Friday 28 October 2016

दिवाली आ गई, शुरू होगा 'सेक्युलरों' का 'विधवा विलाप'

गुरुवार को अचानक टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए गए तस्लीमा नसरीन के एक इंटरव्यू पर नजर पड़ी। उस इंटरव्यू में तस्लीमा ने एक सवाल के जवाब में कहा था, ‘भारत के अधिकतर सेक्युलर लोग प्रो-मुस्लिम और ऐंटी-हिंदू हैं। वे हिंदू कट्टरपंथियों के कृत्यों का विरोध करते हैं, लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों के जघन्य कृत्यों का बचाव करते हैं।’ तस्लीमा द्वारा कही गई इस लाइन को भारत की दलगत राजनीति से न जोड़कर ‘सेक्युलरों’ की मानसिकता से जोड़कर समझने की कोशिश    की। आगे पढ़ने से पहले बेहतर होगा कि अपने मजहबी चश्मे को उतारकर एक बार सही मायनों में सेक्युलर की मूल अवधारणा को आत्मसात करें। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो तय है कि आप मुझे कट्टर अथवा सांप्रदायिक करार देंगे।

2 दिन बाद दिवाली है। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक, सभी का कहना है कि इको-फ्रेंडली दिवाली होनी चाहिए। बिलकुल ठीक बात है, हमारा पर्यावरण है, हमारी जिम्मेदारी है कि उसकी रक्षा करें। मैं मानता हूं कि मानव, समाज और पर्यावरण हित में इको फ्रेंडली दिवाली से किसी को परहेज नहीं होना चाहिए। लेकिन समस्या इस बात से है कि दुनिया के 200 से अधिक देशों में 31 दिसंबर की रात को अंग्रेजी नववर्ष का ‘जश्न’ मनाया जाता है। पूरी दुनिया में पटाखे जलाए जाते हैं, पर्यावरण को भारी नुकसान होता है और हमारे देश के तथाकथित सेक्युलर उसे ‘जश्न’ का नाम देते हैं। क्या हिंदुओं के एक त्योहार पर होने वाली आतिशबाजी, एक अन्य तथाकथित वैश्विक जश्न पर भारी पड़ रही है। आंकड़े तो यह नहीं कहते…

चलिए मान लिया कि अंग्रेजी नववर्ष एक वैश्विक पर्व है, लेकिन 25 दिसंबर की रात में भी तो यही सब होता है ना, क्या उससे पर्यावरण की हानि नहीं होती? दिवाली पर यदि पटाखे जलाए जाएं, तो हिंदू पर्यावरण का नुकसान कर रहे हैं लेकिन अगर क्रिसमस पर पटाखे जलाए जाएं, तो ईसाई अपने त्योहार का जश्न मना रहे हैं।

‘मानवहित’ की ये बातें सिर्फ दिवाली तक ही सीमित नहीं रहतीं। होली आती है तो ‘पानी बचाओ-पानी बचाओ’ की मुहिम शुरू हो जाती है। बहुत अच्छी बात है, जिस देश में लोग 20 रुपए प्रति लीटर की दर से पानी खरीदते हों, वहां ऐसी मुहिम होनी भी चाहिए। लेकिन बकरीद पर मूक जीवों के काटे जाने पर जो लाखों लीटर पानी व्यर्थ बर्बाद होता है, उस पर बात क्यों नहीं होती? एक किलो आलू के उत्पादन में 254 लीटर पानी लगता है, एक किलो आटे के उत्पादन में 1,362 लीटर पानी लगता है, लेकिन 1 किलो मांस के उत्पादन में 18 हजार लीटर पानी लगता है। लेकिन इन आंकड़ों पर कोई ‘सेक्युलर’ कुछ नहीं बोलेगा।

शिवरात्रि आने पर कहा जाता है, ये कौन लोग हैं जो एक तरफ लाखों लीटर दूध बर्बाद कर देते हैं और दूसरी तरफ बच्चे भूख से मर रहे हैं। ठीक बात है, दूध की बर्बादी किसी भी कुतर्क के सहारे उचित नहीं ठहराई जा सकती है लेकिन फिर जब अपने जीवन में हजारों लीटर दूध देने वाली गाय की हत्या होती है, तो उस समय भी ‘सेक्युलरों’ को अपने मुंह में जमी दही निकालकर बाहर फेंकते हुए गोहत्या रोकने की बात करनी चाहिए। लेकिन नहीं, उस पर बात नहीं होगी। क्योंकि अगर उस पर बात हुई तो हमारे ‘सेक्युलरों’ की ‘निरपेक्षता’ खतरे में पड़ जाएगी और ‘खाने की आजादी’ का हनन हो जाएगा।

दही हांडी की बात आएगी तो छोटे बच्चों को उनकी इच्छा के बावजूद उन्हें हांडी फोड़ने की अनुमति नहीं दी जाती है। ठीक बात है, ‘बड़ों’ की जिम्मेदारी है कि बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखें। लेकिन पीड़ा इस बात पर होती है कि दही हांडी पर तो पत्रकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, सभी बच्चों की सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन मुहर्रम के दौरान जब 2-3 साल तक के अबोध बच्चों की चमड़ियां बिना उनकी अनुमति की उधेड़ी जाती हैं, तो कोई कुछ नहीं बोलता। सवाल बस इतना सा है कि आखिर ‘सेक्युलर्स’ ऐसा दोहरा चरित्र क्यों रखते हैं?

Thursday 27 October 2016

जरा सोचिए! कैसी होगी शहीदों के घर की दिवाली

जगदीश सिंह, पठानकोट में तैनात एक सैनिक, के घर में शादी की तैयारियां चल रही थीं। एयरबेस पर आतंकी हमला हुआ और जगदीश सिंह शहीद हो गए।
गुरसेवक सिंह, पठानकोट में तैनात एक और जवान, की शादी का एक महीना बीता था। आतंकी हमला हुआ और जसप्रीत विधवा हो गईं।
दिवाकर, CRPF का जवान, नक्सलियों से मुठभेड़ में शहीद हो गए। शहादत के 21 दिन पहले ही शादी हुई थी।
लांस नायक आरके यादव की पत्नी गर्भवती थीं। उड़ी में आतंकी हमला हुआ और वह बिना अपने बच्चे का मुंह देखे ही शहीद हो गए।
अशोक सिंह उड़ी हमले में शहीद हो गए। 78 वर्षीय दृष्टिहीन पिता ने उठाई बेटे की अर्थी।

ऐसे हजारों नाम हैं, जिनके बारे में मुझे या आपको पता तक नहीं है। क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि जब किसी बूढ़े पिता के सामने उसके 25 साल के जवान बेटे का शव रखा जाता होगा तो उस पर क्या बीतती होगी? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जब एक मां अपने बेटे की शादी की तैयारियों में लगी होगी और उसी बीच उसके बेटे का शव उसके सामने आ जाता होगा, तो उसे कैसा लगता होगा? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जिन हाथों की मेहंदी का रंग तक नहीं उतरा होगा, उन हाथों को अपने मंगलसूत्र को उतारना कैसा लगता होगा? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जब एक बच्चा पैदा होने के बाद अपनी पूरी जिंदगी में पिता का प्यार नहीं पा पाता होगा, तो उसे कैसा लगता लगेगा?

नहीं…. यह सब कुछ हमारी कल्पना से परे है। लेकिन क्या आपने सोचा है कि वे लोग सीमा पर, जंगलों में, पहाड़ों पर, 50 डिग्री की चिलचिलाती गर्मी में, रेगिस्तान में, -50 डिग्री की जमा देने वाली ठंड में क्यों खड़े रहते हैं? क्या इसलिए कि उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिलती? या इसलिए कि वे कुछ पैसे कमाकर अपना घर चला सकें? नहीं, वे इसलिए कठिनतम परिस्थितियों में संघर्ष करते रहते हैं ताकि हम आसानी से अपने त्योहारों को मना सकें। वे अपने बच्चों से दूर इसलिए रहते हैं ताकि हम अपने बच्चों के साथ खुशी से रह सकें। वे अपने परिवार से दूर इसलिए रहते हैं ताकि हम अपने परिवार के साथ रह सकें। ध्यान रहे, अगर सरहद पर फौज नहीं होगी तो हम मौज से त्योहार नहीं मना सकते।

