Monday 18 January 2016

शून्य की खोज से पहले रावण के 10 सिर कैसे गिने गए?

कुछ दिनों से वॉट्सऐप के अलग-अलग समूहों में एक मेसेज काफी चल रहा है।
मेसेज: ‘अगर शून्य का अविष्कार 5वीं सदी में आर्यभट्ट जी ने किया फिर हजारों वर्ष पूर्व रावण के 10 सिर बिना शून्य के कैसे गिने गए। बिना शून्य के कैसे पता लगा कि कौरव 100 थे। कृपा कर यदि किसी को उत्तर पता हो तो बताएं।’

काफी तर्कसंगत प्रश्न है कि आखिर बिना शून्य के 10, 100 या अन्य संख्याओं की गणना कैसे संभव है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें इतिहास का अध्ययन करना होगा लेकिन इतिहास के सागर में डुबकी लगाने से पहले हमें अविष्कार (Invention) और खोज (discovery) के अंतर को समझना होगा। किसी नई विधि, रचना या प्रक्रिया के माध्यम से कुछ नया बनाना अविष्कार कहलाता है तथा खोज का अर्थ होता है किसी ऐसी चीज को समाज के सामने लाना जिसके विषय में समाज को जानकारी ना हो परन्तु वह हो। एक उदाहरण के माध्यम से समझिए कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की खोज की अर्थात गुरुत्वाकर्षण न्यूटन के पहले भी था लेकिन समाज उसके विषय में जानता नहीं था। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को न्यूटन की खोज कहा जाएगा न कि अविष्कार।

कथित तौर पर शून्य की खोज करने वाले आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में तथा देहांत 550 ईस्वी में हुआ और रामायण तथा महाभारत का काल इससे बहुत पुराना है। वर्तमान में हिंदी भाषा का लेखन कार्य देवनागरी लिपि में होता है। इससे पहले की लिपि ब्राह्मी लिपि मानी जाती है। लगभग ई. 350 के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएं हो गईं एक उत्तरी शैली तथा दूसरी दक्षिणी शैली। देवनागरी को नागरी लिपि के नाम से भी जाना जाता था। यह लिपि ब्राह्मी की उत्तरी शैली का विकसित रूप है।
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 इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि शून्य की खोज देवनागरी लिपि के प्रचलन के बाद हुई। इससे पहले शून्य की संकल्पना नहीं थी। ब्राह्मी लिपि में गणना की व्यवस्था थी लेकिन उस गणना में शून्य नहीं था। आप चित्र के माध्यम से समझ सकते हैं कि शून्य के बिना भी 10,20 या 100 जैसी संख्याओं की गणना हो सकती थी। संभवतः अब आपको पता लग गया होगा कि रावण के 10 सिर और कौरवों की संख्या गिनना उस काल में कैसे संभव हुआ। आर्यभट्ट ने इस विश्व को एक नई अक्षरांक पद्धति से परिचित कराया। शून्य की संकल्पना की कहानी भी काफी रोचक है।
शून्य, एक ऐसी संख्या जो स्वयं में कुछ नहीं है अर्थात खाली है लेकिन फिर भी पूर्ण है। एक बार संकल्पना का आधार समझिए। कल एक पुस्तक पढ़ रहा था जिसमें अध्यात्म और शून्य का संबन्ध बताया गया था। उसके अनुसार शून्य को ईश्वर बताया गया था। उस पुस्तक के अनुसार भारतीय संस्कृति में आत्मा को परमात्मा(ब्रह्म) का अंश माना गया है, साथ ही भारतीय संस्कृति में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भी कहा गया है और उस ब्रह्म को पूर्ण माना गया है।
शून्य की संकल्पना का आधार कुछ ऐसा ही बताया गया है। शून्य की तरह ईश्वर को भी पूर्ण माना गया है। 0(परमात्मा)-0(आत्मा)= 0(परमात्मा) इसको हम इस रूप में भी कह सकते हैं कि आत्मा=परमात्मा। इतनी सुंदर व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टि से शायद की किसी संस्कृति में होना संभव हो। शून्य अर्थात जो कुछ भी नहीं है, निराकार है वह सर्वव्यापक है। सर्वव्यापकता निराकार ब्रह्म की सबसे बड़ी विशेषता है। शून्य या निराकार इतना छोटा है कि छोटे से छोटे स्थान पर भी व्यापक है, और इतना विशाल है कि आकाश की असीमित दुनिया में भी सीमित नहीं होता। जहां तक भी दृष्टि जाती है, यही दिखाई देता है।
खैर, अब आपको यह तो पता लग ही गया होगा कि महाभारत और रामायण काल में रावण के 10 सिरों और कौरवों के 100 होने की गणना कैसे की गई होगी।

