Sunday 25 December 2016

क्या आप अपने 'सिकुड़ते' मन में 'संजय' को खोजेंगे?

दिल्ली में ठंड का कहर शुरू हो गया है। इस कड़कड़ाती ठंड में सुबह 6 बजे उठकर 7 बजे ऑफिस के लिए निकलना बेहद मुश्किल लगता है लेकिन ऑफिस तो जाना ही है। आपके साथ भी ऐसा ही होता होगा ना? हमारे पास ना कपड़ों की कमी है और ना सुविधाओं की लेकिन इस देश में, इस दिल्ली में लाखों की संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो इस रूह कंपा देने वाली ठंड में इसलिए जिंदा नहीं रह पाते क्योंकि उनके पास रहने का कोई ऐसा ठिकाना ही नहीं है जहां वे इस ठंड से लड़ सकें। रहने का ठिकाना छोड़िए, उनके पास तो पहनने के लिए कपड़े तक नहीं हैं। रात में सड़क के किनारे सो जाने वाले इन लोगों को तो यह तक नहीं पता होता कि अगली सुबह की रोशनी वह देख भी पाएंगे या नहीं।

हम क्या कर सकते हैं? अगर आपके मन में यह सवाल आया है तो मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं। लगातार ठंड से मरने वालों के दर्द को महसूस करके उनके लिए कुछ करने वाले हमारे आपके बीच बहुत से लोग हैं। आज इस ब्लॉग के माध्यम से ऐसे ही एक लड़के के बारे में आपको बताने वाला हूं, जो पिछले 4 सालों से सड़क के किनारे रहने वालों को ठंड से लड़ने के ‘हथियार’ उपलब्ध करा रहा है। उम्मीद है कि एक बार दिल से आप भी उन गरीबों का दर्द महसूस करेंगे और इस लड़के से प्रेरणा लेकर ऐसा ही कुछ करेंगे।
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25 वर्षीय संजय तिवारी नाम का यह लड़का पिछले 4 सालों से लगातार ठंड के दिनों में स्वेटर कलेक्शन की एक मुहिम चलाता है। सोशल मीडिया के माध्यम से संजय लोगों से अपने पुराने ऊनी कपड़े मांगता है और रात में ठंड से ठिठुरते लोगों तक उन कपड़ों को पहुंचाता है। अस्पतालों, बस स्टैंडों और रेलवे स्टेशनों के आसपास रात गुजारने वाले इन लोगों को पिछले साल यानी 2015 में संजय ने 15000 से अधिक गर्म कपड़े डोनेट किए।
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संजय की इस मुहिम में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो दिल्ली से काफी दूर हैं और आर्थिक सहयोग के जरिए वे इस काम में मदद करते हैं। संजय उन पैसों  से कंबल इत्यादि खरीदकर लोगों तक पहुंचाते हैं। संजय ने 4 साल पहले जब इस मुहिम को शुरू किया था तो उनके साथ सिर्फ उनकी एक दोस्त थी लेकिन आज उनकी टीम बहुत बड़ी हो गई है। संजय का कहना है कि उनकी यह कोशिश ठंड में बने रिश्तों को गर्माहट देने के लिए है। संजय की इस मुहिम से अब दिल्ली के कई एनजीओ भी जुड़ चुके हैं। वह अनेकों स्थानों पर ठंड के दौरान कलेक्शन बॉक्स रखते हैं और लोगों से अपने पुराने कपड़ों को उसमें डालने का निवेदन करते हैं।

हाल ही में दिल्ली के शास्त्री नगर स्थित जेडी फूड कोर्ट के संचालक जतिन ने भी संजय की मदद के लिए अपने फूड कोर्ट के बाहर एक ड्रॉप बॉक्स रखा है। जतिन के अलावा बहुत से लोग हैं जो उनकी मुहिम में उनका साथ दे रहे हैं। हर शाम कनॉट प्लेस के आस-पास संजय आपको गर्म कपड़े कलेक्ट करते हुए मिल जाएंगे। आज बस आपसे इतना ही निवेदन है कि अगर आप दिल्ली में हैं तो संजय या उनके जैसी मुहिम चलाने वालों के साथ मिलकर कुछ अच्छा करें। संजय और उनकी मुहिम से जुड़ी डिटेल्स आपको यहां क्लिक करके मिल सकती हैं। और अगर आप दिल्ली के बाहर हैं तो ठंड में ठिठुरते लोगों के दर्द को महसूस करके अपने अंदर के ‘संजय’ को खोजिए। आपकी छोटी सी कोशिश किसी के चेहरे पर मुस्कान ला सकती है, किसी की जिंदगी बचा सकती है।
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क्या एक सफल महिला के पीछे 'पुरुष' नहीं होता?

