Saturday 14 May 2022

मनुस्मृति ने मुझे क्या सिखाया और मौलवी ने क्या बताया? 'जन्म' जाति के अहंकार में डूबे लोग जरूर पढ़ें

भारत की सामाजिक परंपरा ने व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए दो तरह के संगठन बनाए। एक था वर्ण और दूसरा आश्रम। वर्ण यानी कर्म की प्रकृति और आश्रम यानी वर्ण के लिए प्रशिक्षण। कौन किसका बेटा है, कौन किस जगह पर पैदा हुआ, इसकी जगह पर कौन किस विषय में रुचि रखता है, कौन किस विषय में 'कुशलता' प्राप्त करना चाहता है, इसे चुनने का अधिकार दिया गया। आसान शब्दों में कहें तो आज जिस स्किल डिवेलपमेंट की बात सरकार कर रही है, वह तो हमारी परंपरा का हिस्सा था। 


थोड़ा विस्तार से समझते हैं। हम जब कोई व्यवस्था बनाते हैं तो उसकी कुशलता में कोई कमी नहीं छोड़ते। सब बेहतर रखने की कोशिश करते हैं। इसी व्यवस्था के तहत चार वर्ण बने और कर्मों के आधार पर उनका नामकरण कर दिया गया। यह वर्ण व्यवस्था विभेद रहे, इसके लिए सभी की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा के शरीर से ही बताई गई। ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल के 90वें सूक्त की 12वीं ऋचा में कहा गया:


ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥


अर्थात

जो समाज को ज्ञान देने का काम करे, लोगों को शिक्षित करे, नैतिकता का पाठ पढ़ाए... वह मुख से उत्पन्न हुआ ब्राह्मण

जो अपने भुजबल से समाज की रक्षा करे, वह भुजाओं से उत्पन्न हुआ क्षत्रिय

जो समाज का पेट पाले, उनके जीवन यापन के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए, वह उदर यानी पेट से उत्पन्न हुआ वैश्य

जो समाज के लिए श्रम साधना करे, वह पैरों से उत्पन्न हुआ शूद्र


अब यहां से दो विषय लेकर चलते हैं। पहला विषय यह है कि भाई शूद्रों को लिस्ट में सबसे नीचे रखा और फिर पैरों से उत्पत्ति करा दी। मतलब इतनी नाइंसाफी! यह मैं नहीं कह रहा, यह हमारे नवबौद्ध कहते हैं। अब उन मूर्खों को कौन समझाए कि भाई, पैर कौन सी खराब चीज है। एक-एक काम बंट रहा था, कोई नीचे रहा, कोई ऊपर, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि किसी काम का महत्व कम आंका गया। अगर ऐसा होता तो कह देते कि शूद्र नौकर हैं, उनका छुआ नहीं खाना है, उनकी उत्पत्ति तो ब्रह्मा जी ने की ही नहीं। कोई कहानी बना देते, जैसे बहुत से नवबौद्धों ने बना रखी है। कह देते कि वो ब्रह्मा जी के वाहन हंस का मन किया कि किसी को परेशान किया जाए तो बस परेशान करने के लिए हंस ने 'शूद्र' की उत्पत्ति कर दी। मतलब अजब ही मूर्खता चल रही है।


कोई ऊपर नीचे नहीं, सभी का अपना महत्व है। इन चारों कामों से एक भी काम ना हो तो हो सकता है कि आप जिंदा रह लें लेकिन सामाजिक तानाबाना नहीं चल सकता था। हमने व्यवस्था बनाई, इसीलिए आज हमारे पास हजारों लाखों सालों का इतिहास है। हमने दायित्वों का वर्गीकरण किया, लोगों की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा को निखरने का अवसर दिया, इसलिए हम विश्वगुरु कहलाए, इसीलिए सबसे प्रतापी राजा हमारे पास हुए, इसलिए पूरी दुनिया में सबसे बड़े निर्यातक हम रहे, इसीलिए हमारा हर काम व्यवस्थित रहा। 


सब परफेक्ट था तो समस्या कैसे हुई?

