Tuesday 19 July 2022

सावरकर पर सवाल उठाते हो? मतलब तुम गांधी को भी नहीं मानते हो

 27 फरवरी 2002, गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के कोच एस 6 पर एक हमला होता है और कोच में बैठे कारसेवकों को जिंदा जला दिया जाता है। इस हमले में 59 लोगों की दर्दनाक मौत हो जाती है। गोधरा पुलिस मामले में 103 लोगों को गिरफ्तार करती है। केस चलता है, कुछ को फांसी की सजा होती है और कुछ को उम्रकैद की। लेकिन इस फैसले का सबसे अहम किरदार वे 67 लोग होते हैं, जिन्हें मामले में बरी कर दिया जाता है।


अब मेरा सवाल यह है कि क्या उन 67 लोगों और उनके परिवार से देश को संबंध खत्म कर लेना चाहिए? इस सवाल का जवाब सोचिए।

अगर आप भारत की न्याय व्यवस्था में विश्वास रखते होंगे, विश्वास छोड़िए, अगर आप भारत की संवैधानिक व्यवस्था का सम्मान ही करते होंगे तो आप इस सवाल का जवाब 'नहीं' में ही देंगे। लेकिन जरा रुकिए!


30 जनवरी 1948, महात्मा गांधी की हत्या हो जाती है। ठीक छह दिन बाद विनायक दामोदर सावरकर को गांधी की हत्या के षणयंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। केस चलता है। फरवरी 1949 में सावरकर को बरी कर दिया जाता है। लेकिन करीब 73 साल बीत जाने के बाद भी क्या हर बात में देश के संविधान की दुहाई देने वाले लोग उस फैसले का सम्मान करने की हिम्मत जुटा पाए हैं?

अगर आप अपने दिल पर हाथ रखकर इस सवाल का जवाब पूछेंगे तो उत्तर मिलेगा - 'नहीं'


लेकिन क्यों?


हमारे देश के तथाकथित प्रगतिवादी, न्यायवादी, मानवतावादी, समाजवादी, बहुजनवादी, वामपंथी... ये सारे वाद आखिर सावरकर के नाम पर संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ अप्रत्यक्ष रूप से क्यों खड़े हो जाते हैं? 


क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि सावरकर का विचार उनके राष्ट्रवाद विरोधी अजेंडे में फिट नहीं बैठता? या फिर वाकई सावरकर में खामियां थीं?


एक मिनट! इस सवाल को पूछने का अधिकार क्या मैं या कोई और रखता है? और अगर यह सवाल पूछा जाना चाहिए तो क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि क्या मोहनदास करमचंद गांधी में कोई खामी नहीं थी? क्या जवाहरलाल नेहरू ने अपने जीवन में जो कुछ भी किया, वह सब ठीक था?


मुझे लगता है कि हमें इस तरह के विमर्श से बचना चाहिए। ध्यान दें, मैं यह नहीं कह रहा कि उनमें खामियां नहीं थीं, मैं बस यह कह रहा हूं कि हमें इस तरह के सवाल नहीं उठाने चाहिए। लाख कमियां हों गांधी में लेकिन अपने देश के लोगों की हालत देखकर अगर कोई आजीवन एक कपड़े में रहने का व्रत ले लेता है तो बस उसका संकल्प ही है जो पूरे राष्ट्र का मार्ग प्रदर्शित करता है, उसका अलावा सब नगण्य है। खुद एसी कमरों से बाहर निकलकर चार कदम पैदल चलने तक की हिम्मत ना रखने वाले लड़के दो-दो आजीवन कारावास की सजा पाने के बाद भी मुस्कुराने वाले सावरकर पर सवाल उठाते हैं तो कष्ट होता है। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की पत्रिका 'अंतिम जन' के ताजा अंक में सावरकर के योगदान को गांधी के बराबर बताया गया है। अब कुछ लोग उसपर सवाल उठा रहे हैं, क्यों भाई?


चलो, आप गांधी को मानते हो। गांधी किसको मानते थे? मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को। आइए, इस पूरे विवाद का हल श्रीराम से जुड़ी एक कथा से समझते हैं:


माता सीता का हरण होने के बाद, भगवान राम को लंका तक पहुंचने के लिए उनकी वानर सेना जंगल को लंका से जोड़ने के लिए समुद्र के ऊपर पुल बनाने के काम में लग जाती है। भगवान राम पुल बनाने में उस गिलहरी के योगदान की तारीफ करते हुए उसे अपने हाथों में उठा लेते हैं और कहते हैं कि पुल बनाने में पूरी सेना के साथ बराबर का योगदान गिलहरी का भी है। 


क्या आपने कहीं ऐसा पढ़ा कि कभी ऐसा कहा गया हो कि गिलहरी का योगदान कम था? या नल-नील का योगदान अधिक था?


नहीं। ऐसा कभी और कहीं नहीं सुना-पढ़ा होगा।


किसी पुण्य काम में बस उद्देश्य देखा जाता है। यह नहीं देखा जाता कि किसने कम मेहनत की, किसने किस रास्ते से मेहनत की। यही बात बस गांधी और सावरकर के विवाद में समझनी है। गांधी हों या सावरकर, बिस्मिल हों या अशफाक उल्ला खां, दुर्गा भाभी हों या लक्ष्मीबाई, किसी के योगदान को कम नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह बात बस उन्हें समझाई जा सकती है, जो समझना चाहते हों। कोई महापुरुष अथवा क्रांतिकारी किसी ‘दल’ विशेष का नहीं होता और महापुरुष वही होता है जो सामान्य व्यक्ति से बेहतर तरीके से समाज के प्रति स्वयं को समर्पित करे। हो सकता है उस ‘महापुरुष’ की विचारधारा हमसे 100 प्रतिशत ना मिलती हो, लेकिन क्या ऐसे में आप उससे 100 प्रतिशत असहमत हो सकते हैं?


