Thursday 16 June 2022

'पत्थरवार' और 'अग्निवार' के जाहिल एक जैसे, कार्रवाई में भेदभाव क्यों कर रहीं 'रामराज्य' वाली राष्ट्रवादी सरकारें?

 10 जून 2022, दिन शुक्रवार

कुछ मुसलमान, किसी हिंदू की बयान से इस कदर नाराज हो गए कि जमकर तोड़फोड़ की, मंदिरों पर हमले किए, आम लोगों पर पत्थर चलाए, यहां तक की व्यवस्था बनाए रखने की कोशिश में जुटे यानी संविधान बचाने का प्रयास कर रहे पुलिसवालों को पीटा। पुलिस अफसरों के रोते हुए चेहरे दिखे, आम लोगों की आंखों में भय दिखा, टूटे मंदिर दिखे, हमारी-आपकी यानी देश की संपत्ति का नुकसान दिखा। 


11 जून 2022, दिन शनिवार

लोगों को हिरासत में लिया गया, पुलिसवालों ने जमकर खातिरदारी की। हिंसा करने वालों की 'अवैध' संपत्तियों पर बुलडोजर चलने का आदेश हुआ। एक दिन पहले मेरे मन में जो गुस्सा था, वो अब दूर हो रहा था। मैंने सोशल मीडिया पर लिखा भी कि जो जिस भाषा में समझे, उसे उसी भाषा में समझाना चाहिए। यह लाइन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री ने अपने एक इंटरव्यू में बोली थी। 


श्रीराम ने भी ऐसा ही किया था

मैं बिना शंका के इस बात को मानता हूं कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन से आप काफी कुछ सीख सकते हैं। इतना ही नहीं, मैं यह भी मानता हूं कि अगर किसी राष्ट्र या 'State' को न्याय आधारित व्यवस्था बनानी है तो वह किसी किसी व्यक्ति द्वारा बनाए गए सिद्धांतों के संकलन को पुस्तक का रूप देने से नहीं आ सकती, वह रामराज्य से ही आ सकती है। मैं राष्ट्र में 'सम विधान' चाहता हूं, यानी ऐसी व्यवस्था जो सबके लिए समान हो। सिर्फ ऊपर से नहीं मन से, और यह व्यवस्था हमारी व्यवस्था का हिस्सा रही है:

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। 

देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।


एक छोटा सा प्रसंग याद दिलाता हूं। मेरे राम, अपनी पत्नी को एक तत्कालीन आतंकी से आजादी दिलाने के लिए निकले, रास्ते में समुद्र पड़ा, तीन दिन तक समुद्र से राह देने की गुहार लगाई, बार-बार आग्रह करते रहे लेकिन समुद्र ने एक ना सुनी। तब श्रीराम समझ गए कि मामला ऐसे नहीं जमेगा, और फिर उन्होंने दूसरा तरीका अपनाया। इस प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास जी ने कुछ यूं लिखा है:


विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।


लक्ष्मण तीन दिन पहले से ही आग्रह के पक्ष में नहीं थे। वह जानते थे कि समुद्र को चंद क्षणों में सुखाया जा सकता है। लेकिन राम ने तीन दिनों का अवसर दिया, आग्रह किया और फिर जब समुद्र ने नहीं सुनी तो अपने महा-अग्निपुंज-शर का संधान किया, जिससे समुद्र के अन्दर ऐसी आग लग गई कि उसमें वास करने वाले जीव-जन्तु जलने लगे। इसके बाद समुद्र देव ने अपनी रक्षा के लिए याचना की। श्रीराम चाहते तो तीन दिन पहले भी वही कर सकते थे जो बाद में किया, लेकिन उन्हें पता था कि उससे समुद्र में रहने वाले जीव-जंतुओं को पीड़ा होगी, इसलिए उन्होंने वह नहीं किया। लेकिन जब अंतिम विकल्प ही बचा तो व्यक्ति क्या ही करे।


10 जून की जहालत क्यों?