जैसा मैंने पहले भी कहा कि हम जब कोई व्यवस्था बनाते हैं तो उसकी कुशलता में कोई कमी नहीं छोड़ते। हमारी वर्ण और आश्रम व्यवस्था भी परफेक्ट थी, जैसे जब भारत का संविधान बना तो वह भी सभी के बारे में सोचकर एकदम परफेक्ट बनाया गया, उस समय के हिसाब से। लेकिन फिर विसंगतियां आनी शुरू हो गईं, लोग निजी लाभ के लिए उनका दुरुपयोग करने लगे। बिलकुल वैसे ही, जैसे कई बार आज पड़ोसी से कूड़ा डालने को लेकर झगड़ा हो जाए तो SC-ST एक्ट लगवा दिया जाता है, या पत्नी अपनी सास को खाना ना दे और पति इसे लेकर डांटे तो दहेज उत्पीड़न का केस लगवा दिया जाता है। उसी तरह से लोगों ने उस वर्ण व्यवस्था का भी दुरुपयोग किया, उसके सहारे लोगों का शोषण भी किया, उनके मानवीय अधिकारों का हनन भी किया। लेकिन क्या इसके लिए आप वर्ण व्यवस्था को दोषी ठहराएंगे? नहीं! दोषी वह है, जिसने दुरुपयोग किया, जैसे संविधान का होता है। फर्जी केस लगवाने वालों की वजह से हम संविधान को गलत नहीं कह सकते। बदलते वक्त के साथ मल्टिटास्किंग उपयुक्त व्यवस्था है। अब कोई 'वैश्य' आपका पेट पालने के लिए नहीं बैठा है, अब आपको अपना पेट पालने के लिए कभी ब्राह्मण वाला, तो कभी क्षत्रिय वाला, तो कभी शूद्र वाला काम करना पड़ेगा। जब काम दूसरे वर्ण वाला कर रहे हैं तो जन्म को लेकर अहंकार क्यों? और यह कहने का अधिकार मैं तब रखता हूं, जब पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कहूं कि बदलते वक्त के साथ जब हम बिना किसी की जाति पूछे उसके साथ ऑफिस में खाना खाते हैं, साथ में  डेस्क शेयर करते हैं, एक ही रूम में शेयरिंग करते हैं, एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, तो जाति आधारित कानूनों को खत्म करके 'समान नागरिक संहिता' लागू की जाए। 


जब ऊपर के पैराग्राफ के अंतिम हिस्से का पहला भाग कहता हूं तो जन्म आधारित जाति के अहंकार में डूबे मूर्खों को मैं ब्राह्मण विरोधी लगने लगता हूं, और जब दूसरा हिस्सा कहता हूं तो आरक्षण विरोधी हो जाता हूं। मेरा स्पष्ट मानना है कि जाति व्यवस्था इस देश में नहीं होनी चाहिए, आज हमें उसकी आवश्यकता ही नहीं है। इसके साथ ही कहीं पर भी जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था भी नहीं होनी चाहिए।


अब तक तो ज्ञान की बातें हुईं। अब मैं आपको बताता हूं कि आज सालों बाद मेरा मन क्यों किया कि 'ब्राह्मण' रूप में आया जाए। दरअसल कुछ दिन पहले एक राजनीतिक दल की महिला नेता ने ट्वीट किया, 'ब्राह्मण समाज को अपने पुत्र-पुत्रियों को ब्राह्मणों में ही विवाह करने के लिए प्रेरित, संस्कारित और शिक्षित करना ही चाहिए। जिससे ब्राह्मण संस्कार चिरायु हों। रोटी सबके साथ मिल बाँटकर खाओ, पर बेटी अपने ब्राह्मण कुल में ही दो और अपने ब्राह्मण कुल से ही लो।'