जरा सोचिए, क्या सीमा पर तैनात एक जवान की मां की इच्छा नहीं होती होगी कि उसका बेटा दिवाली पर उसके साथ हो? क्या एक 7 साल की बच्ची यह नहीं चाहती होगी कि वह भी अपने दोस्तों की तरह ही होली पर, अपने पापा के साथ शॉपिंग करने जाए? एक महिला जिसने दूसरी बार करवा चौथ का व्रत रखा होगा, वह नहीं चाहती होगी कि पिछली बार की तरह उसे अपने पति की तस्वीर देखकर व्रत का परायण पड़े। सबके अपने अरमान होते हैं, सबकी अपनी कामनाएं होती हैं, लेकिन वे इन सबकी परवाह नहीं करते। वे परवाह करते हैं तो उनकी, जिनसे उनका कोई रिश्ता नहीं। वे परवाह करते हैं हमारी और आपकी। उनके लिए जन्म देने वाली माता की इच्छाओं से ज्यादा महत्व हमारी और आपकी खुशियां रखती हैं। और हम, क्या करते हैं उनके लिए? उनकी शहादत पर फेसबुक पर एक पोस्ट डाल देते हैं या फिर ट्विटर पर ट्वीट कर देते हैं। क्या हमारी इतनी ही जिम्मेदारी है? लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं।

vishva gaurav
दोस्तो, पिछले एक साल में हमारी भारत माता ने बहुत बेटे खोए। हम सीमा पर तैनात सैनिकों के लिए कुछ नहीं कर सकते, तो क्या करें? दिवाली आने वाली है। सनातन परंपरा में माना जाता है कि दिवाली की रात दिया जलाकर अगर हम ईश्वर से कुछ मांगते हैं तो ईश्वर हमारी बात जल्दी सुनता है। कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि दिवाली पर जब रात में पूजा करते समय अपने परिवार के सदस्यों की सलामती के लिए प्रार्थना करें, तो साथ में एक दिया जलाकर उनकी सलामती के लिए भी दुआ करें जो हमारे लिए अमावस की उस काली रात में सीमा पर तैनात हैं। कवियत्री जागृति त्रिपाठी लिखती हैं,
अरमानों को न्योछावर कर, जो सब कुछ पाकर खो  जाते हैं,
स्वार्थ भरी इस दुनिया में अमरत्वलीन हो जाते हैं।
जिन भारत के वीर सपूतों का, बस इतना सा ही नारा है,
है शान तिरंगा ये अपना, और राष्ट्र, जान से प्यारा है।
एक दीप जला दिवाली पर, करें शौर्य को निज प्रणाम,
और करें प्रार्थना रब से कि ना कोई सैनिक खोए जान।
मैं इस दिवाली भारतीय सेना के लिए दीया जलाकर सैनिकों की सलामती के लिए दुआ मागूंगा। क्या आप नहीं जलाएंगे इस दिवाली एक दीप भारतीय सेना के नाम?

Monday 24 October 2016

इस दिवाली एक दीप सेना के नाम भी जलाएं

तेरी-मेरी खातिर वे,सीमा पर कष्ट उठाते हैं,
अपनी नीदें खो करके, हमको बेखौफ सुलाते हैं।
4 दिन पहले एक वॉट्सऐप ग्रुप में एक खास तरह का मेसेज आया। मेसेज था, ‘वंदे मातरम दोस्तो, कल जम्मू से पंजाब वापस आते समय जम्मूतवी रेलवे स्टेशन पर भारतीय सेना के एक जवान से मुलाकात हुई। काफी देर तक हुई बातचीत के बाद उन्होंने एक बात बोली, जो मेरे दिल को छू गई। उन्होंने कहा, ‘हम सीमा पर इसलिए खड़े रहते हैं ताकि आप लोग घर पर दिवाली मना सकें। मैं 5 साल से दिवाली पर घर नहीं जा पाया। पता नहीं आप लोगों में से कितने लोग पूजा करते समय हमारे बारे में सोचते होंगे।’ मेरे पास उनकी बात का कोई जवाब नहीं था, क्योंकि इसी देश में वे लोग भी हैं जो सेना को रेपिस्ट कहते हैं।
खैर, लंबी बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘भाई, अब तक का नहीं पता लेकिन इस साल दिवाली पर आपको पता लगेगा कि देश आपको कितना प्यार करता है।’ दोस्तो, इस दिवाली एक दीपक भारतीय सेना के नाम भी जलाएं और मां लक्ष्मी की पूजा करते समय भारतीय सैनिकों के लिए दुआएं करें। साथ ही यदि संभव हो तो इस दीवाली किसी स्थान पर एकत्रित होकर सार्वजनिक रूप से सेना के शौर्य को नमन करें।’

यह मेसेज पढ़कर मुझे लगा कि शायद भेजने वाला कोई ‘मुहिम’ चला है। यही सोचकर मैंने उसे फोन लगाया। फोन पर उसने बताया कि यह मेसेज उसे भी किसी ने भेजा था और अपनी जिम्मेदारी समझकर उसने अन्य लोगों को भेजा। मैंने तुरंत गूगल पर सर्च किया तो पता लगा कि सोशल मीडिया पर इस विषय को लेकर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। फेसबुक पर इस दिवाली एक दीप सेना के नाम (https://www.facebook.com/MereBharatKiArmy/) नाम से एक पेज भी है, जिसे समय के हिसाब से ठीक-ठाक समर्थन मिल रहा है। विषय अच्छा है और उससे भी बड़ी बात यह है कि दिवाली के पावन पर्व पर अपने देश की सेना के लिए हमारे मन में आत्मदीप्ति प्रज्जवलित होगी।

विश्व गौरव
आज बहुत लंबी बातें नहीं करूंगा। 2 दिन पहले हमारे पीएम नरेन्द्र मोदी जी ने भी कहा है कि इस दिवाली अपने जवानों को याद किया जाए। इस ब्लॉग के माध्यम से मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि हम सीमा पर जाकर अपनी दिवाली पीएम नरेन्द्र मोदी की तरह सेना के नाम तो नहीं कर सकते, लेकिन अपने घर में एक दीपक जलाकर उनके लिए प्रार्थना तो कर ही सकते हैं जिनकी वजह से हम खुशियां मना पा रहे हैं। व्यक्तिगत इच्छाएं सभी की होती हैं, उनकी पूर्ति के लिए हम ईश्वर से प्रार्थना भी करते हैं, लेकिन क्या उनके प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं जो भारत की रक्षा के लिए, हमारी और हमारे परिवार की रक्षा के लिए अपने परिवार से दूर संघर्ष करते रहते हैं।

जाहिर है, आपके मन में यह सवाल उठा होगा कि इस मुहिम को चला कौन रहा है? वह कौन है जो इतने व्यस्त समय में देश की सेना के बारे में सोच रहा है। जब इस बारे में खोजबीन की तो जो पता लगा, उसे जानकर मन को बहुत संतोष हुआ। मेरा एक बहुत पुराना मित्र है, नितिन मित्तल। काफी समय से मैं उसके संपर्क में नहीं था। उसने ही सबसे पहले इस बारे में सोचा। इस शानदार पहल के लिए इस ब्लॉग के माध्यम से सार्वजनिक तौर पर पूरे देश की तरफ से मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं। साथ ही यह विश्वास भी दिलाता हूं कि मैं इस दिवाली एक दीप सेना के नाम जरूर जलाऊंगा।
ईद दिवाली होती सरहद पर, वे घर ना जाते हैं,
रहे सुरक्षित मुल्क सोच, सीने पर गोली खाते हैं।

Monday 17 October 2016

मुस्लिमों का संघ से जुड़ना विरोधियों को हजम नहीं हो रहा

मैं लखनऊ के सरस्वती विद्या मंदिर में कक्षा 9 में पढ़ता था। मेरे साथ शेर आलम नाम का एक मुस्लिम छात्र भी पढ़ता था। प्रतिदिन विद्यालय में लगभग 40 मिनट का वंदना का कालांश होता था जिसमें ‘प्रातः स्मरण’, सरस्वती वंदना, गीता, सुभाषित, एकात्मता स्त्रोत, एकता मंत्र, शांति पाठ और गायत्री मंत्र होता था। अन्य विद्यार्थियों की तरह शेर आलम भी वंदना में भाग लेता था और पूर्ण आस्था के साथ वंदना करता था। उसके बाद मध्यावकाश के दौरान हम सभी एक साथ बैठकर भोजन करते थे। भोजन से पहले सभी विद्यार्थी पंक्तिबद्ध होकर बैठते थे और भोजन मंत्र करते थे। उसके बाद विद्यालय से अवकाश के समय हम सभी वंदे मातरम् करते थे और फिर घर जाते थे। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर द्वादश तक की शिक्षा मैंने विद्या भारती द्वारा संचालित सरस्वती शिशु विद्या मंदिर में ही प्राप्त की। इस दौर में बहुत से मुस्लिम मित्र मिले। उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिनसे आज भी बात होती है। इस पूरी ‘कथा’ को बताने का उद्देश्य यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध रखने वाले विद्या भारती द्वारा संचालित विद्यालय में मुझे एक बार भी नहीं कहा गया कि मुस्लिम या इस्लाम, मेरे या भारत के लिए किसी भी तरह से नुकसान पहुंचा सकते हैं।

vishwa gaurav
विद्या भारती के आंकड़ों के मुताबिक, सरस्वती विद्या मंदिर नामक विद्यालयों में फिलहाल लगभग 48 हजार मुस्लिम विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विद्या भारती के विद्यालयों में 12 हजार मुस्लिम छात्र, वहीं मध्य प्रदेश में 10 हजार मुस्लिम शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इन विद्यार्थियों को ना ही गीता पाठ से परहेज है और ना ही सरस्वती वंदना से। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो इन मुस्लिम विद्यार्थियों के साथ कथित ‘हिंदूवादी’ संगठन से संबंध रखने वाले विद्या भारती द्वारा संचालित विद्यालयों में किसी तरह का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भेदभाव नहीं किया जाता। यह बात मैं इतने विश्वास से इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं स्वयं वहां का विद्यार्थी रहा हूं। हाल ही में असम में 10वीं की परीक्षा में टॉप करने वाले सरफराज हुसैन मेरे दावे को और अधिक प्रमाणिकता प्रदान करते हैं। सरफराज ने जब 10वीं की परीक्षा में टॉप किया तो उसके पिता ने कहा कि उनके बच्चे की सफलता के पीछे उसके विद्यालय से मिले संस्कार हैं।

