Friday 29 April 2016

भगत सिंह के असली हत्यारे तो 'आप' हो

युद्धों में कभी नहीं हारे, हम डरते हैं छल-छंदों से।
हर बार पराजय पाई है, अपने घर के जयचंदों से।। (साभार)
भगत सिंह को फांसी दिए जाने के बाद जब उनके शरीर के टुकड़े किए गए, तो उनके शरीर के टुकड़े करने वाले लोग हिंदुस्तानी थे।
भगत सिंह को फांसी देने वाला जल्लाद हिंदुस्तानी था।
भगत सिंह पर जेल में अत्याचार करने वाले लोग हिंदुस्तानी थे।
लाहौर षड़यंत्र केस में भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले हिंदुस्तानी थे।
और आज भारत माता को पूर्ण स्वराज दिलाने का संकल्प करने वाले प्रथम व्यक्ति, भगत सिंह को ‘आतंकवादी’ कहने वाले भी तो हिंदुस्तानी ही हैं।
बड़ी आसानी से किसी डिक्शनरी के आधार पर ‘शब्दों’ की व्याख्याएं कर दी जाती हैं। वह भी ऐसे शब्द की, जिसकी उत्पत्ति का आधार ही विदेशी भाषा है। जब ‘Terrorism’ यानी आतंकवाद की शाब्दिक व्याख्या हो ही रही है तो आइए जरा विस्तार से इस शब्द की व्याख्या समझते हैं। अंग्रेजी भाषा में प्रयुक्त होने वाला शब्द ‘Terrorism’, मूल रूप से लैटिन भाषा के शब्द terrorem से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है great fear, ग्रेट फियर का अर्थ हिंदी में समझें तो महान डर। भगत सिंह भी जिस रास्ते पर चल रहे थे उसका उद्देश्य अंग्रेजी हुकूमत के मन में डर यानी खौफ पैदा करना ही था लेकिन उस खौफ को पैदा करने के उद्देश्य को समझे बिना यदि शाब्दिक व्याख्या के आधार पर ही आतंकवादी घोषित कर दिया जाए तो कहीं ना कहीं उस शहीद के साथ अन्याय होगा।
ऑक्सफ़र्ड डिक्शनरी के मुताबिक आतंकवाद यानी Terrorism का अर्थ होता है  – the use of violent action in order to achieve political aims or to force a government to act. हिंदी में कहें तो ‘किसी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने या सरकार को कोई काम करने पर बाध्य करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल’ करना आतंकवाद है और ऐसा करनेवाला आतंकवादी। शब्दों के इस खेल में यहां पर एक अन्य शब्द को समझना भी अत्यंत आवश्यक है।
‘violent’ यानी हिंसा, इस शब्द का अर्थ हम ऑक्सफ़र्ड डिक्शनरी के मुताबिक नहीं अपितु भगत सिंह के विचारों के आधार पर समझने की कोशिश करते हैं। भगत सिंह के मुताबिक, ‘जब कोई अपनी ताकत का इस्तेमाल करके दूसरों पर अन्याय करता है, दूसरों का शोषण करता है, दूसरों की आजादी को छीनता है तो उसे हिंसा कहते हैं लेकिन जब कोई अपनी इज्जत और अपने हक के लिए लड़ता है तो उसे हिंसा नहीं आत्मरक्षा कहते हैं।’ भगत सिंह हिंसक थे, ऐसा मानने वाले लोग अवसादग्रस्त ही कहे जा सकते हैं। जब भगत सिंह हिंसक ही नहीं थे यानी उन्होंने हिंसा की ही नहीं तो किस आधार पर उन्हें आतंकवादी कहा जा सकता है?
ब्रिटेन एक ऐसा देश है जहां आतंकवाद को कानूनी आधार पर परिभाषित किया गया है। ब्रिटेन के कानून के मुताबिक, ऐसी कोई भी हरकत आतंकवाद की श्रेणी में आती है जिसमें किसी सरकार पर किसी काम को करवाने के लिए गैरकानूनी तरीके से जबरन दबाव डाला जाए। साथ ही आम जनता को राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक कारणों से धमकाना भी ब्रिटेन के कानून के मुताबिक आतंकवादी हरकत है।
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हम किसी शब्द की परिभाषा किसी अन्य देश के कानून के आधार पर तय कर रहे हैं। ब्रिटिश हुकूमत को जिस काम के लिए ‘बाध्य’ करने की कोशिश की जा रही थी, क्या वास्तव में वह भारत की जनता का अधिकार नहीं था? क्या भगत सिंह ने अथवा उस विचारधारा को मानने वाले लोगों ने आम जनता के खिलाफ कोई हिंसक कार्रवाई की थी? क्या उन्होंने ऐसा कुछ किया था जिससे आम जनता की जिंदगी को खतरा हो? क्या उन्होंने आम जनता की सुरक्षा को किसी प्रकार की क्षति पहुंचाई थी? भगत सिंह ने साफ कहा था, ‘यदि बहरों को सुनाना है तो बहुत जोरदार आवाज करनी होगी। जब हमने बम गिराया तो हमारा ध्येय किसी को मारना नहीं था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था। अंग्रेजों को भारत छोड़ना चाहिए और उसे आजाद करना चाहिए।’
मैं मानता हूं कि अंग्रेजों के दृष्टिकोण से और अंग्रेजों के कानून के आधार पर, अंग्रेजों के लिए भगत सिंह और उस विचारधारा के अनुपालक आतंकवादी ही थे। लेकिन यदि आप उन्हें आतंकवादी कह रहे हैं तो आपको यह भी मानना होगा कि आपके खून में अंग्रेजीयत न सही लेकिन आपके विचारों में अंग्रेजीयत पूरी तरह से भरी हुई है और ऐसे में आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप स्वयं को साम्राज्यवाद का विरोधी बताएं।
महोदय, प्रतिरोध मात्र प्रतिरोध होता है, उसे हिंसक अथवा अहिंसक की श्रेणी में नहीं बांटा जा सकता। भारतीय संस्कृति आधारित महाकाव्य महाभात में एक श्लोक आता है, ‘अहिंसा परमो धर्मः धर्महिंसा तथैव च:।’ अर्थात अहिंसा परम् धर्म है, परंतु साथ ही धर्म हिंसा यानी धर्म के लिए की गई हिंसा भी परम् है। इस दृष्टि से अगर आप किसी को हिंसक कहते हैं तो माना जा सकता है लेकिन अगर किसी अन्य नजरिए से हिंसक कहेंगे तो वह स्वीकार्य नहीं हो सकता। शब्दों से खेलना आपको बखूबी आता होगा लेकिन अपने गौरवशाली अतीत के साथ हम आपको खेलने की अनुमति नहीं दे सकते। भाषा में परिवर्तन के साथ भाव में भी परिवर्तन हो जाता है। मुट्ठी भर लोग हों, व्यापक जनसमुदाय हो अथवा मात्र एक व्यक्ति, यदि मांग, अधिकार आधारित है तथा कोई शांति आधारित विकल्प नहीं बचा है तो अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना क्रांति ही कहलाएगा।
वर्तमान समय के फर्जी क्रांतिकारियों की तुलना भगत सिंह से न की जाए तो ही बेहतर होगा। एसी कमरों में बैठकर, ऐपल का स्मार्टफोन इस्तेमाल करके, प्लेन में घूमकर क्रांति की बातें मात्र कागजों पर ही शोभा देती हैं। जब भगत सिंह से उनकी मां ने कहा कि भगत, तुम अपने आदर्शों, अपने सिद्धान्तों सहित सभी के बारे में सोचते हो लेकिन क्या कभी अपनी मां के बारे में सोचते हो? तो भगत सिंह का जवाब था कि जब मैं अपने देश के बारे में सोचता हूं, अपने देश के लिए कुछ करने के बारे में सोचता हूं तो मुझे ‘आप’ ही दिखती हो। वह भगत सिंह थे जो इस देश में अपनी मां देखते थे। उनको पता था कि जितना समर्पण एक बेटे के रूप में मां के प्रति हो सकता है, उतना किसी अन्य रिश्ते में संभव नहीं। आपको तो शर्म आनी चाहिए कि अपनी तुलना भगत सिंह से करते हो लेकिन इस भारत को मां मानने से कतराते हो।
शब्दों की व्याख्या करना बहुत आसान है लेकिन अगर इस देश की आजादी का इतिहास पढ़ते समय क्रांतिकारियों के समर्पण को महसूस करने की कोशिश करते वक़्त आपकी आंखों में आंसू न आएं और उनको दी जाने वाली यातनाओं को महसूस करने की कोशिश करते समय आपकी आंखों में लाल डोरे न उभरें तो समझ लेना कि आप आजादी के हक़दार नहीं हैं। उन क्रांतिकारियों को यदि आप आतंकवादी मानने में संकोच नहीं करते तो सबसे पहले आपको उनके लिए एक नया शब्द रचना होगा जो मानवता की हत्या करते हैं और फिर उस शब्द के मायने लोगों को समझाने होंगे। हो सकता है आपको लगे कि मैं भावुकता के आधार पर यह सब लिख रहा हूं, तो आप गलत नहीं हैं। मैंने बचपन में राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त को पढ़ा था, उन्होंने लिखा था:
जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
मैं पत्थर नहीं हूं और आपके पत्थर बन चुके विचारों को जीवित करना चाहता हूं। 23 मार्च 1931 को तो सिर्फ उनका शरीर समाप्त हुआ था लेकिन आप लोगों ने तो उनके विचारों की हत्या करनी शुरू कर दी। मात्र राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए उनके विचारों को आपने अपना जरिया बनाया। वह लड़ रहे थे अंग्रेजों से, साम्राज्यवाद से लेकिन आपने तो अपनों को ही मारने वालों का समर्थन करना प्रारंभ कर दिया। लोकतंत्र की हत्या करने की कोशिश में आपने इस देश के क्रांतिकारियों के विचारों की हत्या कर दी। अगर आप अब भी नहीं सुधरे तो भविष्य में लिखा जाने वाला इतिहास आपको अपराधी ही लिखेगा।

