Saturday 28 May 2016

यूं ही नहीं कोई 'सावरकर' बन जाता है

आज 133 साल पूरे हो गए, एक हुतात्मा ने आज ही के दिन इस भारतभूमि पर जन्म लिया था। सावरकर, क्या था इस शब्द में? कुछ भी नहीं, लेकिन इस शब्द को जिस रूप में हम जान रहे हैं, वह महत्वपूर्ण विषय है। वह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने साम्राज्यवाद के रथ पर काबिज होकर चलने वाले अंग्रेजों की क्रूरता की पराकाष्ठा झेली और फिर उस भारत को भी देखा जो जाति भेद की आग में जल रहा था। उनको पढ़कर बहुत सी ऐसी बातें समझीं जो यह प्रमाणित करती हैं कि उस दौर में ‘उनसे’ बेहतर विचार नहीं हो सकते थे।
विनायक दामोदर सावरकर का नाम कुछ समय पहले सुर्खियों में छाया हुआ था। भारत में एक नई परंपरा शुरू हो गई है जिसके आधार पर राजनीतिक पार्टियां क्रांतिकारियों और महापुरुषों को अपनी सुविधानुसार बांट लेती हैं और फिर उनके नाम पर जी भरकर राजनीति करती हैं।vir कोई पार्टी स्वयं को सावरकर हितैषी बताकर उनके लिए भारत रत्न की मांग करती है तो कोई सावरकर को गद्दार बना देती है। इन दोनों ही विचार परिवारों के समर्थक इस बात पर जी जान लगाकर बहस करते हैं कि सावरकर देशभक्त थे अथवा गद्दार, सावरकर को भारत रत्न मिलना चाहिए अथवा नहीं। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि कोई महापुरुष अथवा क्रांतिकारी किसी ‘दल’ विशेष का नहीं होता और महापुरुष वही होता है जो सामान्य व्यक्ति से बेहतर तरीके से समाज के प्रति स्वयं को समर्पित करे। हो सकता है उस ‘महापुरुष’ की विचारधारा हमसे 100 प्रतिशत ना मिलती हो, लेकिन क्या ऐसे में आप उससे 100 प्रतिशत असहमत हो सकते हैं?
आपका तर्क कुछ भी हो लेकिन इसका जवाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा। समाज के विषय में सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विशिष्ट विचार है। यदि आप किसी विचार से 100 प्रतिशत असहमत हैं तो इसका साफ तौर पर मतलब है कि आप उसका विरोध अज्ञानतावश अथवा द्वेषवश कर रहे हैं, और यदि आप किसी से 100 प्रतिशत सहमत होने का दावा कर रहे हैं तो इसका भी अर्थ यही है कि या तो आप अज्ञानी हैं अथवा अंधभक्त हैं। अब बात करते हैं कि आखिर आज क्यों विनायक दामोदर सावरकर जैसे दिव्य पुरुष के विषय में चिंतन करने की आवश्यकता महसूस हो रही है लेकिन उससे पहले राष्ट्रवाद के प्रखर हस्ताक्षर, अटल बिहारी वाजपेयी जी ने सावरकर की जो व्याख्या की है उसके एक अंश को समझते हैं-
अटल जी ने सावरकर का अर्थ तेज, त्याग, तप, तारुण्य, तथ्य, तर्क, तीर, तलवार और तिलमिलाहट जैसे शब्दों को बताया है। संभव है कि आप कहें कि ये सब तो एक ‘संघी’ या भाजपाई प्रधानमंत्री ने कहा था।atalलेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जिसे मैं मानकर चलता हूं। सावरकर की व्याख्या करने वाला व्यक्ति किसी राजनीतिक दल का सदस्य था इसलिए उसकी बात मान लें, यह उचित नहीं है। अटल जी को मैं एक नेता नहीं बल्कि एक लेखक, एक संपादक तथा एक पत्रकार के रूप में पसंद करता हूं। एक प्रधानमंत्री के रूप में उनकी कुछ नीतियां मुझे पसंद नहीं थीं लेकिन इसके लिए राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन जैसे समाचार पत्रों/ पत्रिकाओं के आधारभूत स्तंभ रहे व्यक्ति को नकार दिया जाए तो निश्चित ही गलत होगा। क्योंकि उस दौर में इन पत्रों में किसी बीजेपी नेता अथवा किसी स्वयंसेवक की कंपनी की ओर से विज्ञापन नहीं आते थे। इसलिए अटल जी जैसे व्यक्तित्व द्वारा सावरकर की व्याख्या को गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए।
