचार को मस्तिष्क तक ही सीमित रहने दिया। लेकिन आज किसी ने आग्रह किया कि इसपर आपका मत क्या है, वह जरूर बताइए। पहले थोड़ी भूमिका- साल 2017 में मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। मैं इसे करने के पक्ष में नहीं था लेकिन फिर मुझे बताया गया कि कोई भी शुभ कर्म बिना इसके फलित नहीं होता। अब चूंकि विवाह करना था और उसे फलित भी करना था तो लगभग मजबूरी में कुछ घंटों में ‘यज्ञोपवीत’ हो गया। मैं इसके पक्ष में क्यों नहीं था, इसपर चर्चा बाद में करेंगे, पहले यह बताना जरूरी है कि मैं नियमित तौर पर यज्ञोपवीत धारण नहीं करता। विवाहोपरांत जब इसे धारण करना बंद किया तो मेरे बाबाजी बहुत नाराज हुए। बीते लगभग 15 वर्षों में मेरे बाबाजी ने यदि मेरे किसी फैसले पर आपत्ति की है तो वह यही है कि मैं यज्ञोपवीत धारण नहीं करता। वह मुझे वामपंथी, अंग्रेज… और भी ना जाने क्या-क्या कहते हैं। मेरे मन में भी कई बार आता है कि 6 धागों का एक समूह ही तो धारण करना है, उनकी खुशी के लिए कर लेते हैं, लेकिन उसके तुरंत बाद मन में एक प्रश्न यह भी उठता है कि किसी अपने की खुशी के लिए क्या हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित नितांत वैज्ञानिक परंपराओं को सिर्फ दिखावे के लिए स्वीकार करना क्या उनका ’अपमान’ नहीं होगा?


मैं यज्ञोपवीत कराने के पक्ष में क्यों नहीं था?

शास्त्रवचन है- 'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते ॥' (स्कन्द 6.239.31)

स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम् उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को बताया गया है। जन्म से (प्रत्येक) मनुष्य शूद्र, संस्कार से द्विज बनता है। माना जाता है कि उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है। उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’ किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। वेदाध्ययन के लिए जब बालक गुरु के सन्निकट जाता है, तब वह पूर्ण रूप से परिवार का मोह त्यागकर सिर्फ शिक्षा के लिए, ज्ञान के लिए ‘जनेऊ’ धारण करता है। यह जनेऊ उसे उसके संकल्प को स्मरण रखने में मदद करता है। यह संकल्प क्या होता है? यज्ञोपवीत (जनेऊ) की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का एक संकल्प चाहिए। 

-चार वेद

-चार उपवेद

-छह अंग

-छह दर्शन

-तीन सूत्रग्रंथ

-नौ अरण्यक सहित कुल 32 विद्याएँ होती है।

इसके अलावा वास्तु निर्माण, युजन कला, साहित्य, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, किन, बुनाई, आभूषण निर्माण, ऋषि ज्ञान आदि मिलाकर कुल 64 कलाएं होती हैं। यानी कुल 32+64= 96।
इनके अध्ययन के संकल्प का प्रतीक ही यज्ञोपवीत है। लेकिन क्या आज उपनयन संस्कार इसी व्यवस्था के तहत कराया या किया जाता है? 64 कलाएं छोड़ दीजिए। 4 वेद और 4 उपवेद तक का अध्ययन तक छोड़ दीजिए, उनके नाम तक पता नहीं होते हैं, और धारण करके यज्ञोपवीत खुद को बड़ा ‘सनातनी’ साबित करने में लगे हैं। मतलब हद है! 


सोशल मीडिया पर कई बार मैंने देखा कि अलग-अलग ग्रंथों का संदर्भ देते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि ‘जनेऊ’ ना धारण किया तो हिंदू कैसे हुए, ब्राह्मण कैसे हुए, धर्म का ज्ञान कैसे देने लगे? ऐसे अन्य कई अनर्गल प्रलाप लगातार चलते रहते हैं। तो आइए, आज ग्रंथों के संदर्भ के साथ ही बात करते हैं।


उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता, किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। इन ग्रंथों के मुताबिक, अधिकतम 12 वर्ष तक यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए, यानि अधिकतम् 12 वर्ष की आयु तक आते-आते वेदाध्ययन प्रारंभ हो जाना चाहिए, सिर्फ धागों के एक समूह को जनेऊ समझने वाले बताएं कि उनका यज्ञोपवीत किस आयु में और किस उद्देश्य के साथ हुआ था!