Thursday 28 April 2016

लॉकेट में उतरे केजरीवाल, ऐसा विकास करेंगे हम?

kejri-locketकुछ दिन पहले बुध बाजार जाना हुआ। मार्केट घूमते-घूमते अचानक मेरी नजर वहां बिक रहे एक लॉकेट पर गई। वह लॉकेट था दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल का, पहली नजर उस लॉकेट पर पड़ने के बाद मुझे लगा कि शायद उस दुकान पर नेताओं के लॉकेट ही मिलते हों। उत्सुकतावश मैं उस दुकान पर जाकर अन्य लॉकेट देखने लगा। वहां पर श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्री हनुमान के साथ अरविंद केजरीवाल जी के लॉकेट रखे हुए थे। किसी भी देश की राजनीति और नेता उस देश का स्तर तय करते हैं। यह अच्छी बात है कि किसी देश का सामान्य नागरिक अपने गले में किसी नेता का लॉकेट डाल कर उसका अनुसरण करें। लेकिन क्या सच में जिस व्यक्ति की तस्वीर उस लॉकेट में थी उसका स्तर इतना ऊंचा हो गया है कि लोग गले में अपने ईष्ट के स्थान पर उन्हें डाल कर घूमे? मुझे लगता है कि आजाद भारत में अभी तक इस स्तर का कोई नेता नहीं हुआ जो श्रीराम, श्री कृष्ण, ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी मां शारदे अथवा भक्त शिरोमणि श्री हनुमान जी का स्थान ले सके। मुझे ख़ुशी होती अगर उस दुकान पर भगत सिंह, एपीजे अब्दुल कलाम, वीर अब्दुल हमीद और वीर विनायक दामोदर सावरकर के लॉकेट दिखते।
kejri-locket-1वैसे मैं उम्मीद करता हूं कि जल्द ही ऐसा समय भी आएगा जब कोई भारतीय किसी अन्य देश में जाएगा तो कहेगा कि मैं उस देश से आया हूं, जहां राम जैसा राजा हुआ जिसने ऐसा राजधर्म निभाया कि एक सामान्य नागरिक मात्र की संतुष्टि के चलते अपनी धर्मपत्नी से सहर्ष दूरी स्वीकार की, कृष्ण जैसा योगी हुआ जिसने गीता जैसे ज्ञान से समाज को व्यवहारिकता का पाठ पढ़ाया, पन्ना जैसी राजभक्त नारी हुई जिसने राष्ट्र रक्षा हेतु अपने बेटे का बलिदान करने में भी संकोच नहीं किया, युवा हुआ तो भगत सिंह जैसा जिसने देश की स्वतंत्रता हेतु युवाओं को खड़ा होने की शक्ति देने के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर दिया, क्रांतिकारी हुआ तो सावरकर जैसा जिसने साम्राज्यवाद के गढ़ में घुसकर उसकी जड़ें हिला दीं, सैनिक हुआ तो हमीद जैसा जिसने दुश्मन को नाकों चने चबवा दिए, वैज्ञानिक हुआ तो अब्दुल कलाम जैसा जिसने भारत को इस लायक बनाया कि आज हम दुनिया भर के दादाओं से नज़र मिला कर बात कर पाते हैं और नेता हुआ तो… जैसा जिसने भारत को सबसे पहले माना और भारत को आधुनिक विश्वगुरु बनाया। जिसने भारत को भेदभाव रहित बनाया, जिसने इस देश के सामान्य नागरिक के मन से राष्ट्रीय सम्पदा के दोहन का विचार निकाल दिया। वैसे इन सब के पीछे एक सत्य यह भी है कि सामान्य नागरिक को भी सहयोग करना होगा। इस देश की राजनीति और सामान्य नागरिक से मां भारती को अपेक्षा है कि उपरोक्त रिक्त स्थान को जल्द भरने का प्रयास करे।
राजनीति कोई बुरी चीज नहीं है। एक अजन्मे बच्चे के भविष्य से लेकर मृत व्यक्ति तक के भविष्य का निर्धारण राजनीति करती है। राजनीति बुरी चीज है, यह कहकर यदि हम इससे बचने का प्रयास करेंगे तो भविष्य में लिखा जाने वाला इतिहास हमें ‘डरपोक’ और ‘कर्तव्यविमूढ़’ कहेगा। मैं मानता हूं कि राजनीति में कुछ बुराइयां आ गई हैं लेकिन उन बुराइयों को अपने स्तर पर दूर करने का प्रयास करने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही है। राजनीति की परिभाषा को बदलना होगा। नेताओं के साथ-साथ सामान्य जनमानस को भी समझना होगा कि ‘राज करने की नीति’ को राजनीति नहीं कहते बल्कि ‘राजकीय व्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाने की नीति’ राजनीति कहलाती है। विचारधाराओं में मतभेद आवश्यक हैं लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए क्योंकि यदि मनभेद हो गए तो यह संभव है कि इस कोई सामान्य व्यक्ति सीएम या पीएम की कुर्सी पर बैठ कर नेता बन जाए लेकिन वह राजनेता नहीं बन पाएगा। यदि भारत को परम् वैभव पर ले जाने स्वप्न को साकार करना है तो विचारधाराओं के दुशाले उतार कर फेंकने होंगे और देश के विपक्ष को उचित समय पर सत्ता का सहयोग करना होगा। साथ ही सत्ता पक्ष को भी विपक्ष के सुझावों पर ध्यान देना होगा।

Tuesday 26 April 2016

'ऑड-ईवन' पर देश के मन की बात सुनिए मोदीजी!

किसी ने सच ही कहा है कि सत्ता का नशा हर तरह के नियम, कायदे और कानून भुला देता है। कुछ ऐसा ही हाल वर्तमान समय में भारत के नेताओं का हो चुका है।kejriwal देश की राजधानी में जब हमारे ‘माननीय’ ही नियमों को तोड़ने से परहेज नहीं करते तो एक सामान्य व्यक्ति से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह नियमों का पालन करेगा? कल कुछ सांसदों ने ऑड-ईवन नियम तोड़ा। किसी ने नियम तोड़कर माफी मांगी तो किसी ने दिल्ली के सीएम केजरीवाल को मनोरोगी की संज्ञा दे दी। क्या राजनीति ऐसी होनी चाहिए? क्या अपनी विपक्षी पार्टी को नीचा दिखाने का यही तरीका होना चाहिए? क्या देश और समाज हित में कोई प्रयोग किया जा रहा है तो उस प्रयोग का समर्थन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर नहीं किया जाना चाहिए?
दिल्ली प्रदेश में बीजेपी, आज विपक्ष की पार्टी है। विपक्ष का काम सत्ता का विरोध करना नहीं होता है बल्कि विपक्ष का काम सत्ता को समाज हित में नए रास्ते दिखाने का होता है। विपक्ष का काम सत्ता को गिराने का नहीं होता बल्कि विपक्ष का काम होता है कि जब सत्ता लड़खड़ाए, तो विपक्ष उसे एक नया विकल्प दे। पीएम नरेन्द्र मोदी ने जनधन योजना के रूप में इसी प्रकार का एक प्रयोग किया था, वह प्रयोग सफल भी माना जा सकता है। लेकिन एक बार कल्पना करिए कि यदि 31 प्रतिशत वोट पाकर सरकार में आई एनडीए की सभी योजनाओं-परियोजनाओं का विरोध अन्य सभी विपक्षी पार्टियां करने लगें तो क्या ये योजनाएं सफल होंगी। दिल्ली में ऑड-ईवन एक प्रयोग है, हो सकता है कि इससे कोई खास फर्क न पड़े, लेकिन क्या इस परिकल्पना के चलते इस प्रयोग को किया ही न जाए! जब कई देशों में इस नियम के सकारात्मक प्रभाव देखने को मिले हों तब मात्र अहंकारवश दलगत राजनीति से प्रेरित होकर नियमों का उल्लंघन करना बीजेपी जैसी पार्टियों को शोभा नहीं देता।
vijay goel
ऑड-ईवन का विरोध कर नियम तोड़ते बीजेपी के विजय गोयल।
देश के प्रधान ने जब लोकसभा में कहा, ‘हम (सरकार) चाहते हैं कि विपक्ष हमारे साथ मिलकर काम करे।’ तो मुझे लगा कि चलो कोई तो है जो पक्ष-विपक्ष के सामंजस्य के साथ कुछ अच्छा करना चाहता है। लेकिन यही अपेक्षा एक विपक्ष के रूप में इस देश को बीजेपी से भी है। संभव है कि नियम तोड़ने वाले हमारे ‘माननीयों’ को ऑड-ईवन के विषय में जानकारी ना हो और वे गलती से गलत नंबर वाली गाड़ी ले आए हों लेकिन क्या नैशनल मीडिया पर छाए रहने वाले एक विषय के बारे में सांसदों को जानकारी न होना, उचित है? कितना अच्छा होता यदि हमारे पीएम साहब कम से कम एनडीए सांसदों को ऑड-ईवन का पालन करने के लिए सार्वजनिक रूप से कहते।
बीजेपी के दृष्टिकोण से केजरीवाल में लाख बुराइयां होंगी लेकिन इस देश के राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि कोई भी सरकार जब कोई नियम अथवा योजना लाती है, तो समाज हित के लिए ही लाती है। दिल्ली की जनता ने ऑड-ईवन को स्वीकार किया है ऐसे में किसी के द्वारा भी बिना किसी आधार के इसका विरोध करना राजनीति के निम्नतम स्तर को दर्शाता है। अच्छे उद्देश्य के साथ किए जा रहे प्रयोग पर देश के सभी दल एक होकर काम करें तभी ‘भारत माता’ की जय होगी। किसी से जबरदस्ती एक नारा लगवाकर मां भारती की ‘जय’ नहीं हो सकती।
Modiएक सकारात्मक प्रयोग पर सभी का समर्थन मिलना, एक नई तरह की राजनीति का जन्म होगा। सत्ता, समाज कार्य का साधन है, यदि उसे साध्य मान लिया जाएगा तो निश्चित ही समाज हित नहीं हो सकता। साध्य तो समाज हित ही होना चाहिए। देश की राजनीति में परिवर्तन परम आवश्यक है। देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक सिंहासन पर बैठने वाले व्यक्ति का दायित्व है कि वह इस राजनीति में परिवर्तन के लिए नींव पूजन करे। नए प्रयोग में नुकसान हो सकते हैं लेकिन उन नुकसानों के डर के चलते यदि प्रयोग न किए गए तो देश की हालत बद से बदतर हो जाएगी और भविष्य इसके लिए सभी नकारात्मक प्रवृत्ति वाले, दलगत राजनीति से प्रेरित नेताओं को ही अपराधी मानेगा।