एक राजनीतिक दल यह आरोप लगाता है कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान द्वीप) जेल से अपनी ‘काले पानी’ की सजा से रिहाई के लिए अंग्रेजों से क्षमा याचना की थी। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन क्या ऐसा करने का उद्देश्य यह नहीं हो सकता कि सावरकर ने भी वही सोचा हो जो एक समय श्रीकृष्ण ने सोचा था, जिसकी वजह से वह रणछोड़ कहलाए।savarkar परिस्थिति का विवेचन एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ करें तो पाएंगे कि अपने-अपने समय में इन व्यक्तित्वों ने जो निर्णय लिए वे एकमात्र विकल्प थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका एक कारण है, यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान की सोच को उस दौर के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ कर समझने का प्रयास करेंगे तो सामने आएगा कि उस दौर के अधिकतर क्रांतिकारी जान देने के पक्ष में नहीं थे। इसका कारण यह नहीं था कि वह जान देने से डरते थे, बल्कि इसका कारण यह था कि उनको पता था कि देश की स्वतंत्रता के लिए जीवित रहकर संघर्ष करना अतिआवश्यक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के बीच का अंसेबली में बम फेंकने से पहले का संवाद है।
शहीद भगत सिंह से जुड़े साहित्य को पढ़ने पर पता लगता है कि जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने के बाद असेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया तब चंद्रशेखर आजाद ने पूरी योजना तैयार की कि किसी तरह और किन रास्तों से बम विस्फोट करने के बाद निकालकर भागा जा सकता है। उन्होंने यह योजना भगत सिंह को बताई लेकिन भगत सिंह ने इस पर अमल करने से साफ तौर से मना कर दिया। भगत सिंह गिरफ्तार होना चाहते थे। इस मुद्दे पर आजाद से भगत सिंह की गर्मागर्म बहस भी हुई। भगत सिंह का कहना था, ‘हम असेंबली में बम किसी की जान लेने के लिए नहीं फेंकने वाले हैं। हमारा उद्देश्य है, लोगों को जगाना और उस उद्देश्य को मैं गिरफ्तार होकर ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा कर सकता हूं। केस चलेगा, जिरह होगी और उस जिरह हमें अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाने का मौका मिलेगा।’
इस पर आज़ाद का कहना था कि केस का मतलब होगा मौत की सजा। इसके बाद भगत सिंह ने आजाद से कहा, ‘मैं जान देने के लिए ही गिरफ्तार होना चाहता हूं, मैं जीवित रहकर आजादी के आंदोलन में उतना योगदान नहीं दे पाऊंगा जितना मरकर दे सकता हूं।’ भगत सिंह बोले, ‘मेरी मौत कई भगत सिंह पैदा कर देगी।’ दोनों महान क्रांतिकारियों के बीच लंबी बहस हुई लेकिन भगतसिंह अपनी जिद के पक्के थे। आखिरकार आजाद को उनके आगे हार माननी पड़ी। फिर वही हुआ जो भगतसिंह चाहते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े व्यक्ति द्वारा जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का उद्देश्य साफ था कि उनकी मौत एक नए आंदोलन को खड़ा करेगी लेकिन सभी क्रांतिकारी सिर्फ अपनी जान कुर्बान कर देते तो शायद आज हम स्वतंत्र देश में सांस नहीं ले रहे होते।  कुछ ऐसे ही विचार विनायक दामोदर सावरकर के भी बन गए थे। और यह विचार क्यों बने होंगे, इस बात का अंदाजा आप तब तक नहीं लगा सकते जब तक उस दौर की स्थितियों के विषय में अध्ययन न कर लें।
10 मई, 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास लिखा। जून 1908 में तैयार हो चुकी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया था। इस पुस्तक से भारत में भगत सिंह सहित कई लोगों ने प्रेरणा ली।
हो सकता है कि अब कोई यह तर्क दे कि भगत सिंह तो सावरकर के हिंदुत्व के विरोधी थे। बिलकुल थे, क्योंकि उन्होंने सावरकर के हिंदुत्व को समझा नहीं था। जब सावरकर की पुस्तक भारत में कोहराम मचा रही थी तब भगत सिंह अपने शैशव काल में थे और सावरकर उस दौर में अंग्रेजों के गढ़ में रहकर मां भारती के चरणों की जंजीरों को तोड़ने के लिए प्रयास कर रहे थे। इसे आयु आधारित अनुभव कहें तो गलत न होगा। आगे जिस रूप में भगत सिंह ने सावरकर के हिंदुत्व को समझा, अगर मैं भी वैसा ही मान लूं तो मैं भी विरोध करूंगा लेकिन वास्तविकता यह है कि सावरकर के हिंदुत्व की व्यापकता उतनी सीमित नहीं जितना प्रचारित की गई।gandhi यह बिलकुल वैसा ही था जैसे एक 13-14 साल का छोटा सा बच्चा गांधी- गांधी करते हुए एक बुजुर्ग नेता के पीछे घूमता रहता है और फिर जब वह नेता अहिंसा के नाम पर अपने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा करता है तो बच्चा उस नेता के रास्ते को नकार कर उसके विपरीत सिद्धांत आधारित रास्ते का चुनाव कर लेता है। इस विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि महात्मा गांधी ने अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेकर कुछ गलत किया था। इसी आधार पर सावरकर को भी सिर्फ एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के चलते गलत नहीं माना जा सकता।