Friday 8 January 2016

आप का 'राग'- आशुतोष के साथ

आमिर खान के साथ भारत सरकार के 'अतुल्य भारत' अभियान का कॉन्ट्रैक्ट समाप्त होने के बाद जब हवा यह उड़ी कि अमिताभ बच्चन को इस अभियान का ब्रैंड ऐंबैसडर बनाया जा सकता है तो आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने ट्वीट कर अमिताभ बच्चन को राय दे डाली कि उन्हें भारत सरकार के इस अभियान से नहीं जुड़ना चाहिए क्योंकि आमिर को हटाना भारत सरकार का बदले की भावना से प्रेरित कदम है। इस ट्वीट से ऐसा लगा जैसे एक दिया(दीपक) सूर्य को रोशनी देने की बात कर रहा हो। उन्होंने राय दी, अच्छी बात है लेकिन क्या एक राजनीतिक पार्टी के नेता को इस तरह की बातें करने से पहले उसके प्रभाव या दुष्प्रभाव के विषय में नहीं सोचना चाहिए।

संभव है कि मंत्रालय का यह कदम आमिर के प्रति किसी तथाकथित बदले की भावना से प्रेरित हो और उसे बदल पाना किसी विपक्षी पार्टी के बस की बात भी नहीं है। इन सबमें न पड़ते हुए मैं 'आप' से मात्र इतना पूछना चाहता हूं कि मान लीजिए यदि अमिताभ बच्चन ने आपकी बात मानते हुए 'अतुल्य भारत' से ना जुड़ने का फैसला कर लिया तो क्या भारत सरकार के इस अभियान को कोई ब्रैंड ऐंबैसडर नहीं मिलेगा? निश्चित रूप से इस अभियान से जुड़ने के लिए बहुत से लोग तैयार खड़े हैं और मिल भी जाएंगे लेकिन सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ के जुड़ने से इस अभियान को जितना लाभ होगा उतना शायद किसी अन्य बॉलीवुड अभिनेता के जुड़ने से नहीं होगा। आमिर और अमिताभ के अलावा भी शाहरुख खान और सलमान खान जैसे कई विकल्प पर्यटन मंत्रालय से अनुबंधित एजेंसी के सामने खुले हैं लेकिन अमिताभ इस सूची में सबसे ऊपर हैं इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता।

आम आदमी पार्टी की ओर से इस तरह की राय दिए जाने का कारण मुझे समझ नहीं आया। हो सकता है कि आशुतोष की इस राय को उनकी पार्टी व्यक्तिगत कहने लगे लेकिन क्या आशुतोष जैसा व्यक्ति जो एक प्रतिष्ठित चैनल में पत्रकार रहा है, उससे इस प्रकार की अपेक्षा की जाती है। मैं व्यक्तिगत रूप से आम आदमी पार्टी का समर्थक नहीं हूं लेकिन उनके कुछ काम, उनकी कार्यपद्धति और स्पष्टवादिता बहुत पसंद है। देश में यह एकमात्र ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसके सभी बड़े नेता पढ़े-लिखे हैं और ऐसी राजनीतिक पार्टी से सामान्य व्यक्ति की कुछ अपेक्षाएं तो रहती हैं। आपकी लाख लड़ाइयां होंगी नरेन्द्र मोदी से, आपको लगता होगा कि पर्यटन मंत्रालय का निर्णय 'बदले की भावना' के चलते लिया गया है लेकिन क्या आपकी राजनीतिक रंजिशें राष्ट्र से भी बड़ी हो गईं, कल को आप पूरी दुनिया के सामने कहना शुरू कर दो कि भारत सरकार ने आमिर खान को हटाकर बदला लिया है इसलिए किसी को भारत घूमने नहीं आना चाहिए। इन सबसे हानि किसकी होगी, क्या आशुतोष ने इस बारे में सोचा?