Tuesday 19 April 2016

मैं सनातनी हूं और मनुस्मृति को मानता हूं, लेकिन...

कल नवभारत टाइम्स में एक समाचार, ‘संघ बैन न होता तो आंबेडकर नहीं करते धर्म परिवर्तन: RSS‘ पढ़ा। वैसे उसे यदि समाचार न कहकर साक्षात्कार कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।manu विश्व के सबसे बड़े गैरराजनीतिक संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार से बातचीत के आधार पर तैयार की गई। उस खबर के मुताबिक नंदकुमार ने कहा कि कोई हिंदू, मनुस्मृति को नहीं मानता। मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूं। संभवतः उन्होंने अपने इस वाक्य में ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग एक ‘रिलिजन’ के रूप में किया था, लेकिन जितना मैं जानता हूं, संघ ‘हिंदू’ को रिलिजन नहीं मानता बल्कि एक जीवन पद्धति मानता है। जिसे दूसरे शब्दों में राष्ट्रीयता भी कहा जाता है।
एक सनातनी होने के नाते, मैं मनुस्मृति को मानता हूं। लेकिन मेरे इस वाक्य पर एक सवाल तो बनता है कि आखिर मैं मनुस्मृति को क्यों मानता हूं? चलिए तो इसका जवाब दे देता हूं। लेकिन इससे पहले यह जान लीजिए कि मनुस्मृति की रचना करने वाले मनु थे कौन।
सनातन मान्यताओं के अनुसार मनु को प्रथम पुरुष और सतरूपा को प्रथम स्त्री माना जाता है। साथ ही सनातन परंपरा का विश्वास है कि प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव या मनुष्य कहलाए। ‘मनुस्मृति’ एक उपदेश है जो आदिपुरुष मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। मनुस्मृति पर बहुत से आरोप लगते रहते हैं लेकिन अपने थोड़े से सकारात्मक दृष्टि से किए गए अध्ययन के आधार पर कुछ तथ्य सामने आए हैं और मुझे लगता है कि उन तथ्यों को यदि जीवन और समाज का आधार बनाया जाए तो 90 प्रतिशत समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
योगाधिराज श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, ‘अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:’ अर्थात अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है, और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है। अब यह मत कहिएगा कि गीता हिंसा की समर्थक है क्योंकि मनुस्मृति में धर्म की बहुत ही स्पष्ट परिभाषा दी हुई है, मनुस्मृति के मुताबिक आचार: परमो धर्म अर्थात सदाचार परम धर्म है। इसके अलावा भारतीय संस्कृति में ‘धार्यते इति धर्म:’ अर्थात जो धारण किया जाए वह धर्म है, ऐसी मान्यता को आधार माना जाता है।
कर्म को ही धर्म मानने वाली भारतीय संस्कृति में हिंसा को अपने धर्म की रक्षा हेतु उचित बताया गया है यानी अगर देश की सीमा पर सुरक्षा हेतु तैनात कोई सैनिक अपने धर्म (कर्म) की रक्षा हेतु किसी को मारता है तो उसे उचित माना जाएगा। इसके साथ ही पुनः याद दिलाना चाहूंगा कि इस संस्कृति में अहिंसा को ही परम धर्म माना गया है। धर्म-कर्म और हिंसा-अहिंसा के बीच इतना सुंदर सामंजस्य मनुस्मृति तथा अन्य भारतीय ग्रंथ ही देते है। इसके आगे मनुस्मृति कहती है कि धर्मो रक्षति रक्षितः, अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। बहुत स्पष्ट, सुन्दर और चिंतनीय बात है कि यदि हम अपने कर्म को पूर्ण तन्मयता से करेंगे तो निश्चित ही कभी किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा। यही तो श्रीकृष्ण ने गीता में भी कहा था।
मनुस्मृति के विषय में कहा जाता है कि वह नारी स्वतंत्रता के खिलाफ है। लेकिन जितना मैंने पढ़ा है, मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 56वें श्लोक में वर्णित है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:, यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:’, अर्थात जहां पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां उनकी पूजा नहीं होती, वहां सब काम निष्फल होते हैं। नारी के लिए ऐसा भाव भारतीय परंपरा को छोड़कर किसी अन्य परंपरा में नहीं दिखता और यह परंपरा मनुस्मृति आधारित है। तो बताइए आखिर किस आधार पर मनुस्मृति का विरोध किया जाए।
मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के 138वें श्लोक का अर्थ मुझे बताया गया कि स्त्री, रोगी, भारवाहक, अधिक आयुवाले, विद्यार्थी, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए। इसी मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 52वें श्लोक में कहा गया कि जो वर के पिता, भाई, रिश्तेदार आदि लोभवश, कन्या या कन्या पक्ष से धन, संपत्ति, वाहन या वस्त्रों को लेकर उपभोग करके जीते हैं वे महानीच लोग हैं। क्या दहेज प्रथा का इससे बड़ा विरोध कोई कर सकता है?
आज इस देश में भ्रष्टाचार से भी बड़ी कोई बीमारी है तो वह जातिवाद है। मैं मानता हूं कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था इस देश की एकात्मता, अखंडता और एकता के लिए खतरा है लेकिन इस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराना गलत होगा।manusmriti नीति की स्पष्ट व्याख्या मनुस्मृति में मिलती है, आज जब पूरा दलित आंदोलन मनुवाद के विरोध पर टिका है, ऐसे समय में मैं बताना चाहता हूं कि वर्ण व्यव्स्था को जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के आधार पर शुरू किया गया था। वर्ण अर्थात वरण करने वाला यानी चुनाव करने वाला, अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्म को चुनने का अधिकार था। उस गुण, कर्म, स्वभाव आधारित व्यवस्था को आज जन्म आधारित बनाकर एक पुण्य संस्कृति का विरोध करना वास्तव में दुखद है। मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 109वें श्लोक में साफ तौर पर कहा गया है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए। अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्म से ब्राह्मण या ऊंची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति के 10वें अध्याय के 65वें श्लोक में कहा गया है कि ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र, ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं। मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ठ कर्म नहीं करता, तो वह शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है। अब अगर आप उस शूद्र शब्द को जन्म आधारित जाति से जोड़ दें तो गलत होगा। इन सब बातों का अर्थ यह नहीं कि आज भी जाति व्यवस्था (कर्म आधारित) होनी चाहिए क्योंकि परिवेश परिवर्तित हो चुका है। पहले ब्राह्मण का काम मात्र शिक्षित करना, क्षत्रिय का काम राष्ट्र रक्षा करना, वैश्य का काम व्यापार करना और शूद्र का काम अन्य तीनों की सेवा का रहता था। शूद्र वर्ग के लोगों ने अन्य तीन वर्गों का चुनाव न करके स्वयं को इस विशेष वर्ग का बना लिया था। ध्यान रहे मैं इस परंपरा में आई विकृतियों की बात नहीं कर रहा हूं अपितु मूल परंपरा की बात कर रहा हूं। आज की परिस्थियां बदल चुकी हैं, आज जब मैं विद्यार्थियों को पढ़ाता हूं तो एक ब्राह्मण होता हूं, जब ऑफिस में जाकर काम करता हूं तो वैश्य होता हूं और जब किसी मंदिर के बाहर पड़ी गंदगी को साफ करते हुए श्रमदान करता हूं तो शूद्र हो जाता हूं, और रही बात क्षत्रिय धर्म की तो अभी तक उसे निभाने का अवसर नहीं मिला।
इतना कुछ होने के बावजूद संभव है कि मनुस्मृति में कुछ ऐसी बातें हों जो आज के परिपेक्ष्य में आत्मसात करने के लिए उपयुक्त न हों अथवा यह भी संभव है कि जिस उद्देश्य के साथ वे बातें लिखी गई हों, वह उद्देश्य हमारी समझ से परे हों लेकिन इस तर्क के साथ पूरी मनुस्मृति को नकार देना अनुचित होगा। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, सभी को परिवर्तित होना चाहिए लेकिन उस परिवर्तन की दिशा सकारात्मक होनी चाहिए। सकारात्मक सोचें, सकारात्मक समझें और सकारात्मक करें……हमें तो गर्व करना चाहिए कि हमारे देश में 2000 से अधिक सालों का इतिहास रखने वाली सेवा समर्पित ईसाईयत है, 1400 से अधिक सालों का इतिहास रखने वाला शांतिप्रिय इस्लाम है, लगभग 500 सालों का गौरवशाली इतिहास रखने वाला सिख पंथ है, बौद्ध, जैन, यहूदी, पारसी और आदि काल से चला आ रहा पूर्ण सनातन भी है। जिस परंपरा (रिलिजन) में जो भी उचित हो, जो भी वर्तमान परिपेक्ष्य में अनुकरणीय हो, उसे ससम्मान आत्मसात करने में क्या बुराई है? इस प्रश्न पर चिंतन की आवश्यकता है…

