Saturday 2 September 2017

मासूमों की हत्या, कैसे कहूं 'बकरीद मुबारक!'

क्या खुदा यह कहता है कि मासूम, निरीह और निर्दोष जानवरों की कुर्बानी के नाम पर हत्या करने से वह खुश होता है? अगर खुदा सच में ऐसा कहता है तो वह खुदा नहीं हो सकता। आखिर कोई ‘पिता’ अपने ‘बच्चों’ की हत्या पर खुश कैसे हो सकता है? मैं मानता हूं कि मानव, समाज और पर्यावरण हित में  इको फ्रेंडली होली होनी चाहिए, इको फ्रेंडली दीवाली होनी चाहिए, इको फ़्रेंडली गणपति होने चाहिए  लेकिन फिर इको फ्रेंडली बकरीद क्यों नहीं होनी चाहिए? इको फ्रेंडली बकरीद पर पिछले 2 दिनों से सोशल मीडिया और विभिन्न टीवी चैनलों पर चर्चा हो रही है। इस चर्चा में शामिल लगभग सभी मुस्लिम भाई (कुछ अपवादों को छोड़कर) अपने कुतर्कों के आधार पर निर्दोष जानवरों की कुर्बानी को मजहबी परंपरा करार देते हुए इस मामले से दूर रहने की सलाह देते नजर आ रहे हैं। लेकिन क्या दुनिया में मानवीयता से बड़ा कोई भी मजहब हो सकता है?

पढ़ें: Spirit of sacrifice and not only animals killing is real Qurbani

अल्लाह का नाम लेकर क्या एक निर्दयतापूर्ण कृत्य को जायज ठहराया जा सकता है?  कुतर्क चाहे कोई भी हो लेकिन इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। दुनिया में समाज और मानव हित को ध्यान में रखते हुए बहुत सी कुप्रथाओं को या तो बंद किया जा चुका है या फिर उन्हें बदल दिया गया है। नेपाल का गढ़िमाई त्योहार हो या हिंदुओं के ऐसे मंदिर जहां कभी बलि कुप्रथा अनिवार्य मानी जाती थी, उन पर पाबंदी लगा दी गई है। कहीं पशु बलि के स्थान पर श्रीफल (नारियल) काटा जाने लगा तो कहीं आटे का बना पशु। यदि कहीं आज भी पशु बलि प्रचलन में है तो उस पर भी रोक लगाई जानी चाहिए। हिंदू मंदिरों में पशु-बलि की पाबंदी पर गौर करने वाली बात यह है कि इसके विरोध में कोई महामंडलेश्वर, कोई पुजारी, कोई शंकराचार्य या कोई ‘हिंदू’ नेता खड़ा नहीं हुआ। लेकिन कल कई टीवी चैनल्स पर देखा कि इमाम, मौलवी और मुस्लिम नेता बकरीद पर होने वाली ‘कुर्बानी’ को खुदा का आदेश बता रहे हैं। उनका तर्क है कि इसका विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि कुछ लोग इस योजना पर काम कर रहे हैं कि इस्लामी परंपराओं पर रोक लगाकर इस्लाम को खत्म कर दिया जाए। ऐसे लोगों से मेरा बस एक ही सवाल है कि जब भारत का प्रधानमंत्री (जो गर्व से कहता है कि मैं हिंदू हूं) अपने मन की बात कार्यक्रम में कहता है कि मिट्टी के गणपति बनाए जाएं तो क्या वह हिंदू विरोधी हो गया, क्या वह सनातन को समाप्त करना चहता है।

