एक फिल्म आ रही आदिपुरुष। सोशल मीडिया पर लोग बॉयकॉट की अपील कर रहे हैं। इस बॉयकॉट की वजह भी बड़ी दिलचस्प है। वह वजह है 'मेकअप'। लंकेश का मेकअप, कई लोगों ने मुझसे पूछा कि आप तो श्रीराम पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, फिर आदिपुरुष के खिलाफ क्यों नहीं लिख रहे? लेकिन क्या वाकई इस आदिपुरुष के खिलाफ लिखने की जरूरत है? मुझे लगता है नहीं! कारण भी समझाता हूं।
सबसे पहली बात तो यह कि आपको किसी भी काम के पीछे का Intention यानी प्रयोजन समझना होगी। 'आदिपुरुष' एक फिल्म है, तो स्वाभाविक है कि प्राथमिक प्रयोजन तो 'बेहतर कलेक्शन' ही होगा। दूसरी बात है मैसेज, यानी फिल्म से संदेश क्या जा रहा है। अभी फिल्म आई नहीं है, लेकिन टीजर से इतना साफ हो गया है कि 'लंकेश' लंका का राजा है और उसने 'राघव' की धर्मपत्नी 'जानकी' का बलपूर्वक अपहरण किया और फिर राघव ने वानर सेना के संग मिलकर न्याय के दो पैरों से अन्याय के दस सिरों को कुचल दिया। एक लाइन में समझे तो राघव ने साफ संदेश दिया कि 'न्याय के हाथों अन्याय का सर्वनाश होकर रहेगा।' मुझे नहीं लगता कि इस संदेश से किसी को कोई समस्या होनी चाहिए।
मत भूलिए, इस देश की आत्मा पर प्रहार करने वाले खलनायकों को भी इसी देश की फिल्मों में नायक बनाते हुए 'सहृदय' दिखाने की कोशिश की गई। वहां ना संदेश स्पष्ट था और ना ही प्रयोजन लेकिन हमने उन्हें बर्दाश्त किया। आज दक्षिण भारत का सिनेमा कम से कम संदेश और वैचारिक प्रयोजन को लेकर तो स्पष्ट है ना? फिर समस्या कहां हैं? आदिपुरुष का टीजर कार्टून जैसा लगे या गेम ऑफ थ्रोन्स की कॉपी, मुझे लगता है कि हमें फोकस सिर्फ संदेश पर करना चाहिए।
अब बात करते हैं 'मेकअप' इत्यादि पर। आपको क्या लगता है कि 70-80 के दशक में फिल्मों को जिस रूप में प्रदर्शित किया जाता था, उसी तरह से आज भी प्रदर्शित किया जाए तो आज की पीढ़ी देखेगी क्या? बात व्यावहारिक करिए, आपके घर का बच्चा क्या किसी पुरानी फिल्म को उतनी रुचि से देखेगा, जितनी रुचि से वह 'Vlad and Niki', 'Shafa and Soso' या लाखों रुपये के खिलौनों के साथ बनाया गया यूट्यूब वीडियो देखता है? अपवाद छोड़ दीजिए, लेकिन सामान्यतः वह नहीं देखेगा क्योंकि आज के वक्त में उसे उन वीडियोज में रोचकता और नयापन नहीं मिलेगा।
मेरा जन्म 90 के दशक में हुआ, हमने पूरे परिवार नहीं, बल्कि मोहल्ले वालों के साथ बैठकर रामानंद सागर की रामायण देखी है, उस एक घंटे के एपिसोड के लिए आधे घंटे इंतजार किया है, लेकिन सोचकर देखिए कि आज हम अपने परिवार को कितना वक्त दे पाते हैं, आस-पड़ोस के लोगों को कितना वक्त दे पाते हैं? वक्त के साथ चीजें बदलती रहती हैं, और वक्त के हिसाब से चलना भी चाहिए। कोई नहीं जानता कि रामानंद सागर की रामायण में जैसा श्रीराम, माता सीता या हनुमान जी को जिस रूप में दिखाया गया है, क्या वाकई में वे उसी रूप में थे? लेकिन हमने उन्हें उसी रूप में लिया क्योंकि हमारे मानस में वैसी छवि बन गई। आने वाली पीढ़ी को अगर इन चरित्रों में रुचि नहीं आएगी तो वे इस पूरे इतिहास से दूर हो जाएंगे।