Friday 15 April 2016

राम मंदिर की बात करने से पहले श्रीराम के चरित्र को समझें

सर्वप्रथम आपको सपरिवार श्रीराम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएं!
इस देश में वर्तमान समय में एक नई बहस छिड़ी है। लोग मोदी सरकार से उम्मीद करके बैठे हैं कि वह अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण कराएगी। सवाल है कि क्या वर्तमान भारत इस अवस्था में है कि इसकी एकात्मता के आधारभूत स्तंभ श्रीराम का मंदिर बनाया जाए? वैसे इस सवाल के मूल मायनों का उन लोगों से कोई संबंध नहीं है जो मंदिर के नाम पर मात्र एक इमारत चाहते हैं। इस सवाल का सीधा संबंध उन लोगों से है जो श्रीराम को इस देश का सांस्कृतिक आधार मानते हुए रामराज्य को पुनः प्रतिस्थापित कर आदर्श भारत निर्माण करना चाहते हैं।
श्रीराम भारत की अस्मिता के आधार हैं। राम तो वह हैं जो रावण से युद्ध करने को निकलते हैं तो एक राजकुमार होते हुए भी किसी राजा का साथ नहीं लेते बल्कि वंचितों को, वनवासियों को गले लगाते हुए उनसे एक नई सेना का निर्माण करते हैं। भारतीय मानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं बल्कि उनका महत्व इसलिए है कि उन्होंने उन तमाम मुश्किलों का सामना बहुत ही शिष्टतापूर्वक किया। अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने खुद को बेहद गरिमा पूर्ण रखा। मैंने श्रीराम को विश्व का एकमात्र पूर्ण पुरुष मानता हूं और इसका कारण यह है कि मैंने राम को किसी मूर्ति या चित्र में न देखकर एक चरित्र के रूप में देखा, एक ऐसा चरित्र जो स्वयं में पूर्ण है।
दरअसल, राम की पूजा इसलिए नहीं की जाती कि हमारी भौतिक इच्छाएं पूरी हो जाएं, मकान बन जाए, प्रमोशन हो जाए, व्यापार में लाभ हो जाए। बल्कि राम की पूजा हम उनसे यह प्रेरणा लेने के लिए करते हैं कि मुश्किल क्षणों का सामना, धैर्यपूर्वक, बिना विचलित हुए किस प्रकार से किया जाए। राम ने अपने जीवन की परिस्थितियों को सहेजने की काफी कोशिश की, लेकिन वह हमेशा ऐसा कर नहीं सके। उन्होंने कठिन परिस्थतियों में ही अपना जीवन बिताया, जिसमें चीजें लगातार उनके नियंत्रण से बाहर निकलती रहीं, लेकिन इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उन्होंने हमेशा खुद को संयमित और मर्यादित रखा। आध्यात्मिक रूप से व्यावहारिक बनने का यही तो सार है।
संत कबीर कहते हैं कि
राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप।
स्वामिपना माथे पड़ा, कोइ पुरबले पाप।।
अर्थात् राम नाम को महत्व जाने बिना उसे जपना तो न जपने जैसा ही है क्योंकि जब तक मस्तिष्क पर देहाभिमान की छाया है तब तक अपने पापों से छुटकारा नहीं मिल सकता।
Ram
इस संसार में चार राम हैं-
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा।
एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा।।
संसार में चार राम हैं ! जिनमें से तीन को हम जगत व्यवहार में जानते हैं पर चौथा अज्ञात राम ही सार है । उसका विचार करना चाहिए। एक दशरथ पुत्र राम को सभी जानते हैं और एक जो प्रत्येक जीवात्मा के घट (शरीर) में विराजमान हैं तथा एक जो समस्त (सकल) दृश्य-अदृश्य सृष्टि हैं, वह राम ही है अथवा राम में ही है । लेकिन इन सबसे परे जो चौथा (आत्मा) राम है, वही हमारा और इन सबका सार है। अतः उसी चौथे राम को जानना उत्तम है।
जिस देश में लोग भूख से मर रहे हों, जिस देश में लोग अशिक्षित हों, जिस देश में महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता हो और जिस देश में अपने बुजुर्ग माता-पिता को लोग वृद्धाश्रम में छोड़ आते हों वहां एक मंदिर बनाकर क्या हासिल होने वाला है, यह मेरी समझ से परे है। अन्य मंदिरों की तरह से तथाकथित ब्राह्मणों के लिए धनार्जन का एक साधन और बन जाएगा। देश की मूल समस्याओं का समाधान क्या राम मंदिर से संभव होगा? मेरा मत यह है कि यदि वास्तव में हम अपने आराध्य का मंदिर बनाना चाहते हैं तो उसके लिए उनके चरित्र को अपने चरित्र में उतारना होगा। श्रीराम के काल में जैसी समानता, निस्वार्थ राष्ट्रप्रेम, पितृभक्ति, राजनीति और धर्मनिष्ठा थी, उसे जीवन का आधार बनाइए। जब इतना कर लें तो बनाइए एक भव्य श्रीराम मंदिर और पूरे विश्व को संदेश दीजिए कि अपने ईष्ट को हमने अपने जीवन का आधार बनाया है। मात्र एक इमारत और खड़ी कर देने से कुछ भी नहीं होने वाला है।
राम मंदिर के भव्य निर्माण की बात करने से पहले हमें यह समझना होगा कि राम कौन हैं, राम कोई और नहीं हम स्वयं हैं। जब हमारी आंखों के सामने कुछ गलत हो रहा हो और हम उसके खिलाफ संघर्ष करें तो समझ लेना चाहिए कि राम आ गए और जब हम स्वयं कुछ गलत करें अथवा गलत का विरोध न करें तो समझ लेना हम पर रावण हावी हो रहा है।
जब हमारे परिवारों में किसी बच्चे का जन्म होता है तो घर की महिलाएं कुछ गीत गाती हैं। उस गीत में यही कहा जाता है कि राम को कौशल्या ने जन्म दिया है न कि यह कहा जाता है विश्व गौरव या फलाने ने जन्म लिया है। राम किसी उपन्यास के पात्र नहीं हैं, यदि वह किसी उपन्यास के पात्र होते तो यह नाम कब का मिट गया होता। राम तो राष्ट्र की संस्कृति के आधार हैं और इसीलिए जब भारत में किसी का विवाह होता है तो महिलाएं जो गीत गाती हैं उसमें भी यही कहती हैं कि राम और सीता का विवाह हो रहा है।
दोस्तो, आज हम उस देश में रह रहे हैं जहां एक बेटी/बहन के बलात्कारी को नाबालिग करार देते हुए छोड़ दिया जाता है। क्या से क्या हो गए हैं हम? जिस देश में नारी को पूजा समझा जाता था और जिस देश में नारी के सम्मान की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने समुद्र पर पुल बना दिया था उस देश में नारी के साथ ऐसा व्यवहार… बातें राम मंदिर की हो रही हैं…कैसा राम मंदिर, जब आप अपने सम्मान की रक्षा नहीं कर पा रहे तो क्या राम आएंगे….नहीं, हमें ही राम बनना होगा…बदलनी होगी यह व्यवस्था… इस देश की परंपरा को आगे ले जाने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाकर राम के चरित्र को अपनाना होगा और अगर हम इस व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम किसी श्रीराम मंदिर की बात करें…इस भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि देवताओं का वास तो वहां होता है, जहां महिलाओं का सम्मान होता है। यदि हम नारी का सम्मान नहीं कर सकते तो ईंट पत्थर की इमारत तो खड़ी कर सकते हैं लेकिन उसे मंदिर नहीं कह सकते।
श्रीराम सिर्फ सनातनियों की आस्था के कारण ही पूर्ण पुरुष नहीं कहे जाते हैं बल्कि वह अपने कर्मों की वजह से पूज्य माने जाते हैं और पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आइए कुछ विषयों पर आप भी विचार करिए।
भगवान राम द्वारा सीता को यह वचन दिया जाना कि मैं अपने जीवन में सिर्फ एक ही विवाह करूंगा और तुम मेरी एकमात्र पत्नी रहोगी, यह दर्शाता है कि वह बहुविवाह के विरोधी थे जो कि उस समय बहुत ही आम बात थी (श्रीराम से पूर्व की पीढ़ियों का इतिहास इस बात का साक्षी है)।
क्या आज हम प्रेम के उस स्वरूप को मानते हैं?
जंगल में निषादराज से गले मिलकर भगवान राम ने ऊंच-नीच की भावना पर कुठाराघात किया और हमें यह सन्देश दिया कि जाति अथवा धन आधारित विभेद नहीं होना चाहिए। शबरी जो कि एक अछूत जाति से मानी जाती है, उसके हाथों के जूठे बेर खा कर उन्होंने जाति या वर्ण व्यवस्था को कर्म आधारित प्रमाणित कर दिया और हमें यह सन्देश दिया कि मोल व्यक्तियों और उसकी भावनाओं का होता है ना कि उसके कुल या जाति का।
क्या आज हम उस प्रकार का भेदभाव रहित आचरण करते हैं?
जंगल में ही अहिल्या को शापमुक्त कर उन्होंने यह सन्देश दिया कि अनजाने में हुए गलती, गलती नहीं कहलाती है और बेहतर भविष्य के लिए उसे माफ कर देना ही उचित है। बाली वध का सार यह है कि अगर आपका मित्र सही है तो किसी भी हालत में आपको आपके मित्र की सहायता करनी चाहिए साथ ही येन-केन-प्रकारेण पृथ्वी पर से दुष्टों का संहार जरूरी है ताकि सज्जन चैन से जी सकें।
क्या हमने कभी किसी की गलती पर इतना बड़ा दिल दिखाया?
सीता जी के अपहरण के पश्चात् पहले समुद्र से विनय पूर्वक रास्ता मांगना फिर उस पर ब्रह्मास्त्र से प्रहार को उत्तेजित होना यह दर्शाता है कि शक्तिसंपन्न होने के बाद भी लोगों को अपनी मर्यादा नहीं भुलानी चाहिए, समुद्र को मात्र एक बाण से सुखा देने कि क्षमता होने के बावजूद भी समुद्र पर राम सेतु का बनाना हमें यह सिखाता है कि अगर काम बन जाए तो बिना वजह शक्ति प्रदर्शन अनुचित है। अपने लिए तथा मानव जाति के लिए भी यदि कुछ किया जा रहा है तो अन्य जीवों के विषय में न सोचना अनुचित होगा।
क्या हमने अपनी शक्ति और अपने दायित्व में सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया?
रावण वध के पश्चात् लक्ष्मण को उसके पास शिक्षा ग्रहण करने को भेजना हमें सिखाता है कि ज्ञान जिस से भी मिले जरूर ग्रहण करना चाहिए और मनुष्य को कभी भी यह नहीं समझना चाहिए कि वह स्वयं में सम्पूर्ण है।
क्या हम अपने विरोधियों अथवा शत्रुओं से कुछ सीखने की क्षमता रखते हैं?
सीता की अग्नि परीक्षा पर श्रीराम कहते हैं कि आज यह सीता की अग्नि परीक्षा, अंतिम अग्नि परीक्षा है और दुनिया में फिर किसी नारी को ऐसी प्रताड़ना नहीं दी जाएगी, मनुष्य को अपनी अर्धांगिनी पर विश्वास करना चाहिए क्योंकि माता सीता उतने वर्ष रावण जैसे व्यक्ति के पास रह कर भी पवित्र ही थीं। ठीक उसी प्रकार आधुनिक नारी को भी घर में अथवा बाहर अकेला छोड़ देने के बाद उसकी बातों और उसकी पवित्रता पर अविश्वास प्रकट नहीं करना चाहिए क्योंकि नारी वह शक्ति है जो रावण जैसे नराधम के पार अकेली रह कर भी अपनी लाज की रक्षा करने में सक्षम है। यदि अग्नि परीक्षा नहीं हुई होती तो नारी की सच्चाई संदिग्ध हो जाती परन्तु अग्नि परीक्षा ने यह साबित कर दिया कि नारी के प्रति अविश्वास रखने का कोई कारण नहीं है।
क्या आज हम नारी पर इतना विश्वास करते हैं?
एक धोबी के कहने पर श्रीराम द्वारा माता सीता का परित्याग, उनका राजधर्म था। जहां उन्होंने माता सीता का परित्याग कर यह सन्देश दिया कि राजा की अपनी कोई खुशी अथवा गम नहीं होना चाहिए। अगर राज्य का एक भी व्यक्ति, भले ही वह एक धोबी जैसा निर्धन, निर्बल ही क्यों ना हो, उसका मत और उसकी राय भी महत्वपूर्ण है। कोई भी काम सर्वसम्मति के साथ करना चाहिए और सर्वसम्मति बनाने के लिए अगर राजा को अपनी व्यक्तिगत खुशी का बलिदान भी करना पड़े तो राजा को कर देना चाहिए क्योंकि राजा बनने के बाद व्यक्ति खुद का या परिवार का नहीं रह जाता है बल्कि वह राज्य का हो जाता है। प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी होनी चाहिए और प्रजा के दुख में ही राजा का भी दुख निहित होना चाहिए।
क्या आज के राजनेता ऐसी राजनीति और ऐसा राजधर्म निभाने की क्षमता रखते हैं?
इसलिए मैं तब तक श्रीराम का मंदिर नहीं चाहता हूं जब तक हम राम राज्य स्थापित करने में सक्षम न हो जाएं। जब इस देश का प्रत्येक ‘भारतीय’ यह कहेगा कि मंदिर बने तब मंदिर बनना चाहिए। शब्द पर ध्यान दीजिएगा मात्र प्रत्येक ‘भारतीय’।