आपका तर्क कुछ भी हो लेकिन इसका जवाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा। समाज के विषय में सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विशिष्ट विचार है। यदि आप किसी विचार से 100 प्रतिशत असहमत हैं तो इसका साफ तौर पर मतलब है कि आप उसका विरोध अज्ञानतावश अथवा द्वेषवश कर रहे हैं, और यदि आप किसी से 100 प्रतिशत सहमत होने का दावा कर रहे हैं तो इसका भी अर्थ यही है कि या तो आप अज्ञानी हैं अथवा अंधभक्त हैं। 


अब बात सावरकर की हो रही है, तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि सावरकर ही नहीं, देश की स्वतंत्रता के लिए सबकुछ न्योछावर करने वाले हजारों-लाखों क्रांतिकारियों के साथ हमारी सरकारों ने बहुत नाइंसाफी की है लेकिन आज बात करते हैं सावरकर की। और बात सावरकर की कर रहे हैं तो शुरुआत करते हैं उस शख्स से, जिसने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ भारत की सेना खड़ी कर दी थी। 


वैसे तो अभी तक भारत के वीर सपूत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत पर रहस्यात्मक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है लेकिन एक प्रचलित ‘तथ्य’ यह भी है कि आज से ठीक 71 साल पहले 18 अगस्त 1945 को तोक्यो जाते हुए उनका हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और इस हादसे में नेताजी की मौत हो गई थी। नेताजी की मौत से जुड़ा सच क्या है, यह एक अलग विषय है लेकिन देश के प्रति पूर्ण मनोयोग के समर्पित होकर ब्रिटिश सेना के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने वाले सुभाष बाबू के जीवन के जुड़े कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनके बारे में शायद आपको जानकारी न हो। विश्व इतिहास में आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहां 1,50,000 युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर अंग्रेजों के सामने खड़ा किया गया हो।


सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस, कांग्रेस के अध्यक्ष बने लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुखी होकर सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 3 मई 1939 को उन्होंने कोलकाता में फॉरवर्ड ब्लॉक अर्थात अग्रगामी दल की स्थापना की तथा भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए वह तत्कालीन नेताओं एवं क्रांतिकारियों से संपर्क करने लगे।


आपको जानकर हैरानी होगी कि सुभाष बाबू को अंग्रेजों के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने की प्रेरणा विनायक दामोदर सावरकर से मिली थी। 26 जून 1940 को सुभाष चन्द्र बोस, सावरकर के घर गए। वह सावरकर से मिलने मोहम्मद अली जिन्ना के कहने पर गए थे क्योंकि जिन्ना, सावरकर को हिंदुओं का नेता मानता था और खुद को मुस्लिमों का नेता कहता था। मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए जब अलग देश की मांग की गई तो सुभाष बाबू जिन्ना के पास गए। सुभाष बाबू चाहते थे कि मुस्लिम लीग देश के विभाजन की मांग न करे।


जिन्ना के पास पहुंचने पर जिन्ना ने सुभाष बाबू से पूछा कि वह किसकी तरफ से उससे बात करने आए हैं? इस पर सुभाष बाबू ने कहा कि वह फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता के तौर पर बात करना चाहते हैं। सुभाष बाबू की इस बात पर जिन्ना ने कहा, ‘मैं मुसलमानों का नेता हूं और मुझसे कोई हिंदू नेता ही बात कर सकता है।’ जिन्ना की नजर में विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुओं के नेता थे। जब सुभाष बाबू, विनायक दामोदर सावरकर से मिलने पहुंचे तो सावरकर ने सुभाष बाबू को महान क्रांतिकारी रायबिहारी बोस के साथ हुए पत्रव्यवहार के बारे में बताया। सावरकर ने उनको बताया कि रायबिहारी बोस, युद्धबंदी भारतीयों को एकत्रित करके एक सेना बनाने का प्लान बना रहे हैं। इसके बाद नेता जी जर्मनी गए। जर्मनी में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की।


जर्मनी में सुभाष बाबू ने हिटलर से मुलाकात की। नेताजी भारत को आजाद करवाने के लिए दुनिया भर की मदद चाहते थे। हिटलर ने एक सीमा तक नेताजी की मदद भी की। वह सुभाष बाबू से बहुत प्रभावित हुआ। महान देशभक्त रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में नेताजी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के वैफथे नामक हॉल में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) का गठन किया। इस सरकार को जापान, इटली, जर्मनी, रूस, बर्मा, थाईलैंड, फिलीपींस, मलयेशिया सहित नौ देशों ने मान्यता प्रदान की। आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री के पद की शपथ लेते हुए सुभाष ने कहा, ‘मैं अपनी अंतिम सांस तक स्वतंत्रता यज्ञ को प्रज्वलित करता रहूंगा।’ लेकिन बात सिर्फ नेताजी तक ही सीमित नहीं है। 


एक राजनीतिक दल यह आरोप लगाता है कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान द्वीप) जेल से अपनी ‘काले पानी’ की सजा से रिहाई के लिए अंग्रेजों से क्षमा याचना की थी। हो सकता है ऐसा हो, लेकिन क्या ऐसा करने का उद्देश्य यह नहीं हो सकता कि सावरकर ने भी वही सोचा हो जो एक समय श्रीकृष्ण ने सोचा था, जिसकी वजह से वह रणछोड़ कहलाए। परिस्थिति का विवेचन एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ करें तो पाएंगे कि अपने-अपने समय में इन व्यक्तित्वों ने जो निर्णय लिए वे एकमात्र विकल्प थे। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं इसका एक कारण है, यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान की सोच को उस दौर के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ कर समझने का प्रयास करेंगे तो सामने आएगा कि उस दौर के अधिकतर क्रांतिकारी जान देने के पक्ष में नहीं थे। इसका कारण यह नहीं था कि वह जान देने से डरते थे, बल्कि इसका कारण यह था कि उनको पता था कि देश की स्वतंत्रता के लिए जीवित रहकर संघर्ष करना अतिआवश्यक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के बीच का अंसेबली में बम फेंकने से पहले का संवाद है।