आशुतोष जी, आप एक केन्द्र शासित प्रदेश की सरकार चलाने वाली पार्टी के नेता हैं। कल जब इस देश के पास बजट नहीं होगा तो आप कहेंगे कि केन्द्र सरकार आपकी मदद नहीं कर रही। महोदय, इस देश को 'आप' से बहुत उम्मीदें हैं, लोग इस बार एक नए तरह की राजनीति देखना चाहते हैं। पुरानी घिसी-पिटी बयानबाजी के आधार पर कहीं ऐसा ना हो कि आपको आम आदमी पार्टी का दिग्विजय सिंह घोषित कर दिया जाए।




अब बुद्ध को युद्ध करना ही होगा...



कुछ ही दिन पहले जब आतंक ने मां भारती के धवल दामन पर काला धब्बा लगाने की कोशिश की तो इस देश के बेटों ने पठानकोट में अभूतपूर्व शौर्य गढ़ते हुए यह बता दिया कि इस देश के बेटे अपनी मां की छाती पर चढ़कर अशांति फैलाने का कुत्सित प्रयास करने वालों का सामना करने के लिए हर पल तैयार खड़े हैं। इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद आज अवकाश होने के कारण मैंने सोचा कि एक बार उस समय के बारे में भी पढ़ा जाए जब हम अंग्रेजी सल्तनत के अधीन थे। मेरे मन में दुःख के बीच यह उत्सुकता भी थी कि उस दौर के सैनिकों (क्रांतिकारियों) के मन में परिवार और मां भारती के प्रति कैसे विचार रहे होंगे। उस समय के विषय में अध्ययन करने के दौरान दो प्रसंग ऐसे सामने आए जिनको पढ़कर इस ब्लॉग को लिखने का विचार आया। उन दोनों प्रसंगों को आपसे साझा कर रहा हूं:

प्रथम प्रसंग: 85 साल का एक बूढ़ा शेर, बहादुर शाह ज़फर अंग्रेजों की जेल (रंगून) में कैद था तो अंग्रेजों ने दो पंक्तियां लिखवाकर भेजीं कि,
दमदमे में दम नहीं है, खैर मांगो जान की।
अब ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।।

तो बहादुर शाह जफर ने वहीं जेल की दीवारों पर दो पंक्तियां जवाब के तौर पर लिखीं:
गाज़ियों में में बू रहेगी, जब तलक ईमान की।
तख्त-ए- लंदन तक चलेगी, तेग हिंदुस्थान की।।


दूसरा प्रसंगः जब पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई तो जेल में अशफ़ाक की आखों से आंसू की दो बूंदें टपक गईं। कहीं से यह जानकारी बिस्मिल को मिली तो बिस्मिल ने पत्र के माध्यम से अशफ़ाक से पूछा, 'अशफ़ाक, फांसी से डर गए क्या?' तो अशफ़ाक ने बिस्मिल को उत्तर देते हुए लिखा, 'बिस्मिल, रोता इसलिए नहीं कि मैं मरने वाला हूं, मैं इस लिए रोता हूं कि तुमने सनातन धर्म में जन्म लिया है, तुम्हारे धर्म की मान्यता है कि तुम्हारे यहां पुनर्जन्म होता है, तुम मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए कई बार जन्म लेकर संघर्ष कर सकते हो। लेकिन मेरे मजहब की मान्यता है कि पुनर्जन्म नहीं होता होता इसलिए मैं मां भारती के लिए अपना एक जीवन ही कुर्बान कर पाऊंगा।

इन दो प्रसंगों के माध्यम से मैं वह समय याद दिलाना चाहता हूं जब इस देश, इस मातृभूमि के लिए स्वयं को न्योछावर कर देने वाले मात्र राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते थे। उन क्रांतिकारियों को पता था कि देश की सत्ता का संचालन जिनके हाथों में है, उन फिरंगियों लिए उनकी भावनाओं का कोई महत्व नहीं है। लेकिन इस दौर में जब हम पूरी दुनिया के सामने एक स्वस्थ लोकतंत्र रखने का दावा करते हैं, ऐसे में क्या वास्तव में देश का सैनिक इस बात को स्वीकार कर सकता है कि यदि वह अपनी जान, इस राष्ट्र की रक्षा के लिए कुर्बान करेगा तो उसके बाद इस देश की सत्ता के सिंहासन पर बैठे वे लोग, जिनको वहां बैठाने में उस सैनिक का भी योगदान है, क्या वे आतंक को रोकने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ आतंकियों से निपटने की जिम्मेदारी सेना को दे पाएंगे?