अब आते हैं मूल विषय पर, इस देश में कुछ ऐसे लोग हैं जो आरएसएस पर आरोप लगाते हैं कि वह मुस्लिम विरोधी है। यदि संघ सच में मुस्लिम विरोधी होता तो भले ही अपनी सार्वजनिक शाखाओं में ना सही लेकिन अपने प्रशिक्षण वर्गों में इस बात को जरूर कहता कि स्वयंसेवकों का मूल उद्देश्य मुस्लिम विरोध होना चाहिए। लेकिन मैंने आज तक यह बात नहीं सुनी। मैंने संघ को बहुत नजदीक से देखा और समझा है। शाखा भी गया हूं और प्रशिक्षण वर्गों में भी रहा हूं। लेकिन वहां तो सिर्फ भारत की बात की गई। संघ का स्पष्ट मत है कि भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है। लेकिन इस ‘हिंदू’ शब्द की व्यापकता को समझे बिना संघ की विचारधारा को सांप्रदायिक मान लेना ठीक नहीं है। यदि कोई ये कहे कि भारत में सिर्फ एक विशेष पूजा पद्धति को मानने वाले लोग रह सकते हैं, यह देश सिर्फ उनका है जो ‘इबादत’ या ‘प्रे’ नहीं बल्कि ‘पूजा’ करते हैं तो इस कॉन्सेप्ट पर मेरी कड़ी आपत्ति है। संघ का हिंदुत्व श्रीराम के राजधर्म से शुरू होकर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के राष्ट्रधर्म पर समाप्त हो जाता है।
संघ का मूल सिद्धांत कहता है कि ‘हिंदुस्तान’ में रहने वाला हर एक व्यक्ति जो गाय, गंगा, गीता और गायत्री के प्रति समर्पण रखता है, भारत की मिट्टी से प्रेम करता है, वह हिंदू है।

अब हो सकता है कि गाय, गंगा, गीता और गायत्री पर कुछ लोगों को आपत्ति हो। लेकिन आपत्ति करने से पूर्व बेहतर होगा कि गाय, गंगा, गीता और गायत्री को समझ लें। गाय एक ऐसी प्राणी है जो मां के बाद एक बालक के जीवन को सर्वाधिक पोषित करती है। विज्ञान कहता है कि मां के पीले दूध के बाद आसानी से उपलब्ध होने वाले पदार्थों में गाय का दूध एक बच्चे के लिए सर्वाधिक लाभकारी होता है। गंगा के जल की निर्मलता किसी से छिपी नहीं है। गीता में जीवन के प्रत्येक पक्ष के दायित्व और उनके निर्वहन के सिद्धांत दिए गए हैं। गायत्री की महत्ता संपूर्ण ब्रह्मांड को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाले  ‘ॐ’ के बराबर है। हालांकि वर्तमान समय में ना ही गाय के दूध में पूर्व की विशिष्टता रह गई है और ना ही गंगाजल में निर्मलता। क्योंकि अब ना ही वैसी गाय उपलब्ध हैं और गंगा को तो हमने स्वयं मैला कर दिया है। लेकिन बात मूल सिद्धांत की हो रही है और उस मूल सिद्धांत में कहीं कोई दुर्भावना नजर नहीं आती।

संघ का हिंदुत्व किसी विशेष पूजा पद्धति में विश्वास रखने वाले व्यक्ति से संबंध नहीं रखता बल्कि वह संबंध रखता है एक सांस्कृतिक धरोहर के गौरव को उठाकर चलने वाले प्रत्येक राष्ट्रवादी से। जो भारत से प्रेम करता है, भारत की संस्कृति से प्रेम करता है वह हिंदू है। इसके लिए इस बात की कोई अनिवार्यता नहीं है कि आप संघ के स्वयंसेवक हों या रोज सुबह मंदिर जाकर आरती करते हों। रही बात उन लोगों की जो मुसलमानों से जबरन ‘भारत माता की जय’ का नारा लगवाना चाहते हैं, वे क्या इस बात की गारंटी ले सकते हैं कि इस नारे को लगाने वाला हर व्यक्ति भारत की आत्मा का सम्मान कर सकता है? एक मुसलमान दिन में 5 बार सजदा करते वक्त इस मुल्क की जमीन को चूमता है, उसकी इबादत करता है। उसे किसी सर्टिफिकेट की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके साथ ही यह भी नहीं चलेगा कि कोई कहे कि मैं भारत को मां के समान सम्मान नहीं दूंगा। ‘भारत माता की जय’ बोलने वाला प्रत्येक व्यक्ति देशभक्त नहीं हो सकता और भारत माता की जय न बोलने वाला प्रत्येक व्यक्ति देशद्रोही नहीं हो सकता। लेकिन जबरन किसी एक नारे के आधार पर देशभक्त होने का सर्टिफिकेट बांटने वाला अतिवादी और बेवकूफ जरूर होगा। साथ ही ‘भारत माता की जय’ का विरोध करने वाला ‘देशद्रोही’ और ‘कुंठित’ भी होगा। आसान शब्दों में ऐसे समझिए कि अगर कोई ‘भारत जिंदाबाद’ नहीं कह रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह भारतद्रोही हो लेकिन अगर कोई किसी भी कुतर्क के सहारे ‘भारत जिंदाबाद’ का विरोध कर रहा है तो वह भारतद्रोही ही होगा।

इन सारी चीजों में संघ का इस्लाम विरोध कहां से प्रदर्शित होता है, यह समझ से परे है। समस्या यह नहीं है कि संघ के मूल सिद्धांतों को गलत तरह से समझा जा रहा है। बल्कि मूल समस्या यह है कि विरोधियों को हजम नहीं हो रहा है कि अब मुसलमान संघ से जुड़ने लगे हैं। अब वे तीन तलाक का विरोध करने लगे हैं, अब उन्हें वंदे मातरम बोलने से आपत्ति नहीं, अब वे बकरीद पर केक रूपी बकरा काटने लगे हैं, अब वे रूढ़ियों से बाहर निकलकर भारत को सर्वोपरि मानने लगे हैं। संघ के समवैचारिक राजनीतिक संगठन की भी मुसलमानों में स्वीकार्यता बढ़ रही है। 67% मुस्लिम जनसंख्या के साथ जम्मू और कश्मीर भारत का सबसे ज्यादा मुसलमान आबादी वाला राज्य है। वहां सत्ता में बीजेपी गठबंधन है। इस बात को कतई नहीं स्वीकार किया जा सकता कि बिना मुस्लिमों के समर्थन के जम्मू और कश्मीर में बीजेपी को इतना बड़ा जनमत मिला। असम में मुस्लिम जनसंख्या 34% है, वहां बीजेपी 60 सीटों के साथ सत्ता पर काबिज है। यह भी संभव नहीं है कि 2014 में हुए लोकसभा चुनाव को बीजेपी बिना मुस्लिम समर्थन के जीत लेती। अब जब सब कुछ ठीक होने लगा है तो कुछ लोगों की विभाजनकारी नीतियां काम नहीं कर रही हैं तो कुंठा में वे संघ और उसके समवैचारिक संगठनों को बिना किसी प्रमाण के ‘इस्लाम विरोधी’ करार देने में लगे हुए हैं।

वर्तमान केन्द्र सरकार की अब तक की कार्यपद्धति को देखकर मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, वह यह है कि केन्द्र सरकार का भारत विकास मॉडल किसी भी सम्प्रदाय और धर्म में भेदभाव नहीं करता है बल्कि सबके समान विकास की कल्पना को साकार करने में लगा हुआ है। अगर कमी है तो मात्र यह कि बीजेपी के कुछ छोटे नेता फिजूल की बयानबाजी करके अनजाने में देश की एकता, अखंडता और एकात्मता को नुकसान पहुंचा रहे हैं। रही बात मुसलमानों की तो जिस तरह से लोकसभा चुनाव के 1 साल पहले मुसलमानों के मन में नरेन्द्र मोदी को लेकर ‘डर’ था, वह समाप्त हो गया है। वर्तमान सरकार के दौरान देश के मुसलमान पूरी तरह सुरक्षित हैं और मुस्लिमों को केवल वोट समझकर देखने वाली पार्टियां और उनके अल्पकालिक तथा वैचारिक कार्यकर्ता फालतू की भ्रान्ति इसलिए फैलाते हैं क्योंकि वे वास्तव में मुसलमानों का और देश का विकास चाहते ही नहीं हैं और मुसलमानों को डराकर हमेशा अपना वोट बैंक बनाये रखना चाहते हैं।

Thursday 13 October 2016

महिलाओं को निखारे बिना पूजने का कोई अर्थ नहीं

मेरे घर में हर साल कोई ना कोई बड़ा धार्मिक अनुष्ठान होता है। अनुष्ठान का समापन कन्याभोज से ही होता है। कन्याभोज कार्यक्रम के दौरान कन्याओं के पैर धुलकर उनका पूजन करने और भोज के उपरांत पैर छूकर उन्हें दक्षिणा स्वरूप कुछ धन देने की परंपरा है। जब पहली बार कन्या पूजन और पैर छूकर दक्षिणा देने की जिम्मेदारी मुझे दी गई तो मुझे लगा कि अब मैं बड़ा हो गया हूं, क्योंकि उससे पहले यह काम मेरे पिता जी करते थे। उस समय मैं कक्षा 5 में पढ़ता था। कन्या पूजन से ठीक पहले मैंने देखा कि वहां पर मेरे ही विद्यालय में मेरे साथ पढ़ने वाली कुछ कन्याएं हैं। बाल मन था, पता नहीं क्या सोचकर मैं भागकर अपने बाबा जी के पास गया और उनसे कहा, ‘मैं उनके चरण स्पर्श नहीं करूंगा क्योंकि उनमें से बहुत सी लड़कियां मुझसे छोटी हैं और मेरे ही विद्यालय में पढ़ती हैं। अगर मैं उनके चरण स्पर्श करूंगा तो बाद में वे विद्यालय में मेरा मजाक उड़ाएंगी।’ मेरे बाबा जी ने मुझे घूरकर देखा और कहा, ‘जितना कहा जा रहा है उतना करो।’ आखिरकार मैंने वह सब कुछ किया जो कहा गया। उसी रात मेरे बाबा जी ने मुझे अपने पास लिटाया और कहा कि कन्याएं मां सरस्वती का रूप होती हैं, उनका पूजन करने से तुम्हारे ज्ञान में वृद्धि होगी इसलिए आगे से कभी इन चीजों पर सवाल मत उठाना। मैंने भी उनकी बात सुनी और उसे उसी रूप में मान लिया।