‘प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी ना किसी महिला का हाथ जरूर होता है।’ यह बात आपने भी अपने जीवन में सुनने के साथ-साथ महसूस की होगी। वह महिला आपकी मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका या कोई अन्य भी हो सकती है। कोई भी पुरुष यह नहीं कह सकता कि उसने अपने जीवन में जितना भी अर्जित किया है, उसमें किसी महिला का योगदान नहीं है, क्योंकि उस पुरुष की उत्पत्ति का आधार ही महिला है। जिसने भी इस ‘कहावत’ को सर्वप्रथम कहा होगा उसके मन में सफल पुरुष की सफलता के पीछे जिस महिला का त्याग, बलिदान और साहस रहा होगा, उसे प्रणाम करने की कल्पना रही होगी। लेकिन क्या एक महिला की सफलता के पीछे पुरुष का कोई योगदान नहीं होता?

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अजीब सा सवाल है ना? यदि आप एक पुरुष हैं तो आप तत्काल कह देंगे, ‘बिल्कुल, महिला की सफलता के पीछे पुरुष का ही हाथ होता है।’ लेकिन क्या महिलाएं भी ऐसा ही सोचती हैं? क्या महिलाएं भी ‘हां’ में इस प्रश्न का तत्कालिक उत्तर दे सकती हैं? मुझे नहीं लगता…मेरी सोच ऐसी क्यों बनी, उसका कारण मेरा अपना एक अनुभव है।

कुछ दिन पहले ‘नव चेतना’ नामक एक वर्कशॉप को अटेंड करने का मौका मिला। उस वर्कशॉप के ट्रेनर ने स्टिकी नोट्स पर कुछ लड़कों को यह लिखने को कहा कि लड़कियां कैसी होती हैं और लड़कियों से लिखने को कहा कि वे लिखें कि लड़के कैसे होते हैं। लड़कों में से लगभग सभी ने लिखा कि लड़कियां भावुक होती हैं, काफी मजबूत होती हैं, सहनशील होती हैं… इत्यादि… बात भी सही है, एक लड़की/महिला के बराबर संवेदनाएं एक ‘सामान्य’ पुरुष में नहीं हो सकतीं। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जन्म के बाद जो महिला सबसे पहले मेरे संपर्क में आई, वह मेरी मां थी। एक महिला के बारे में सोचने पर सबसे पहले मेरे मन में मेरी मां का चेहरा आता है। मेरे सिर पर जब जरा सी चोट लगती थी तो मैंने उनकी आंखों में आंसू देखे हैं, पापा से उन्हें मेरी अपनी गलतियों के लिए लड़ते देखा है। आज अधिकतर पुरुषों के मन में एक महिला के बारे में सोचने पर पहला चित्र अपनी मां का ही आता होगा।

लेकिन इसके विपरीत उसी वर्कशॉप में अधिकतर महिलाओं ने पुरुषों के बारे में जो लिखा वह वास्तव में आश्चर्यचकित करने वाला था। किसी ने पुरुषों को अहंकारी बताया, तो किसी ने कहा कि पुरुष भरोसे के लायक नहीं होते। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मुझे लगता है कि किसी महिला का पिता तो उसके लिए अहंकारी नहीं हो सकता, एक पिता तो उसके भरोसे को नहीं तोड़ सकता, तो फिर ऐसे विचार क्यों?

ये विचार अनायास ही नहीं बने। महिलाओं ने अपने बॉयफ्रेंड, पति या अन्य किसी में जिस पुरुष को देखा है, उसी के आधार पर अपने मानसपटल पर पुरुष के व्यवहार की एक छवि बना ली। हो सकता है कि किसी पुरुष ने उस महिला का विश्वास तोड़ा हो, हो सकता है किसी ने उसका सम्मान न किया हो लेकिन सिर्फ एक व्यक्ति विशेष के व्यवहार के कारण संपूर्ण पुरुष जाति के व्यवहार को वैसा ही मान लेना क्या ठीक होगा?

आज कहा जाता है कि समाज बदल रहा है, अब महिलाएं घर की चहारदीवारी लांघकर हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं, पर इसके पीछे इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि इस परिवेश के बदलाव का एक मुख्य कारण पुरुषों की सोच में परिवर्तन भी है। वैदिक काल के बाद से भारत के लोगों ने जिस तरह से स्त्री को लेकर अपनी सोच को अधोगामी बनाया, उस सोच के दायरे से बाहर निकल कर एक सकारात्मक परिवर्तन यदि हमें दिखाई दे रहा है तो उसके पीछे पुरुषों की मानसिकता में बदलाव और महिलाओं का साहस है। पुरुषों की मानसिकता नहीं बदली होती तो महिलाओं का घर से बाहर निकलना, अपनी व्यक्तिगत पहचान को समाज में प्रतिस्थापित करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता।