शहीद भगत सिंह से जुड़े साहित्य को पढ़ने पर पता लगता है कि जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने के बाद असेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया तब चंद्रशेखर आजाद ने पूरी योजना तैयार की कि किसी तरह और किन रास्तों से बम विस्फोट करने के बाद निकालकर भागा जा सकता है। उन्होंने यह योजना भगत सिंह को बताई लेकिन भगत सिंह ने इस पर अमल करने से साफ तौर से मना कर दिया। भगत सिंह गिरफ्तार होना चाहते थे। इस मुद्दे पर आजाद से भगत सिंह की गर्मागर्म बहस भी हुई। भगत सिंह का कहना था, ‘हम असेंबली में बम किसी की जान लेने के लिए नहीं फेंकने वाले हैं। हमारा उद्देश्य है, लोगों को जगाना और उस उद्देश्य को मैं गिरफ्तार होकर ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा कर सकता हूं। केस चलेगा, जिरह होगी और उस जिरह हमें अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाने का मौका मिलेगा।’


इस पर आज़ाद का कहना था कि केस का मतलब होगा मौत की सजा। इसके बाद भगत सिंह ने आजाद से कहा, ‘मैं जान देने के लिए ही गिरफ्तार होना चाहता हूं, मैं जीवित रहकर आजादी के आंदोलन में उतना योगदान नहीं दे पाऊंगा जितना मरकर दे सकता हूं।’ भगत सिंह बोले, ‘मेरी मौत कई भगत सिंह पैदा कर देगी।’ दोनों महान क्रांतिकारियों के बीच लंबी बहस हुई लेकिन भगतसिंह अपनी जिद के पक्के थे। आखिरकार आजाद को उनके आगे हार माननी पड़ी। फिर वही हुआ जो भगतसिंह चाहते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़े व्यक्ति द्वारा जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का उद्देश्य साफ था कि उनकी मौत एक नए आंदोलन को खड़ा करेगी लेकिन सभी क्रांतिकारी सिर्फ अपनी जान कुर्बान कर देते तो शायद आज हम स्वतंत्र देश में सांस नहीं ले रहे होते।  कुछ ऐसे ही विचार विनायक दामोदर सावरकर के भी बन गए थे। और यह विचार क्यों बने होंगे, इस बात का अंदाजा आप तब तक नहीं लगा सकते जब तक उस दौर की स्थितियों के विषय में अध्ययन न कर लें।


10 मई, 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास लिखा। जून 1908 में तैयार हो चुकी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया था। इस पुस्तक से भारत में भगत सिंह सहित कई लोगों ने प्रेरणा ली।


हो सकता है कि अब कोई यह तर्क दे कि भगत सिंह तो सावरकर के हिंदुत्व के विरोधी थे। बिलकुल थे, क्योंकि उन्होंने सावरकर के हिंदुत्व को समझा नहीं था। जब सावरकर की पुस्तक भारत में कोहराम मचा रही थी तब भगत सिंह अपने शैशव काल में थे और सावरकर उस दौर में अंग्रेजों के गढ़ में रहकर मां भारती के चरणों की जंजीरों को तोड़ने के लिए प्रयास कर रहे थे। इसे आयु आधारित अनुभव कहें तो गलत न होगा। आगे जिस रूप में भगत सिंह ने सावरकर के हिंदुत्व को समझा, अगर मैं भी वैसा ही मान लूं तो मैं भी विरोध करूंगा लेकिन वास्तविकता यह है कि सावरकर के हिंदुत्व की व्यापकता उतनी सीमित नहीं जितना प्रचारित की गई। यह बिलकुल वैसा ही था जैसे एक 13-14 साल का छोटा सा बच्चा गांधी- गांधी करते हुए एक बुजुर्ग नेता के पीछे घूमता रहता है और फिर जब वह नेता अहिंसा के नाम पर अपने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा करता है तो बच्चा उस नेता के रास्ते को नकार कर उसके विपरीत सिद्धांत आधारित रास्ते का चुनाव कर लेता है। इस विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि महात्मा गांधी ने अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेकर कुछ गलत किया था। इसी आधार पर सावरकर को भी सिर्फ एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के चलते गलत नहीं माना जा सकता।


आइए, सावरकर से जुड़े कुछ विषयों का विश्लेषण करते हैं:

क्या बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में पुणे में अभिनव भारत संगठन द्वारा विदेशी कपड़ों की होली जलाना कोई सामान्य कदम था, उस समय जब हम गुलाम थे और सोशल मीडिया जैसी कोई चीज नहीं होती थी।


क्या यह झूठ है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सावरकर की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें छात्रवृत्ति दी थी।


क्या यह भी झूठ है कि भगत सिंह, राजाराम शास्त्री से कहा करते थे मुझे सावरकर जी के जीवन प्रसंगों, जैसे लंदन में रहते हुए मदनलाल ढींगरा को क्रांति की ओर प्रेरित करना, गिरफ्तारी के दौरान भारत लाए जाते समय जहाज से समुद्र में कूद पड़ऩा आदि ने बहुत प्रभावित किया है। (काशी विद्यापीठ के युवा राजाराम शास्त्री को लाला लाजपतराय जी ने द्वारका दास पुस्तकालय का प्रबंधक मनोनीत किया था। भगत सिंह से राजाराम के मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये थे। राजाराम शास्त्री ने कई जगह अपने और भगत सिंह के संवाद का जिक्र किया है।)