Thursday 14 April 2016

सोच बदलिए स्वरूपानंद जी, तब बचेगा सनातन

मैं पिछले कई सालों से सपरिवार शनि शिंगणापुर जाता रहा हूं। मेरी मां और छोटी बहन भी मेरे साथ जाती हैं। आज तक कभी भी उसने यह विषय नहीं उठाया कि शिला के पास महिलाएं क्यों नहीं जाती हैं अपितु मुझे अथवा उसे तो जानकारी भी नहीं थी कि ऐसा कुछ होता है क्योंकि वहां जाकर सामान्य परंपराओं का निर्वहन करते हुए शनि मंदिर से वापस आ जाते थे। कल शाम, इस विषय पर मैंने अपनी बहन के विचार जानने के लिए फोन लगाया तो उसने कहा कि किसी को सिर्फ इसलिए रोकना क्योंकि वह महिला है, गलत ही कहा जाएगा। उसे पहले इस बारे में ना ही कोई जानकारी थी और ना ही कोई फर्क पड़ता था लेकिन तृप्ति देसाई और उनके सहयोगियों द्वारा चलाए गए आंदोलन से माहौल कुछ ऐसा बन गया है, जैसे भारतीय परंपराओं में ‘नारी’ को समान अधिकार नहीं दिए गए। नारी की इस देश में स्थिति क्या थी, उसे जानने के लिए वैदिक काल पढ़ना चाहिए। उसके बाद बुराइयां (संभव है कि तत्कालीन समय के अनुसार वे उचित रही हों) आती गईं और हम बदलते गए। उन्हीं बुराइयों के आधार पर आज कहा जाता है कि भारत में तो महिलाओं का शोषण होता रहा है, उन्हें अधिकार नहीं प्राप्त थे और भी न जाने क्या-क्या। भारतीय संस्कृति पर लगने वाले इस प्रकार के आरोपों का जवाब देने का सबसे अच्छा तरीका है स्वपरिवर्तन।
हो सकता है कि कुछ महिलाओं के हृदय में शनि शिला पूजन की इच्छा जागृत हुई हो और फिर उन्होंने आंदोलन शुरू किया हो। जो कार्य पुरुष कर सकते हैं, उनसे महिलाओं को रोका नहीं जाना चाहिए। मैं इस बात से भी इनकार नहीं करता कि कोई पुरानी परंपरा रही होगी, जिसके आधार पर महिलाओं का शिला के पास जाना वर्जित रहा होगा, उसका तत्कालीन काल परिस्थिति के हिसाब से कारण भी रहा होगा लेकिन क्या परंपराओं को प्रत्येक काल हेतु यथावत प्रतिस्थापित कर देना उचित होता है? मेरे अनुसार नहीं, हमने बहुत सी परंपराएं समयानुकूल होते हुए बदली हैं तो फिर इस परंपरा को क्यों नहीं बदल सकते।
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के बाद सृष्टि सृजन में यदि किसी का सर्वाधिक योगदान है तो वह नारी का है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि सनातन धर्म की सर्वोच्च पदवी पर विराजमान, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती कहते हैं कि महिलाओं द्वारा शनि शिंगणापुर में पूजा किए जाने से बलात्कार बढ़ेंगे।
एक तथाकथित संन्यासी द्वारा इस तरह की बात किए जाने से भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस देश के राजनेताओं को फुर्सत नहीं है कि वे स्वरूपानंद के बयान का विरोध कर सकें। स्वरूपानंद जी, बलात्कार किसी मंदिर अथवा मस्जिद में जाने से नहीं होते, बलात्कार होने का एकमात्र कारण कुत्सित भावना और घटिया कुसंस्कार हैं। वे कुसंस्कार जो ना खून का, ना धागे का, ना शर्म का, ना उम्र का ख्याल करते हैं। उनके लिए नारी का मतलब, बस देह तक सिमटा होता है।
बलात्कार होते हैं सामाजिक भटकाव के कारण, जिसमें आज विज्ञापनों का विशेष योगदान है। उन विज्ञापनों का जिनका उद्देश्य प्रॉडक्ट बेचने से कहीं अधिक लड़की पटवाना लगता है। हमें बदलना होगा और साथ ही बदलना होगा उन परंपराओं को, जो हम में विभेद पैदा करती हैं। मैं मानता हूं कि यह पूरा आंदोलन राजनीति से प्रेरित था, लेकिन इस आंदोलन ने सामान्य महिलाओं का दृष्टिकोण बदल दिया। सामान्य महिलाओं को लगने लगा कि हमारे साथ भेदभाव किया जा रहा है, उनकी इस मानसिकता में परिवर्तन के लिए हमें अपनी परंपराओं में परिवर्तन करने ही होंगे। हमारा दायित्व है कि हम इस देश की आधी आबादी को यह विश्वास दिलाएं कि हमने किसी काम से उन्हें रोका नहीं है बल्कि हम तो स्वागत करते हैं कि जिस परंपरा के निर्वहन की जिम्मेदारी हमारे पूर्वजों ने हमें दी थी, उसमें वे भी सहयोग कर रही हैं। सनातन की रक्षा और सनातन शब्द के अर्थ महात्मय पुनर्स्थापित करने लिए सबसे पहले ‘शंकराचार्य’ जैसी महत्वपूर्ण पदवी पर विराजित स्वरूपानंद सरस्वती को अनुयायियों सहित मानसिकता बदलनी होगी और उसके बाद परंपराओं में यथोचित परिवर्तन लाना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने का उद्देश्य, मात्र स्वप्न बन कर ही रह जाएगा।

