Saturday 27 June 2015

आज का दिन खास क्यों

मित्रों आज 27 जून है।बहुत से लोगों के जीवन का सामान्य सा दिन- लेकिन इस सामान्य से दिन के पीछे एक विशिष्टता है।ये विशिष्टता है वैचारिक स्वतंत्रता, अब एक सवाल उठता है कि वैचारिक स्वतंत्रता का अर्थ क्या है? ऐसे करते करते ये प्रश्नों की श्रृंखला बहुत लंबी होती जाती है। मैं ये सारी बातें आज इस लिए कर रहा हूँ क्यूँ कि आज कुछ खास है और दुर्भाग्य ये है कि हमको पता ही नहीं है कि आज क्या खास है।
खैर कोई बात नहीं मैं बताता हूँ आपको कि खास क्या है आज।
मित्रों इस देश के स्वतंत्रता समर में लगभग 6 करोड़ लोगों ने अपनी जान दी।6 करोड़ मतलब 150 के संघर्ष में 6 करोड़ लोग।ये एक बड़ी संख्या है शायद हमारे मन में ये भी प्रश्न उठे कि यार 125 करोड़ तो हम अभी हैं तो 6 करोड़ उस समय मरे होंगे ये थोडा सा अजीब लगता है।लेकिन यही शंका हमारे पतन का कारण है।ये शंका हमें हमारे इतिहास को समझने नही देती।6 करोड़ लोगों की अंग्रेजों द्वारा जान ली गई मतलब हमारे आपके परिवार के लोगों ने भी शायद अपनी जान दी हो लेकिन हमारे पास समय नहीं है कि हम पता करें कि हमारे अपने परिवार से देश के लिए बलिदान होने वालों में एक का नाम क्या था? हमको मतलब ही नहीं है लोगों ने क्या क्या झेल कर इस देश को  आजाद कराया।

एक गीत जिसको गाते हुए इस देश के क्रांतिकारियों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया उस गीत के विषय में हमें कुछ नहीं पता। वंदे मातरम् जिसकी रचना बंकिम चंद चट्टोपाध्याय ने की आज उनका जन्मदिवस है और हमें कुछ नहीं पता।

और हम गाते क्या हैं एक गीत जिसको अंग्रेजों के राजा जार्ज पंचम के स्वागत में लिखा गया उस गीत को तिरंगे के सामने के सामने खड़े होकर गाते हैं।हमको फर्क नहीं पड़ता कि जन-गण-मन का अर्थ क्या है बस हम गाने लगे।
मेरे अपने स्वाभिमान को किनारे रखकर बहुत शौक से हमने उसे अपना राष्ट्रीय गान बना लिया।

और आज भी हम उस तथाकथित राष्ट्रगान को ढो रहे हैं। हमारे देश की संसद और विधानसभाओं में चर्चा होती है कि लोग भूख से मर रहे हैं।
दुर्भाग्य देखिए कि ऐसे विषयों पर 1947 से मात्र चर्चाएं हो रही हैं। और एक बार सोचिए ब्रिटेन की संसद में चर्चाएं क्या होती आई हैं।वहां 1942 में एक कानून पास किया जाता है 'इन्डियन इंडिपेंडेंस एक्ट' इस कानून के आधार पर भारत को तथाकथित आजादी मिली। हमारी आजादी के लिए भी वो कानून पास करते हैं और हम बस संसद में चर्चाएं करते हैं, एक दूसरे को गालियां देते हैं, आरोप प्रत्यारोप की राजनीती करते हैं, धर्म जाति संप्रदाय के नाम पर तोड़ने का प्रयास करते हैं। हमारी भौतिक गुलामी  तो चली गई लेकिन मानसिक गुलामी आज भी हावी है।

खैर अंत में बस इतना ही कहूँगा कि हम सर्वश्रेष्ठ थे,अपने आधार की वजह से और हमारा आधार था आध्यात्म।लेकिन हम वो सब छोड़ कर चले पश्चिमी सभ्यता की जूठन को ढोने।और आज भी वही कर रहे हैं।

यदि आपकी सोच ये है कि पश्चिम बहुत अच्छा है तो यहाँ तक कोई समस्या नहीं है समस्या है जब आपने ये सोचना शुरू कर दिया कि पश्चिम ही सब कुछ है हम तो निम्न दर्जे के व्यक्ति है।
थोडा इतिहास पढ़िए और उस पर विश्वास करना सीखिए।
वंदे मातरम्