पद्म पुराण के कौशल खण्ड में आया है:

कोटि जन्मार्जितं पापं ज्ञानाज्ञान कृतं च यत् ।

यज्ञोपवीत मात्रेण पलायन्ते न संशयः ।।

अब इसकी व्याख्या कुछ ऐसे की जाती है- करोड़ों जन्म के ज्ञान-अज्ञान में किये हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं, इसमें किसी तरह का संशय नहीं है।

जबकि इसका वास्तविक अर्थ है कि यदि कोई वेदाध्ययन करे, ज्ञान अर्जित करे तो  करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। 

अब सवाल उठेगा कि वेदाध्ययन करने से पाप कैसे नष्ट होंगे? अरे भाई पुरानी परंपरा में ज्ञान का मतलब शिक्षा नहीं होता था, उसे अपने जीवन में उतारना, उस ज्ञान को विस्तार देना भी बड़ी जिम्मेदारी होती थी। जो अध्ययन कर रहा है, वह करता ही इसीलिए था कि समाजहित में उस ज्ञान का उपयोग कर सके। इसका प्रतीकशास्त्र ना समझे तो मत समझो, सिर्फ शब्दों में फंसे रहोगे तो मूढ़ ही कहलाओगे।

देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तर्षयस्तपसे ये निषेदुः ।

भीमा जग्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धा दधाति परमे व्योयम् ।।

(ऋग्वेद 10।109।4)


ग्वेद में उल्लेखित इस सूक्ति के मुताबिक, प्राचीन तपस्वी सप्त ऋषि तथा देवगण ऐसा कहते हैं कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की महान् शक्ति है। यह शक्ति अत्यन्त शुद्ध चरित्रता और कठिन कर्तव्यपरायणता प्रदान करने वाली है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से नीच जन भी परमपद् को पहुंच जाते हैं।
अब कोई मूढ़ यह समझ ले कि धागों का एक समूह धारण कर लेने से कोई नीचकर्म वाला परमपद को प्राप्त कर लेगा तो मान लीजिए कि उसकी मति ज्ञान की परिधि से बाहर जा चुकी है। इसका सीधा सा अर्थ है- यज्ञोपवीत ब्राह्मण की महान् शक्ति है। अर्थात ब्राह्मण यानी जो ज्ञान के विस्तार के दायित्वबोध के बंधन में है, उसके लिए यज्ञोपवीत रूपी संकल्प एक महान शक्ति है। और इसी दायित्वबोध को यदि कोई नीचकर्म वाला भी समझ ले तो वह परमपद को प्राप्त कर ही लेगा।


आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के अनुसार, उपनयन संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सानिध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्-पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे।


ये तो हो गए कुछ शास्त्रीय तर्क। अब आइए कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर बात कर लेते हैं। मैं बिना किसी शंका के यह मानता हूं कि भारतीय सनातन व्यवस्था में जितने भी संस्कार हैं, जितनी भी परंपराएं हैं, उनके पीछे नैतिक, सामाजिक, बौद्धिक कारण के साथ वैज्ञानिक कारण भी जरूर रहता है। हमारे ऋषियों ने ये परंपराएं और ये संस्कार बहुत सोच-समझकर बनाए थे। उस विज्ञान को किसी कथा-कहानी से जोड़ दिया गया, ताकि उसके अनुपालन में आसानी रहे। लेकिन इनका अनुसरण करते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके अनुपालन के लिए जो रीति-नीति बनाई गई है, उसे ना छोड़ें, नहीं तो उसका दुष्परिणाम भी हो सकता है।

एक आसान उदाहरण से समझाता हूँ। प्राणायाम करना सेेहत के लिए बहुत लाभदायक होता है, लेकिन यदि भोजन के तुरंत बाद प्राणायाम करेंगे तो पेट दर्द, गैस, और एसिडिटी जैसी समस्याएं होने लगेंगी। यही चीज भारतीय परंपराओं के साथ भी है। वैसे सभी परंपराओं की बात करेंगे तो विषय बहुत लंबा हो जाएगा। सीधे-सीधे यज्ञोपवीत पर बात करते हैं और एक बहुत सामान्य से उदाहरण से समझते हैं।


चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है, पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।

अब इस बात पर तो शोध हुआ है कि मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से लाभ होता है। और शोध तो आज हुआ है, हमारे मुनियों ने तो यह व्यवस्था बहुत पहले बना दी थी लेकिन यहां एक बात जो समझने वाली है कि यह लाभ तभी होता है, जब आप बैठकर लघुशंका करें। अब आप बताइए कि कितने लोग आज के समय में बैठकर लघुशंका करते हैं। ऐसे में क्या इस बात की संभावना नहीं है कि खड़े होकर दाएं कान पर जनेऊ लपेटकर लघुशंका करने से नुकसान नहीं होगा? बिलकुल वैसे ही, जैसे प्राणायाम की किसी क्रिया को ठीक प्रकार से ना करने पर उसका दुष्प्रभाव हो सकता है।

अंत में एक बात और, हर संस्कार के लिए एक समय सुनिश्चित है। गर्भाधान संस्कार जन्म के 10 वर्ष बाद नहीं हो सकता। विवाह संस्कार 70 वर्ष की आयु में नहीं हो सकता। अंतिम संस्कार व्यक्ति के जीवित रहते नहीं हो सकता। फिर उपनयन संस्कार कभी भी, किसी भी आयु में क्यों करना चाहिए? क्या यह उस संस्कार विशेष का अपमान नहीं है? 