https://twitter.com/RoliTiwariMish1/status/1523863999519277058


इस ट्वीट के बाद मैं बड़ा आश्चर्यचकित हुआ कि समाजवादी पार्टी की नेता होकर ब्राह्मणों की इतनी चिंता कैसे? फिर नाम देखा, उसमें पंडित भी था, तिवारी भी और मिश्रा भी। वंशावली की बात करूं तो मैं विश्व गौरव, कश्यप गोत्र, वेद-सामवेद, उपवेद- गंधर्ववेद, शिखा-वाम, पाद-वाम, शाखा-कौथुमी, सूत्र-गोभिल, देवता-विष्णु और छंद-जगति होने के बाद सैकड़ों धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करने के उपरांत भी इस तरह का ज्ञानार्जन नहीं कर पाया। जिस मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जन्मस्थान के लिए के लिए देश का लगभग पूरा हिंदू मन से एकमत था, उस राम की पत्नी का कुल-गोत्र किसी को नहीं पता था। ऐसे राम को पूजने वाले देश में जाति को लेकर ऐसी बातें। कितने ऋषियों ने राक्षसों की कन्याओं से विवाह किया, क्यों? ताकि उनकी आने वाली पीढ़ी की प्रवृत्ति बदले। कुछ की बदली, तो कुछ की नहीं बदली। लेकिन जब पंडित डॉ. रोली तिवारी मिश्रा ने यह पोस्ट की तो अपने उपरोक्त ज्ञान के आधार पर मैंने जवाब दिया, 'कर्म के आधार पर बनी वर्ण व्यवस्था को आज की व्यवस्था में कैसे स्थापित कर सकती हैं आप? आपके परिवार का एक सदस्य भी क्या आज 'ब्राह्मण' रह गया है? नाम के आगे पंडित लगाने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, इस अहंकार से बाहर निकलिए।'


मेरे इस कॉमेंट के साथ ही दो तरह के लोग फुल मूड में आ गए। अलग-अलग कॉमेंट किए। मैं कोशिश करूंगा कि इस ब्लॉग में सभी के सवालों का जवाब दूं और जिज्ञासा का समाधान करूं। इनमें से कुछ को तो भ्रम है, यानी वे समय के अभाव में अध्ययन नहीं कर पाए, और जो सुना, उसे मान लिया। दूसरे हैं कुपढ़, जिन्होंने वही पढ़ा जो विकृत साहित्य उन्हें पढ़ाया गया। ऐसे लोगों को समझाना लगभग नामुमकिन है, लेकिन फिर भी इनका जवाब देना इसलिए जरूरी है, ताकि कम से कम अनपढ़ों को ये कुपढ़ अपने वश में ना कर पाएं।


अल्पज्ञान से भरे मेरे अनुज राशिद के सवाल और उनके जवाब

जब मैं नवभारत टाइम्स डिजिटल में कार्यरत था, तो मैंने मेरठ से एक बालक को अपनी टीम में रखा था। राशिद नाम था उसका। मैंने किसी के चुनाव के लिए जो मानक तय किया था, उसमें वह फिट बैठता था। जब उसका चुनाव किया तो बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया, क्योंकि वह सोशल मीडिया पर काफी कुछ अनर्गल लिखता था। लेकिन वह मेरा विषय नहीं था, इसलिए मैं अपने फैसले पर अडिग रहा। चूंकि वह मेरी टीम का हिस्सा रहा है, इसलिए उसकी जिज्ञासा का समाधान बेहद जरूरी है।


राशिद ने लिखा, 'कर्म के आधार पर बनी वर्ण व्यवस्था को क्या ये कहना चाहिए की शूद्र आपकी सेवा के लिए बने हैं, उन्हें चाहे जैसे इस्तेमाल करो, और यदि किसी शूद्र के कानो में गीता के शब्द पड़ जाए तो उसके कानों में सीसा पिघला कर डाल दो।' मैंने पूछा कि यह जवाब कहां से मिला तो राशिद ने 2-4 ग्रंथों के साथ उनकी तथाकथित सूक्तियां लिख डालीं।


शूद्र किस लिए बने थे, वह मैं ऊपर स्पष्ट कर चुका हूं और गीता में तो भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥' अब ऐसे में अगर कोई यह कहे कि गीता सुनने वाले के कान में सीसा पिघलाकर डाल दो तो हास्यास्पद लगता है। कौन सी बात किस प्रसंग में कही गई, किसने कही, बिना इसे समझे कुछ भी कह देना गलत होगा। वाल्मीकी रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने रावण से भी बहुत कुछ कहलवाया है, अगर आप उस एक श्लोक को पढ़कर यह कह देंगे कि यह तो रामायण में लिखा है, तो गलत होगा। खैर, राशिद ने मनुस्मृति की एक तथाकथित सूक्ति बताई- 'अनिष्टेषु वर्तन्ते सर्व कर्मसु। सर्वथा ब्राह्मणा पूज्या: परमं दैवतं हितत्।। मनु-स्मृति-९/३१९' बड़े धड़ल्ले से ऐसी सूक्तियां, श्लोक और बातें बिना प्रसंग के और भावहीन विषय को केन्द्र में रखकर फैलाई जाती हैं। 