ऐसी बातें और ऐेसे विचार भारत के लगभग हर एक परिवार में होते हैं। लेकिन इसके साथ एक और पहलू भी है जिसे हम इस पहलू के चलते नकार नहीं सकते। मेरे एक मित्र एनजीओ चलाते हैं। उन्होंने 2016 के लिए कार्यक्रम तय किया था कि गांवों में जाकर लोगों के साथ मिलकर भोजन बनाएंगे और फिर उन्हीं के साथ खाएंगे। इसी कार्यक्रम के तहत मेरा भी जनवरी 2016 में उत्तर प्रदेश के एक गांव में जाना हुआ। वहां जिस परिवार में भोजन तय हुआ था, उसमें एक लगभग 13 साल की बच्ची थी। मैंने उस बच्ची से पूछा, ‘बाबू, आप किस क्लास में पढ़ते हो।’ उसने बताया कि वह कक्षा 6 में पढ़ती है। लेकिन हैरान करने वाली बात यह थी कि वहीं पर बैठे एक ग्राम पंचायत सदस्य ने उस बच्ची की बात पूरी होते-होते कहा, ‘भाईसाहब, इनको पढ़ने की क्या जरूरत है? 3-4 साल में शादी हो जाएगी और फिर घर में जाकर खाना ही तो बनाना है।’ इसके बाद उन महाशय से काफी लंबी बहस हुई लेकिन उनकी इस एक लाइन ने मेरे सामने सवाल खड़ा कर दिया कि जिस कन्या के पूजन से हमारी अपेक्षा रहती है कि हमें ज्ञान मिलेगा, उस कन्या को ज्ञान और शिक्षा से दूर रखना कहां तक ठीक है?
अभी 3 दिन पहले दुर्गाष्टमी का पर्व बीता। मैं जहां रहता हूं, वहां रहने वाले लोग दुर्गाष्टमी की सुबह पूजन के लिए कन्याओं के लिए खोज रहे थे। समस्या इस तरह के दोहरे रवैये से है। लड़कियों को गर्भ में मार देना, उन्हें पढ़ने से रोकना, उन्हें उनके मन मुताबिक कपड़े ना पहनने देना, उन्हें उनके मन मुताबिक शादी ना करने देना और फिर सड़क पर पूजन के लिए उन्हें ही खोजना। कैसा समाज बनाकर रख दिया है हमने। परिवार में जब कोई महिला गर्भवती होती है तो परिवार के सभी सदस्य ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि श्रीराम जैसा पुत्र जन्म ले लेकिन कभी इस बात के लिए प्रार्थना नहीं करते कि सीता जैसी बेटी जन्म ले।

vishwa gaurav
हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां पर यदि एक व्यक्ति की किसी दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी को डायन कहकर जिंदा जला दिया जाता है। एक महिला पर डायन होने का आरोप लगाकर उसे निवस्त्र करके पूरे गांव में घुमाया जाता है। कल तक जो कन्या मां सरस्वती और मां लक्ष्मी का रूप थी, महिला बनते ही वह डायन बन गई। गजब की थिअरी है आपकी। एक व्यक्ति अगर किसी की हत्या करके भाग जाता है तो उसकी बेसहारा पत्नी को 2 बच्चों के साथ गांव से निकाल दिया जाता है। एक आदमी के कुकर्मों की सजा उसकी पत्नी को देना कहां तक उचित है? और यह सब उस देश में हो रहा है, जिसकी सनातन परंपरा में माता सीता के साथ-साथ रावण की पत्नी मंदोदरी को भी पंच कन्याओं में रखा गया है।

एक लड़की शादी के बाद अपना घर, माता-पिता, भाई-बहन यहां तक कि अपने सपने, अपना भविष्य भी अपने ससुराल वालों के लिए छोड़ देती है। वह पूरा दिन घर में काम करती है, उसके लिए उसे कोई पैसे नहीं मिलते और वह पैसों की कोई कामना भी नहीं रखती। वह हर सांचे में खुद को ढाल लेती है। वह शादी के बाद अपने ससुराल वालों के रंग-ढंग में रच-बस जाती है। और वह ये सब कुछ अपने एक पुरुष, सिर्फ एक पुरुष की खुशी के लिए करती है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर किसी पुरुष या लड़के को अपने परिवार को, अपने सपनों को छोड़ने के लिए कहा जाए तो क्या वह छोड़ देगा? यह कदाचित संभव नहीं है। वह ऐसा कभी भी नहीं करेगा।

लोगों का तर्क होता है कि एक लड़की अपने वंश को आगे नहीं बढ़ा सकती। क्या एक पुरुष बिना किसी महिला के अपने वंश को आगे बढ़ा सकता है? जब वह छोटी होती है तो माता-पिता सोचते हैं कि इसे पढ़ाने-लिखाने में पैसा खर्च करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि इसे तो शादी करके ससुराल ही जाना है। वहां अपना घर बसाना है। शादी के बाद भी उसे दहेज न लाने पर या कम दहेज लाने पर मारा-पीटा जाता है। उसके साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता है। यहां तक कि उसे जान से भी मार दिया जाता है और अगर वह पढ़-लिख भी जाए तब भी इस समाज ने उनके लिए कुछ सीमाएं निर्धारित कर दी हैं। उन्हें उस सीमा में ही रहना पड़ता है। आखिर क्यों हमेशा एक लड़की या एक औरत को ही अपना सब कुछ त्याग देना पड़ता है?

हम क्यों महिलाओं की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाकर मूकदर्शक बन जाते हैं। हम क्यों भूल जाते हैं कि जब एक महिला राजसत्ता के संचालन का संकल्प लेती है तो रानी लक्ष्मीबाई बनकर विदेशी आक्रांताओं के छक्के छुड़ा देती है, जब वह सेवा करने पर आती है तो सेवा की प्रतिमूर्ति बनकर मदर टेरेसा के नाम से प्रख्यात हो जाती है, जब वह राजनीति करने पर आती है तो इंदिरा गांधी बनकर शेरनी की तरह वह कर जाती है जिसकी उस समय तक कोई पुरुष नेता कल्पना भी नहीं कर सकता था, जब वह गीत गाने पर आती है तो सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर बन जाती है, जब वह बैडमिंटन का रैकेट उठाती है तो साइना नेहवाल बनकर पूरे विश्व में भारत का नाम रोशन कर देती है और जब वह दौड़ने पर आती है तो मैरीकॉम बनकर इतना दौड़ती है कि पुरुषार्थ की नई परिभाषा गढ़ जाती है।

अरे छोड़िए सब, इसी साल कुछ समय पहले ओलिंपिक में एक मेडल के लिए जब भारत तरस रहा था तो वे देश की बेटियां ही थीं जिन्होंने भारत की झोली में मेडल डाले। उनके लिए इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे शारीरिक रूप से दिव्यांग हैं। हमें उनके हौसले को नमन करना चाहिए और उनकी योग्यता, क्षमता और प्रतिभा को निखारने में जितना योगदान दे सकते हैं, देना चाहिए। विश्वास मानिए, अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो कन्या पूजन का कोई अर्थ नहीं और ना ही नवरात्र का।

Tuesday 11 October 2016

रावण 'प्रेमियों', दिल से तो तुम भी राम ही बनना चाहोगे...

आज कुछ लोगों को रावण का चरित्र स्वयं से भी अच्छा लग रहा है। उनका तर्क है कि लंबे समय तक माता सीता को अपने यहां रखने के बावजूद रावण ने माता सीता का बलात्कार नहीं किया। 

वे लोग यह मान बैठे हैं कि रावण ने एक महिला से प्रेम किया, उसका अपहरण किया, लेकिन जबरन उसका शरीर हासिल करने की    कोशिश नहीं की। वाह! क्या सभ्यता थी रावण की…. अब जरा इसको आज के परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करते हैं।

मुझसे किसी ने एक विवाहित महिला के शारीरिक सौन्दर्य का बखान किया। मैं स्वयं में विवाहित हूं। ऐसे में यदि मेरा चरित्र ‘अच्छा’ होगा तो क्या मुझे उस महिला से प्रेम हो जाएगा। और मान लीजिए कि उस महिला के सौन्दर्य का बखान करने वाले की संप्रेषण क्षमता मंत्रमुग्ध कर देने वाली भी है तो क्या मैं अपने विवेक को प्रयोग ना करके उस महिला को किडनैप कर लूंगा। यदि मैं ऐसा करता हूं तो क्या मेरी सभ्यता को अनुकरणीय मान लिया जाएगा?