क्या यह भी झूठ है कि सावरकर की प्रेरणा से ही जर्मनी में संपन्न होने वाली इंटरनैशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में सरदार सिंह राणा और श्रीमती भीखाजी ने भारत का प्रतिनिधि बनकर वन्दे मातरम् लिखित ध्वज को फहराया।


क्या यह भी झूठ है कि वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले एकमात्र क्रांतिकारी हैं।


क्या यह भी झूठ है कि सावरकर ने अंडमान जेल में रहते हुए, अंग्रेजों के कानूनों के जाल में उनको ही फंसाकर कैदियों को सामान्य सुविधाएं उपलब्ध कराई थीं।


क्या यह भी झूठ है कि ‘सवर्ण’ होते हुए भी दलितों को सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने रत्नागिरी में प्रथम प्रयास किया।


क्या यह भी झूठ है कि अस्पृश्यता निवारण के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करते हुए सावरकर ने अपने ब्राह्मणत्व कर्म का प्रतिपालन किया।


क्या यह भी झूठ है कि ‘भाषा शुद्धि’ यानी हिंदी तथा देवनागरी के संरक्षण हेतु उन्होंने प्रयास किए।


ऐसे बहुत सारे विषय हैं जो अटल जी द्वारा की गई सावरकर की व्याख्या को प्रमाणित करते हैं। स्वातंत्र्य वीर विनायक सावरकर के सिद्धांतों की वर्तमान समाज में एक विशिष्ट प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि आज भी कानूनों के आधार पर देश के प्रधान की तस्वीर के साथ छेड़छाड़ करने वाले को जेल हो जाती है और भारत की बर्बादी के नारे लगाने वाले जेल के सीकचों से बाहर ही रहते हैं। उन सिद्धांतों की प्रासंगिकता इसलिए भी है क्योंकि हमारे गांवों में आज भी ‘बिछड़े जनों’ को स्वयं से अलग ही समझा जाता है।


मेरा मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई हों या रानी चेन्नमा, चन्द्रशेखर आजाद हों या भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां हों या बहादुर शाह जफर, जवाहर लाल नेहरू हों या महात्मा गांधी, सभी ने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ तो अच्छा किया है। जो अच्छा है, जो सकारात्मक है, जो अनुकरणीय है, उसे आत्मसात करने अथवा उसकी प्रशंसा करने में क्या बुराई है? हिंदुत्व शब्द से परेशानी है तो स्पष्ट समझ लें कि ‘श्रीराम को पूजना हिंदुत्व नहीं बल्कि श्रीराम को आत्मसात करना हिंदुत्व है।’

Saturday 9 July 2022

उदयपुर में इस्लाम के नाम पर एक हिंदू की हत्या के लिए जिम्मेदार कौन? हिम्मत है तो जवाब सोचिए


 राजस्थान का उदयपुर जिला

'एक हिंदू दर्जी को दो मुसलमान बेरहमी से मार देते हैं।' 


यहां बात हिंदू-मुसलमान की इसलिए हो रही है क्योंकि हत्या के पीछे वजह वही थी। लेकिन दोषी किसे मानना चाहिए? 

इस्लाम को? राजस्थान की कांग्रेस सरकार को? नुपुर शर्मा को? भारत के कानून को? सोशल मीडिया को? या खुद को?


दोषी किसे ठहराना चाहिए, उसपर बाद में आते हैं। पहले यह देखिए कि दोषी ठहराया किसे पर जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की टिप्पणियों की मानें तो दोषी ठहराने की कोशिश हो रही है नुपुर शर्मा को। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता, वजह समझने के लिए यहां क्लिक कर पढ़ें: नुपुर शर्मा ने क्या गलत किया? हिंदू-मुस्लिम-राष्ट्रवादी-वामपंथी.... सभी के लिए कुछ सवाल


एक छोटी सी कहानी से समझिए

नुपुर के साथ उदयपुर में जो हुआ, उसके लिए पाकिस्तानी आतंकी संगठनों को दोषी ठहराया जा रहा है। एक छोटा सा लिंक मिला और मिल गई क्लीन चिट हर उस दोषी को, जिसकी लापरवाह कार्यशैली ने इंसानियत की सरेआम हत्या कर दी। अगर किसी को मेरी बात आज बुरी लगे तो माफ करिएगा, लेकिन मेरी कलम का आक्रोश आपकी नाराजगी से रुकने वाला नहीं है। आगे की बात करने से पहले मैं एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं।


अमेरिका में वेदांत का प्रचार करके भारत लौटते हुए स्वामी रामतीर्थ जापान गए। वहां उनका भव्य स्वागत हुआ। उन्हें वहां एक विद्यालय में आमंत्रित किया गया। विद्यालय में एक विद्यार्थी से स्वामी जी ने सप्रेम पूछा, ‘बच्चे, तुम किस धर्म को मानते हो? छात्र ने उत्तर दिया, ‘बौद्ध धर्म को।’ स्वामी जी ने फिर पूछा, ‘बुद्ध के विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं?’ विद्यार्थी ने उत्तर दिया, ‘बुद्ध भगवान हैं।’ इतना कह कर उसने ध्यान करके अपने देश की प्रथा के अनुसार भगवान बुद्ध को सम्मान के साथ प्रणाम किया। स्वामी जी ने उस विद्यार्थी से फिर पूछा, ‘अच्छा बताओ, कन्फ्यूशियस के बारे में तुम क्या जानते हो?’ विद्यार्थी ने बड़ी बुद्धिमानी से स्वामी जी के प्रश्न का उत्तर दिया, ‘कन्फ्यूशियस एक महान संत हैं।’ और उसने पूर्ववत बुद्ध की तरह कन्फ्यूशियस का ध्यान करके उन्हें भी सादर प्रणाम किया।