हमारे देश के एक बड़े नेता और केन्द्र की सरकार के मंत्री अरुण जेटली जी ने प्रेस वार्ता के दौरान दो दिन पहले कहा कि पठानकोट ऑपरेशन में अधिक समय इस लिए लग गया क्यों कि हम आतंकियों को जिंदा पकड़ना चाहते थे। अरे जेटली जी, एक कसाब पर इस देश की तत्कालीन सरकार ने 3.5 लाख प्रतिदिन के हिसाब से 70 करोड़ रुपए से अधिक खर्च कर दिए। उस दौरान तो आप बड़े गर्व से कहते थे कि देश पर हमला करने वालों को तुरंत मार देना चाहिए। शायद अपने इसी बदले हुए रवैये को आप सत्ता की जिम्मेदारी कहें लेकिन मैं इसे इच्छा शक्ति की नपुंसकता मानता हूं। इस देश के सैनिक चाहते तो उन आतंकियों को जिंदा भी पकड़ सकते थे, लेकिन उन्हें पता था कि अगर जिंदा पकड़ लिया तो आप उन आतंकियों के लिए एक विशिष्ट बैरक के साथ तैयार खड़े हैं। साहब, उन्होंने नेताओं की तरह दलाली के पैसे से खरीदी गई खद्दर नहीं पहनी हैं, वे मां भारती की रक्षा के लिए तैयार वर्दी पहनते हैं, उन्हें यह पता होता है कि किस पर गोली चलानी है और किसे जीवित छोड़ना है। लाल किले से आतंक के खिलाफ आग की भाषा बोलना बहुत आसान होता है लेकिन उस आतंक के खिलाफ आग उगलने का काम इस देश के सैनिकों की बन्दूकें करती हैं।

6 आतंकियों को मारने में हमने इस देश के 7 जांबाज जवानों को खो दिया। कल्पना करिए उन परिवारों के बारे में, जिनके परिवार का सदस्य कुछ ही पलों में उनसे दूर चला गया। निरंजन की उस दो साल की बेटी विस्मय के मन की पीड़ा को महसूस करिए। उस गरुड़ कमांडो गुरुसेवक सिंह की पत्नी के विषय में सोचिए जिसने मात्र डेढ़ महीने पहले 18 नवंबर को एक नए जीवन की शुरुआत की थी। शहीद हवलदार कुलवंत सिंह के उस बेटे के बारे में सोचिए जो नए साल पर अपने पिता और नई बाइक की प्रतीक्षा कर रहा था। धन्य है यह देश जहां अपने पति को राष्ट्ररक्षा में न्यौछावर कर देने के 24 घंटे भी नहीं पूरे हुए और जब पत्रकारों ने उस वीरांगना से बात की तो भीगी आंखों के साथ उसने जवाब दिया, 'अभी तो मेरा बेटा भी है, वह अपने पिता के सपनों को पूरा करेगा। मैं उसे भी सेना में भेजूंगी।'

आतंकी हमले क्यों होते हैं उसका एक मात्र कारण है कि हमने सेना के पैरों में बेड़ियां डाल कर रखी हैं। जब मैंने अपने पिछले ब्लॉग में लिखा कि अब भारत को इन आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए तो मेरे कुछ मित्रों ने कहा कि आप क्यों चाहते हैं कि भारत, पाकिस्तान पर हमला करे? क्या युद्ध एक मात्र विकल्प है? मैं, उन्हें और अधिक स्पष्टता के साथ बता देना चाहता हूं कि मैं पाकिस्तान पर हमला नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि उन आतंकियों पर हमला हो जो पाकिस्तान में बैठे हैं। पाकिस्तान हमारा दुश्मन नहीं है। वहां भी हमारे जैसे ही लोग रहते हैं। उनके भी पूर्वजों ने कभी इस देश की आजादी के लिए संघर्ष किया था। वे भी नहीं चाहते कि स्कूल में पढ़ने गए उनके बच्चे वापस ना आएं। मुझे उम्मीद है कि पाकिस्तान हमारा साथ देगा और मान लीजिए हमला करने के दौरान पाकिस्तान उन आतंकियों के साथ खड़ा हो जाए तो हम इतने सक्षम हैं कि एक और युद्ध लड़ सके। अगर हमने साफ तौर पर विश्व को यह संदेश देकर हमला किया कि हमारा हमला आतंकियों पर है तो विश्वास मानिए विश्व का कोई देश पाकिस्तान के साथ नहीं खड़ा होगा।