आइए, सावरकर से जुड़े कुछ विषयों का विश्लेषण करते हैं:
क्या बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में पुणे में अभिनव भारत संगठन द्वारा विदेशी कपड़ों की होली जलाना कोई सामान्य कदम था, उस समय जब हम गुलाम थे और सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं होती थी।
क्या यह झूठ है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति दी थी।
क्या यह भी झूठ है कि भगत सिंह, राजाराम शास्त्री से कहा करते थे मुझे सावरकर जी के जीवन प्रसंगों, जैसे लंदन में रहते हुए मदनलाल ढींगरा को क्रांति की ओर प्रेरित करना, गिरफ्तारी के दौरान भारत लाए जाते समय जहाज से समुद्र में कूद पड़ऩा आदि ने बहुत प्रभावित किया है। (काशी विद्यापीठ के युवा राजाराम शास्त्री को लाला लाजपतराय जी ने द्वारका दास पुस्तकालय का प्रबंधक मनोनीत किया था। भगत सिंह से राजाराम के मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये थे। राजाराम शास्त्री ने कई जगह अपने और भगत सिंह के संवाद का जिक्र किया है।)
क्या यह भी झूठ है कि सावरकर की प्रेरणा से ही जर्मनी में संपन्न होने वाली इंटरनैशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में सरदार सिंह राणा और श्रीमती भीखाजी ने भारत का प्रतिनिधि बनकर वन्दे मातरम् लिखित ध्वज को फहराया।
क्या यह भी झूठ है कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले एकमात्र क्रांतिकारी हैं।
क्या यह भी झूठ है कि सावरकर ने अंडमान जेल में रहते हुए, अंग्रेजों के कानूनों के जाल में उनको ही फंसाकर कैदियों को सामान्य सुविधाएं उपलब्ध कराई थीं।
क्या यह भी झूठ है कि ‘सवर्ण’ होते हुए भी दलितों को सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने रत्नागिरी में प्रथम प्रयास किया।
क्या यह भी झूठ है कि अस्पृश्यता निवारण के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करते हुए सावरकर ने अपने ब्राह्मणत्व कर्म का प्रतिपालन किया।
क्या यह भी झूठ है कि ‘भाषा शुद्धि’ यानी हिंदी तथा देवनागरी के संरक्षण हेतु उन्होंने प्रयास किए।
क्या यह भी झूठ है कि सुभाष चन्द्र बोस को रासबिहारी बोस के उस पत्र से आजाद हिंद फौज बनाने की प्रेरणा मिली जो उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को लिखा था।
ऐसे बहुत सारे विषय हैं जो अटल जी द्वारा की गई सावरकर की व्याख्या को प्रमाणित करते हैं। स्वातंत्र्य वीर विनायक सावरकर के सिद्धांतों की वर्तमान समाज में एक विशिष्ट प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि आज भी कानूनों के आधार पर देश के प्रधान की तस्वीर के साथ छेड़छाड़ करने वाले को जेल हो जाती है और भारत की बर्बादी के नारे लगाने वाले जेल के सीकचों से बाहर ही रहते हैं। उन सिद्धांतों की प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि हमारे गांवों में आज भी ‘बिछड़े जनों’ को स्वयं से अलग ही समझा जाता है।
मेरा मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई हों या रानी चेन्नमा, चन्द्रशेखर आजाद हों या भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां हों या बहादुर शाह जफर, जवाहर लाल नेहरू हों या महात्मा गांधी, सभी ने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ तो अच्छा किया है। जो अच्छा है, जो सकारात्मक है, जो अनुकरणीय है, उसे आत्मसात करने अथवा उसकी प्रशंसा करने में क्या बुराई है? हिंदुत्व शब्द से परेशानी है तो स्पष्ट समझ लें कि ‘श्रीराम को पूजना हिंदुत्व नहीं बल्कि श्रीराम को आत्मसात करना हिंदुत्व है।’

Tuesday 10 May 2016

यादों में, 1857 की क्रांति और वे वीरांगनाएं!