अंत में स्वामी जी ने सवाल किया, ‘बेटा, सुनो। अगर किसी दूसरे देश से जापान को जीतने के लिए एक भारी सेना आए और उसके सेनापति बुद्ध या कन्फ्यूशियस हों तो उस समय तुम क्या करोगे?’ स्वामी रामतीर्थ का इतना कहना था कि छात्र का चेहरा तमतमा उठा। स्वामी जी की बात सुनकर वह सहसा खड़ा हो गया और क्रोध से भर उठा। अपनी लाल-लाल आंखों से घूरते हुए जोश के साथ उसने कहा, ‘तब मैं अपनी तलवार से बुद्ध का सिर काट दूंगा और कन्फ्यूशियस को पैरों से रौंद डालूंगा।’


यह एक बच्चे के विचार थे। अपने 'भगवान' से पहले देश की रक्षा का विचार उसे किसने दिया? यह विचार उसे उसके समाज/घर के संस्कारों से मिला। आज आतंकी संगठनों पर सवाल उठ रहे हैं। जिस देश की संस्कृति किसी निरीह जीव पर गलती से पैर पड़ जाने पर भी आत्मा को झकझोर देने वाली है, वहां एक इंसान का गला बेरहमी से काट डाला गया। अब निकाला जा रहा है उन हत्यारों का आतंकी कनेक्शन। 


एक उदाहरण से आत्मावलोकन कीजिए

इसमे कोई दो राय नहीं कि पूरी दुनिया में इस तरह की आतंकी विचारधारा फैलाने वाले संगठन कई हैं। उनका दोष कम नहीं हो जाता। लेकिन मैं बस एक सवाल पूछना चाहता हूं। हमारे घर में एक मासूम बच्चा है। हमारे घर के पड़ोस में एक गंदा आदमी रहता है, वह उसी जाति का है, जिस जाति के आप हैं। वह शख्स बहुत गंदी-गंदी गालियां देता है। हमारा बच्चा रोज उसके पास जाकर बैठता है। हमें पता है कि वह वहां क्या सीखता होगा, लेकिन फिर भी हम उसके पास अपने बच्चे को जाने से नहीं रोकते। अरे, रोकना तो छोड़िए, हम तो उसे रोज भेजते हैं। हम कहते हैं कि जाओ उसके पास बैठो। फिर कुछ दिन बीतते हैं और हमारा बच्चा घर में आने वाले हर शख्स को गालियां देने लगता है। बच्चा बड़ा हो जाता है। उसकी आदत नहीं बदलती। अब गलती किसकी देंगे। क्या यहां पर यह उचित होगा कि आज आपका बच्चा जो कर रहा है, उसके लिए आप बस पड़ोसी को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से पलड़ा झाड़ लें?


नहीं! बिल्कुल नहीं! कतई नहीं!

गलती आपकी थी कि आपने अपने बच्चे को नहीं रोका। गलती उस बच्चे की थी, जिसने बड़ा होने के बाद भी समाज के बीच रहकर अच्छा और बुरा समझने की कोशिश नहीं की। इसके अलावा गलती किसी की नहीं है।


यही हाल आज मुसलमानों का है। जिहाद जैसे पवित्र शब्द की निर्मम हत्या करके उसके नाम पर आतंक सीखने जब आपके समुदाय का बच्चा किसी के पास जा रहा था, और आपने उसे नहीं रोका, तो इसमें गलती आपके समुदाय की है। हर उस शख्स की है, जो खुद को उस समुदाय का रहनुमा बताता है। गलती उस शख्स की है, जिसने भारत में रहकर, भारत को समझने की कोशिश नहीं की। पहली अपनी गलतियों पर खुद को सजा दीजिए, फिर दोषी ठहराइए उन आतंकी संगठनों को, जिनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़कर आपके समुदाय के लड़के आतंक सीख रहे हैं। 

Sunday 3 July 2022

बेटी लक्ष्मी स्वरूपा ही क्यों होती है... सरस्वती या सीता जैसी क्यों नहीं?

 
बीते कुछ वक्त से हर शुक्रवार की शाम को मां पीतांबरा के दर्शन के लिए दतिया से निकल जाता था। नौकरी से छुट्टी लेना संभव नहीं था तो शुक्रवार की शाम को शिफ्ट खत्म होने के बाद करीब 8 घंटे का सफर करता था। शनिवार को सुबह करीब 1-2 बजे दतिया पहुंचने के बाद सुबह चार बजे माई के दर्शन करता था और फिर शनिवार और रविवार की नौकरी वहीं दतिया से ही होती थी। फिर रविवार को देर रात लखनऊ के लिए वापसी होती थी। बीते कुछ सप्ताह से लगातार यही क्रम चल रहा था। 