Saturday 20 June 2015

कुछ लिखते लिखते भटक गया

20 जून, मेरी ज़िन्दगी का बेहद खास दिन
एक ऐसा दिन जब मैं इस धरती पर आया।कभी कभी मैं सोचता हूँ कि उस दिन से आज तक कितना कुछ सिखा दिया इन 23 सालों ने।

मेरे लिए 20 जून से ज्यादा 19 की रात महत्त्व रखती है। क्यों कि उस रात किसी न किसी ऐसे व्यक्ति का फोन जरूर आता है जिससे आपको अपेक्षा न हो।
हो सकता है कि आपके साथ ऐसा न होता हो लेकिन मेरे साथ होता है।

इस बार भी 19 की रात कुछ खास बन जाए बस यही सोच रहा था और अपने सबसे अच्छे दोस्त को याद कर रहा था कि आज पहली कॉल उसी की आएगी। लेकिन सच कुछ और होने वाला था । मैं शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त नही कर सकता कि आज मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ।और ऐसी स्थिति का कारण भी है वो कारण ये कि 28 अगस्त की रात को मैं जो महसूस कर रहा था वो शायद कभी नहीं कर पाउँगा।उस रात मैं खुद रोते हुए किसी को हँसाने की कोसिस कर रहा था।और 19 जून की रात कोई मुझसे सामने खड़े होकर बात करने वाला भी नहीं था।
क्या किया था 28 की रात को उसे सोचकर आज भी रो देता हूँ।
खैर यही तो नए नए अनुभव मिले अब तक के जीवन में।सुबह या यूँ कहें अभी ये सोचा कि ये सब मैं क्यों लिख रहा हूँ और क्यों अपने दिमाग को उन बातों तक ले जा रहा हूँ? क्यों सोचता हूँ इसका जवाब तो नहीं है लेकिन एक सच ये भी है कि क्या अपने स्वाभिमान और सिद्धांतों से समझौता करते हुए उस व्यक्ति से बात करना मैं पसंद करूँगा।
नहीं मैं नहीं चाहता कि वो अब मुझसे बात करे। क्यों कि उस श्रेणी के लोगों को मैं अपने जीवन में स्थान देना नहीं चाहता।
मुझे ऐसा लग रहा है आज उसने इस विषय में चर्चा अवश्य की होगी लेकिन यदि ईश्वर ने नहीं चाहा है तो उससे बात करना भी मेरे सिद्धांतों से समझौता करना होगा।

Monday 1 June 2015

वजह तुम हो

सिर्फ तुम ही तो हो जो जान सकती हो कि मैं कैसे जी रहा हूँ
आखिरकार तुमने ही दिया है ये रूप मेरे जीवन को 
तुम्हीं से पाई मैंने बेजोड़ कला 
अपने सच को झूठ में बदल देने की !
सब तुम्हारी सौगातें ही तो हैं मेरे पास 
ये आंसू , ये आहें ये गुमनाम राहें
और आज हैरत में हूँ दुनिया का सबसे खूबसूरत असत्य पढ़कर 
तुम कर रही हो खुदकुशी किश्तों में ! बेजार हो जीवन से !! 
जबकि हकीकत ये है के तुम खेल रही हो खुशियों से
 और हम डूब गए हैं आहों में .......
एक सवाल है तुमसे अगर कभी बात चली गुनाहगारों की तो तुमसे आईना कैसे देखा जाएगा ?
कैसे तुम उस वक्त खुद से नजर मिला पाओगी