ऊपर की तरह ही श्रीरामचरित मानस की एक तथाकथित चौपाई का जिक्र किया जाता है, 'पूजहि विप्र सकल गुण हीना। शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।', इसका जिक्र भी राशिद ने किया है। 

ऐसे और भी सूक्तियों/ चौपाइयों/श्लोकों के साथ इस बात को प्रमाणित करने की कोशिश की जाती है कि सनातन परंपरा में ब्राह्मण जाति को सबसे ऊपर रखा गया, शूद्रों को दबाया गया। अरे साहब! सनातन पर सवाल उठाने से पहले सनातन को समझ तो लो। सनातन में जब कर्म आधारित व्यवस्था है तो उसमें ब्राह्मण जन्म से कोई कैसे हो गया। श्रीरामचरितमानस की जिस  चौपाई का ऊपर जिक्र किया गया है, उसके साथ कितनी चालाकी से छेड़छाड़ की गई है, उसे समझिए। असल चौपाई है:

पूजिय विप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना।

लेकिन इस चौपाई को इतना स्पष्ट कर दिया गया कि लोग आसानी से समझ सकें कि शूद्रों के साथ तो सनातन में बड़ा भेदभाव हुआ है। खैर, हम आपको अरण्यकांड की इस चौपाई का अर्थ बताते हैं। पूरा प्रसंग समझाएंगे तो बहुत समय लगेगा, लेकिन इतना समझ लीजिए कि राक्षस कबंध से भगवान श्रीराम यह कह रहे हैं और बात हो रही है ऋषि दुर्वासा के बारे में। ऋषि दुर्वाषा के क्रोध के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन उनके ज्ञान और कर्म के बारे में कोई पश्नचिह्न नहीं लगा सकता। इस चौपाई को दो हिस्सों में तोड़कर समझते हैं:

पहला हिस्सा: पूजिय विप्र सील गुन हीना।

पूजिए+ विप्र (साधु) को+ सील का गुन (कोमल हृदय के गुण से रहित)

अर्थात- 


दूसरा हिस्सा: सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना

सूद्र न गुन (शूद्र यानी तपस्या से हीन मत समझ)+ गन ज्ञान प्रवीना (ज्ञानी मानो)


पूरी चौपाई का अर्थ समझें तो वहां किसी ब्राह्मण और शूद्र की बात ही नहीं हो रही है, वहां तो बस दुर्वासा ऋषि के बारे में राम बता रहे हैं कबंध को। 

इसका अर्थ होगा- वह विप्र जिसमें भले ही कोमलता ना हो, जो भले ही डांटता-फटकारता हो, दंडित करता हो, लेकिन फिर भी वह पूज्य है। उसे उसके व्यवहार के आधार पर शूद्र यानी तपस्या से हीन मत समझो, बल्कि उनके तप, त्याग, गुण और विशेषताओं के आधार पर उन्हें ज्ञानी समझो।


अब इस चौपाई में ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है, यह कहां से आ गया? यह सिर्फ एक उदाहरण है। भारतीय परंपराओं और साहित्य के साथ लगातार ऐसा हुआ। साहित्य में विकृति आती है तो परंपरा और समाज स्वतः विकृत हो जाता है, यही हमारे साथ हुआ। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस विकृति से हमारी संस्कृति खत्म होती जा रही है। लेकिन इसका जिम्मेदार कोई व्यक्ति, कोई जाति, कोई संप्रदाय या कोई विशेष वर्ग नहीं है। हर जाति/संप्रदाय/वर्ग में ऐसे लोग हैं, जो बिना पढ़े सिर्फ उसी को सत्य मान लेते हैं, जो उन्हें बताया जाता है। ऐसी ही एक और सूक्ति राशिद ने लिखी