अब जरा इसे 10 जून की घटना से जोड़िए। नुपुर शर्मा ने कुछ कहा। कहां से पढ़ा, उसमें कितना सच है, किस बात के रिएक्शन में कहा, वह सब बाद की बात है, मैं मानता हूं कि हम सामने वाले से अलग इसीलिए हैं क्योंकि हमारी संस्कृति हमें इसकी अनुमति नहीं देती। मुझे लगता है कि नहीं कहना चाहिए था, संयम रखना चाहिए था, खासकर तब जब देश आपको देख रहा हो। लेकिन कहा! फिर? देर से ही सही, ऐक्शन हुआ। निजी तौर पर मुझे लगता है कि नहीं होना चाहिए था लेकिन हुआ। फिर एफआईआर हुई, निजी तौर पर मुझे लगता है कि यह ठीक था। मामला न्यायालय में जाएगा और सामने आएगा कि भई, नुपुर ने क्या और कहां से पढ़कर कहा। अब और क्या किया जा सकता था? न्यायालय आज के संविधान के मुताबिक सर्वोच्च व्यवस्था है ना? वहां मामला पहुंच गया, बात खत्म। लेकिन नहीं! इसके बाद 10 जून इतिहास बन गया।


व्यवस्था का आधार है पर्सेप्शन!

लोगों ने सोशल मीडिया पर नुपुर के समर्थन में बहुत कुछ लिखा लेकिन भाजपा के किसी आधिकारिक प्रवक्ता ने उसके बाद नुपुर के कृतित्व का समर्थन नहीं किया। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि देश जलाया जाए? खूब बवाल काटा गया। फिर पुलिस/प्रशासन/सरकार ने उन्हें सीख देने के लिए बल का प्रयोग किया। मैं मानता हूं कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए यह बिलकुल वैसा ही था, जैसे श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करते वक्त किया था। मुझे लगता है कि यह बिलकुल सही फैसला था। जो प्यार से/ समझाने से ना माने, उसे डराकर/धमकाकर ही रखना चाहिए। और वैसे भी किसी राज्य की व्यवस्था पर्सेप्शन पर ही चलती है। पर्सेप्शन ठीक रहना चाहिए। 


जरा सोचकर देखिए!

इस पूरी घटना को एक सप्ताह भी नहीं बीता कि केन्द्र की मोदी सरकार 'अग्निपथ योजना' ले आई। यह कितनी बेहतर है और इसमें क्या खामियां हैं, यह अलग विषय है। एक भारतीय नागरिक के तौर पर मुझे लगता है कि किसी सरकार को जनता के रोजगार को लेकर गंभीरता से काम करना चाहिए, उस लिहाज से मैं इसे सही मानता हूं। लेकिन एक राष्ट्रवादी के तौर पर मुझे लगता है कि नोटबंदी की तरह ही देश का प्रधान एक बार फिर से आत्मचेतना विहीन जनता पर एकबार फिर से जरूरत से अधिक भरोसा कर रहा है और यह देश के लिए घातक हो सकता है। खैर, इसपर फिर कभी बात कर लेंगे, अभी विषय है कि अगर सरकार के किसी फैसले से आप खुश नहीं हैं तो क्या करेंगे? आप विरोध दर्ज करा सकते हैं, आप उस योजना में हिस्सा नहीं ले सकते हैं, लेकिन आपने क्या किया? वही जहालत दिखाई जो 10 जून को 'मुसलमानों' ने दिखाई थी। 


10 जून और 16 जून वाले जाहिलों में अंतर क्यों?

अब मेरा सीधा सवाल सरकार से है। इस देश का हिस्सा बिहार भी है, राजस्थान भी, मध्य प्रदेश भी, उत्तर प्रदेश भी और अन्य राज्य भी। 10 जून को प्रदर्शन के नाम पर जो नंगापन दिखाया गया, क्या वह 16 जून 2022 को हुई जहालत से कम था? हां, बस इतना अंतर था कि वह मजहबी जहालत थी और यह राजनीति से प्रेरित जहालत। लेकिन ना मजहब बुरा है और ना ही राजनीति, गलत तो जहालत है ना? फिर जहालत करने वालों में भेदभाव क्यों? मैं राजस्थान, बिहार या किसी अन्य गैर भाजपा शासित राज्य से अपेक्षा नहीं करता, लेकिन उत्तर प्रदेश, हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकार चलाने वाली पार्टी तो राम राज्य की बात करती है ना? राम तो भेदभाव नहीं करते थे। श्रीराम ने तो अपने उस अनुज को भी व्यवस्था तोड़ने पर सजा दी थी, जिसने 14 साल तक निद्रा देवी को अपने पास तक नहीं फटकने दिया। फिर आप क्यों वैसी ही कार्रवाई नहीं करते? क्यों बुलडोजर वाली कार्रवाई 16 जून को जहालत करने वालों पर होने की बात नहीं कर रहे? वजह कोई भी हो, विद्वेष कैसा भी हो, लेकिन विश्वास मानिए यह रामराज्य नहीं है, यह न्याय नहीं है!

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

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