ढाई-तीन घंटे की फिल्म को अत्यधिक आदर्श रूप में बनाने की कोशिश करेंगे तो नई पीढ़ी, खासकर बच्चों में उन चरित्रों को लेकर सैकड़ों-हजारों सवाल उठेंगे। इन सवालों के जवाब आप दे नहीं पाएंगे, क्योंकि आपने स्वयं अध्ययन नहीं किया है। मेरे मन में भी 14-15 साल की उम्र में 'रामायण' देखकर कई सवाल उठे थे। खासकर उत्तरकांड को लेकर। तब मेरी परदादी ने मेरी जिज्ञासाओं का समाधान किया था। उस वक्त में उनके उम्र के लोगों के पास समय व्यतीत करने के साथ ज्ञानार्जन करने के साधन बस धर्मशास्त्र ही थे। लेकिन आज? खुद से पूछिए कि आपने वाल्मीकि रामायण कितनी बार पढ़ी है? जब पढ़ी नहीं, तो जिज्ञासाओं का समाधान कैसे करेंगे?
मुख्य बात संदेश ही है, वह पहुंचने दीजिए। अगर अन्याय पर न्याय के विजय का यह इतिहास उनतक नहीं पहुंचा तो वे स्पाइरमैन, बैटमैन और कैप्टन अमेरिका को ही आदर्श मानकर थायनोस को राक्षस मान लेंगे।
फिर कह रहा हूं, समय के साथ परिवर्तन बहुत जरूरी है। याद करिए वह वक्त जब कवि सम्मेलनों में फूहड़ता हावी थी, अच्छी कविताओं को सुनने के लिए लोग नहीं मिलते थे। तब एक नवयुवक निकला और उसने हिंदी कविता को कॉन्सर्ट बना दिया। हिंदी कविता को विश्व मंच तक पहुंचाया। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि जब वह नवयुवक बोलता था तो हर उम्र के लोग उससे खुद को जोड़ लेते थे। वह हिंदी के सामान्यतः अप्रचलित शब्दों, जिन्हें आप क्लिष्ट कहते हैं, उनका प्रयोग भी ऐसे करता था, कि श्रोता उस शब्द का अर्थ ना जानते हुए भी समझ जाते थे। वह श्रोताओं के मानसिक स्तर तक पहुंचता था, फिर उनके मानसिक स्तर को खुद के स्तर तक लाता था। हम आज उसे डॉ. कुमार विश्वास के नाम से जानते हैं।
लोगों ने उनका भी बहुत विरोध किया। कई बड़े और पुराने कवियों ने तो निजी तौर पर किसी चर्चा के दौरान मुझसे बड़े गलत से शब्दों का प्रयोग किया। लेकिन विश्वास मानिए कुमार विश्वास ने करके दिखाया कि साधन महत्वपूर्ण नहीं है, साधना महत्वपूर्ण है। और साधना पर केन्द्रित कर्म होंगे तो साध्य की सात्विकता पर प्रश्नचिह्न लगने का प्रश्न ही नहीं उठता। आज हिंदी से प्रेम करने वाला, हिंदी के विकास और विस्तार को देखकर प्रसन्न होने वाला हर व्यक्ति कुमार विश्वास पर गर्व करता है, क्योंकि उन्होंने हिंदी को ठीक जगह पर पहुंचाने के लिए साधना की।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो स्वयं लिखा है:
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
अब कोई किसी भी तरह से श्रीराम का चरित्र दिखाए, बस उनका चरित्र हनन ना करे, एक अच्छा संदेश दे, बस यही प्रसन्न और संतुष्ट होने के लिए पर्याप्त है।