Wednesday 13 April 2016

पद की गरिमा देखें शंकराचार्य, साईं का चढ़ावा नहीं

सनातन परंपराओं के सर्वोच्च पद की मान-मर्यादा को तार-तार करते हुए द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कुछ ऐसा कह डाला जो न ही सनातन मूल्यों से मेल खाता है और न ही भारतीय परंपरा से। स्वामी स्वरूपानंद ने कहा कि महाराष्ट्र में साईं बाबा की पूजा करने से सूखे के हालात आए हैं। उन्होंने कहा, ‘साईं बाबा फकीर थे और एक फकीर की पूजा करने से इस तरह का विनाश होना तय है। जब अयोग्य लोगों की पूजा होने लगती है और उन्हें ईश्वर बनाया जाता है तो प्रकृति अपना प्रकोप दिखाती है। महाराष्ट्र में भीषण सूखा उसी प्रकोप का नतीजा है।’
क्या सच में सनातन परंपरा यही मानती है? बिल्कुल नहीं। श्रीराम कौन थे? श्रीकृष्ण कौन थे? क्या उनका अपना व्यक्तिगत जीवन नहीं था? सनातन संस्कृति ‘अहं ब्रह्माऽस्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं तथा ‘तत्त्वमसि’ यानी वह ब्रह्म तुम्हीं हो, में विश्वास रखती है। यदि हम श्रीराम और श्रीकृष्ण को उनके सद्कर्मों के आधार पर पूज्य मान सकते हैं तो क्या समस्त मानव जाति को शांति एवं सद्भावना का संदेश देने वाले एक फकीर का सिर्फ इसलिए विरोध करना उचित होगा कि उसने किसी अन्य पूजा पद्धति में विश्वास रखने वाली परंपरा को आत्मसात किया।
गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं कहते है, ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो’ अर्थात मैं (ब्रह्म) सभी प्राणियों के दिल में बसता हूं। क्या वह ब्रह्म इस धरती पर रहने वाले प्रत्येक जीव में नहीं है? सनातन परंपरा तो ‘नाग’ को भी दूध पिलाने में विश्वास रखती है क्योंकि उसमें भी ब्रह्म है तो क्या किसी मानव की पूजा करने से सूखा पड़ने जैसी बातें कहना उचित है? व्यक्तिगत रूप से मैं किसी मंदिर में जाकर पैसा चढ़ाने अथवा किसी पुजारी के चरणों में धन रखने में विश्वास नहीं रखता। मेरा मानना है कि जो पैसा हम मंदिर में भगवान के नाम पर चढ़ाते हैं अगर उस पैसे से किसी गरीब को एक समय का भोजन करा कर तृप्त कर दिया तो ईश्वर तृप्त हो जाएगा। मैं संपूर्ण विश्व में सनातन परंपरा की पताका फहराने वाले स्वामी विवेकानंद के उस विचार का अनुसरण करता हूं जिसका आधार था, ‘मैं उस ईश्वर का सेवक हूं जिसे नादान लोग मनुष्य कहते हैं।’ इतना कुछ होते हुए भी मैं मंदिर जाता हूं, कुछ मांगने के लिए नहीं, अपितु मन की शांति के लिए। मैं शिरडी भी जाता हूं और मथुरा भी जाता हूं, मैं कहां जाऊंगा और किसका पूजन करूंगा, यह तय करने का अधिकार सिर्फ मेरा है।
आदि शंकराचार्य ने इस भारत को एक करने के लिए तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करने के लिए चार मठों की परंपरा का प्रारंभ किया था लेकिन क्या आज के शंकराचार्य उस परंपरा पुष्पित और पल्लवित करने का प्रयास कर रहे हैं? समभाव स्थापित करने के लिए जिस परंपरा का प्रारंभ किया गया था आज वह परंपरा अपने अस्तित्व की तलाश में ही कहीं खो गई है।
स्वामी स्वरूपानंद को मां सीता का हरण करने वाले रावण की पूजा नहीं दिखती, उनको यह नहीं दिखता कि उनके ही ‘आशीर्वाद’ से सत्ता पाने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता हमारे पूर्वज श्रीराम के जन्म पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, और तो और उनको यह भी नहीं दिखता कि जिस भारतवर्ष की एकता, अखंडता और एकात्मता के संरक्षण के लिए ‘शंकराचार्य’ की परंपरा शुरू हुई थी, उसी भारतभूमि के टुकड़े करने की आवाजें इसी धरती पर उठती हैं। उनको दिखता है तो बस यह कि कौन, कहां, किस मंदिर में जाकर किसकी मूर्ति पर फूल चढ़ा रहा है। यदि सच में स्वरूपानंद सरस्वती को अपने पद की गरिमा का भान होता तो जब जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगे थे, उस दौरान वह तत्काल प्रभाव से एक धर्म संसद बुलाते और ऐलान करते कि भारत की अखंडता पर किसी प्रकार का आघात सहन नहीं किया जाएगा।
कुछ लोगों का कहना है कि साईं-शंकराचार्य विवाद के पीछे साईं मंदिर का ‘चढ़ावा’ मूल विषय है। संभव है कि ऐसा हो लेकिन मेरा मानना है कि शंकराचार्य जैसे पद पर आसीन व्यक्ति को इन विषयों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।sai मुझे तो यहां तक लगता है कि ‘चढ़ावा’ तो सनातन परंपरा की एक कुरीति है, जिसे समाप्त करना चाहिए। लेकिन शंकराचार्य का काम यह नहीं है कि वह इस कुरीति को समाप्त करने के लिए एक अंधविश्वास को बढ़ावा दें। मंदिर, श्रीसाईं का हो या श्रीहनुमान का, कहीं पर भी कुछ मांगने की इच्छा से जाना शायद भक्ति नहीं लालच है। इसके बाद भी ‘मुझे पास करा दो, 2 किलो देशी घी के लड्डू चढ़ाऊंगा’ जैसी बातें तो प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार लगती हैं। भ्रष्टाचार के इस दलदल में अपने ईष्ट को फंसाने की आवश्यकता किसे और क्यों महसूस होती है, इस बात को समझना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है।
जो परम पिता परमेश्वर इस सृष्टि को चला रहा है, उसके सामने खड़े होकर यह बताना कि मुझे क्या चाहिए, अत्यंत हास्यास्पद लगता है। अगर मेरे हृदय की बात को अगर वह परमेश्वर भी बिना कहे नहीं समझता है तो कौन समझेगा? कुछ भी प्राप्त करने के लिए कर्म की प्रधानता अनिवार्य है। अपने मन के ब्रह्म के प्रति पूर्ण समर्पित होकर यदि कार्य किया गया तो विश्वास मानिए, किसी मंदिर, मजार, गुरुद्वारे या चर्च में कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