मेरी पीड़ा क्यों है उसका एक कारण है। अभिमन्यु, चक्रव्यूह का सप्तम द्वार नहीं भेद पाया तो इसमें अभिमन्यु का कोई दोष नहीं था। कभी पिता अर्जुन और मामा श्रीकृष्ण को यह फुर्सत नहीं मिली कि वे अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदने की कला सिखा दें। अभिमन्यु को मां सुभ्रदा के गर्भ में मात्र एक बार चक्रव्यूह को भेदने की कहानी सुनने का अवसर मिला लेकिन सुभ्रदा को नींद आ गई। अभिमन्यु ने तो अपनी जिम्मेदारी निभाई और समय आने पर यह प्रमाणित किया कि उनको मां के गर्भ में जितना सीखने का अवसर मिला उतना उसने पूरी निष्ठा से सीखा। मोदी जी से पहले मैंने दो सरकारें और देखीं, एक अटल जी की सरकार और एक मनमोहन जी की सरकार दोनों ने इस देश के युवाओं को संतुष्टि नहीं दी। अब अगर मोदी सरकार भी उनकी तरह ही मात्र शोक-संवेदना व्यक्त करके चुपचाप बैठी रहेगी तो मेरे बाद की पीढ़ी को यह विश्वास दिलाना काफी मुश्किल होगा कि आतंक को रोकने के लिए अगर सेना में गए तो देश की राजनीति आपके साथ खड़ी होगी। फिर शायद कोई बेटा सेना में नहीं जाएगा, फिर शायद कोई मां अपने बेटे को सेना में नहीं भेजेगी और फिर शायद कोई बेटी अपने पिता की शहादत पर अर्थी को कंधा देती नहीं दिखेगी। यह देश युद्ध और बुद्ध, दोनों ही संस्कृतियों को जीता है, हमें यह बताना होगा कि हम गांधी और बुद्ध के अनुयायी भगत सिंह और वीर शिवाजी की भाषा भी जानते हैं। हमें यह समझना होगा कि हमारा शत्रु कैसा है? हमारी कार्यशैली, हमारे शत्रु की कार्यशैली पर निर्भर होनी चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि अगर हम एक बार विश्व स्तर पर यह संदेश दे दें कि हम आतंक का मुंहतोड़ जवाब दे देंगे तो शायद इस देश में आतंकवादी हमलों की तादात कम हो जाए।

Sunday 3 January 2016

मोदी जी! देश जीत गया लेकिन आप हार गए

नरेन्द्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से पहले इंडिया टीवी के शो 'आप की अदालत' का एक एपिसोड आज अनायास ही याद आ गया। उस शो को मैंने अभी ऑफिस से वापस आकर फिर से देखा। उस शो का एक हिस्सा आप सभी से शेयर करना कर रहा हूं।