शतं ब्राह्मण माक्रश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति।

वैश्योप्यर्ध शतं द्वेवा शूद्रस्तु वधम् अर्हसि।।

(मनु-स्मृति-- ८/२६७/)


कुपढ़ का अर्थ समझिए। राशिद के अनुसार इसका अर्थ है कि मनु-स्मृति में वर्णित है कि ब्राह्मण बुरे कर्म करे, तब भी पूज्य है, क्योंकि वह भू- मण्डल का परम देवता है।


जब मैंने इसे पढ़ा तो हंसी आई। क्योंकि ऊपर जो सूक्ति लिखी है, उसका इस अर्थ से कोई लेना देना नहीं है। उस सूक्ति में बताया गया है कि यदि किसी ब्राह्मण (उस समय के हिसाब से कर्म वाला) को दुष्ट वचन कहे तो उसे क्या सजा मिलेगी। यानि अगर क्षत्रिय कुछ कहेगा तो उसे क्या दंड मिलेगा, वैश्य को क्या दंड मिलेगा और शूद्र को क्या दंड मिलेगा। यह सामान्य सा दंड विधान था। इस सूक्ति के विषय में जब एक आचार्य से बात कर रहा था तो उन्होंने बहुत शानदार उदाहरण दिया। उन्होंने कहा, 'मान लीजिए, किसी कक्षा में 40 बच्चे हैं, उन्हें तीन कैटिगरी में बांटिए, पहली जो पढ़ने में बहुत होशियार हैं और शिक्षक की सारी बातें मानते हैं, दूसरी जो कम होशियार हैं और कभी-कभी गड़बड़ कर देते हैं तथा तीसरी में वे छात्र जो अधिक गड़बड़ करते हैं। अब अगर कोई छात्र शिक्षक की अवज्ञा करे तो शिक्षक हर कैटिगरी के छात्र को उसके पुराने रेकॉर्ड के हिसाब से ही दंड देगा।' यह उस समय का एक दंडविधान था। खास बात यह है कि अगर कोई ब्राह्मण किसी ब्राह्मण को कुछ कहता है तो उसपर राजदरबार में राजा के समक्ष शास्त्रार्थ का विधान था। उनके जवाब पर मैंने पूछा कि ऐसा क्योंकि किसी और वर्ण का व्यक्ति एक ब्राह्मण को कुछ नहीं कह सकता? उनका जवाब था, 'एक व्यक्ति सुबह भोजन करता है, उसे इस बात की चिंता नहीं होती कि शाम को भोजन कहां से मिलेगा। लोगों को शिक्षित करने का काम करता है, कुटिया में रहता है, लालच शून्य है। उसे कोई कुछ कहेगा तो कष्ट तो होगा।'


इस्लाम आतंकवाद सिखाता है?

इसी तरह सैकड़ों सूक्तियां, श्लोक मार्केट में तैर रहे हैं, जिनका अर्थ विकृत रूप में फैलाकर समाज में विद्वेष फैलाया जा रहा है। अब हो सकता है कि किसी के मन में सवाल उठे कि हम ये कैसे सही मानें कि मनुस्मृति या अन्य किसी ग्रंथ में किसी जाति के लिए विद्वेष नहीं है। मैं इसका जवाब एक उदाहरण से देता हूं। एक बार मेरे एक परिचित ने पूछा कि आपके मुसलमान दोस्त क्यों हैं, उनको तो आतंकवाद सिखाया जाता है, जिहाद सिखाया जाता है। मैंने पूछा कि यह किसने कहा कि मुसलमानों को आतंकवाद सिखाया जाता है? उसने कहा, वे जिहाद के नाम पर कत्लेआम करते हैं, ये तो आतंकवाद ही है और उन्हें यह सब कुरान सिखाती है।