एक जुलाई 2022 को भी शुक्रवार का दिन था। पत्नी को अचानक से दोपहर में प्रसव के लिए अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। वैसे तो बच्चे भगवान देता है और वे प्रतिरूप भी उसी के होते हैं लेकिन मेरी और मेरी पत्नी की इच्छा थी की इसबार बेटी ही हो। शाम के 4-5 बजे होंगे। दतिया से महाराज जी का फोन आया। उन्होंने पूछा- निकल चुके वत्स? (पहली भेंट के समय से ही वह मुझे वत्स ही कहते थे।) मैंने उन्हें अपनी परिस्थिति बताई और कहा कि इसबार माई के दर्शन नहीं हो पाएंगे। उन्होंने कहा- ऐसा हो ही नहीं सकता। आपको दर्शन जरूर होंगे। मैंने फिर कहा- महाराज जी! इच्छा तो बहुत थी लेकिन क्या ही बताया जाए। उन्होंने कहा, 'वत्स! गुप्त नवरात्रि चल रहे हैं। माई दर्शन जरूर देंगी, इसे कोई नहीं टाल सकता। आप ध्यान रखिए।' रात 9:55 पर प्यारी सी बिटिया ने जन्म लिया। घर पर फोन करके बता ही रहा था कि महाराज जी की वेटिंग आने लगी। करीब दो मिनट के बाद कॉलबैक किया तो उनका पहला वाक्य था, 'आप माई के दर्शन करने नहीं आ पाए तो माई खुद आपको दर्शन देने और आपके साथ रहने आ रही हैं।' मैंने जवाब दिया, 'आ गईं।'


इसके बाद शुरू हुआ बधाइयों का सिलसिला। हजारों की संख्या सोशल मीडिया पर पोस्ट-मैसेज और लगातार फोन की बजती घंटियों के बीच एक बात ने बहुत कष्ट दिया। क्षमा के साथ कहना चाहूंगा कि बेटी के आने पर शुभकामनाओं के लिए मिले संदेशों में एक तिहाई से अधिक संदेशों से मेरे मानस को आपत्ति हुई। उन सभी की शुभकामनाओं के लिए हृदय से आभारी हूं लेकिन एक बार फिर क्षमा के साथ कहूंगा कि उन शुभकामनाओं में 'भारतीयता' नहीं थी। लोगों ने फोन पर, मैसेज में कहा कि 'मां लक्ष्मी आई हैं।' 


मेरा सवाल है कि 'मां लक्ष्मी' ही क्यों?

भारतीय सनातन परंपरा के 33 कोटि देवता लाखों-करोड़ों स्वरूप में धरा पर उपस्थित हैं। हर स्वरूप का एक संदेश है। कोई सृष्टि का पालक है तो किसी ने सृष्टि की व्यवस्था बनाए रखने के लिए संहारक की जिम्मेदारी उठाई है। कोई देवी समर्पण की प्रतिरूप हैं तो कोई धन-धान्य की। ऐसे में मेरी बेटी को लक्ष्मी स्वरूपा कहा जा रहा है। ऐसा कहने वालों में अधिकांश मुझे निजी तौर पर जानते हैं, मेरी प्राथमिकताएं भी समझते हैं। धन मेरी प्राथमिकता कभी नहीं रही, आज भी नहीं है और ईश्वर की कृपा रही तो आगे भी नहीं होगी। नौकरी के बाद बचने वाले समय का आधा हिस्सा मैं आज भी किताबों के साथ बिताता हूं। फिर भी मुझे लगता है कि कितनी भी कोशिश कर लूं, बहुत कुछ पढ़ना/समझना छूट जाएगा। लोग कहते हैं कि एक पिता अपने बच्चों के लिए वे सपने देखता है, जो वह खुद नहीं कर पाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही है। मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा/बेटी, मुझसे अधिक अध्ययन करें। लेकिन फिर जब कोई कहता है कि लक्ष्मी आई तो मुझे लगता है कि हमने प्राथमिकताएं बदल दी हैं।


भारत की परंपरा तो सर्वदा ज्ञान आधारित रही है। हमारी परंपरा में ज्ञान के बाद संस्कार आते हैं, और फिर आता है दायित्वबोध। धन को तो हमने प्रथम तीन स्थान में भी नहीं रखा है। फिर आज हमारी प्राथमिकताएं क्यों बदलीं? क्यों किसी बेटी के जन्म पर हम यह नहीं कहते हैं कि देखो वैदेही आई हैं। क्या आप अपनी बेटी में मां सीता के जैसा त्याग और प्रेम नहीं चाहते? हम यह क्यों नहीं कहते कि देखो मां वगेश्वरी आई हैं। क्या आप नहीं चाहते कि आपकी बेटी में ज्ञान का भंडार हो? ऐसे बहुत से स्वरूप हो सकते हैं, लेकिन हमारी मति के केन्द्र में धन आ गया है, मुझे आपत्ति इस बात से है। हमारा आंगन तपस्या, करुणा, ममता, दया और क्षमा जैसे दीपों से रोशन हुआ है, मुझे अपने आंगन में सिर्फ धन नहीं चाहिए था। मेरा विश्वास है, जिसे जितनी आवश्यकता होती है, और मन/कर्म द्वेष रहित होते हैं, ईश्वर उतना उपलब्ध करा देता है।


खैर, बेटी आई है तो एक पिता के तौर पर मेरा विश्वास क्या है, उसे पढ़िए...