10 मई 1857, मुझे यकीन है कि आपको याद आ गया होगा कि इस दिन क्या हुआ था। यही वह दिन था जब सैकड़ों सालों की गुलामी सहने वाला भारत का स्वाभिमान एक बार फिर जाग उठा था। अंग्रेजों की नीतियों से आजादी के लिए प्रत्येक वर्ग को लड़ने की प्रेरणा देने वाली क्रांति, इसी दिन शुरू हुई थी। यह भारत में महाभारत के बाद लड़ा गया सबसे बड़ा युद्ध था। इस संग्राम की मूल प्रेरणा स्वधर्म की रक्षा के लिए स्वराज की स्थापना करना था।
यह स्वाधीनता हमें बिना संघर्ष, बिना खड़ग-ढाल के नहीं मिली है अपितु लाखों हुतात्माओं द्वारा इस महायज्ञ में स्वयं की आहुति देने से मिली है। एसी कमरों में बैठकर, सब्सिडी वाली शराब पीकर ‘भारत में आजादी’ की मांग करना बहुत आसान लगता है लेकिन जो हमारे पास आज है, उसके लिए हमारे पूर्वजों ने क्या-क्या किया है, इसे महसूस करना संभव नहीं। पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मेरे गुरुदेव श्री राकेश योगी कहते थे कि आजाद भारत में जन्म लेने वाले लोग समझ ही नहीं सकते कि गुलामी क्या होती है। उस गुलामी को न मैं महसूस कर सकता हूं और ना ही आप, लेकिन हम इतना जरूर कर सकते हैं कि अपने पूर्वजों के संघर्ष का सम्मान करें।
1857
भारत में नारी को हमेशा देवी की संज्ञा दी गई है। जब आवश्यकता पड़ी तो उसने ज्ञान की प्रतिमूर्ति बनकर स्वरों से देश को एक नई दिशा दी और जब अवसर आया तो उसी नारी ने शक्ति स्वरूपा चंडी का भी रूप धारण कर अदम्य शक्ति का लोहा मनवाया। ‘शासन और समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं’ जैसी पुरुषवादी धारणाओं को ध्वस्त करती भारतीय वीरांगनाओं का जिक्र किए बिना संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए। आज जब महिला सशक्तिकरण और महिला ‘स्वतंत्रता’ की बातें हो रही हैं, ऐसे समय में मैं आपको इस ब्लॉग के माध्यम से 1857 की क्रांति से संबन्धित 6 ऐसी महिलाओं की याद दिलाऊंगा जिन्होंने उस दौर में भी राष्ट्र को सर्वोपरि माना।
लज्जो– बहुत ही कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि बैरकपुर में मंगल पांडे को चर्बी लगे कारतूसों के बारे में सबसे पहले मातादीन ने बताया और मातादीन को इसकी जानकारी उसकी पत्नी लज्जो ने दी। लज्जो, अंग्रेज अफसरों के घर पर काम करती थी और वहीं पर उसे यह सुराग मिला कि अंग्रेज गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने जा रहे हैं।
hazrat-mahalबेगम हजरत महल– लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर उन्होंने अंग्रेजी सेना का स्वयं मुकाबला किया। उनकी अभूतपूर्व संगठन क्षमता के कारण ही अवध के जमींदार, किसान और सैनिक उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे। आलमबाग की लड़ाई के दौरान अपने जांबाज सिपाहियों की उन्होंने भरपूर हौसला अफजाई की और हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं। लखनऊ में पराजय के बाद वह अवध के देहातों मे चली गईं और वहां भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई।
zeenat
बेगम जीनत महल– मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में स्वातंत्र्य योद्धाओं को संगठित कर अभूतपूर्व देश प्रेम का परिचय दिया। सन् 1857 की क्रांति के लिए बहादुरशाह जफर को प्रोत्साहित करने का काम उन्होंने ही किया था। बेगम जीनत महल ने ललकारते हुए कहा था, ‘यह समय गजलें कह कर दिल बहलाने का नहीं है, बिठूर से नाना साहब का पैगाम लेकर देशभक्त सैनिक आए हैं, आज सारे हिन्दुस्तान की आंखें दिल्ली तथा आप पर लगी हैं, खानदान-ए-मुगलिया का खून हिन्द को गुलाम होने देगा तो इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं करेगा।’