Saturday, 4 January 2025

मनुष्यता के हत्यारे संग इतनी सहानुभूति! ‘तैमूर’ प्रशंसकों की मति ‘लंग’ है

जाते साल के साथ देश के जाने माने कवि डॉ. कुमार विश्वास ने एक कवि सम्मेलन के दौरान एक ऐसा सवाल उठाया, जिससे सोशल मीडिया पर भूचाल आ गया। कुमार विश्वास के परिवार को, उनकी बेटियों को, उन्हें, उनकी विचारधारा को, सबको टारगेट किया जाने लगा। मीम्स बनने लगे, गंदी और भद्दी बातें होने लगीं लेकिन इन सबके बीच असल मुद्दा तो कहीं दूर ही रह गया। असल मुद्दा वह था जो डॉ. कुमार विश्वास ने उठाया था।

क्या गलत कहा था कुमार विश्वास ने? यही तो कहा था- मायानगरी में बैठने वाले लोगों को समझना पड़ेगा कि देश क्या चाहता है। अब ये चलेगा नहीं कि लोकप्रियता हमसे लोगे, पैसा हम देंगे, टिकट हम खरीदेंगे, हीरो-हीरोइन हम बनाएंगे। फिर तुम्हारी तीसरी शादी से औलाद होगी तो उसका नाम तुम बाहर से आने वाले किसी आक्रमणकारी पर रखोगे। ये चलेगा नहीं, इतने नाम पड़े हैं यार, कुछ भी रख लेते तुम. रिजवान रख लेते, उस्मान रख लेते, यूनुस रख लेते, हुजूर के नाम पर कोई नाम रख लेते. तुम्हें एक ही नाम मिला। जिस बदतमीज, लंगड़े आदमी ने हिंदुस्तान में आकर हमारी मां-बहनों का रेप किया, आप लोगों को अपने बेटे का नाम रखने के लिए वो लफंगा ही मिला. अब अगर इसे हीरो बनाओगे तो इसे खलनायक तक नहीं बनने देंगे, ये याद रखना। ये नया भारत है।

क्या गलत था इसमें? क्यों इस बयान को ऐसे प्रस्तुत किया गया जैसे डॉ. कुमार विश्वास कट्टर हो गए हैं? क्यों इसे ऐसे पेश किया गया जैसे डॉ. कुमार विश्वास मुस्लिम विरोध की बात कर रहे हैं? क्या कुमार विश्वास ने यह कहा था कि उस बच्चे का नाम ‘राम स्वरूप’ या ‘शिवकुमार’ होना चाहिए था? उन्होंने तो यही कहा था कि भई, हुजूर के नाम पर रख लेते, उस्मान, यूनुस, रिजवान कुछ भी रख लेते। लेकिन उस बात पर बात ही नहीं की गई। 30 सेकेंड का वीडियो काटकर फिर से एक राष्ट्रवादी को मुस्लिम विरोधी दिखाने की कोशिश की गई। मजेदार बात यह है कि अपने खुद के इतिहास और अस्तित्व की हत्या करके बाहर से आई एक अवैज्ञानिक, असामाजिक, अनैतिक वैचारिकी के पोषक अपने बिलों से बाहर निकले और लग गए मानवता के एक हत्यारे के महिमामंडन में।  

एक पत्रकार के तौर पर, एक भारतीय पत्रकार के तौर पर मेरी मुखरतम आवाज इस विषय पर उठनी चाहिए कि एक शख्स जो दिल्ली को लूटने की नीयत से समरकंद से हिंदुकुश की पहाड़ियों के रास्ते देश में दाखिल हुआ, जिसने करीब एक लाख हिंदुओं को कटवा दिया, हमारे देश के नागरिकों को कटवा दिया, इंसानों को कटवा दिया, उस मनुष्यता के हत्यारे शख्स के नाम पर इस देश में छोड़िए, दुनिया में किसी भी चीज का नाम क्यों होना चाहिए?

दिल्ली में दाखिल होते ही जिसने अपने सैनिकों को खुली छूट दे दी कि जाओ और धन से लेकर महिलाओं की इज्जत तक की लूट करो, वह हमारा हीरो बनेगा? मोहम्मद क़ासिम फ़ेरिश्ता अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ द राइज़ ऑफ़ मोहमडन पावर इन इंडिया में' तैमूर के सैनिकों के आतंक के बारे में लिखते हैं, "हिंदुओं ने जब देखा कि उनकी महिलाओं की बेइज़्ज़ती की जा रही है और उनके धन को लूटा जा रहा है तो उन्होंने दरवाज़ा बंद कर अपने ही घरों में आग लगा दी। यही नहीं वो अपनी पत्नियों और बच्चों की हत्या कर तैमूर के सैनिकों पर टूट पड़े।"

आपको शर्म नहीं आती कि किसी ने अपने बच्चे का नाम उस क्रूर आक्रांता के नाम पर रख लिया और आप खामोश बैठे रहे! तुम मुसलमान हो? तैमूर के सैनिकों ने एक मस्जिद पर हमला करके वहां पर शरण लिए एक-एक शख्स को मौत के घाट उतार दिया था। तैमूर के सैनिकों ने काटे हुए सिरों की मीनार खड़ी कर दी और कटे हुए शरीर के टुकडों को चील और कौवों को खाने के लिए छोड़ दिया। यह कत्लेआम लगातार तीन दिनों तक चला था। जिस शख्स ने तुम्हारे इबादतगाह तक की मर्यादा की हत्या कर दी, उसकी पवित्रता की हत्या कर दी, तुम उसका महिमामंडन करने में लगे हो!