तुम हमारी साधना की, परम तप की चेतना हो

दिव्य हो तुम विश्व दीप्ति, तुम प्रथम संवेदना हो

उस निशा की उस विजय का, हो परम उपहार हो तुम

स्वप्न पूर्णित किए तुमने, कामना विस्तार हो तुम


गतिशील जीवन की तरह, सतत तुम बढ़ती रहो

आत्म चेतन भाव भरकर, तुम सदा चलती रहो

लक्ष्य अनुपम हो सदा, स्थिर रहे संपूर्णता

दृढ़ रहे विश्वास तेरा, शून्य हो संकीर्णता  


तुम सनातन शक्ति जैसी, आत्मनिर्भर ही बनो

तुम जियो यह प्रण लिए, प्रतिकार बन तम से ठनो

उस दिवस में यह धरा, चरणों में तेरे झुक जाएगी

प्रेम पोषित अपराजिता जब, दिनकर को पथ दिखलाएगी 

Friday 1 July 2022

नुपुर शर्मा ने क्या गलत किया? हिंदू-मुस्लिम-राष्ट्रवादी-वामपंथी.... सभी के लिए कुछ सवाल


 राजस्थान का उदयपुर जिला

'एक हिंदू दर्जी को दो मुसलमान बेरहमी से मार देते हैं।' 


वैसे तो अपराधी और पीड़ित के धर्म को लेकर मैं सामान्य तौर पर बात नहीं करता लेकिन इस मामले में बात करना जरूरी हो जाता है। उस बेचारे की हत्या सिर्फ इसलिए हो जाती है क्योंकि उसका संबंध एक ऐसी सोशल मीडिया पोस्ट से था, जिसमें नुपुर शर्मा का समर्थन किया गया था। मैं यह लिखना नहीं चाहता था लेकिन इस ब्लॉग में मेरे कुछ सवाल हैं। ये सवाल इस देश के हर मुसलमान से, हर हिंदू से, हर राष्ट्रवादी से और हर उस शख्स से हैं जो खुद को इन तीनों की परिधि से बाहर रखते हैं। 


सबसे पहले बताइए कि नुपुर शर्मा ने क्या कहा था?

नुपुर शर्मा ने इस्लामिक मान्यताओं और पैगम्बर मुहम्मद साहब को लेकर एक कॉमेंट किया था, जिसे विवादित कहा जा रहा है। लेकिन उसमें विवादित क्या था, इसका जवाब कोई नहीं दे रहा।


नुपुर शर्मा ने जो कहा था, क्यों कहा था?

जिस वक्त नुपुर ने वह बयान दिया, उस वक्त टीवी डिबेट में एक जाहिल मौलाना ने शिवलिंग पर अभद्र टिप्पणी की थी। स्वाभाविक है कि वह 'दिव्य ज्ञान' मौलाना साहब को किसी मदरसे या जाकिर नाइक जैसे किसी मूर्ख ने दिया होगा, क्योंकि जो टिप्पणी उसने की थी, उसकी प्रामाणिकता किसी भी सनातन साहित्य में नहीं मिलती।


नुपुर शर्मा ने जो कहा था, वह 'दिव्य ज्ञान' उन्हें कहां से मिला था?

नुपुर शर्मा ने जो कहा, वे बात कई मौलाना अपने मजहबी प्रचार के दौरान कहते रहते हैं। कई इस्लामिक किताबों में उसका जिक्र है। 


क्या नुपुर ने जिस बात पर प्रतिक्रिया दी, उन्हें उस बात पर गुस्सा नहीं आना चाहिए था?

बिलकुल आना चाहिए था। लेकिन प्रतिक्रिया का तरीका वह नहीं होना चाहिए था, जो था। इसे एक उदाहरण से समझिए। आप पर कोई झूठा आरोप लगाए कि आपने उसके 5 रुपये चुरा लिए। आप क्या करेंगे? क्या आप यह कहेंगे कि तुम भी तो 10 रुपये चुराते रंगे हाथों पकड़े गए थे? या फिर आप उसके आरोपों का प्रमाण मांगते हुए खुद की बेगुनाही साबित करने की कोशिश करेंगे। अगर आप पहली वाली बात कहते हैं, तो इसका सीधा सा मतलब है कि आप उस झूठे आरोप को प्रामाणिकता दे रहे हैं, जो आप पर लगाया गया है।


यही नुपुर के केस में हुआ। नुपुर को बेहद शालीनता से उस मौलाना से पूछना चाहिए था कि उसे वह दिव्य ज्ञान कहां से मिला? फिर सनातन साहित्य के आधार पर तर्क देकर पूरे देश को बताना चाहिए था कि ये जाहिल किस तरह से लाइव डिबेट में बैठकर शिवलिंग/सनातन/हिंदुत्व की अनर्गल व्याख्या करके देश को बरगला रहे हैं।


मेरे जीवन में एक ऐसा शख्स आया, जिसने मुझे सैद्धांतिक और वैचारिक रूप से काफी मजबूती दी। मेरे और उनके बीच में घनघोर वैचारिक असहमतियां थीं, लेकिन उन असहमतियों के बीच होने वाली चर्चा में हमने कभी मर्यादा नहीं लांघी। वह मेरे संपादक थे, मैं एक कॉपी एडिटर। नौकरी सभी को प्यारी होती है, लेकिन विश्वास मानिए, मैं सिर्फ उस शख्स के लिए वहां था। हालांकि अब वह शौक जरूरत बन गया है लेकिन मुझे वह संवाद अच्छा लगता था। हमारे बीच 'ऊष्म संवाद' की शुरुआत कैंपस में हुए इंटरव्यू के दौरान ही हो गई थी। वह जब कुछ लिखते थे तो मैं उन्हें जवाब देता था। उनका 'भगवान' में विश्वास नहीं है और मैं घनघोर धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति हूं। वह कभी श्रीरामचरित मानस की किसी चौपाई पर प्रश्न खड़ा करते थे तो कभी मनुस्मृति की किसी सूक्ति पर। सार्वजनिक लिखते थे। 


जब वह श्रीराम के चरित्र पर सवाल उठाते थे, भारतीय परंपराओं पर सवाल उठाते थे तो मुझे बहुत गुस्सा आता था। मैंने भी उन्हें 'उन्हीं की भाषा में' जवाब देता था। वह ब्लॉग लिखते थे, मैं भी लिखता था। उनके तर्कों का जवाब देता था। अधिकांशतः वह सहमत नहीं होते थे, लेकिन हमारी चर्चा एक बिंदु पर समाप्त इसलिए हो जाती थी क्योंकि बात तथ्यों की होती थी। वह वक्त था और आज का वक्त है, लोग आज भी किसी ब्लॉग का लिंक फेसबुक पर मैसेज करके जब कहते हैं, 'भाईसाहब! अद्भुत जानकारी दी आपने, मैंने तो यह सोचा ही नहीं था।', तो लगता है कि उस वक्त में वक्त का जो निवेश अध्ययन में किया था, वह व्यर्थ नहीं था। कहने का मतलब यह है कि तरीका यह भी होता है।    

 

क्या नुपुर की प्रतिक्रिया पर गुस्सा आना चाहिए था?