रजत शर्मा(होस्ट)- 26/11 की घटना के समय अगर आप इन्चार्ज होते तो क्या करते?
नरेन्द्र मोदी: जो मैंने गुजरात में किया वो कर के दिखाता, मुझे देर नहीं लगती। मैं आज भी कहता हूं, पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देना चाहिए, ये लव लेटर लिखना बंद कर देना चाहिए। प्रणव मुखर्जी(तत्कालीन रक्षा मंत्री) रोज एक चिट्टठी भेज रहे और वो सवाल भेज रहे, ये जवाब देते फिरते हैं। गुनाह वो करें और जवाब भारत सरकार दे रही है।
रजत शर्मा- लेकिन इंटरनैशनल प्रेशर है, उसका भी तो ख्याल रखना पड़ेगा भारत सरकार को।
नरेन्द्र मोदी: इंटरनैशनल प्रेशर पैदा करने की ताकत आज हिंदुस्तान में है, 100 करोड़ का देश है। पूरी दुनिया पर प्रेशर आज हम पैदा कर सकते हैं जी। मैं तो हैरान हूं जी, पाकिस्तान हमको मार कर चला गया, पाकिस्तान ने हम पर हमला बोल दिया मुंबई में और हमारे मंत्री जी अमेरिका गए और रोने लगे, ओबामा, ओबामा...पाकिस्तान हमको मार कर चला गया, बचाओ...बचाओ...ये कोई तरीका होता है क्या? पड़ोसी मार कर चला जाए और अमेरिका जाते हो, अरे पाकिस्तान जाओ ना।
रजत शर्मा- क्या तरीका होता है?
नरेन्द्र मोदी: पाकिस्तान जिस भाषा में समझे, समझाना चाहिए।

दोस्तों, मैं अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी का स्वयंसेवक हूं, मेरी शिक्षा भी विद्या भारती द्वारा संचालित सरस्वती शिशु/ विद्या मंदिर में हुई है लेकिन मैंने अपने जीवन में सिर्फ एक बार बीजेपी को वोट दिया है। मैं लखनऊ महानगर का एकमात्र ऐसा स्वयंसेवक था जो संघ के प्रचारकों के साथ मेरे आराध्य श्रीराम का राजनीतिकरण करने वाली बीजेपी के सिद्धान्तों पर बहस करता था। मैं बहस करता था उन राम के लिए जिन्होंने जवानी को जिया तो ऐसा कि राजसी सुखों को छोड़कर समाज के लिए कार्य करने वाले एक ऋषि के साथ वन को चले गए और वन जाते वक्त जब पिता दशरथ ने कहा कि राक्षसों से लड़ने के लिए सेना लेते जाओ तो कहा कि सेना ले गया तो क्या फायदा? वहां जाकर वहां के लोगों की सेना बनाऊंगा ताकि मेरे बाद भी उनमें राक्षसों से युद्ध करने का आत्मविश्वास बना रहे। मैं बहस करता था उन राम के लिए लिए जिन्होंने अपनी पीढ़ियों की परंपरा को तोड़ते हुए एकपत्नीव्रत लिया और एक ऐसी महिला से विवाह किया जिसका कुल तक ज्ञात नहीं था। मैं बहस करता था उन राम के लिए जिन्होंने पितृ भक्ति में अपने पिता के एक वचन को इस तरह से निभाया कि 14 सालों तक अयोध्या का सिंहासन फुटबॉल की तरह उछलता रहा। मैं बहस करता था तो उन राम के लिए तो उन राम के लिए जिन्होंने अपने प्रेम के लिए नदियों को छोड़िए, समुद्र पर भी पुल बना दिया। मैं बहस करता था उन राम के लिए जिन्होंने राजधर्म निभाया तो ऐसा कि राक्षसों का वध करके जीते गए क्षेत्र को वहीं के मूल निवासियों के हवाले कर दिया और अपने राज्य के एक सामान्य व्यक्ति की बात सुनकर अपनी धर्म पत्नी स्वयं से दूर कर दिया। मैं बहस करता था उन राम के लिए जिन्होंने मातृभूमि से प्रेम किया तो ऐसा कि सोने की लंका को छोड़ कर सामान्य जनमानस के बीच अयोध्या पहुंच गए।

मेरे उन श्रीराम को राजनीतिक गलियारों में बेचने वाले तथाकथित भक्तों को मैंने मोदी के भाषणों की वजह से लोकसभा चुनाव में वोट दिया। मेरे सांसद महोदय आज देश के गृहमंत्री हैं लेकिन कल पंजाब के पठानकोट में हुए आतंकवादी हमले के समय उनकी हिम्मत नहीं थी कि वे देश की जनता का सामना कर सकें। देश के जवानों ने जब आतंकियों को मार गिराते हुए विजय पताका लहराई तब वे मीडिया के सामने आने की हिम्मत जुटा पाए। अरे राजनाथ जी, देश के जवान तो तब भी आतंकियों के सामने अपनी जान की बाजी लगा कर संघर्ष कर रहे थे जब हमारे सांसद कुर्सियों के नीचे छिपने की जगह ढ़ूंढ रहे थे, उस वक्त आप कहते थे कि भारत को उन्हें जवाब देना चहिए लेकिन आज जब आपके हाथ में सब कुछ है तो आप चुप-चाप बस सैनिकों को शाबासी देकर चल दिए।