मौलवी साहब ने समझाया इस्लाम

सवाल में दम था, लेकिन मैं सनातनी इस्लाम के बारे में क्या ही जानता। लेकिन मैं अपने उन मित्रों को तो जानता था, जो मेरे साथ रहते थे, मेरे साथ जिन्होंने दामिनी के लिए तिरंगा उठाया था, जिन्होंने शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ मेरे छात्र जीवन के दौरान एबीवीपी का भगवा झंडा भी उठाया था, फिर मैं कैसे मान लेता कि उनको आतंकवाद सिखाया जाता है। इसके बाद मैं एक मौलवी साहब के पास गया। उनसे यही सवाल रखे, तो उन्होंने सबसे पहले तो जिहाद का मतलब बताया। उन्होंने कहा कि 'जिहाद का मतलब है अपने अंदर के राक्षस से लड़ना। अपने अंदर की बुराइयों से लड़ना और सिर्फ लड़ना नहीं बल्कि उस लड़ाई में अत्यधिक प्रयास करना मतलब जीतकर ही दम लेना। अब अगर कोई जिहाद के नाम पर एक कौम को बुराई बताकर उसकी हत्या कर रहा है, तो वह कुछ भी हो सकता है, सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता।' 


बात बस इतनी सी है। इस दुनिया में आपका मानस तय करने वाले बहुत से लोग हैं। आपने उनके हिसाब से अपना मानस बना लिया तो किसी का कोई नुकसान हो या ना हो, 'आप' में से 'आप' खत्म हो जाएंगे। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूं कि कोई किसी चीज की कैसी भी व्याख्या करे, लेकिन उसमें जो आपके साथ आपके पड़ोसी और आपके समाज के लिए हितकारी हो, उसे स्वीकार करो। 


नारी के विषय में मनुस्मृति

मनुस्मृति के विषय में कहा जाता है कि वह नारी स्वतंत्रता के खिलाफ है। लेकिन जितना मैंने पढ़ा है, मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 56वें श्लोक में वर्णित है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:, यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:’, अर्थात जहां पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां उनकी पूजा नहीं होती, वहां सब काम निष्फल होते हैं। नारी के लिए ऐसा भाव भारतीय परंपरा को छोड़कर किसी अन्य परंपरा में नहीं दिखता और यह परंपरा मनुस्मृति आधारित है। तो बताइए आखिर किस आधार पर मनुस्मृति का विरोध किया जाए।


दहेज इत्यादि पर मनुस्मृति

मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के 138वें श्लोक का अर्थ मुझे बताया गया कि स्त्री, रोगी, भारवाहक, अधिक आयुवाले, विद्यार्थी, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए। इसी मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 52वें श्लोक में कहा गया कि जो वर के पिता, भाई, रिश्तेदार आदि लोभवश, कन्या या कन्या पक्ष से धन, संपत्ति, वाहन या वस्त्रों को लेकर उपभोग करके जीते हैं वे महानीच लोग हैं। क्या दहेज प्रथा का इससे बड़ा विरोध कोई कर सकता है? विश्वास मानिए, किसी और वजह से नहीं, बल्कि एक सनातनी होने का गर्व अनुभव करने के लिए मैंने अपने विवाह कतो पूर्ण रूप से दहेज रहित रखा। मेरे कई 'अपने' इस बात से आज तक मुझसे नाराज हैं, लेकिन मैं गर्वित हूं कि जिस गौरवशाली परंपरा का इतिहास हजारों-लाखों वर्ष पुराना है, उसे संरक्षित करने में थोड़ा सा योगदान मेरा भी है। 


मुझे टैग करते हुए सोशल मीडिया पर आरक्षण व्यवस्था से प्रताड़ित एक नवयुवक ने लिखा, 'मेरे माता-पिता दोनों जन्म से ब्राह्मण हैं, मैं दिन-रात साफ सफाई का काम कर लूंगा, मुझे SC-ST का सर्टिफिकेट कैसे मिल सकता है?' 