Friday 8 April 2016

गौरवशाली अतीत और समृद्धि की प्रतीक है वर्ष प्रतिपदा

भारतीय कालगणना के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि अर्थात प्रतिपदा से नव संवत्सर का आरम्भ होता है। इस तिथि को वर्ष-प्रतिपदा कहते हैं। भारतवर्ष में युधिष्ठिर संवत्, विक्रम संवत्, शालिवाहन शक संवत् आदि का आरम्भ वर्ष-प्रतिपदा से ही होता है। शासकीय दृष्टि से शक संवत् को मान्यता प्राप्त है, परन्तु जनजीवन में विक्रम संवत् को ही प्रमुखता दी गई है। वर्ष-प्रतिपदा का राष्ट्रीय विजय की स्फूर्तिप्रद स्मृति से भी सम्बन्ध है। श्रीरामचन्द्र का राज्याभिषेक वर्ष-प्रतिपदा के दिन ही हुआ था। इस दिन घर-घर पर ध्वज-पताकाएं लगाई जाती हैं जो हमारे पूर्वजों के शौर्य का स्मरण दिलाती है। ऋतुओं के पूरे एक चक्र को संवत्सर कहते हैं अर्थात किसी ऋतु से आरम्भ करके ठीक उसी ऋतु के पुनः आने तक जितना समय लगता है उसे संवत्सर कहते हैं।
चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि ।
शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति ।।
ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के अनुसार चैत्र मास के प्रथम सूर्योदय के साथ ही ब्रह्म जी ने सृष्टि की रचना की थी।
वसन्त ऋतु के आरम्भ से संवत्सरारम्भ माना जाता है, यह पूर्ण वैज्ञानिक है। वसन्त ऋतु नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति के नवश्रृंगार का आरम्भ-समय है। प्रत्येक वृक्ष-लता आदि इस ऋतु में अपने जीर्ण-शीर्ण पत्तों को त्यागकर पुनः नवीनता प्राप्त करते हैं। इसके साथ-साथ इस तिथि पर सूर्य भी अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि ‘मेष’ में इसी ऋतु में आता है। दैनिक जीवन में सूर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस तिथि को संवत्सरारम्भ सूर्य के प्रति आस्था का भी प्रतीक माना गया है।
इस तिथि के कई ऐतिहासिक महत्व भी है। इसी तिथि को सम्राट विक्रमादित्य ने 2072 साल पहले अपना राज्य स्थापित कर विक्रम संवत की शुरुआत की। इसी दिन लंका में राक्षसों का संहार कर अयोध्या लौटे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया था। इसी तिथि से शक्ति और भक्ति के प्रतीक, नौ दिन अर्थात नवरात्र का प्रारंभ होता है।
इसी दिन शालिवाहन संवत्सर भी प्रारंभ होता है। इसी दिन विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित किया था। समाज से आडंबरों का विनाश करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी दिन सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगददेव का जन्म दिवस भी होता है। इस विशेष तिथि को ही सिंध प्रांत के प्रसिद्घ समाज रक्षक वरुणावतार संत झूलेलाल प्रकट हुए थे। इस वर्ष से 5118 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ तथा युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन भी इसी तिथि को होता है। इतना ही नहीं इस देश की एकता, अखंडता एवं एकात्मता के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करना वाले डॉ. केशव राव बलीराम हेडगेवार का जन्म भी इसी दिन हुआ था।
इन ऐतिहासिक महत्वों के साथ साथ वर्ष प्रतिपदा प्राकृतिक रूप से भी काफी समृद्ध है। वसंत ऋतु का प्रारंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। यह ऋतु उल्लास, उमंग, खुशी तथा पुष्पों की सुगंध से परिपूर्ण होती है। यही वह समय होता है जब किसान की मेहनत का फल मिलने वाला होता है अर्थात इस समय फसल पकना शुरू होती है। यह वह समय होता है जब नक्षत्र शुभ स्थिति में होते है अर्थात किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए यह सबसे शुभ मुहूर्त होता है।
मैं यह नहीं कहता कि प्रत्येक भारतीय को मात्र वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर ही खुशियां मनानी चाहिए। इस देश की संस्कृति का मजबूत स्तंभ, यहां की उत्सवधर्मिता है। सभी को स्वीकार करिए लेकिन स्वयं को भूलकर नहीं। भारत में तो प्रत्येक समुदाय का एक विशेष नववर्ष होता है, उनको भी मनाइए और साथ ही अंग्रेजी नववर्ष भी मनाइए। हम जब भारत में माने जाने वाले अधिकतर त्योहारों पर भारतीय कालगणना के हिसाब से अवकाश लेते हैं तो उस कालगणना पर आधारित नववर्ष की शुभकामनाएं देने से कतराते क्यों हैं? तो आइए, नए संवत्सर पर हम अपने महापुरुषों से प्रेरणा लें और कामना करें कि नूतन संवत्सर 2073 हमारे देश के लिए सुख-समृद्धिकारक और मंगलदायक हो।

Thursday 7 April 2016

कैसे तुमको बतलाता कि जीवन का आधार तुम्हीं थी

कैसा जीवन है बिन तेरे, कैसे तुमको समझाऊं
नहीं रहा अब प्रेम पुराना, कैसे मन को बतलाऊं।

जीवन की उस नरम डोर को जब से तुमने छोड़ा है
हर पागल दीवाने ने मुझसे, खुद को जोड़ा है

प्रेम राग था बड़ा कठिन पर मैंने उसको गाया था
उसी दौर में एक स्वप्न तब मेरी नींद में आया था।

कैसा था अहसान तुम्हारा, मेरे दिल की हसरत पर
हर आहट दस्तक देती थी, मेरे मन की चौखट पर

मिला था जब भी साथ तुम्हारा, खुद से पार गया था मैं
नहीं मिला जब प्रेम तुम्हारा, खुद से हार गया था मैं

नहीं रुका करता है जीवन, किसी के आने जाने से
प्रेम पल्लवित होता है बस, अपने मन को भाने से

यही दिलासा दी थी तुमने, जब मैं मिलने आया था
'नहीं तुम्हारी जगह कोई अब' कहकर हाथ छुड़ाया था

कैसे तुमको बतलाता कि जीवन का आधार तुम्हीं थी
कैसे तुमको समझाता कि मेरा तो विश्वास तुम्हीं थी

Wednesday 6 April 2016

बिना तुम्हारे स्वप्न लोक भी लगता मुझको अधूरा था

तेरी आँखों में डूबा, हृदय प्रफुल्लित हुआ तभी तो
तेरी बाँहों में झूला, शब्द प्रस्फुटित हुआ तभी तो

जीवन का आधार बनी तुम, बसकर मेरी सांसों में
फिर मेरा संसार बनी तुम, आकर मेरी बाँहों में

प्रेमपुंज का दीपक हो तुम, मेरी तुम अभिलाषा हो
मुझको मुझ से मिलाने वाली, तुम मेरी परिभाषा हो

कैसे तुमको नहीं लिखूं मैं, तुम तो मेरी चाहत हो
कलम में पड़ने वाली स्याही, की तुम तो अकुलाहट हो

तुमने जीना सिखलाया, फिर नजर झुका कर चली गई
फिर इस गौरव की इच्छा, बाजार बीच में छली गई

तुझमें खोकर खुद को पाया, कैसे अहसान चुकाऊंगा
तू भी दूर गई तो बोलो कैसे जीवित रह पाऊंगा।

ये शब्द नहीं पीड़ाएँ हैं, जीवन के अकथित पृष्ठों की
था प्रेम भरा तुमने आकर, फिर छोड़ मुझे तुम चली गई।

जाना था तो जाती तुम, क्यों सुन्दर स्वप्न वो दिखलाए
क्यों किया दिखावा मुझसे वो, क्यों महल कीर्ति के बिखराए।

था प्रेम तुम्हारा जीवन में, तब मैं खुद में ही पूरा था
बिना तुम्हारे स्वप्न लोक भी लगता मुझको अधूरा था

पूनम, तुम मरकर भी वेमुला न हुई


ना ही वो किसी वामपंथी संगठन की कार्यकर्ता थी, ना ही किसी टीवी सीरियल की ऐक्ट्रेस। वो थी तो बस एक सीधी- साधी पढ़ी लिखी लड़की जो अपने पैरों पर खड़े होकर अपने और अपने परिवार के लिए कुछ करना चाहती थी। उसकी कुछ ख्वाहिशें थीं, वो चाहती थी कि जिससे वह प्यार करती है उसके साथ अपनी जिंदगी को खुशी के साथ बिताए। उसके लिए जाति-संप्रदाय के कोई मायने नहीं थे, उसके लिए यह बात कोई महत्व नहीं रखती थी कि उसके रिश्ते के लिए घरवाले तैयार होंगे या नहीं, उसे विश्वास था तो अपने प्यार पर या यूं कहें उसे विश्वास था अपने विश्वास पर। लेकिन उसका विश्वास टूटा और जिस लड़के से वह मोहब्बत करती थी, उसने उसे छोड़ दिया। उस लड़की ने इसके लिए उस लड़के की पूरी कौम को दोषी ठहराया। अपनी जगह पर वह गलत नहीं थी क्योंकि उसके लिए उस पूरी कौम का प्रतिनिधित्व वही करता था। और भी मुस्लिम उसके संपर्क में रहे होंगे लेकिन जितना करीब वह था उतना कोई अन्य नहीं हो सकता।

वह लड़का किसी भी संप्रदाय का हो सकता था लेकिन दुर्भाग्यवश वह मुसलमान था और लड़की दलित। अगर वह लड़का कोई हिंदू सवर्ण होता तो शायद आज देश का राष्ट्रीय मीडिया उसे अपनी टीआरपी का साधन बना चुका होता लेकिन गेम उल्टा हो गया और लड़का मुसलमान निकल गया। मीडिया अगर इस मामले को उठाती तो सांप्रदायिक हो जाती, कोई नेता अगर उस लड़की के घर चला जाता तो उसे दंगाई करार दिया जाता। खैर नेता और मीडिया ने अपने चरित्र को साफ सुथरा रखते हुए दायित्व का बखूबी निर्वहन किया साथ देश को हिंदू-मुसलमान में बांटने वालों को इसमें लव जेहाद दिखने लगा और एक लड़का जिसको शायद कुरान की चार आयतें भी याद नहीं होंगी, उसके दुष्कृत्य की वजह से पूरी कौम निशाने पर आ गई।

लेकिन क्या किसी ने सोचा कि इस पूरे मामले में किसने क्या खोया और किसने क्या पाया? मैं बताता हूं, एक लड़की ने अपने सपने खोए, उसने अपनी जिंदगी खोई, उसके मां-बाप ने अपना विश्वास खोया, समाज में मोहब्बत फिर शर्मसार हुई और देश तोड़ने वालों को मिला गया एक मुद्दा। एक ऐसा मुद्दा जिसे लेकर वे आगामी कई सालों तक जब टीवी डिबेट में तर्कहीन हो जाएंगे तो कहेंगे, 'पूनम भारती की जिंदगी से खेलने वाले को मदरसे से ट्रेनिंग मिली थी।'