दिल तो बच्चा है जी

पहचानिए अपने अंदर छिपे बच्चे को, कभी-कभी आपको लगता है कि बचपन के दिन ही सबसे अच्छे थे,स्कूल जाते या साईकल से गिरते बच्चों को देख आपको अपना बचपन याद आ जाता है,या स्टेशनरी की दुकान पर रंग-बिरंगी पेन्सिल देख दिल ललचा उठता हो,
रविवार की सुबह आप अचानक Nostalgic हो जाते हैं तो इसका मतलब समझिये आपके अन्दर एक बच्चा छिपा बैठा है। आपको बताते हैं वो 14 बातें जिनसे आपको पता चलेगा कि आप का दिल भी बच्चा है क्या
1.रविवार की किसी सुबह अचानक आपको मालगुड़ी डेज,शक्तिमान,अलिफ-लैला से लेकर दूरदर्शन के तमाम पुराने रामायण-महाभारत सरीखे कार्यक्रम याद आने लगते हैं। साथ ही आपको याद आता है कि कैसे रविवार की सुबह जबरिया आपके बेजा बढ़ आये बाल कटाए जाते थे
2. बड़े होकर भले कितनी दफ़ा आप आसमान में उड़े हों पर आज भी आसमान में हवाईजहाज की गरगराहट सुनकर एक बार सबसे नजरें बचाकर एयरोप्लेन देखने का से खुद को नही रोक पाते तो यकीन मानिए आप के अन्दर का बच्चा पंख फैलाकर उड़ने की फिराक में है।
3. नया मोबाइल यहाँ तक कि टीवी भी लेने पर आप सारे फीचर्स देख चुकने के बाद खुद को 'गेम कितने हैं,देखूँ जरा' कहते पाएं तो समझिये ये आपके अन्दर के बच्चे की जिज्ञासा है। 
4. अखबार हो या मैग्जीन आप पीछे से पलटना शुरू करते हैं,और सबसे पहले खेल का पन्ना खोलते हैं। 
5. अखबार का वो हिस्सा पढ़ना कभी नही भूलते जहाँ चुटकुले,कार्टून,पहेली या लघुकथाएं छपती हैं,अगर सच में ऐसा है तो आप मेंनानी-दादी ने बचपन से कहानियों की आदत डाल रखी है।
6. भारत-पाकिस्तान के मैच या किसी भी युद्ध फिल्म से ज्यादा आपको Frontier के टिन वाले Drawing box पर बना फौजी वाला चित्र उत्साहित करता है। 
7. कहीं भी केसरिया रंग दिखने पर आप नीचे हरे रंग का स्ट्रोक लगाकर तिरंगा बना देते हैं। 
8. टॉर्च हाथ लगते ही आप उसे किसी की आँख की ओर करके जलाते हैं। 
9. आपको मैथ्स से आज भी डर लगता है,खासतौर पर सत्रह के पहाड़े से। 
10. आप उस गली से आज भी नही जाते जहाँ आपको कुत्ते घूमते नजर आ जाएं,कुत्ते सामने दिख भी जाएं तो सबसे पहले आपकी नजरें पत्थर ढूँढने लगती है। 
11. कभी-कभी जल्दी में घर वालों की नजर से बचकर आप परदे में हाथ पोंछ ही देते हैं। 
12. घर आते ही आपका पहला सवाल होता है,माँ कहाँ है
13. स्टेशन के लिए एक घंटे पहले निकलने पर भी आपको डर लगता है कहीं ट्रेन न छूट जाए।
14. आपके लिए वो दस सेकण्ड बिताने सबसे मुश्किल होते हैं,जब मुँह पर साबुन लगा होता है,और आँखे बंद होती हैं।

भले ही आज आप ये सब याद न करते हों लेकिन इस ब्लाग को पढ़कर अपने बचपन के दिन जरूर याद आ गए होंगे।

मन की बात

राष्ट्रीयता का आधारभूत घटक स्थानीयता है।स्थानीयता राष्ट्र का वह मूलभूत अंग है जिसके द्वारा प्रेम को या यूँ कहें शाश्वत प्रेम को को परिभाषित किया जासकता है    
आज 1 जून 2015 को पहला दिन आज मैं नवभारत टाइम्स ज्वाइन करने के लिए जा रहा हूँ। मन में कुछ अजीब सा डर है। अभी अभी हनुमान चालीसा का पाठ किया,तब जाकर दुबारा से लिखने बैठा हूँ। आज तक जो भी मेरे साथ अच्छा हुआ सब ईश्वर की कृपा के कारण हुआ।मेरे अंदर विद्यमान आत्मा रूपी परमात्मा ने आसपास के वातावरण से सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करके इन अच्छे कामों को करवाया।ईश्वर जिसमे सम्पूर्ण ब्रह्मांड की रचना की प्रथम व्यक्ति से लेकर अंतिम जीव तक का निर्माण किया उस ईश्वर से भिड़ने की क्षमता हमारी नहीं।और इतिहास साक्षी है कि जब जब मनुष्य ने ईश्वर की परिकल्पना के आधारभूत स्तंभ अर्थात प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की है तब तब ईश्वर ने स्वयं को प्रमाणित किया है।यदि ईश्वर के इन इशारों को हम नहीं समझ रहे तो यह हमारी नादानी है, अब ईश्वर स्वयं हमारे सामने आकर ये तो नहीं कहेगा कि देखो मैं ईश्वर हूँ, मेरे द्वारा बनाई गई चीजों का दोहन मत करो। इसी मूल सिद्धांत के साथ मैंने अपने जीवन को यापित किया है। अपने जीवन यापन हेतु किसी प्रकार के अनर्गल सिद्धांत को प्रतिपादित नहीं किया। ईश्वर की सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाकर हम स्वयं को कितना भी बड़ा ज्ञानी साबित करने में लगे हों लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसा करके हम स्वयं पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।
हमने ओम को पढ़ा तो बहुत लेकिन कभी ओम को समझा नहीं....हमने रामायण तो पढ़ ली लेकिन राम के चरित्र को समझने का प्रयास नहीं किया, राम के चरित्र को स्वयं में नहीं उतारा। और तो और हमने तो द्वापर युग के महानायक श्री कृष्ण को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। जिन वेदों की ऋचाओं पर आज जर्मनी शोध कर रहा है उन ऋचाओं को कभी हमने गंभीरता से समझने का प्रयास ही नहीं किया। अपने गौरवशाली अतीत को भूलकर अकबर को महान बताया । अपनी परंपराओं को , अपनी संस्कृति , अपनी सभ्यता को गिरा हुआ बताकर स्तरहीन पश्चिमी जगत का अंधानुकरण किया।