विश्व गौरव
इस बात में दो राय नहीं कि आज रावण दहन के लिए मुख्य अतिथि बनकर आए लोगों में अधिकतम का चरित्र रावण से भी गिरा है, लेकिन क्या इस तर्क के आधार पर रावण का महिमामंडन करना ठीक है? निश्चित ही आज रावण जलाने वालों के चरित्र पर सवाल उठाना न्यायसंगत है, लेकिन रावण का महिमामंडन करना हमारी छोटी सोच का परिचायक है। मैं राम, सीता, लक्ष्मण, रावण, कृष्ण, कंस, द्रौपदी को मात्र एक चरित्र के रूप में लेता हूं। मैं मानता हूं कि हर एक चरित्र में कुछ अच्छाइयां होती हैं और कुछ बुराइयां। हमें जहां से भी अच्छाई मिले, उसे अंगीकार करना चाहिए। रावण  में अगर किसी को अच्छाई दिख रही है, तो उसे आत्मसात करे। लेकिन इसके साथ-साथ इस बात पर भी चिंतन करना अनिवार्य हो जाता है कि रावण के समकालीन जो अन्य चरित्र थे क्या उनमें कुछ भी ‘अच्छा’ नहीं था।

जब कभी मेरे मुंह से अचानक ‘श्रीराम’ निकलता है, तो मेरे कुछ मित्र हैं जो कहते हैं कि राम ने तो ‘यह किया था, वह किया था’ फिर ऐसे व्यक्ति का नाम लेने का क्या मतलब है। मुझे समझ में नहीं आता कि रावण  के विषय में तो वे लोग बहुत ही सकारात्मक सोच रखते हैं, लेकिन श्रीराम का नाम आते ही उनकी नकारात्मकता अपने चरम पर पहुंच जाती है। 

मैं रावण को नहीं मानता क्योंकि मैंने रावण के चरित्र अध्ययन के दौरान यह भी पढ़ा है कि रावण ने बलपूर्वक कभी माता सीता को हाथ नहीं लगाया तो इसलिए नहीं कि वह बहुत संयमी था, बल्कि उसने माता सीता को बलपूर्वक इसलिए हाथ नहीं लगाया क्योंकि उसे कुबेर के पुत्र नलकुबेर ने श्राप दिया था कि यदि रावण ने किसी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध छुआ या अपने महल में रखा तो उसे सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे। इसी डर के कारण रावण ने ना तो सीता को कभी बलपूर्वक छूने का प्रयास किया और ना ही उन्हें अपने महल में रखा।
 
मैं रावण को नहीं मानता क्योंकि उसने अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए माता सीता का हरण नहीं किया था, बल्कि उसने शूर्पनखा द्वारा किए गए माता सीता के सौन्दर्य चित्रण पर कामांध होकर सीता का हरण किया था। मैं ऐसे कामान्ध व्यक्ति में किसी भी कुतर्क के सहारे अपना आराध्य नहीं तलाश सकता। मैंने रावण के विषय में यह भी पढ़ा है उसने कई महिलाओं का शील भंग किया था। मैं रावण को नहीं मानता क्योंकि रावण विद्वान जरूर था, लेकिन उसने अपने ज्ञान को कभी व्यवहारिक जीवन में नहीं उतारा। उसने लाखों ऋषियों की हत्या की, कई यज्ञों को ध्वंस किया और कई महिलाओं का बलात्कार किया। रावण ने रंभा नामक अप्सरा से भी दुराचार किया था। रावण ने वेदवती नाम की एक ब्राह्मणी के रूप से प्रभावित होकर उसके बाल पकड़ अपने साथ चलने के लिए कहा था। तब वेदवती ने आत्मदाह कर रावण को श्राप दे दिया था।

किसी के चरित्र का इतना गिरा स्तर जानने के बाद मुझमें हिम्मत नहीं है कि मैं उसमें कुछ ‘अच्छा’ खोज सकूं। इसके बावजूद जो लोग रावण के विषय में संपूर्ण जानकारी किए बिना उसकी अच्छाइयां देखते हैं तो वे उसी से प्रेरणा लें, लेकिन एक छोटा सा निवेदन है कि अपने अल्पज्ञान के आधार पर रावण को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के समकक्ष ना रखें। रावण के महिमामंडन से हमें कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, बल्कि हम कहीं ना कहीं बुराई के प्रतीक का समर्थन ही कर रहे हैं। बेहतर होगा कि निष्पक्ष रूप से एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ दोनों चरित्रों का विश्लेषण करके जिसमें अच्छाइयां ज्यादा हैं, उस चरित्र को आत्मसात करें और अपना आदर्श बनाएं। मन में छिपकर बैठे रावण को मारें। अनुचित को किसी भी तर्क के सहारे उचित नहीं प्रदर्शित किया जा सकता।

मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में हैं...

आज दशहरा है। भारत के साथ-साथ दुनिया भर में अनेक स्थानों पर रावण दहन किया जाता है। माना जाता है कि रावण दहन करके प्रतीकात्मक रूप से हम बुराई का दहन करते हैं और समाज को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि सत्य परेशान हो सकता है, किंतु उसे पराजित नहीं किया जा सकता। 

हम रावण दहन करके यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि बुराई कितनी भी मजबूत हो, बुराई के साथ    कितनी भी बड़ी सेना हो, लेकिन उसका विनाश होना तय है।

आज इस प्रतीकात्मक पर्व के सुअवसर मेरे मन में कुछ सवाल उठ रहे हैं। त्रेतायुग में एक रावण था, उसकी एक बड़ी सेना थी। जब रावण के पापों का घड़ा भरने लगा, तो एक राम ने अपना राज-काज छोड़कर जंगल जाने का निर्णय किया और रावण के संरक्षण में पलने वाले राक्षसों का संहार किया। पिता की आज्ञानुसार जब उन्होंने वनगमन किया और वन में उनकी पत्नी का रावण ने अपहरण कर लिया, तब वह चाहते तो अपने भाई और अयोध्या के राजा भरत से मदद लेकर अयोध्या से सेना मंगाकर रावण के साथ युद्ध कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? मेरे विवेक और अध्ययन के आधार पर शायद उनके स्वाभिमान ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। उन्होंने अपनी पत्नी को वापस लाने के लिए किसी राजा की मदद नहीं ली बल्कि वनवासियों, वंचितों की मदद ली और उनके सहयोग से एक ऐसी सेना बनाई जिसने रावण की मायावी सेना के अहंकार को मिट्टी में मिला दिया।

अब सवाल यह उठता है कि इतने हजार सालों से हम हर साल प्रतीकात्मक तौर पर बुराई का पुतला जलाते हैं। लेकिन इतने सालों में हम बुराई को समाप्त क्यों नहीं कर पाए? 

क्या हम इस आस में प्रतीक्षारत हैं कि फिर से इस धरती पर कोई राम जन्म लेगा, जो त्रेतायुग की भांति ही कलियुग में भी धरती से बुराई का सर्वनाश कर देगा। नहीं! आज ऐसा संभव नहीं है क्योंकि तब एक रावण था और आज इस धरती पर अरबों की संख्या में रावण हैं। उन अरबों रावणों का वध करने के लिए सिर्फ एक राम पर्याप्त नहीं होगा। अरबों रावणों का वध करने के लिए अरबों ‘राम’ चाहिए। अब आज के रावणों के सर्वनाश में हमारी भूमिका क्या है? क्या हम राम की सेना का अंग बनकर राम बनना चाहते हैं या फिर स्वयं राम बनकर रावण का वध करें?

विश्व गौरव
इस सवाल का उत्तर खोजने से पहले उन रावणों को खोजने की अनिवार्यता है। आज के रावण हैं कहां? चलिए आपको कुछ परिस्थितियां बताता हूं, उनके आधार पर आप स्वयं रावण को खोजने की कोशिश करिए। मेट्रो में एक लड़की खड़ी है, आपके साथ यात्रा कर रहा आपका मित्र ही आपसे कहता है, ‘देखो यार, क्या गजब का माल है’। आप सड़क पर जा रहे हैं और बगल से एक लड़की स्कूटी लेकर निकलती है, आपके सामने ही दो लड़के उस लड़की पर बेहद भद्दी टिप्पणी करते हैं, लेकिन आप चुपचाप बिना कुछ कहे वहां से चले जाते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं, रास्ते में एक ‘पागल’ लड़का एक लड़की को सरेशाम चाकुओं से गोद रहा है, लेकिन आप कुछ नहीं करते और वहीं खड़े होकर सबकुछ देखते रहते हैं। आप अपने माता-पिता को इसलिए वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं क्योंकि वे आपको ‘टोकते’ हैं। आप अपने बेटे को शादी के नाम पर बेचते हैं। 

आप कुछ जाति विशेष के लोगों को गौरक्षा के नाम पर पीटकर अपनी व्यक्तिगत कुंठा प्रदर्शित करते हैं। आप एक जाति विशेष के लोगों से शादी की खुशियां मनाने का अधिकार भी छीन लेते हैं। आप एक जाति विशेष के लोगों से ईश्वर की पूजा करने का अधिकार भी छीन लेते हैं। आप चंद आतंकियों के नाम के सहारे एक मजहब विशेष के लोगों को आतंकी मान लेते हैं। आप लड़कियों को स्कूल नहीं जाने देंगे। आप उन लड़कियों को उनके मन मुताबिक कपड़े नहीं पहनने देंगे। किसी लड़की को किसी लड़के के साथ घूमते देखकर आप उसके चरित्र की व्याख्या शुरू कर देंगे। आप राजनीतिक विरोध के नाम पर अनजाने में देश का विरोध शुरू कर देंगे।
अब आप खुद ही सोचिए कि रावण कहां है और क्या सच में अपने अंदर के रावण का ‘दहन’ न करके एक पुतले को जला देने भर से हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। 

यदि सच में  हम विजयादशमी पर्व की सार्थकता चाहते हैं तो अपने अंदर के रावण को समाप्त करके राम के चरित्र को स्वयं में उतारने का प्रयास करना होगा। राम तो वह हैं जो रावण से युद्ध करने को निकलते हैं, लेकिन एक राजकुमार होते हुए भी किसी राजा का साथ नहीं लेते। वह वंचितों को, वनवासियों को गले लगाते हुए उनसे एक नई सेना का निर्माण करते हैं। भारतीय मानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है क्योंकि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं, बल्कि उनका महत्व इसलिए है कि उन्होंने उन तमाम मुश्किलों का सामना बहुत ही शिष्टतापूर्वक किया। अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने खुद को बेहद गरिमा पूर्ण रखा।