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि धोखा, फरेब और मौत का भी मजहबीकरण कर दिया जाता है। बिहार के जहानाबाद के शास्त्रीनगर मुहल्ले में रहने वाली पूनम भारती के सुसाइड नोट के मुताबिक, वह जहानाबाद के राजाबाजार मुहल्ले के रहने वाले मुस्लिम युवक जहांगीर अंसारी से प्रेम करती थी। पूनम की मोहब्बत इस कदर परवान चढ़ी कि उसने अपना सब कुछ जहांगीर को सौंप दिया। पूनम मां भी बनने वाली थी लेकिन जहांगीर ने उस बच्चे को पैदा होने से पहले ही मार दिया। आप कह सकते हैं कि पूनम कमजोर थी, वह जिंदगी से हार गई थी, उसे लड़ना चाहिए था लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि यह सब एक दिन में नहीं होता। उसे पूंजीवाद, मनुवाद, संघवाद या ब्राह्मणवाद ने नहीं मारा और अगर वह इनमें से किसी भी 'वाद' से तथाकथित तौर पर संपर्क रखने वाले लड़के ने पूनम के साथ ऐसा किया होता तो शायद आज धृतराष्ट्र की मुद्रा में बैठा मीडिया सबसे पहले पीएम मोदी को निशाना बनाता और विपक्ष शायद यह कहता कि सुरेश प्रभु को इस्तीफा देना चाहिए क्योंकि उसने ट्रेन से कूदकर आत्महत्या की थी। इस देश को खतरा सिर्फ ऐसे लोगों से ही नहीं है जो हिंदू-मुसलमान के नाम पर देश की एकता, अखंडता, एकात्मता और अस्मिता को खंडित कर रहे हैं बल्कि देश को खतरा उन मीडिया वालों और नेताओं से भी है जो स्वयं में हजारों चरित्र समाहित किए हुए हैं।




Friday 1 April 2016

मजाक के नाम पर खिलवाड़ का दिन है अप्रैल 'फूल्स डे'

साल 2003 की बात है, मैं कक्षा 7 का छात्र था। बहुत अधिक समझदार नहीं था लेकिन उस उम्र के बच्चे को पूर्णतया अबोध भी नहीं कहा जा सकता। मेरे साथ कक्षा 12 में पढ़ने वाले नितिन पांडे नाम के एक भैया भी स्कूल जाते थे। वह मेरे घर के पास किराए पर रहते थे और उसी स्कूल के छात्र थे जिसमें मैं पढ़ता था। नितिन भैया मूल रूप से भागलपुर के रहने वाले थे, उनके पिता जी, यूपी के सीतापुर में रहते थे और वहीं एक बैंक में काम करते थे। नितिन भैया की माता जी बीमार होने के कारण भागलपुर में ही रहती थीं।  उस दौरान मोबाइल का प्रचलन आज की तुलना में नगण्य था। पढ़ाई के लिए नितिन भैया लखनऊ में अकेले रहा करते थे। 1 अप्रैल 2003 को हर दिन की तरह हम दोनों साइकल से स्कूल गए। उस दौरान मेरी उम्र के बच्चों के बीच में 'देखो, तुम्हारे पीछे सांप है', 'तुम्हारी ममी बुला रही हैं' जैसे ही मजाक प्रचलन में थे। थोड़ी बहुत मस्ती हम लोग भी करते थे लेकिन वह मस्ती सिर्फ एक खास दिन तक सीमित नहीं थी। मुझे कुछ ऐसा लगता था कि 'अप्रैल फूल' वाले दिन मस्ती करने का अधिकारिक लाइसेंस मिल जाता है। इससे ज्यादा ना ही मैं कुछ जानता था और ना ही कुछ जानना जरूरी समझता था। बस रोज होने वाली मस्ती 1 अप्रैल के दिन कुछ ज्यादा हो जाती थी।

उस दिन भी रोज की तरह ही हम दोनों कॉलेज पहुंचे। दोपहर के समय नितिन भैया के मकान मालिक का स्कूल में फोन आया और उन्होंने बताया कि गांव में नितिन भैया की माता जी का स्वर्गवास हो गया है। नितिन भैया को यह बात पता लगी तो वह मेरे पास आए और अपना स्कूल बैग मुझे देते हुए नम आंखों से बोले, 'इसे घर लिए जाना।' इसके अलावा वह कुछ भी न कह सके और अगने गांव के लिए निकल गए। जब मैं घर वापस आया तो मैंने अपने घर में बताया कि किस तरह से नितिन भैया बिना कुछ बताए गांव चले गए। मेरे बाबा जी ने जब नितिन भैया के मकान मालिक से पता किया तो पता लगा कि नितिन भैया की माता जी का निधन हो गया है और उनके गांव से किसी ने यह जानकारी फोन पर दी है। नितिन भैया से मेरे परिवार का लगाव कुछ ज्यादा ही था इसलिए बाबा जी ने तय किया कि वह भी उनके गांव जाएंगे। फिर बाबा जी ने नितिन भैया के मकान मालिक से उनके पिता जी का फोन नंबर लिया और कॉल की। वहां से मिली जानकारी हैरान कर देने वाली थी। नितिन भैया के पिता जी ने बताया कि नितिन की माता जी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं और जिसने भी कॉल किया था उसने 'अप्रैल फूल' बनाने के लिए ऐसा भद्दा मजाक किया था।

अब जरा एक बार आप कल्पना कर के देखिए कि 800 किमी दूर रह रहे उस लड़के की क्या स्थिति हुई होगी जब उसने इस परिस्थिति का सामना किया होगा। 'उत्सवधर्मिता' के नाम पर 'अप्रैल फूल डे' जैसे दिनों को मनाने का प्रचलन कितना खतरनाक है, इस बात का अंदाजा हम सिर्फ एक उदाहरण से मना सकते हैं। कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि दीवाली और होली पर भी तो लोगों की जान जाती है तो क्या उसे भी मनाना बंद कर देना चाहिए? दोस्तो, विषय जान जाने या किसी को मानसिक प्रताड़ना देने का नहीं है बल्कि विषय है कि उत्सव के पीछे की मानसिकता क्या है? क्या किसी को मूर्ख (फूल) बनाना बहुत अच्छी बात है? कुतर्क चाहे कुछ भी हो लेकिन सही मायनों में जवाब 'नहीं' ही है।

इस 'दिन' को मनाने के पीछे सर्वाधिक प्रचलित मान्यता ब्रिटेन के लेखक चॉसर की पुस्तक द कैंटरबरी टेल्स की एक कहानी पर बेस्ड है। चॉसर ने अपनी इस पुस्तक में कैंटरबरी का उल्लेख किया है जहां 13वीं सदी में इंग्लैंड के राजा रिचर्ड सेकेंड और बोहेमिया की रानी एनी की सगाई 32 मार्च 1381 को आयोजित किए जाने की घोषणा की जाती है। कैंटरबरी के आम नागरिक इसे सही मानकर मूर्ख बन जाते हैं, तभी से एक अप्रैल को मूर्ख दिवस अर्थात अप्रैल फूल डे मनाया जाने लगा। एक अन्य मान्यता है कि 1564 से पहले यूरोप के अधिकांश देशों मे एक जैसा कैलेंडर प्रचलित था जिसमें नया साल 1 अप्रैल से आरंभ होता था। 1564 में राजा चार्ल्स नवम् (CHARLES IX) ने एक बेहतर कैलेंडर को अपनाने का आदेश दिया। नए कैलेंडर में 1 जनवरी को वर्ष का प्रथम दिन माना गया था। लोगों ने इस नए कैलेंडर को अपना लिया, लेकिन कुछ लोगों ने इसे अपनाने से इनकार कर दिया तथा वे 1 जनवरी को नया साल न मानकर 1 अप्रैल को ही वर्ष का पहला दिन मानते थे। नया कैलेंडर अपनाने वालों ने इन लोगों को मूर्ख मानकर उपहास उड़ाना शुरू कर दिया। तभी से 1 अप्रैल को 'फूल्स डे' के रूप मे मनाने का प्रचलन हो गया।

इन दो मान्यताओं के अलावा एक और तर्क दिया जाता है कि भारतीय संस्कृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष का प्रारंभ माना जाता है। अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति के विषय में हमेशा कहा कि यह पिछड़ी संस्कृति है, इसको मानने वाले 'पागल' हैं और इन बातों के हजारों भी प्रमाण मिल जाएंगे। चूंकि भारत में तो सभी पर्व और त्योहार 'तिथि' यानि नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार मनाए जाते थे, इस प्रकार की गणना अंग्रेजों की समझ के परे थी तो उन्होंने मान लिया कि ये लोग 1 अप्रैल को नया साल मनाते हैं। और फिर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नीचा दिखाने के लिए 1 अप्रैल को 'फूल डे' मनाने लगे।

इन तर्कों में कोई भी तर्क सही हो सकता है लेकिन इस तथाकथित 'डे' का आधार कहीं से भी आज के परिप्रेक्ष्य में उचित नहीं लगता। कल भी एक अप्रैल था, क्या खास था कल? शायद कुछ नहीं, फिर क्यों मजाक के नाम पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करा गया? क्यों एक आधारहीन तर्क के साथ अव्यवहारिक 'दिवस' हमने जोर शोर से मनाया? किसी के साथ मजाक करने और किसी को परेशान करने में अंतर होता है। जिस 'डे' के आरंभ होने में ही नकारात्मकता हो उसे आप किस आधार पर तर्कसंगत कह सकते हैं? भारतीय संस्कृति एक उत्सवधर्मी संस्कृति है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस उत्सव को हम आत्मसात कर रहे हैं वह पाश्चात्य देशों से आया है या कहीं और से, फर्क इस बात से पड़ता है कहीं हम उत्सवधर्मिता के नाम पर ठगे तो नहीं जा रहे।

सनातन संस्कृति में योग का विशेष महत्व है और 'हास्य' योग के विषय में भी आपने सुना ही होगा। जिस संस्कृति में 'हास्य' को योग की श्रेणी में माना गया हो उसमें 'फूल डे' जैसे दिनों को मनाना क्या कहा जाएगा, आप स्वयं तय कर लीजिए....

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...