आखिर ‘कुर्बानी’ शब्द के सही मायने क्या हैं? मैंने जितनी शिक्षा ली है उसके मुताबिक तो ‘कुर्बानी’ का मतलब ‘त्याग’ होता है। एक निरीह जानवर को खरीदकर उसकी हत्या कर देना कैसा त्याग है, यह समझ से परे है। मेरी जानकारी के मुताबिक पैगम्बर मुहम्मद साहब ने प्रतीकों को न मानने की बात कही है। इसी आधार पर  तो इस्लाम में मूर्ती पूजा की मनाही है। मूर्ती तो ‘प्रतीक’ मात्र है, ईश्वर नहीं, तो इस ‘प्रतीकात्मक’ मान्यता को क्यों जारी रखा गया है?  क्या किसी जानवर की हत्या पर उसे दर्द नहीं होता? क्या यहां पर मानवीयता की बातें मात्र छलावा प्रतीत नहीं होतीं? इस मामले पर एक आधारहीन कुतर्क दिया जाता है कि बकरीद के दौरान कटने वाले बकरों को गर्दन की एक विशेष नस काटकर मारा जाता है, जिससे उस पशु की पहले दिमागी मौत हो जाती है फिर शारीरिक मौत होती है। कहा जाता है कि इस प्रक्रिया में उस पशु को बहुत कम कष्ट होता है। फिर तो फिलीस्तीन के आतंकवादियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं का तरीका भी मानवाधिकारवादी होता होगा। वे भी बंधकों को एक विशेष प्रकार से गला रेतकर मारते हैं। क्या गजब के कुतर्क हैं साहब....

होली आती है तो पानी बचाओ, पानी बचाओ की मुहिम शुरू हो जाती है... बहुत अच्छी बात है, जिस देश में लोग 20 रुपए प्रति लीटर की दर से पानी खरीदते हों, वहां ऐसी मुहिम होनी भी चाहिए लेकिन मांस उत्पादन में बर्बाद होने वाले लाखों लीटर पानी पर बात क्यों नहीं होती? एक किलो आलू के उत्पादन में 254 लीटर पानी लगता है, एक किलो आटे के उत्पादन में 1362 लीटर पानी लगता है लेकिन 1 किलो मांस के उत्पादन में 18 हजार लीटर पानी लगता है। दीवाली पर पटाखे जलाने से प्रदूषण फैलता है, उसे इको फ्रेंडली होना चाहिए लेकिन जब 31 दिसंबर की रात जब पटाखें जलाए जाते हैं तो उस पर कोई बात नहीं होगी।

हम एक ऐसे देश में रह रहें हैं जहां पशुओं के अधिकारों की बात करने वाली संस्था, पीपुल्स फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (पेटा) के सदस्यों द्वारा बकरीद पर कुर्बानी न देने की अपील करने पर संस्था के सदस्यों को पीटा जाता है। कहा जाता है कि ऐसी मांग करने वाले लोग मुसलमानों की भावनाएं आहत करते हैं। कुर्बानी या बलि जैसी परंपराएं इंसानियत के नाम पर धब्बा है। हम खुद की उंगली में एक सुई भी चुभाएं तो दर्द होता है और बेजुबान और निरीह पशुओं को सिर्फ इसलिए क़त्ल कर दिया जाए कि वे खाने में बहुत स्वादिष्ट लगते हैं और हमारे शरीर को प्रोटीन आदि प्रदान करते हैं। ऐसे कुतर्कों के आधार पर जीव-हत्या को जायज ठहराने वाले लोगों को शर्म आनी चाहिए।

जिस प्रकार हमें दर्द होता है उसी प्रकार प्रत्येक जीव को भी दर्द होता है, सिर्फ अपनी जीभ के स्वाद के लिए, अल्लाह और मजहब के नाम पर किसी जीव को मारना कैसे जायज़ है? बलि और कुर्बानी जैसी कुप्रथाओं को यदि जारी ही रखना ही चाहते हैं तो अपने बच्चे की बलि दीजिए, अपने बच्चे को खुदा के लिए कुर्बान करिए। शायद तभी आपको उस दर्द का अहसास हो, जो इन बेजुबान, लाचार, निरीह और निर्दोष प्राणियों की हत्याओं के बाद उसकी मां को होता होगा। अपनी जिंदगी को जीने का जितना अधिकार खुदा या भगवान ने हम मनुष्यों को दिया है, उतना ही अधिकार धरती के अन्य जीवों को भी दिया है। अपने स्वार्थ के लिए अगर आप अन्य जीवों की हत्या करेंगे तो विश्वास मानिए आप खुदा और भगवान की तौहीन कर रहे हैं। और अगर यह तर्क दिया जाता है खुदा ने जानवरों को हमारे भोजन के लिए बनाया है तो एक बात तो साफ है कि आपके खुदा का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि खुदा कभी दोहरे चरित्र वाला नहीं हो सकता, खुदा कभी यह नहीं चाह सकता कि उसकी बनाई गई एक चीज, उसी के द्वारा बनाई गई दूसरी चीज की उसके नाम पर हत्या दे।

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