सोचकर देखो, एक शख्स ने 15 दिन में इतनी तबाही मचा दी थी कि उससे उबरने में दिल्ली को 100 साल लग गए थे, और आप उस शख्स को लेकर यह कह रहे हैं कि वह दुनिया का सबसे ताकतवर शासक था! 

कुछ लोग हैं, जो कह रहे हैं कि नाम में क्या रखा है? अजब-गजब से तर्क दे रहे हैं कि किसी रमेश नामक शख्स ने किसी रमेश नामक शख्स का बलात्कार कर दिया हो तो क्या लोगों को ‘रमेश’ नाम से नफरत करनी चाहिए। अरे भई! इतनी समझदारी भरी बातें कर रहे हो तो हिंदू होकर रख लो अपने बेटे का नाम रावण, बेटी का नाम शूर्पणखा और मुस्लिम होकर रख लो अपने बेटे का नाम इब्लीस। नहीं रख पाओगे! क्योंकि तुम भी जानते हो कि नाम से बहुत कुछ होता है, तुम्हें बस एक अजेंडा सेट करना है। अजेंडा- जिसमें सनातन को, राष्ट्रवाद को पीछे खड़ा किया जा सके। लेकिन इस अजेंडे के साथ काम करने वाले नेता, अभिनेता, पत्रकार, एक्टिविस्ट याद रखें कि अब यह नहीं चलेगा। दरअसल इसे चलने नहीं दिया जाएगा। बात हिंदू-मुसलमान की ना कभी थी और ना कभी होगी, बात सिर्फ देश की है, बात इतिहास की है, बात सही और गलत के नजरिये की है।

Tuesday, 1 October 2024

पत्रकार हैं? तो बताइए! आपका संस्थान आपके लिए क्या है?

मीडिया कॉर्पोरेट में नौकरी, कुछ लोग इसे मजबूरी की तरह लेते हैं और कुछ लोग अवसर की तरह। आप किसी भी रूप में लें, लेकिन अगर आपको कोई संस्थान नौकरी जैसी महत्वपूर्ण चीज दे रहा है तो वह आपके लिए किसी भी मनःस्थिति में खराब कैसे हो गया?