जब कोई व्यक्ति अपने पिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगे तो समझ लेना चाहिए कि उस व्यक्ति का अंत निकट है।

धन्यवाद नोएडा


10 जुलाई 2013 को जब एम जे करने के लिए नोएडा आना हुआ तो अपने जीवन से कुछ उम्मीदें थीं । आज 2 वर्षों के बाद जब इन दो सालों का विश्लेषण करने बैठा तो एहसास हुआ कि जितना सोचा था उससे कहीं ज्यादा नोएडा ने दे दिया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नोएडा परिसर के शिक्षकों का आशीर्वाद एवं सहयोग मेरे 2 वर्षों का आधार रहा।
जिन्दगी का वास्तविक आनंद नोएडा में ही मिला। सत्रारंभ में ही रूपेश और आकाश जैसे दोस्त मिले जिन्होंने कुछ समय तक ही सही लेकिन दिल से साथ दिया तो दूसरी ओर प्रवीण और आदित्य जैसे वामपंथी विचारधारा के संवाहक मित्र भी मिले जिन्होंने प्रत्येक मौके पर कुछ नया सिखाया। कुछ खट्टी मीठी यादों के साथ ये दो साल तो बीत गए लेकिन कुछ ऐसे अनुभव दे गए जो जीवन भर मेरे साथ रहेंगे।अलग अलग जगह से आए हुए लोगों ने अलग अलग अलग बातें सिखाई।नोएडा ने प्रशांत जैसा दोस्त छीना तो शशिकांत जैसा भाई दे दिया।
घर से दूर बहुत प्यार मिला और साथ ही दिखावे का प्यार करना भी सीख लिया। खुश हूँ कि जितना लेकर आया था आज उससे कहीं ज्यादा है।पता नहीं नोएडा के आँचल में कब तक रहूँगा, लेकिन जब तक भी हूँ इसके द्वारा दिए गए अनुभवों को नहीं भूल पाऊँगा। इस नोएडा ने जितना कुछ सिखाया शायद वो कोई और नहीं सिखा पाता , और शायद इसी लिए किसी ने कहा है कि जो पाठ अनुभव सिखाता है वो पाठ किसी विश्वविद्यालय की किताबें नहीं सिखा सकतीं।यहाँ कुछ लोग मेरे लिए बदले तो कुछ के लिए मैं बदला।कुछ लोगों ने मेरे लिए कुछ को छोड़ा तो किसी के लिए मैंने सबको।
यहाँ उत्कर्ष,ज्ञानदीप,प्रदीप,देवेश जैसे छोटे भाई मिले तो अस्मिता,नैना,अर्जिता जैसी बहनें भी मिलीं। और अंतिम सत्र में सबसे ज्यादा ताकत देने वाली बड़ी बहन ऋचा दीदी को कैसे भूल सकता हूँ।
यहाँ तथाकथित प्रेम के लिए सभी सीमाओं को तोड़ देने वाली तनु कपूर को देखा तो दूसरी ओर चुलबुली सी, नटखट सी साक्षी भी मिली। सात रंगों के बिना इन्द्रधनुष नहीं बनता,अगर इतने सारे अनुभव न मिले होते तो कुछ कमी जरूर रह जाती मेरे जीवन में।और अपनी प्यारी असमां जो हिन्दू मुस्लिम की बहस पर कभी प्यार से समझाती थी तो कभी गुस्से में नाराज होकर चीखती चिल्लाती थी।

खैर दो साल तो बीत गए अब पता नहीं फिर कभी किसी मोड़ पर इन सबसे मुलाकात होगी या नहीं लेकिन इन सबने जितना कुछ सिखाया है वो हमेशा जीवन पर्यन्त इन सबकी याद दिलाता रहेगा।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...