कुल/गोत्र का अहंकार! मनुस्मृति पढ़ लो आज के ब्राह्मणो

आज इस देश में भ्रष्टाचार से भी बड़ी कोई बीमारी है तो वह जातिवाद है। मैं मानता हूं कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था इस देश की एकात्मता, अखंडता और एकता के लिए खतरा है लेकिन इस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराना गलत होगा। नीति की स्पष्ट व्याख्या मनुस्मृति में मिलती है, आज जब पूरा दलित आंदोलन मनुवाद के विरोध पर टिका है, ऐसे समय में मैं बताना चाहता हूं कि वर्ण व्यव्स्था को जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के आधार पर शुरू किया गया था। वर्ण अर्थात वरण करने वाला यानी चुनाव करने वाला, अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्म को चुनने का अधिकार था। उस गुण, कर्म, स्वभाव आधारित व्यवस्था को आज जन्म आधारित बनाकर एक पुण्य संस्कृति का विरोध करना वास्तव में दुखद है। मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 109वें श्लोक में साफ तौर पर कहा गया है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए। अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्म से ब्राह्मण या ऊंची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए। अब अगर कोई अल्पज्ञानी 'ब्राह्मण' खुद को सिर्फ इसलिए 'बड़ा' मानने लगे कि उसका कुल/गोत्र क्या है तो उसका तिरस्कार करने का आदेश स्वयं मनुस्मृति देती है।


आज की व्यवस्था बेहतर है, या तब की थी?

मनुस्मृति के 10वें अध्याय के 65वें श्लोक में कहा गया है कि ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र, ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं। मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ठ कर्म नहीं करता, तो वह शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है। अब अगर आप उस शूद्र शब्द को जन्म आधारित जाति से जोड़ दें तो गलत होगा। इस तरह से वर्ण बदलने का व्यवस्था आज का संविधान देता है क्या? लेकिन उस समय के विधान यानी मनुस्मृति में ऐसी व्यवस्था थी। 


....फिर भी, इसे समझना जरूरी है

इतना कुछ होने के बावजूद संभव है कि मनुस्मृति में कुछ ऐसी बातें हों जो आज के परिपेक्ष्य में आत्मसात करने के लिए उपयुक्त न हों अथवा यह भी संभव है कि जिस उद्देश्य के साथ वे बातें लिखी गई हों, वह उद्देश्य हमारी समझ से परे हों लेकिन इस तर्क के साथ पूरी मनुस्मृति को नकार देना अनुचित होगा। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, सभी को परिवर्तित होना चाहिए लेकिन उस परिवर्तन की दिशा सकारात्मक होनी चाहिए। सकारात्मक सोचें, सकारात्मक समझें और सकारात्मक करें……हमें तो गर्व करना चाहिए कि हमारे देश में 2000 से अधिक सालों का इतिहास रखने वाली सेवा समर्पित ईसाईयत है, 1400 से अधिक सालों का इतिहास रखने वाला शांतिप्रिय इस्लाम है, लगभग 500 सालों का गौरवशाली इतिहास रखने वाला सिख पंथ है, बौद्ध, जैन, यहूदी, पारसी और आदि काल से चला आ रहा पूर्ण सनातन भी है। जिस परंपरा (रिलिजन) में जो भी उचित हो, जो भी वर्तमान परिपेक्ष्य में अनुकरणीय हो, उसे ससम्मान आत्मसात करने में क्या बुराई है?


अध्ययन का वक्त नहीं है तो मेल करें

और अंत में बस इतना ही कहूंगा कि आप अपने जन्मजातीय ब्राह्मण होने के अहंकार में हैं या बाप-दादाओं की कहानियों के आधार पर आज सक्षम होने के बावजूद एक वर्ग विशेष को अपने उस शोषण का जिम्मेदार मानते हैं, जो आज हो नहीं रहा, या फिर आपको किसी भी भारतीय साहित्य में कोई खामी दिखती है और आपको उसकी पुष्टि करने के लिए अध्ययन का समय नहीं है  तो प्लीज मुझे news.vgaurav@gmail.com पर मेल करें। मैं उपनिषद परंपरा का पालन करते हुए अध्ययन करूंगा और आपकी जिज्ञासा का समाधान करूंगा। और एक और बात, विश्वास मानिए, अगर कुछ गलत हुआ तो वह भी बताऊंगा और अपने पूर्वजों की तरफ से क्षमा भी मांगूंगा। पर अगर आप फर्जी ज्ञान बाटेंगे तो उससे मेरा कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन आपका कोई लाभ भी नहीं होने वाला। शुभकामनाएं...

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...