मुझे बहुत हैरानी होती है कि इस देश के ‘बुद्धिजीवी’ कहते हैं, ‘रावण में बहुत सी अच्छाइयां थीं, लेकिन बस एक गलती हो गई कि उसने सीता जी का अपहरण कर लिया। हम उसमें भी अच्छाई देखेंगे। उसमें ज्ञान था, उसने जो किया अपनी बहन के लिए किया, वह एक अच्छा भाई था, शिव भक्त था…और भी बहुत कुछ। इसलिए उन्हीं अच्छाइयों के आधार पर राम के साथ रावण ‘जी’ की भी मूर्ति होनी चाहिए। हम अच्छाई-बुराई का अंतर समाप्त कर देंगे। आप लोग पूजा करते हो, राम के साथ रावण की पूजा क्यों नहीं कर सकते?’ शर्म आनी चाहिए ऐसे लोगों को जो बुराई के प्रतीक रावण में भी अपने आराध्य को खोजते हैं। रावण के चरित्र का चित्रण करने से पहले मैं बस एक ही निवेदन करूंगा कि कृपया यहां क्लिक करके रावण से जुड़े तथ्यों का विश्लेषण कर लें।

आज विजयादशमी के पर्व पर संकल्प लें कि स्वयं में बसने वाले राम को जागृत करके अपने ही मन पर कब्जा कर बैठे हुए रावण का विनाश करेंगे। साथ ही यदि हमारे सामने कोई रावण के चरित्र को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा होगा, तो मूकदर्शक बनकर किसी और के ‘राम’ बनने की प्रतीक्षा नहीं करेंगे बल्कि स्वयं रावण का विनाश करने के लिए राम के चरित्र को आत्मसात करेंगे।

Monday 10 October 2016

...इसलिए जरूरी है चीनी सामान का बहिष्कार

एक तर्क दिया जा रहा है कि चीनी सामानों का बहिष्कार इसलिए ना करें क्योंकि बहुत से लोगों ने बिजनस के लिए इनसे अपने गोदाम भर लिए हैं, उनको नुकसान हो जाएगा। बहुत अच्छी बात है, समाज के बारे में सोचना चाहिए। हमारी जिम्मेदारी है कि हम किसी भी पक्ष का समर्थन करते समय समाज के अंतिम व्यक्ति तक की सुरक्षा एवं लाभ के विषय में चिंतन करें। लेकिन…

विश्व गौरव
इस ‘लेकिन’ के मायने क्या हैं, इस बात पर चिंता करने की आवश्यकता है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक के बारे में सोचना हमारी जिम्मेदारी है लेकिन उसके साथ-साथ एक जिम्मेदारी राष्ट्र के प्रति भी है, देश के प्रति भी है, उन लोगों के प्रति भी है जो बिना अपनी जान की परवाह किए इसलिए सरहद पर खड़े रहते हैं ताकि आप दीवाली की रात अपने घर में पटाखों के शोर के बीच हाथ में शराब का गिलास लेकर गरीबों पर ज्ञान बांट सकें, उन परिवारों के प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारी है जो हर दिवाली की रात बस एक ही दुआ मांगते हैं कि उनका बेटा सरहद पर खड़ा रहे।

आज देश में ऐसा माहौल बना है कि लोग कह रहे हैं कि कुछ महंगा सही लेकिन स्वदेशी सामान ही खरीदेंगे। इन परिस्थितियों में जब देश को स्वदेशीकरण और आत्मनिर्भरता की सर्वाधिक आवश्यकता है, कुछ लोग कह रहे हैं कि जिन्होंने सामान खरीद कर गोदाम भर लिए हैं, उनका नुकसान हो जाएगा।

chineseबहुत स्पष्ट सी बात है कि हम सामान खरीदेंगे लेकिन वह किसी और से खरीदेंगे। अगर दिवाली पर चाइनीज लाइट्स की जगह मिट्टी के दीपक खरीदेंगे तो एक गरीब परिवार को आर्थिक लाभ भी होगा, उसकी भी दिवाली बन जाएगी और स्वदेशीकरण भी होगा। संभव है कि ऐसे में हमारे घर के पड़ोस में गुप्ता इलेक्ट्रिकल्स वालों का चाइनीज लाइट न बिकने के कारण कुछ नुकसान हो जाए लेकिन इस डर से क्या हम उन लोगों के बारे में भी ना सोचें जो धूप में बैठकर दिए बनाते हैं।

हमारा धन किसी जरूरतमंद के पास ही जा रहा है। और अगर कोई है जो सिर्फ यह चाहता है कि उसके घर में दिए नहीं बल्कि इलेक्ट्रिक लाइट्स ही जलें, तो वह भारतीय इलेक्ट्रिक लाइट्स का उपयोग भी कर सकता है। ऐसा नहीं है कि ये चीजें भारत में बनती नहीं हैं। संभव है कि वे थोड़ा सा महंगी पड़ें लेकिन राष्ट्र निर्माण में, राष्ट्र की आत्मनिर्भरता के लिए, राष्ट्र को फिर से विश्वगुरु के पद पर प्रतिस्थापित करने के लिए, गरीब और ‘बिछड़ों’ में उनके कार्य के प्रति आत्मविश्वास पैदा करने के लिए हम इसे अपने हिस्से का टैक्स मान सकते हैं।

हम इतना संघर्ष क्यों करें? यह सवाल मन में उठना लाजमी है। मैं बताता हूं आपको कम से कम शब्दों में….
lightsएक देश है जो उन लोगों को पाल रहा है, जो सीमा पार करके हमारे घर में घुसकर हमारे बेटों को मार कर चले जाते हैं। हम बहुत ही सहिष्णु देश हैं, हम पर बहुत दबाव है, युद्ध से हमें भी नुकसान होगा। इतना सब होने के बावजूद भी सत्ता का संचालन करने वाले लोगों को इस बात की चिंता तो करनी ही होगी कि इस बिगड़ैल देश का इलाज कैसे किया जाए। करनी भी चाहिए। सरकार ने कूटनीतिक चाल चलकर उस देश को दुनिया से ‘अलग-थलग’ करने का प्रयास किया। बड़े स्तर पर उसे सफलता भी मिली और इसके लिए उसकी पीठ भी ठोंकनी चाहिए कि उसने भारतहित में एक अच्छी विदेशनीति अपनाई। लेकिन इन सबके बीच एक देश है जो उस देश के साथ खड़ा दिख रहा है जिसकी आतंकवादियों के प्रति नीतियां, हमारे देश के बेटों की शहादत के लिए जिम्मेदार हैं। जो विश्व मंच पर सिर्फ एक ही ‘जुगाड़’ में लगा रहता है कि भारत को कैसे हराएं, ऐसे देश को हमें जवाब देना होगा। अगर वह देश ‘आतंक रहित विश्व’ रूपी भारत के स्वप्न को साकार होने में अड़ंगा लगा रहा है तो उसे जवाब देना ही होगा। और देना भी चाहिए।

इस बीच एक बात और बता दूं कि हमने चीन से सकारात्मक संबंध बनाने की बहुत कोशिश की, उनके प्रधान के साथ हमारे प्रधान ने चाय पी, झूला भी झूले। लेकिन उसने सोचा कि भारत पर कब्जा तो कर नहीं सकते, इसलिए पाकिस्तान पर ‘कब्जा’ करके उसे अपने हिसाब से चलाया जाए। चीन यह बात जानता है कि विश्व शक्ति बनने के लिए सबसे पहले उसे एशिया पर राज करना होगा और उसका यह स्वप्न तब तक साकार नहीं हो सकता जब तक भारत को विश्व शक्ति बनने की दौड़ से न हटाया जाए। अपने सपने को साकार करने के लिए वह पाकिस्तान का सहारा ले रहा है।

अब आते हैं कि चीन को जवाब कैसे दिया जाए। युद्ध हम कर नहीं सकते क्योंकि हमारे देश के आंतरिक हालात वैसे नहीं हैं। ऐसे में चीन को जवाब देने का एक ही तरीका है कि चीन को आर्थिक स्तर पर कमजोर किया जाए। चीन को आर्थिक स्तर पर कमजोर करने का एक ही तरीका है कि उसके सबसे बड़े मार्केट को तहस-नहस कर दिया जाए। यदि भारतीय व्यक्ति चीनी सामान न खरीदकर भारतीय सामान खरीदेगा तो चीन का सबसे बड़ा बाजार बंद हो जाएगा। और उसके बाद चीन को पाकिस्तान का साथ छोड़ना ही होगा। लेकिन यह तभी संभव है जब हम इस काम को पूरी जिम्मेदारी के साथ एक राष्ट्रीय दायित्व के रूप में लें।

विश्वास मानिए, परिवर्तन हो रहा है। आज से 5 साल पहले तक भारत का प्रधान अपनी संसद में कहता था कि हम शांति चाहते हैं। लेकिन आज भारत कहता है कि हम आतंक को जवाब देते समय गोलियां नहीं गिनेंगे और पाकिस्तान का प्रधान कहता है, ‘हम शांति चाहते हैं।’ तो संकल्प करें कि आसानी से जितना संभव होगा, भारतीय सामान का ही उपयोग करेंगे। हो सकता है कि थोड़ी सी कठिनाई आए लेकिन मुझे लगता है कि राष्ट्रहित में इतना तो कर ही सकते हैं।