मीडिया की नौकरी तो अपने साथ 'दायित्वबोध' का भाव स्वतः लेकर आती है। 24 घंटे में कभी भी, कहीं भी जाना पड़ सकता है, खुद की परेशानियों से पहले यह सोचना पड़ता है कि हमें जिस क्षेत्र की जिम्मेदारी संस्थान की ओर से दी गई है, वहां की जनता तक समय पर सूचनाएं पहुंच जाएं, लेकिन आज के कॉर्पोरेट कल्चर में तो यह चीज रह ही नहीं गई है। पत्रकारिता के क्षेत्र में 'वीक ऑफ', 'पब्लिक हॉलि-डे', परिवार का इंश्योरेंस, ऑफिस में नाश्ता/खाना, शाम को पार्टी.... ये सब चाहिए, लेकिन फिर कहेंगे कि 'यहां पत्रकारिता कहां है?'
आज के नए बच्चों के साथ यह समस्या ज्यादा है। उन्हें कॉर्पोरेट वाली सारी सुविधाएं भी चाहिए और पत्रकारिता वाला फील भी। हर त्योहार में घर भी जाना है और खुद को पत्रकार कहने से भी गुरेज नहीं है। उन्हें पत्रकार के तौर पर अपनी पहचान भी चाहिए और काम के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति करनी है। हालांकि यह समस्या सिर्फ नए बच्चों में ही नहीं है, फील्ड के कई 'बुजुर्ग' स्ट्रिंगरों में भी है। डेस्क से कॉल जाए कि समय पर खबर भेजिए, तो कहते हैं कि हमारा घर परिवार भी है, डेस्क से डांट पड़े तो कहते हैं कि तुम्हारे खबरों के पेमेंट से हमारा घर नहीं चलता। यह प्रवृत्ति उन नए बच्चों और 'बुजुर्ग' स्ट्रिंगरों के लिए नुकसानदायक नहीं है, यह समाज के लिए कितनी नुकसानदायक है, इसका अंदाजा आज हम नहीं लगा पा रहे हैं। जिस पेशे पर समाज विश्वास करता है, उस पेशे के प्रति आप अपनी सुविधा के लिए कितना बड़ा विश्वसनीयता का संकट खड़ा कर रहे हैं और इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा, इसका अंदाजा आप लगा भी नहीं पा रहे।
आप स्ट्रिंगर हों या संस्थान के स्थायी कर्मचारी, आप किसी भी संस्थान के साथ काम कर रहे हों, वहां की कार्य परंपराओं के प्रति आपके मन में 100 प्रतिशत सम्मान होना ही चाहिए।
ये सारी बातें मैं तब कह रहा हूं, जब खुद ये करके देख चुका हूं। मैं देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान में काम कर रहा था, कोविड की दूसरी लहर थी, पश्चिम बंगाल में चुनाव थे। पत्नी, भाई, पिता तीनों को कोविड हो रखा था, लेकिन मैं बंगाल में सड़कों पर घूम रहा था क्योंकि संस्थान ने जिम्मेदारी दे रखी थी। संस्थान ने भी कहा कि आना चाहो तो वापस आ जाओ, लेकिन नहीं गया। क्या परिवार के सदस्यों के प्रति मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं थी? बिलकुल थी, लेकिन भावनात्मक रूप से पहले मैंने व्यावहारिक होकर सोचा। मेरे घर पर होने से हकीकत में मैं क्या कर लेता। जो वहां रहकर करता, वो बंगाल में रहकर कर ही रहा था। बाकी तो ईश्वर वैसे भी वहां सब मैनेज कर ही रहा था। उसी संस्थान में जब लगा कि मेरे निजी सिद्धांतों के साथ वहां की कार्यपद्धति का टकराव हो रहा है तो सेकंड का दसवां हिस्सा खर्च किए बिना इस्तीफा दे दिया। मेरी भी EMI थीं, घर के खर्चे थे, बच्चे की फीस थी, कोई अतिरिक्त आय का श्रोत नहीं था, लेकिन दो बातें थीं कि सैद्धांतिक रूप से कुछ ऐसा नहीं करना है जो मन को गलत लगे और दूसरा यह पता था कि ईश्वर कुछ तो ठीक व्यवस्था करा ही देगा। अवसर भी मिला, सैलरी के लिहाज से, सुविधाओं के लिहाज से, हर लिहाज से पहले से बेहतर ही थी। लेकिन क्या वहां नौकरी छोड़ने के बाद मैं समाज में उसकी कमियां गिनाऊं? क्या संस्थान ने मुझे कुछ नहीं दिया? बाद वाले संस्थान ने पहले से बेहतर दिया तो क्या पहले वाले का जीवन में योगदान भूलकर उसे गलत कहूं।
अगर आपको लग रहा है कि किसी संस्थान की कार्यपद्धति से आपकी भावनाएं आहत हो रही हैं, उससे आपके उसूलों पर आंच आ रही है, तो उस संस्थान का साथ तत्काल छोड़िए, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आपके लिए उस संस्थान ने जो कुछ किया, उसे भूलकर उसे गालियां देने लग जाओ।
मैंने अपना पहला संस्थान लंबे समय तक इस जिद में नहीं छोड़ा, क्योंकि मेरे संपादक से मेरे वैचारिक मतभेद थे। लेकिन इस वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने मेरे काम को कभी कमतर नहीं आंका, हमेशा आगे बढ़ने का अवसर दिया। मुझे यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि डिजिटल मीडिया में रिपोर्टर्स की टीम हैंडल करने की जिम्मेदारी मुझे जिस उम्र में मिली, उस उम्र और अनुभव में आज तक शायद ही किसी को मिली हो। और सिर्फ वही नहीं, वहां मेरे साथ काम करने वाले प्रत्येक सहकर्मी का मेरे व्यक्तिगत एवं पेशेवर व्यक्तित्व के उन्नयन में बड़ा योगदान है।
आज क्या हो रहा है? आप नई नौकरी खोजोगे, आप प्रतिभावान हो, नौकरी मिल भी जाएगी, लेकिन नई नौकरी पर जाने से पहले पुरानी नौकरी की खामियां बताओगे। अरे भई! इतनी ही खामियां थीं तो रुके क्यों? क्या अपने अंतःकरण की हत्या करके नौकरी कर रहे थे? और अगर उस नौकरी से मिलने वाला धन इतना महत्वपूर्ण था कि अपनी आत्मा, अपने सिद्धांतों की हत्या करनी पड़े, फिर तो आपको कोई नैतिक अधिकार ही नहीं है कि उस धन को देने वाले संस्थान के विषय में कुछ कह सको।
याद रखना! आप खुद को पत्रकार मानो, मीडिया मजदूर मानो, कॉर्पोरेट कर्मचारी मानो, या ईश्वर करे कि आप मीडिया मुगल हो जाओ, लेकिन अगर महीने में मात्र एक रोटी की भी व्यवस्था करने योग्य बनाने वाले अपने संस्थान के विषय में, मन के किसी छोटे से कोने में भी अमंगलकारी बात आ रही है तो मान लेना कि तुम्हारे संस्कारों में दोष है।

Wednesday, 28 August 2024

पहले पूतिन, फिर ज़ेलेंस्की से भी गले मिले PM मोदी, दो-गले से बात क्यों कर रहे वामपंथी?

पहले पूतिन, फिर ज़ेलेंस्की से भी गले मिले PM मोदी, दो-गले से बात क्यों कर रहे वामपंथी?

