Wednesday 11 January 2017

बरकाती जैसे 'आतंकवादियों' पर सरकारी 'फतवा' कब?

संभव है कि आपको इस ब्लॉग के शीर्षक में एक इमाम के लिए 'आतंकवादी' शब्द के प्रयोग किए जाने पर आपत्ति हो। लेकिन इस शब्द के प्रयोग को लेकर मेरे अपने तर्कों को गलत ठहराने से पहले इस ब्लॉग को पूरा पढ़ लें। 
 
कोलकाता में 7 जनवरी को नोटबंदी के विरोध में एक कार्यक्रम होता है। इस कार्यक्रम के आयोजक तृणमूल कांग्रेस के सांसद इदरीस अली थे। कार्यक्रम में कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम मोहम्मद नूर-उर रहमान बरकाती कहते हैं, 'जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  प्रधानमंत्री के सिर के बाल व दाढ़ी का मुंडन करेगा उसे 25 लाख रुपए का इनाम दिया जाएगा।' बरकाती ने इस ऐलान के पीछे नाराजगी की वजह आम आदमी को नोटबदली से हुई परेशानी को बताया। ठीक बात है कि अगर देश की सरकार के किसी कदम से आम आदमी को वास्तव में कोई परेशानी होती है तो धर्म जगत से जुड़े लोगों की, आध्यात्म के क्षेत्र से जुड़े लोगों की जिम्मेदारी है कि वे सत्ता के अहंकार में मदान्ध हो चुके नेतृत्व के विरुद्ध विद्रोही सुर निकालें और उस नेतृत्व को सत्ता से शून्य करें। लेकिन इसके साथ ही दो विषयों पर और भी चिंतन करना चाहिए। 

पहला विषय यह कि क्या नोटबदली के फैसले से जनता ने जो परेशानी झेली है, उस परेशानी के चलते जनता का बड़ा वर्ग सच में नाराज है? इसका जवाब मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 'नहीं' है। लेकिन अगर आप मीडिया रिपोर्ट्स की निष्पक्षता को नहीं मानते तो कोई बात नहीं लेकिन जनमत को मानेंगे ही ना? नोटबदली के बाद हुए चुनावों के नतीजे बताते हैं कि जनता ने केन्द्र सरकार या बीजेपी सरकार के फैसले को एक सकारात्मक उद्देश्य के लिए उठाए गए कदम के रूप में लिया है। 

दूसरा विषय यह है कि क्या किसी के विरोध में भाषा की मर्यादा को भूल जाना उचित है? इसका जवाब मेरे विवेक के आधार पर 'नहीं' ही है। वह भी तब जब आप किसी व्यक्ति के विषय में नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री के विषय में कुछ कह रहे हों। बरकाती ने ऐसी भाषा का प्रयोग किसके संरक्षण में और क्यों किया इस पर विचार करने से पहले उसके बारे में कुछ खास बातें जान लेते हैं।

टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम मोहम्मद नूर-उर रहमान बरकाती ने मई 2011 में आतंक के पर्याय बनकर बैठे ओसामा बिन लादेन के वध पर अपनी मस्जिद में ओसामा की आत्मा की शांति के लिए नमाज-ए-जनाजा रखवाया था। खास बात यह है कि इस कार्यक्रम में भी ऑल इंडिया माइनॉरिटी फोरम के अध्यक्ष और वर्तमान टीएमसी सांसद इदरिस अली भी मौजूद थे।

बरकाती ने 2004 में तस्लीमा नसरीन का गला काटने का फतवा जारी करते हुए कहा था कि ऐसा करने वाले को 20 हजार रुपए दिए जाएंगे। 2005 में इस राशि को बढ़ाकर 50 हजार कर दिया गया।

इन इमाम साहब ने 2011 और 2016 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी के लिए प्रचार किया था। आप इनकी और ममता बनर्जी की नजदीकियों का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि इन्होंने 2013 में दावा किया था कि इनके ममता बनर्जी को फोन करते ही ममता बनर्जी ने सलमान रुश्दी को कोलकाता आने से रोक दिया। 

बात यहीं खत्म नहीं होती। बरकाती को जब जी न्यूज के एक डिबेट शो में बुलाया गया तो उन्होंने इस्लामिक स्कॉलर तारेक फतेह को काटने की धमकी दे डाली। शो के दौरान तारेक फतेह ने जब कहा कि भारत मध्ययुगीन प्रथाओं से काफी आगे निकल गया है जब लोगों के गले काट दिए जाते थे, इस पर गुस्साए बरकाती ने कहा, 'आपका गला भी काट दिया जाएगा।' इतना ही नहीं न्यूज 18 के एक डिबेट शो में बरकाती पत्रकारों को बिका हुआ और मोदी का चमचा कहते हुए बाबरी विध्वंसक करार देता है।

पीएम मोदी को लेकर उसने क्या कहा, इशरत जहां को लेकर उसने कौन सा फतवा जारी किया, वह किस पार्टी का समर्थन करता है, ये सारे राजनीतिक विषय हो सकते हैं, सब कुछ छोड़ दीजिए। सिर्फ एक बात के आधार पर, ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी की आत्मा की शांति के लिए नमाज-ए-जनाजा रखने के आधार पर इसे आतंकवादी करार दिया जा सकता था। और इसके लिए इसे और इसके साथ-साथ उस कार्यक्रम में शामिल होने वाले प्रत्येक व्यक्ति को कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी। लेकिन अगर पश्चिम बंगाल सरकार ऐसा करती तो उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति खतरे में पड़ जाती। 

कोई पत्रकार धूलागढ़ के हालात दिखाता है तो उस पर गैरजमानती धाराओं में एफआईआर हो जाती है। पाकिस्तान के खिलाफ 'The Saga of Baluchistan' शीर्षक से होने वाले कार्यक्रम की अनुमति यह कहकर रद्द कर दी जाती है कि इससे प्रदेश का माहौल बिगड़ सकता है। अरे, अगर पाकिस्तान के खिलाफ होने वाले कार्यक्रम से किसी प्रदेश की व्यवस्था बिगड़ती है तो उस प्रदेश की सरकार को खुद की कार्यपद्धति पर शर्म आनी चाहिए और तत्काल प्रभाव से इस्तीफा दे देना चाहिए। 

मालदा, धूलागढ़ और उसके बाद बकराती पर लिए गए टीएमसी के स्टैंड से उसकी कार्यपद्धति के आधार का पता तो लग गया लेकिन सवाल यह है कि जो पार्टी राष्ट्रवाद की बातें करके, सैनिकों के सम्मान की रक्षा के वादे करके, देश की एकता, अखंडता और एकात्मता के संरक्षण के सपने दिखाकर सत्ता के सिंहासन पर पहुंची है वह इस 'आतंकवादी' पर अब तक खामोश क्यों है?

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