Saturday 8 October 2016

सर्जिकल स्ट्राइक पर अरविंद केजरीवाल के नाम खुला पत्र

प्रिय अरविंद केजरीवाल जी,
आज बहुत दुखी मन से आपको यह पत्र लिख रहा हूं। सन् 2012 की बात है, मैं लखनऊ में रहा करता था। उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में जाना हुआ। उस शिविर में कुछ ऐसे युवाओं की तस्वीरें लगी थीं जिनसे आज का युवा प्रेरणा ले सकता है। उस पूरी फोटो गैलरी में कई युवाओं की तस्वीरें थीं। गैलरी की थीम ‘इनसे प्रेरणा लें भारत के युवा’ थी। आपको जानकर हैरानी होगी कि उस गैलरी में आपकी और कुमार विश्वास की भी तस्वीर थी। मैं कुमार विश्वास को तो पहले सुन चुका था और उनको सुनकर ऐसा लगता भी था कि वह राष्ट्रवादी विचार परिवार से आते हैं लेकिन आपको नहीं सुना था। उसके बाद मैंने आपको सुनना शुरू किया। सच कहूं तो मैं आपके विचारों को ‘सुनकर’ सम्मोहित हो गया। आपने जब अपनी पार्टी बनाई तो मन में ख्याल आया कि अब राष्ट्रवादी वोट ही विभाजित होंगे लेकिन एक उम्मीद थी कि अब निश्चित ही देश की राजनीति में एक सकारात्मक परिवर्तन आएगा। इस उम्मीद का स्तर कश्मीर में जनमत संग्रह कराने को लेकर आपके एक सहयोगी द्वारा दिए गए बयान से काफी ऊंचा था।

vishva gaurav
समय बीता, बहुत लोगों ने आपके बारे में बहुत कुछ कहा, आम आदमी पार्टी को कांग्रेस की ‘बी टीम’ बताया लेकिन मन के एक हिस्से में वही पुराना विश्वास बना हुआ था कि आप लोग राजनीति करने नहीं बल्कि उसे बदलने आए हैं। आपने दिल्ली में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई, कुछ बुरा लगा लेकिन साथ ही कुमार विश्वास के तर्कों ने मेरे मन के विश्वास को डिगने नहीं दिया। और समय बीता, आपके सहयोगियों पर कई तरह के आरोप लगे लेकिन उन आरोपों का स्तर भी उतना नहीं था कि आपके पुराने वक्तव्यों से मेरा सम्मोहन टूट जाए। आप ‘ऑड-ईवन’ का कॉन्सेप्ट लाए और बीजेपी के कुछ नेताओं ने उसका विरोध किया। तब मैंने लिखा: ‘ऑड-ईवन’ पर देश के मन की बात सुनिए मोदीजी!

मैंने यह इसलिए लिखा क्योंकि मेरा विवेक कहता था कि ‘ऑड-ईवन’ योजना आम जनमानस के हित में है। आपके नेता संदीप कुमार की सेक्स सीडी सार्वजनिक हुई और उस पर राजनीति शुरू हुई तो मैंने लिखा: संदीप कुमार की सेक्स सीडी पर इतना हंगामा क्यों? मैंने यह इसलिए लिखा क्योंकि मुझे लगा कि व्यावहारिक रूप से राजनीति का स्तर इतना नहीं गिरना चाहिए कि किसी के व्यक्तिगत जीवन में घुसकर राजनीतिक मुद्दे खोजे जाएं।
फर्जी डिग्री, मारपीट और रेप राजनीतिक आरोप हो सकते हैं। लेकिन आपने सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो दिखाने की बात करके राजनीति की एक नई परिभाषा पेश की। एक ऐसी राजनीति जो देश से भी ऊपर हो गई, एक ऐसी राजनीति जो आतंकियों को मजबूत कर रही है, एक ऐसी राजनीति जो दुनिया भर की मीडिया में आपकी भारत विरोधी छवि बना रही है। मैं जानता हूं कि आपके मन में देश के लिए, सेना के लिए, सैनिकों के लिए, शहीदों के लिए और आम जनमानस की भावनाओं के लिए पूरा सम्मान है लेकिन शब्द चयन तथा प्रस्तुतिकरण में की गई आपकी छोटी सी गलती ने भारतीय मीडिया में आपको विलन बना दिया और पाकिस्तान में हीरो।

मैं यह भी जानता हूं कि आप यह कतई नहीं चाहते कि कश्मीर, भारत से अलग हो, आप यह भी नहीं चाहते कि आपका गुणगान पाकिस्तान में ‘पाकिस्तान परस्त’ के रूप में हो लेकिन मैं यह जरूर जानता हूं कि आपके बचकाने बयान ने भारत की आत्मा को बहुत कष्ट दिया है। आप क्या चाहते हैं कि भारत, सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक कर दे? लोकतंत्र में आपको यह अधिकार है कि आप आपने मन की बात कर सकें, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा पर आपको आत्म चिंतन करने की आवश्यकता है।

*सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक करने से किसको फायदा और किसको नुकसान होगा, क्या आपने बोलने से पहले इस विषय पर सोचा?
*क्या सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक करने से पाकिस्तान को उस ट्रांसपोर्ट तकनीक के बारे में जानकारी नहीं मिलेगी जिसे भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान उपयोग किया और पाकिस्तान उसे डिटेक्ट नहीं कर पाया?
*क्या सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक करने से पाकिस्तान को उन उपकरणों के बारे में जानकारी नहीं मिलेगी जो भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान रात में भारतीय सेना ने उपयोग किए थे?
*क्या सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक करने से पाकिस्तान को  उन हथियारों और गोला बारूद के बारे में जानकारी नहीं मिलेगी जिनका प्रयोग भारत ने किया और उसमें आवाज तक नहीं हुई?
*क्या सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक करने से पाकिस्तान को भारत द्वारा इस्तेमाल किए गए संचार उपकरण और लोकेशन फाइंडर के बारे में जानकारी नहीं मिलेगी?
*क्या सर्जिकल स्ट्राइक का विडियो सार्वजनिक करने से पाकिस्तान को भारत द्वारा इस्तेमाल किए गए हमले के तरीके की जानकारी नहीं मिलेगी?
और क्या ये सारी जानकारियां मिलने के बाद भविष्य में पाकिस्तान को भारत का जवाब देने में सुविधा नहीं हो जाएगी?

क्या आपने एक बार भी इन विषयों के बारे में सोचा? क्या अनजाने में आपने भारत सरकार पर पाकिस्तान की मदद करने का दवाब नहीं डाला? क्या अब भी आपको ऐसा नहीं लग रहा है कि आपने गलत विषय को गलत तरह से उठाया था? इन सवालों के बारे में सोचिएगा जरूर। और अगर अपराध बोध हो तो राजनीति का नया उदाहरण पेश करते हुए देश के सामने सार्वजनिक तौर पर गलती को स्वीकार करिएगा…

Thursday 6 October 2016

कला की सीमाएं नहीं होतीं, लेकिन देश की होती हैं

इस समय देश में एक नई बहस चल पड़ी है कि कला की सीमाएं होती हैं अथवा नहीं? यदि कोई देश कुछ गलत करता है या गलत का समर्थन करता है तो उस देश के कलाकारों को अन्य स्थानों पर काम करने का अधिकार है अथवा नहीं? एक कलाकार का कला के प्रति समर्पण का पैमाना क्या होना चाहिए?

इस पूरी बहस में मेरा स्पष्ट मत है कि कला की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन इसके साथ-साथ एक शाश्वत सत्य यह भी है कि एक कलाकार की कला के प्रशंसक भी बिना किसी राजनीतिक सीमा के होते हैं। वे प्रशंसक उस कलाकार में स्वयं को खोजने लगते हैं। वे उस कलाकार के रोने पर दुखी होते हैं और उसी कलाकार के हंसने पर खुश होते हैं। जब वह कलाकार अपने असल जीवन में हॉस्पिटल में ऐडमिट हो जाता है तो वे प्रशंसक अपना खाना छोड़कर भगवान के मंदिर में घंटों उसकी सलामती की दुआएं मांगते हैं।

धूप नामक फिल्म में जब कोई कलाकार एक शहीद के पिता का किरदार निभाता है तो दर्शक के मन में उस कलाकार की छवि वैसी ही बन जाती है जैसा वह पर्दे पर दिखता है। जब कोई कलाकार पर्दे पर गर्व नामक फिल्म में एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर का किरदार निभाता है तो पुलिस में जाने की तैयारी कर रहा नौजवान उसी आभासीय किरदार को प्रेरणा मान लेता है। लेकिन समस्या यह है कि वह नौजवान दर्शक उस कलाकार की कला का नहीं बल्कि उस व्यक्ति विशेष का प्रशंसक बन जाता है।

एक कलाकार से अपेक्षा की जाती है कि उसमें मानवीय भावना का स्तर आम जनमानस से अधिक होगा क्योंकि उसने पर्दे पर कई किरदार जिए होते हैं। उसने एक फौजी का, एक पुलिसकर्मी का, एक एक आम आदमी तक का किरदार जिया होता है।

हमने तो यही सुना है कि कोई अच्छा अभिनय तभी कर पाता है जब वह अपने आभासीय किरदार में पूरी तरह से उतर जाए। इसी आधार पर हम यह अपेक्षा करते हैं कि एक शहीद के पिता का दर्द, एक आम आदमी का दर्द, एक सैनिक की परिवार से दूर रहने की तड़प, सब कुछ वह हमसे बेहतर तरीके से महसूस कर सकता है। और इसी आधार पर हम यह भी अपेक्षा करते हैं कि जब किसी आतंकी हमले में देश का कोई बेटा शहीद होता है तो उसके पिता की तरह तो नहीं लेकिन हमसे बेहतर तरीके से एक कलाकार उस परिवार के दर्द को महसूस कर सकता है। वह सही मायने में कला का पुजारी तभी माना जाएगा जब वह सभी सीमाओं को तोड़कर प्रत्येक अमानवीय घटना की निंदा करने की क्षमता रखता हो।