बहुत लंबे समय से किसी विषय पर चर्चा नहीं कर पाया। कई परिचितों के मैसेज आए कि कुछ लिख नहीं रहे, दरअसल एक, कुछ तो समय का अभाव था और दूसरा कोई ऐसा विषय नहीं मिल रहा था कि कुछ विमर्श किया जाए। हालांकि आज जिस विषय पर चर्चा करने वाला हूं, वह विषय तो सामान्य है, लेकिन कुछ बौद्धिकतावादी लोगों ने विषय को विशिष्ट बना दिया है। बीते दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट देखी। यह पोस्ट थी, मेरे प्रथम पूर्णकालिक संपादक रहे नीरेन्द्र नागर जी की। उन्होंने लिखा था-


मोदी पूतिन के बाद अब ज़ेलेंस्की से भी गले मिल लिए। यानी बता दिया कि भारत आक्रांता के साथ भी हैं और आक्रांत के साथ भी। थप्पड़ मारने वाले के साथ भी और थप्पड़ खाने वाले के साथ भी।

अंग्रेज़ी में इसे कहते हैं - Running with the hare and hunting with the hounds. हिंदी में शालीन भाषा में कहें तो गंगा गए गंगाराम, जमुना गए जमुनादास। अशालीन भाषा में एक शब्द है जिसका मैं प्रयोग नहीं करना चाहता। आप ख़ुद ही समझ जाएँ।

वैसे मोदी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि भाषणों में नारी सुरक्षा की दुहाई देना और ज़मीन पर आततायियों का साथ देना चाहे वह राम रहीम हो या गुजरात के संस्कारी।

मेरे पिता कहा करते थे कि कोई क्या 'कहता' है, यह उसकी असल पहचान नहीं होती। असल पहचान इससे होती है कि वह क्या 'करता' है।

और मोदी क्या 'करते' हैं, यह हम सब जानते हैं। भक्त भी।


एक तरफ वसुधैव कुटुंबकम् का जाप, दूसरी तरफ़ मेरे देश, मेरे लोगों का हित। अजीब दोगलापन है। इसी को मैं स्वार्थप्रेरित कायरता कहता हूँ।

राम-रावण युद्ध में भी दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क थे। तो क्यों राम का समर्थन करते हो? महाभारत युद्ध में भी कौरवों का अपना पक्ष था। फिर क्यों पांडवों का पक्ष लेते हो?


इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं खुद को रोक नहीं पाया। दरअसल बात सिर्फ नीरेन्द्र नागर जी की नहीं है, कई अन्य लोग भी, विशेषकर वामपंथी, सोशल मीडिया पर ऐसी ही बातें कर रहे हैं, इसलिए विषय की गहराई में जाना बहुत जरूरी है। नरेन्द्र मोदी का विरोध अपनी जगह है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों का वैचारिक विरोध होता रहना चाहिए, लेकिन किसी भी व्यवस्था में यदि आप मुल्क को, मनुष्यता को किसी भी अन्य चीज से ऊपर रखते हैं तो मेरी इसपर आपत्ति है। रूस और यूक्रेन का क्या मामला है, कौन सही है, कौन गलत है, इस प्रश्न पर दोनों पक्षों की अपनी राय है औऱ यह दोनों देशों के बीच का मामला है, इसमें किसी तीसरे का हस्तक्षेप तब तक नहीं होना चाहिए, जबतक वह मामला आपको या आपके मुल्क के एक भी व्यक्ति को प्रभावित ना कर रहा हो। 


किसी एक पक्ष को आक्रांता कहना और किसी दूसरे पक्ष को आक्रांत कहना, निश्चित तौर पर दो देशों के बीच की निजता में हस्तक्षेप है। एक तीसरे मुल्क के नागरिक के तौर पर मेरे लिए तो गर्व का विषय यही है कि उन दो देशों के युद्ध के बीच जब भारत के बेटे-बेटियों को यूक्रेन से बाहर आना था तो मेरे देश के बच्चे जब तिरंगा लेकर निकले तो दोनों देशों की सेनाओं ने अपने हथियार नीचे किए और उन्हें रास्ता दिया। और सिर्फ इतना ही नहीं, मेरे मुल्क के बच्चों के साथ उस मुल्क के बच्चे भी तिरंगे की छत्रछाया में बाहर आ गए, जो हमारा सामाजिक दुश्मन किंतु पड़ोसी था। मेरे लिए तो यही गर्व का विषय है कि मेरे मुल्क की मनुष्यता ने मेरे सामाजिक दुश्मन देश के बच्चों को भी जिंदगी दी।


मैं विदेश नीति का पंडित नहीं हूं, लेकिन यदि दो दुश्मन देशों से हमारे अपने संबंध अच्छे हैं और हम उसके निजी मामलों में ‘मनुष्यता’ के नाम पर किसी एक का समर्थन ना करते हुए हिंसक कार्यपद्धति का सहारा न लेते हुए पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कह सकते हैं कि रास्ता शांति से ही निकलेगा, बातचीत से ही निकलेगा और दोनों में एक भी देश हमारी बात पर प्रतिउत्तर नहीं करता है तो हमें इसे अपनी विदेश नीति की विजय क्यों नहीं मानना चाहिए?