हैदरीबाई– लखनऊ की तवायफ हैदरीबाई के यहां तमाम अंग्रेज अफसर आते थे और कई बार क्रांतिकारियों के खिलाफ योजनाओं पर बात किया करते थे। हैदरीबाई ने पेशे से परे अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए इन महत्वपूर्ण सूचनाओं को क्रांतिकारियों तक पहुंचाया और बाद में वह भी रहीमी के नेतृत्व में बनाए गए बेगम हजरत महल के महिला सैनिक दल में शामिल हो गईं।
Uda-Devi
ऊदा देवी– ऊदा देवी ने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया। अंग्रेज असमंजस में पड़ गए और जब हलचल होने पर कैप्टन वेल्स ने पेड़ पर गोली चलाई तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी। नीचे गिरने से उसकी लाल जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है। ऊदा देवी का जिक्र वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार अमृतलाल नागर ने अपनी कृति ‘गदर के फूल’ में भी किया है। यह भी माना जाता है कि क्रिस्टोफर हिबर्ट ने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट म्यूटिनी’ में लखनऊ स्थित सिकन्दरबाग किले पर हमले के दौरान जिस वीरांगना के अदम्य साहस का वर्णन किया है, वह ऊदा देवी ही थीं।
JHALKARI---3-FINAL
झलकारीबाई– झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की ‘दुर्गा दल’ नामक एक अलग टुकड़ी बनाई थी। इस दल की पूरी जिम्मेदारी कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में थी। झलकारीबाई ने कसम खाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊंगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई पूरे जोश के साथ लड़ीं और शहीद हो गईं।
ऐसा नहीं है कि उस क्रांति में सिर्फ इन्हीं महिलाओं का योगदान था। इनके अतरिक्त भी हजारों ऐसी महिलाएं थीं जिन्होंने देशप्रेम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया लेकिन मुझे पता है कि सभी को अपनी स्मृति में रख पाना संभव नहीं होता। इसलिए कुछ नाम जो उस क्रांति के बारे में पढ़ते समय मेरी स्मृति में रहे, उन्हें आपसे साझा कर रहा हूं। भले ही ये लड़ाईयां भारतीय महिलाओं ने न जीती हों लेकिन उनके अदम्य शौर्य और साहस को नमन करना तो बनता ही है। और वैसे भी युद्ध में जय-पराजय इस बात से तय नहीं होती कि अंत में किसने-किसको पराजित किया बल्कि इस बात से तय होती है कि स्वाभिमान और मातृभूमि की रक्षा के नाम पर लड़ने वाले सैनिकों ने गोली पीठ पर खाई है या सीने पर।
आज 159 साल हो गए उस क्रांति को, माना कि लंबा समय हो गया है लेकिन संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन की आधारशिला तैयार करने वाली उस यशस्वी क्रांति को पूरी तरह से भूल जाना उचित नहीं होगा। आइए, नमन करें उन्हें जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की नींव तैयार करते हुए धर्म, जाति, लिंग, वर्ग, वर्ण, श्रेणी इत्यादि से ऊपर उठकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। याद रखिए, वे कोई और नहीं थे बल्कि हमारे और आपके परिवारों के लोग ही थे।
1857 की क्रांति को शुरू करने वाले तथा उसे अंजाम तक पहुंचाने वाले इतिहास के पृष्ठों में गुम हो चुके प्रत्येक क्रांतिपुरोधा को वंदन।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...