निश्चित ही कला की कोई सीमाएं नहीं होतीं लेकिन दुर्भाग्य से देश की सीमाएं होती हैं। एक कलाकार की प्राथमिक पहचान उसका देश ही होता है। और यदि कोई ऐसा है जो कला को सच में अपने देश से पहले मानता हो तो उसे उस जगह पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना चहिए, जहां उसे मोहब्बत मिल रही हो, जहां उसकी कला का सम्मान होता हो। और ऐसी जगह पर उसे वहां के कानून के मुताबिक सम्मानपूर्वक रहना चाहिए। भारत के वे लोग जो मेरी तरह ही इस बात को मानते हैं कि हमारे लिए, हमारी खुशी तथा शांति के लिए अपने घर से दूर रहकर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले हमारे शहीद का बलिदान, कला से भी बड़ा है, वे लोग एक बात को कभी मन में ना आने दें कि ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ के सिद्धान्त पर सिर्फ ‘हिंदू’ ही चल रहे हैं।

उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि अनुपम खेर और नाना पाटेकर के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी आपकी लड़ाई उनके बीच लड़ रहे हैं।
यही सलमान खान कुछ महीने पहले जब मोदी के साथ पतंग उड़ा रहे थे तो बड़े राष्ट्रवादी थे, बजरंगी भाईजान लाए तो कहा कि अरे देखो मुसलमान होकर ‘बजरंगी’ नाम रखा। और आज उसी ‘राष्ट्रवादी’ ने कुछ कह दिया तो वह देशद्रोही और पाकिस्तान परस्त हो गया। क्यों?
यह सवाल पूछिएगा अपने आप से…

सच तो यह है कि राष्ट्रवाद और ‘राष्ट्र सर्वोपरि’  के सिद्धान्त के व्यावहारिक रूप का व्यापक चिंतन आपके वर्तमान ‘राष्ट्रद्रोही’ लोगों ने किया ही नहीं था और आप भी इन्हीं में फंसे रह गए, इस नाते आप भी नहीं कर पाए। उनको राष्ट्रवाद नहीं पता और आपका तो कहना ही क्या? आप तो ‘राष्ट्रवाद’ पहचान ही नहीं पाते… सलमान, शाहरुख या ओम पुरी को एक झटके में राष्ट्रद्रोही करार देना पूरी तरह से गलत है।

हर एक कलाकार के दिल में उसका मुल्क रहता है लेकिन वह कलाकार जिसको हमने स्टार बनाया, जिसके गानों और गजलों को सुनकर पता नहीं कितने युवा भारतीयों की मोहब्बत परवान चढ़ी, जिसके ‘मुल्क’ की परवाह किए बिना हम उसके ‘डायलॉग’ पर तालियां बजाते रहे, हूटिंग करते रहे, उससे हम यह अपेक्षा तो करते ही हैं कि जब इस देश के 18 बेटों की हत्या हो तो वह कलाकार इस अमानवीय कुकृत्य की खुले मन से निंदा कर सके। और यह अपेक्षा, हमारा अधिकार भी है। एक कलाप्रेमी के रूप में मानवीयता से परिपूर्ण हृदय रखने के कारण, एक मानव होने के कारण मुझे दुख होता है। और इसी आधार पर जब पेशावर में आतंकी हमला होता है तो भी हमें दुख होता है और हम अपनी फेसबुक टाइमलाइन को आंसुओं और दर्द से भर देते हैं। एक कलाकार होकर भी उनका दिल उड़ी पर क्यों नहीं पसीजा… या उनके लिए कला, उनके मुल्क की सीमाओं में बंधी है?

Wednesday 5 October 2016

नवदुर्गा के साथ इस 'दुर्गा' को भी याद रखना

durgawatiनवरात्र का पावन पर्व चल रहा है। सनातन पूजा पद्धति में विश्वास रखने वाले सभी लोग विभिन्न उपायों से मां भगवती को प्रसन्न करने में लगे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि नवदुर्गा के अलावा एक और दुर्गा थी जिसके शौर्य और पराक्रम से नारी के शक्ति स्वरूपा होने का प्रमाण मिलता है। ऐसा समय और ऐसा स्थान, जहां महिलाओं को घर से निकलने की भी अनुमति नहीं थी, वहां पुरानी परंपराओं को तोड़कर दायित्वबोध और राज्य प्रेम को नए आयाम देने वाली रानी दुर्गावती की अप्रतिम गाथा, भारतीय शौर्य परंपरा का एक मजबूत स्तंभ है।
1542 में दुर्गावती का विवाह गोंड साम्राज्य के संग्राम शाह के बड़े बेटे दलपत शाह के साथ कराया गया। शादी के कुछ वर्षों बाद दुर्गावती को वीर नारायण नामक पुत्ररूपी रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन इस खुशी को जल्द ही ग्रहण लग गया और राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई। पति की मौत के बाद गोंड साम्राज्य पर आधिपत्य को लेकर चल रही राजनीति की आहट पाकर रानी ने स्वयं को गोंडवाना की महारानी घोषित कर दिया। एक महिला ने जब राज्य की सत्ता का संचालन अपने हाथों में लिया तो आसपास के राज्यों के पुरुषवादी शासक काफी प्रसन्न हो गए। उनको आशा थी कि महिला होने के नाते गोंड साम्राज्य पर कब्जा करने के लिए उन्हें ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ेगा।

vishva gaurav
मालवा गणराज्य के शासक बाज बहादुर ने इसी सोच के साथ गोंडवाना पर हमला किया लेकिन बाज बहादुर की सोच गलत साबित हुई और उसे रानी दुर्गावती ने करारी शिकस्त दी। इस जीत के साथ ही रानी दुर्गावती का यश चारों ओर फैल गया।

इसके कई सालों के बाद गोंडवाना के नजदीकी राज्य मणिकपुर के शासक ख्वाजा अब्दुल मजिद आसफ खान ने रानी दुर्गावती पर आक्रमण करने का विचार बनाया। तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर की आज्ञा लेकर अब्दुल माजिद बड़ी फौज लेकर निकल पड़ा। जब मुगल सेना, दमोह के नजदीक पहुंची तो मुगल सूबेदार ने रानी दुर्गावती से अकबर की अधीनता स्वीकार करने को कहा। रानी दुर्गावती ने उसे जवाब भिजवाते हुए कहा, ‘कलंक के साथ जीने से बेहतर गौरव के साथ मर जाना होता है। मैंने लम्बे समय तक अपनी मातृभूमि की सेवा की है और अब इस तरह मैं अपनी मातृभूमि पर धब्बा नहीं लगने दूंगी। अब युद्ध के अलावा कोई उपाय नही है।’ रानी दुर्गावती ने तीन दिनों तक अकबर की सेना को धूल चटाई। चौथे दिन उनका पुत्र राजा वीर घायल हो गया लेकिन रानी इस वेदना को भी झेल गईं।

24 जून 1564, रानी अब भी अदम्य शौर्य एवं साहस का प्रदर्शन करते हुए बहादुरी के साथ लड़ रही थीं तभी अचानक एक तीर रानी दुर्गावती की गर्दन के एक तरफ घुस गया। रानी ने वह तीर तो बाहर निकाल दिया लेकिन उस जगह पर भारी घाव बन गया। इसी के तुरंत बाद एक और तीर उनकी गर्दन के अंदर घुस गया जिसे भी रानी दुर्गावती ने बाहर निकाल दिया लेकिन इसके बाद वह बेहोश हो गयीं। जब उन्हें होश आया तो पता चला कि उनकी सेना युद्ध हार चुकी है। उन्होंने महावत से कहा, ‘मैंने हमेशा से तुम्हारा विश्वास किया है और हर बार की तरह आज भी तुम्हारा सहयोग चाहिए। आज हार के इस मौके पर तुम मुझे दुश्मनों के हाथ मत लगने दो और वफादार सेवक की तरह इस तेज छुरे से मुझे खत्म कर दो।’

महावत ने कहा, ‘मैं अपने हाथों को आपकी मौत के लिए उपयोग नहीं कर सकता। मैं बस आपको इस रणभूमि से बाहर निकाल सकता हूं, मुझे अपने तेज हाथी पर पूरा भरोसा है।’ यह बात सुनकर रानी दुर्गावती की आंखों में खून उतर आया।
durga वह नाराज हो गईं और बोलीं, ‘क्या तुम मेरे लिए ऐसे अपमान का चयन करते हो? क्या तुम यह चाहते हो कि लोग कहें कि दुर्गावती रणभूमि छोड़ कर भाग गई थी?’ इसी के साथ रानी दुर्गावती ने चाकू निकाला और अपने पेट में घोंप लिया। रानी दुर्गावती ने मध्य प्रदेश की वीरभूमि को अपने रक्त से सींचने में कोई संकोच नहीं किया। दुर्गावती ने 16 सालों तक वीरों की तरह शासन करते हुए भारतवर्ष के गौरवमयी इतिहास को एक नया आयाम प्रदान किया।
आज 5 अक्टूबर है, आज से 492 साल पहले 1524 में दुर्गावती ने जन्म लिया था। आज मैं रानी दुर्गावती पर इसलिए लिख रहा हूं ताकि नारीवाद के नाम पर रिश्तों का मजाक उड़ाने वाले ‘प्रगतिशील’ वर्ग के लोगों की कलम ‘नारीवाद’ का वास्तविक अर्थ बयां कर सके। भारत की इस वीर बेटी की जयंती पर मैं बस इतना चाहता हूं कि देश की बेटियां यदि प्रेरणा लें तो दुर्गावती जैसी महिलाओं से लें। रानी दुर्गावती के जैसा समर्पण और दायित्वबोध, वर्तमान समय की ‘आधुनिक’ नारियों में नहीं पाया जाता।
रानी दुर्गावती को नमन!

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...