मुझे खुशी है कि आज पंजाब के पठानकोट में हुए आतंकी हमले के बाद हमारे देश के सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए सभी आतंकियों को मार गिराया लेकिन मुझे दुःख भी है कि एक के बदले 10 सिर लाने का दंभ भरने वाली सरकार का प्रधान जब कर्नाटक के एक कार्यक्रम में भाषण देता है तो मात्र उसी पुरानी जुमले बाजी के सहारे देश के मन में खुद को प्रतिस्थापित करने की करने की कोशिश करता है जिनके भरोसे आज वह देश की सत्ता के सिंहासन पर काबिज है।  माननीय प्रधानमंत्री महोदय, इस गलतफहमी में मत रहिएगा कि देश ने अगर एक इतिहास को रचते हुए अगर आपको पूर्ण बहुमत वाली कुर्सी दी है तो वह इसलिए नहीं दी कि देश कांग्रेस से परेशान था, देश की जनता ने आपको देश की सत्ता का संचालन इसलिए सौंपा है ताकि आप देश के स्वाभिमान की रक्षा कर सकें। साड़ियां और शालें तो आती-जाती जाती रहेंगी लेकिन अगर आप सत्ता के अहंकार में देश के दिल से निकल गए तो फिर दुबारा वापस आने का मौका नहीं मिलेगा।

केन्द्र में बीजेपी सरकार आने से पहले नरेन्द्र मोदी ने एक निजी चैलन को दिए गए साक्षात्कार में कहा था, 'लादेन का पाकिस्तान की धरती पर मारा जाना इस बात की पुष्टि करता है कि पाकिस्तान आतंकवादियों का एक बहुत बड़ा अड्डा बना हुआ है, भारत सरकार को इस विषय को तत्काल संज्ञान में लेना चाहिए और विश्व की मानवतावादी शक्तियों को एकजुट करते हुए अमेरिका पर भी दबाव डालना चाहिए कि वह ढ़ुलमुल नीति ना अपनाए। यह दुर्भाग्य है कि सुबह ओबामा के वक्तव्य में पाकिस्तान के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा गया है। भारत सरकार को इसे गंभीरता से लेते हुए मानवतावादी शक्तियों को एकजुट करना चाहिए।'

मोदी जी, तब हमारे तत्कालीन पीएम अमेरिका के सामने खड़े नहीं हो पाते थे, शायद इस लिए क्योंकि उन्हें भारत की युवा शक्ति पर विश्वास नहीं था लेकिन आप तो देश की शक्ति  को जानते हैं, बराक सहित विश्व के सभी बड़े नेता आपके मित्र हैं, अब बनाइए इंटरनैशनल प्रेशर और घर में घुसकर मारिए मौलाना मसूद अजहर को। अब तो नवाज से भी आपकी अच्छी दोस्ती है, वह भी साथ देंगे आपका, कोशिश तो करिए। मोदी जी, मैं अब भी आशाहीन नहीं हुआ हूं, मुझे उम्मीद है कि आपका पौरुष जागेगा और 17 साल पहले की गई गलती को सुधार लिया जाएगा। पता नहीं क्यों उम्मीद का दिया मेरे मन में जल रहा है? वो भी उन परिस्थितियों में जब हमले के बाद खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली पार्टी की ओर से यह बयान आता है कि सिर्फ एक हमले की वजह से पाकिस्तान के साथ चल रही वार्ता रद्द नहीं की जाएगी। अब देश जुमलेबाजी में फंसने वाला नहीं है और इस बात को दिल्ली तथा बिहार की जनता ने प्रमाणित भी कर दिया है। यदि पीएम साहब फ्लाइट मोड और साइलंट मोड में फंसे रहे तो यह तय है कि इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। उम्मीद है कि खुद को प्रधानसेवक कहने वाले मोदी जी जनरल मोड पर आ जाएंगे और पाकिस्तान को उसी की भाषा में रिटर्न गिफ्ट देंगे।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...