बिलकुल! किसी को भी आएगा। उसे पता है कि जो कहा जा रहा है, वह गलत है, उसपर चर्चा होगी तो सवाल उठेंगे। वे सवाल सिर्फ उस बात पर नहीं, पूरी मान्यताओं पर होंगे, पूरे इस्लामिक इतिहास पर होंगे। 


क्या नुपुर के खिलाफ उस गुस्से को जिस तरह से प्रदर्शित किया गया, वैसे किया जाना चाहिए था?

बिलकुल नहीं! सभी की अपनी मान्यताएं हैं। उनमें से कुछ अंधविश्वास भी हो सकती हैं लेकिन किसी और को यह अधिकार नहीं है कि उनपर कटाक्ष करे। आप उनपर संवाद कर सकते हैं, लेकिन उन्हें गलत नहीं ठहरा सकते। यह उस समुदाय विशेष के अपने लोगों की जिम्मेदारी है, कि उनमें सुधार/बदलाव करें। नुपुर ने जो कहा था, उसपर आप शांतिपूर्ण विरोध कर सकते थे। कुछ गलत था तो कोर्ट जा सकते थे। लेकिन जो तांडव किया गया, उसे किसी भी कुतर्क के साथ सही नहीं ठहराया जा सकता।


और सबसे अहम सवाल

ऐसे मामलों में भाजपा शासित राज्यों में, खासकर उत्तर प्रदेश में जैसी बुल्डोजर वाली या पुलिसिया कार्रवाई हुई क्या वह गलत थी?

बिलकुल! कई लोगों का कहना है कि इसके लिए न्याय व्यवस्था है। बिलकुल है। न्यायपालिका का काम है न्याय देना। लेकिन मेरे अपने सिद्धांत हैं लेकिन वे पूरी तरह से व्यवहारिक हैं। माफी के साथ मैं सरकारी/प्रशासनिक कार्रवाई करने वाले हर उस शख्स से पूछना चाहूंगा कि क्या भारत की वर्तमान न्याय व्यवस्था से आप न्याय की उम्मीद करते हैं। मुझे लगता है कि हमारी अदालतें, सबूतों के आधार पर फैसला देती हैं, न्याय नहीं देतीं। सबूतों को खत्म किया जा सकता है, उनके साथ छेड़छाड़ की जा सकती है और फिर न्याय कहां से मिलेगा?


एक बुजुर्ग अपनी जिंदगी के 30-35 साल एक बिल्डर से कानूनी लड़ाई लड़ने में लगा देता है। किस लिए? अपनी एक बीघा जमीन के लिए। दिल पर हाथ रखकर बताइए, उसे न्याय मिलता है?

एक बुजुर्ग महिला रोती-बिलखती रहती है, उसके साथ कोई नहीं होता, और उसकी अपनी बहू बेटे के साथ मिलकर घर से निकाल देती है। ऐसी महिला को अदालत न्याय दे पाती है?

पुलिस की मिली भगत से किसी पर झूठी एफआईआर हो जाती है, उसकी पूरी जवानी कोर्ट के चक्कर लगाते खराब हो जाती है, अदालत उसे न्याय दे पाती है?

अरे और तो और... सैकड़ों निर्दोषों की हत्या करने वाले आतंकी को न्याय व्यवस्था के नाम पर हमारे टैक्स के पैसे से पाला जाता है, इसे आप न्याय कहते हैं?

माफ कीजिएगा, लेकिन यह व्यवस्था न्याय के नाम पर सिर्फ छलावा है।


सरकार की जिम्मेदारी है कि वह व्यवस्था बनाए रखे। हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं और लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि यहां 'एकरूपता' नहीं होती। असहमतियों का सम्मान होना चाहिए, लेकिन असहमति के नाम पर अराजकता पूरी तरह से गलत है। और मैं मानता हूं समाज को अराजक बनने से रोकने की जिम्मेदारी सरकार की है। चार लोगों के लिए आप 40 की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसके लिए आप प्रेम से भी समझा सकते हैं और भय से भी।

इसका एक ही तरीका है, और वह श्रीरामचरित मानस में बताया गया है। दो पंक्तियों में इसका उत्तर है: 


भय बिनु होइ न प्रीति


तो क्या न्याय व्यवस्था को खत्म करके सब कुछ सरकारों पर छोड़ देना चाहिए?

बिलकुल नहीं! इससे भी अराजकता ही बढ़ेगी, बस वह सरकारी अराजकता होगी। न्याय व्यवस्था को खत्म करने की नहीं, उनमें सुधार की जरूरत है। जरूरत है कि 'तारीख पर तारीख...' वाली परंपरा को बदला जाए। न्याय देने वाले को न्याय की महत्ता का अहसास हो। जल्द से जल्द मामलों की सुनवाई हो। एक निश्चित समय में फैसला ना आने पर संबंधित, जज/अफसर पर कार्रवाई हो। जब तक यह नहीं होगा, कुछ नहीं बदलने वाला।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...