बाकी राजनीति हो या असल जीवन, कोई क्या 'कहता' है, यह उसकी असल पहचान नहीं होती। असल पहचान इससे होती है कि वह क्या 'करता' है। शून्यता के गर्त में पहुंच चुकी वैचारिकी को जीवित रखने के लिए ‘कुछ भी’ लिख देना और कह देना तो बहुत आसान होता है, लेकिन करना बहुत मुश्किल। किसी वाममार्गी से मिलिए, उसके लिए बहुत आसान होता है यह कहना कि ब्राह्मणों ने दलितों का खूब शोषण किया, उनकी जमीनें छीन लीं, मेरे दादा-परदादा ने भी ली थीं, लेकिन इस प्रश्न पर मौन हो जाते हैं कि जब आपको पता है कि आपके दादा-परदादा ने किसी दलित-शोषित की जमीन पर कब्जा किया था, छल से उसकी जमीन ले ली थी, तो आपको जानकारी मिलने के बाद आपने वापस क्यों नहीं की? तब आप कह देते हैं कि मुझे क्या पता कि 70-80 साल पहले वो जमीन किसकी थी। अरे नहीं पता है तो उस जमीन को किसी दलित-शोषित को दान कर दीजिए, लेकिन वो नहीं कर पाएंगे।
इस पूरी वाममार्गी वैचारिकी के लिए अशालीन भाषा में एक शब्द है जिसका मैं प्रयोग नहीं करना चाहता। पाठक ख़ुद ही समझ जाएँगे।

यह विषय कूटनीति का है, उसमें संस्कार और संस्कृति को लाने की आवश्यकता ही क्या है। लेकिन मेरे लिए प्रसन्नता का विषय यह है कि कम से कम अपना विषय तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए नीरेन्द्र नागर जी ने उन पात्रों का उदाहरण दिया, जो उनकी वैचारिकी के ऐतिहासिक कोश में अस्तित्वहीन थे। देने को तो वह शक्तिमान और तमराज किलविष का उदाहरण भी दे सकते थे, लेकिन नहीं, उन्होंने राम-रावण और पांडव-कौरवों का जिक्र किया। नीरेन्द्र नागर जी के प्रश्नों का उत्तर देने में मुझे बहुत खुशी होगी, क्योंकि श्रीराम मेरा प्रिय विषय हैं, लेकिन उससे पहले एक अन्य विषय को समझना भी बहुत जरूरी है। मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी हूं। मनोविज्ञान की दृष्टि से बताता हूं कि नीरेन्द्र नागर जी ने शक्तिमान-तमराज की जगह श्रीराम-श्रीकृष्ण का उदाहरण क्यों दिया। दरअसल 2014 की भाजपा की 282 सीटें, 2019 की 303 सीटें जीतना और फिर 2024 में 240 सीटों पर आना उनकी पराजय नहीं है, उनकी विजय तो इसी बात में है कि उन्होंने वामपंथ की Anti Theist वैचारिकी को 10-15 सालों में Anti Modi बना दिया है। यह बात आपको सामान्य लग सकती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक नजरिये से देखेंगे तो पता लगेगा कि जिस वैचारिकी की स्वीकार्यता लंबे समय तक पूरी दुनिया में रही, उसे BJP ने खत्म नहीं किया, बल्कि उसे बदल दिया, और यह बहुत बड़ी बात है।


अब आते हैं नीरेन्द्र नागर जी के प्रश्न पर। हम कहते हैं वसुधैव कुटुंबकम्। इसे स्वीकार भी करते हैं लेकिन अगर समय/काल/परिस्थिति के अनुसार कोई अपने व्यवहार में बदलाव को लेकर उचित निर्णय नहीं लेगा तो वह समाप्त हो जाएगा। उदाहरण से समझिए- उपनिवेशवाद के विरोध के नाम पर खड़ी हुई वामपंथी वैचारिकी इसीलिए समाप्त हो गई क्योंकि उन्होंने समयानुरूप सामाजिक परिवेश के अनुसार आवश्यकता को स्वीकार नहीं किया। और जिन वामपंथियों ने स्वीकार किया, उन्होंने अलग-अलग संस्थानों में नौकरी की, वहां अपनी वैचारिकी को स्थापित करने का प्रयास किया, अब इसे आप ‘दोगलापन’ कहिए या स्वार्थप्रेरित वैचारिक आत्महत्या, आपकी समझ है। मेरे हिसाब से तो यह उचित था। कोई वामपंथी अगर किसी कॉर्पोरेट मीडिया संस्थान में संपादक बन जाए, उसका कार्यालय जंगलों को काटकर बसाई गई किसी फिल्म सिटी में हो और उस संस्थान में उपनिवेशवाद के समर्थन वाले विज्ञापन चलते रहें, और उसी से उसका वेतन आए तो इसे आपके तर्क के हिसाब से तो गलत कहा जाएगा। फिर तो आप भी समझ सकते हैं कि कौन कितना गलत है।


वसुधैव कुटुंबकम् की वैचारिकी हमारे अपने मन और शरीर से शुरू होती है, फिर वह ब्रह्मांड तक जाती है। पहले यह वैचारिकी हमें अपने शरीर रूपी कुटुंब में स्थापित करनी होगी कि शरीर का प्रत्येक अंग बराबर है, प्रत्येक का अपना विशेष महत्व है। फिर इसे अपने परिवार, मोहल्ले, समाज और देश में स्थापित करना होगा। अभी हम अपने शरीर और मन में तो स्थापित कर नहीं पाए, बात करेंगे दुनिया की। गालियां इस बात पर देते हैं कि वर्ण व्यवस्था के एक वर्ग को पैरों से निकला हुआ क्यों दिखाया, अरे जब सारे अंग बराबर हैं तो पैर कौन सी खराब चीज हो गए?


राम-रावण युद्ध हो या कौरव-पांडव युद्ध, समय और परिस्थिति के हिसाब से हमारे इतिहास में फैसले लिए गए हैं। त्रेतायुग में बड़ा भाई दुनिया के सबसे बड़े सिंहासन को ठोकर मारकर एक वल्कल पहनकर 14 वर्षों के लिए वन को चला जाता है, तो उसका सौतेला भाई बड़े भाई की खड़ाऊं को सिंहासन पर रखकर राज्य का संचालन करता है। राम और रावण का इतिहास स्वीकार कर रहे हैं और उसका उदाहरण दे रहे हैं तो इसे भी स्वीकार करिए कि वह इतिहास था और भविष्य में इतिहास का मूल्यांकन होता है। उस काल में दोनों पक्षों के अपने तर्क थे, लोगों ने अपनी समझ के अनुसार एक पक्ष चुना, एक पक्ष हारा और दूसरा जीता। हजारों सालों के बाद जब इतिहास का मूल्यांकन हुआ तो श्रीराम और पांडवों का पक्ष न्यायोचित लगा तो हम उस पक्ष के समर्थन में रहते हैं। जिसे रावण या कौरव का पक्ष न्यायोचित लगता है, वह उसके समर्थन में रहते हैं। इसमें कौन सी गलत बात है?

त्रेतायुग में परिस्थितियां अलग थीं, इसलिए वहां कूटनीति भी कम थी। द्वापर में परिस्थितियां बदलीं, युद्ध की नीतियां बदलीं तो कूटनीति भी बदल गई। आज कलियुग में परिस्थितियां और अलग हैं तो कूटनीति भी अलग स्तर की होनी चाहिए, जो कि है भी।

पड़ोसी मुल्क पूर्वी पाकिस्तान में जब उसके अपने ही लोग अत्याचार कर रहे थे, और वहां से जब शरणार्थी बंगाल में आने लगे और उससे हमारे मुल्क का हित प्रभावित होने लगा तो भारत की शेेरनी इंदिरा गांधी ने उनकी औकात दिखा दी थी, आज चाहे यूक्रेन हो या इजरायल, अगर कोई मदद मांगे और दूसरा प्रेम से बात समझने को तैयार ना हो तो निश्चित ही सत्ताधीशों को वही करना चाहिए जो मैडम इंदिरा ने किया था। लेकिन, उस परिस्थिति में भी तो वामपंथी यही कहेंगे कि युद्ध गलत है? है ना?


Tuesday, 16 April 2024

प्रणय संबंध के प्रथम चरण की कविता

अंश लेकर अश्विनी का, मर्म साधा हरिप्रिया का

चंद्र के सौभाग्य का, अब तुम्हीं बस प्रण प्रथम हो।


रीतियों संग मीत बनकर, मन सदा तुम ही बसोगी

धीति हो तुम इस हृदय की, जो अहिर्निश ही रहेगी।


सौगंध मुझको है तिलक की, तांबूल जैसे मैं रहूंगा

खीज भी होगी कभी तो, ओष्ठ स्मित फिर भी करूंगा।


आरंभ है, अनुभूति भी नव, मनभाव दिखलाऊं तो कैसे

कुछ दिनों में आ रही तुम, प्रण अभी बतलाऊं तो ऐसे 

पूजनों के प्रथम तल पर, स्वास्तिवाचन होता है जैसे

अनुदिन सुबह उठकर करूंगा, निक्षण अधर पर मैं भी वैसे


नव-नवेले संबंध का, आगाज प्रतिष्ठित हो रहा है

योग के आनंद का, वैराज अधिष्ठित हो रहा है।

कलानिधि की नीति बन तुम, हर निशा द्युति से भरो

हर क्षया रतिदान कर, फिर वंश वर्धित भी करो।


Sunday, 24 March 2024

Holi 2024... जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......

दौड़-दौड़ कर रट लगायें, सर जी माँगे बेल 

माथा ठोंकें, छाती पीटें, हो गया देखो खेल 

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


दोस्त गए थे पहले और अब जा पहुंचे सरदार

धरी रह गई सारी चालें. हो गया बंटाधार


जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


सिंह सिंह तू भगत सिंह है. खूब चढ़ाया झाड़

असल खेल का होगा खुलासा, पहुंचेंगे तिहाड़

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


अक्ल बंद थी, फंसे तिहाड़ और नहीं मिल रहा चैन

खूब जमेगा अब रंग जी, आ रहा मफलर मैन

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


जैसा करोगे, वैसा भरोगे, यही रीत का खेल

हाय लगी है कविराज की, जाओगे सीधे जेल

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


सबको था भई खूब भरोसा, नहीं कोई था डाउट

बाबा बैठे काजू खाएं, पेपर होते आउट

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


जब से बनी है फिर से देखो, बाबा की सरकार

गुंडे भागे UP छोड़ के, हो रही जय जयकार

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......


होली का है रंग निराला, मिले रंग से रंग।

बढ़ जातीं फिर खुशियां और भी, वो जो होती संग॥ 

जोगीरा सारारा रा रा...... जोगीरा सारारा रा रा......

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...