हमें इस बात को मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि समाज के परंपरागत रिवाजों को तोड़कर पुरुष ने भी स्त्री को इस बात का अहसास कराया कि जो हम कर सकते हैं, वह तुम भी कर सकती हो। निश्चित रूप से आज भी बहुत से लोग इस परिवर्तन को स्वीकार करने की मानसिकता नहीं रखते लेकिन ऐसे लोगों में सिर्फ पुरुष नहीं आते, बहुत सी महिलाएं भी हैं जो आज भी कहती हैं कि लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। लेकिन उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। क्योंकि अगर उनको कुछ कह दिया तो ‘नारीवादी’ होने का तमगा छिन जाएगा। महिलाओं के प्रति पुरुषों के समर्पण को अनदेखा किया जाएगा, क्योंकि अगर पुरुषों के लिए कुछ अच्छा कह दिया तो ‘पुरुषवादी’ होने का ठप्पा लग जाएगा।

नारीवादी होना, क्या भेदभाव को बढ़ावा देना नहीं है? यदि वास्तव में हम लिंगभेद को नहीं मानते तो ‘नारीवादी’ और ‘पुरुषवादी’ जैसे शब्दों को क्यों बड़े गर्व के साथ अपने चरित्र का बखान करने में उपयोग करते हैं? अगर हम यह कहते हैं कि ‘प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी ना किसी महिला का हाथ जरूर होता है’ तो आखिर क्यों हम यह भी नहीं कह सकते कि ‘प्रत्येक सफल महिला के पीछे भी किसी ना किसी पुरुष का हाथ जरूर होता है’? एक बार इन सवालों के जवाब सोचने का प्रयास जरूर करिएगा…

अतहर और टीना डाबी के प्यार से आपके पेट में दर्द क्यों?

आपको क्या लगता है कि आपके भगवान या खुदा ने धर्म (पूजा पद्धतियां) या जातियां बनाई हैं, वो भी सिर्फ इसलिए ताकि लोगों के बीच संबन्ध न बन सकें? यानी अगर आप हिंदू हैं और आपने मुस्लिम से शादी कर ली तो आपका भगवान आपसे नाराज हो जाएगा, मुस्लिम हैं और हिंदू से निकाह कर लिया तो खुदा नाराज हो जाएगा, ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर यदि कायस्थ परिवार में शादी की तो आपका ईश्वर आपको ‘भयानक’ कष्ट देगा? आप सोच रहे होंगे कि मैं आज ये कौन सी बातें लेकर बैठ गया। चलिए बताता हूं….

मेरा एक पत्रकार मित्र है। कुछ महीनों पहले उससे काम के दौरान गलतियां हुईं। कभी कोई समाचार लिखते समय कोई भाषागत गलती हो जाती तो कभी संस्थान के ऑफिशल अकाउंट से कुछ गलत ट्वीट हो जाता। चूंकि उसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं इसलिए पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि उसकी योग्यता, क्षमता और प्रतिभा में कोई कमी नहीं है। फिर ऐसी गलतियां उससे क्यों हो जाती हैं?
कुछ सप्ताह पहले अपने उस मित्र के साथ खाना खाने बैठा था तो उसका चेहरा उतरा-उतरा सा लगा। सोचा बात करूं। मैंने उससे पूछा कि आखिर उसकी समस्या क्या है? क्या उसे कोई परेशानी है? उसने पहले तो बात टालने की कोशिश की लेकिन फिर भावुक होकर उसने बताया कि वह एक लड़की से प्यार करता है लेकिन जातिगत विभेद के कारण वे दोनों कभी एक नहीं हो सकते। मैंने कहा कि परिवार से बात करो तो उसने कहा कि उन दोनों के परिवार कभी इस रिश्ते को मान्यता नहीं देंगे। और इसी कारण से उसका किसी काम में मन नहीं लगता।

जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था उस समय का भी एक किस्सा ध्यान में आता है। मेरी एक जूनियर जो कि ब्राह्मण परिवार की थी, उसे एक क्षत्रिय लड़के से ‘प्यार’ था। घरवालों ने इस रिश्ते को मंजूरी नहीं दी तो वह लड़की भागकर लड़के के घर चली गई। लड़के के घरवालों ने उसे स्वीकार कर लिया लेकिन लड़की के घरवालों ने हमेशा के लिए उससे रिश्ता खत्म कर दिया। लगभग 1 साल के बाद उन दोनों के रिश्ते में खटास आ गई और वह रिश्ता खत्म हो गया। लड़की फिर से अपने घर आ गई और लड़की के प्रति प्यार के चलते परिवार को उसे स्वीकार करना पड़ा।
इन दो उदाहरणों को पढ़कर आप किस निष्कर्ष पर पहुंचे? पता नहीं आप क्या सोच रहे हैं लेकिन क्या एक 18 साल की लड़की और लगभग इसी उम्र का लड़का अपने जीवन और भविष्य का निर्णय ले सकता है? क्या उसका मस्तिष्क इतना विकसित हो चुका है कि वह ‘प्यार’ और ‘आकर्षण’ के अंतर को समझ सके?या एक लड़का जिसकी उम्र 26 साल है, जो पिछले 3-4 साल से पत्रकारिता कर रहा है, समाज के बीच रह रहा है, आप उसकी भावनाओं को भी आकर्षण मान लेंगे? किसी का मस्तिष्क पूर्ण रूप से विकसित हो गया है, इसकी प्रमाणिकता उसकी उम्र तय नहीं करती। बल्कि उसकी सामाजिक स्थिति बताती है कि वह किसी रिश्ते और उस रिश्ते के भविष्य के प्रति कितना जागरुक है।

यह तो एक पक्ष था। दूसरा पक्ष है जाति और धर्म का। इस विषय पर बात करने से पहले एक सवाल है कि राम तो क्षत्रिय थे, लेकिन माता सीता की जाति क्या थी? मैं यह सवाल इसलिए पूछ रहा हूं कि बात उन परंपराओं की हो रही है जो लंबे समय से चली आ रही हैं तो सवाल भी उसी पौराणिक इतिहास से उठाना चाहिए। वाल्मीकि रामायण के मुताबिक, मिथिला के राजा जनक को खेत जोतते समय एक बच्ची मिली, जनक ने उन्हें  धरती माता की पुत्री मानकर पाला-पोसा और बाद में उनका विवाह राम के साथ हुआ।
कहने का अर्थ यह है कि सीता, जनक की पुत्री नहीं थीं, उनके कुल इत्यादि का पता नहीं था, उनके जन्म का समय नहीं पता था कि कुंडली इत्यादि का मिलान किया जाए और राम या उनके परिवार ने बिना कुल,जाति इत्यादि की जांच किए बिना उन्हें अपनाया और आज हम माता सीता की अनुपस्थिति में श्रीराम के चित्र की कल्पना नहीं कर सकते।

जिन्हें प्रत्येक जाति के लोग आराध्य मानते हैं, जब उन्होंने अपने विवाह में जातिगत भेद को स्थान नहीं दिया तो फिर हम एक सामान्य मनुष्य होकर, उन्हीं राम के वंशज होकर कैसे जातिभेद को अपने जीवन में स्थान दे सकते हैं? जाति और धर्म हमने बनाए हैं, लेकिन अगर हमारी ही बनाई किसी परंपरा से समाज टूट रहा है तो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए हमें उन परंपराओं को तत्काल प्रभाव से समाप्त कर देना चाहिए।
साल 2006 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में एक मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस राकेश शर्मा ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को ‘लव जिहाद’ की जांच के आदेश दिए तो राष्ट्रीय मीडिया के यह मुद्दा चर्चा का विषय बन गया। ‘लव जिहाद’ के ये आरोप यूपी से शुरू होकर केरल और फिर कर्नाटक पहुंच गए। ज्यादातर मामलों में कट्टर मुस्लिम युवकों पर आरोप लगे कि वे अपना नाम बदलकर हिंदू लड़कियों से नजदीकियां बढ़ाते हैं। इसके बाद झूठे प्यार का नाटक करके शादी कर उनका जबरन धर्म परिवर्तन करा देते हैं।

लेकिन ये कौन लोग हैं जो प्रेम जैसी शाश्वत अनुभूति की आड़ में किसी की धार्मिक भावनाओं के साथ खेलते हैं? इस सवाल का कोई पुख्ता जवाब आज तक नहीं मिल पाया। मैं इस बहस में नहीं जाना चाहता कि ‘लव जिहाद’ जैसा कुछ होता भी है या नहीं लेकिन क्या देश की सबसे कठिन परीक्षा कही जाने वाली यूपीएससी की परीक्षा के 2 टॉपर्स यदि धार्मिक विभेद को मिटाकर समाज को एक संदेश देना चाहें तो क्या इसे ‘लव जिहाद’ का नाम देना ठीक होगा?

क्या दो लोग अपनी मर्जी से शादी के बंधन में नहीं बंध सकते? और वे सामान्य लोग नहीं हैं, वे दोनों अपनी बुद्धि, योग्यता और प्रतिभा के बल पर इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं कि उन्हें ‘धर्म’ का झंडा लेकर चलने वालों से ‘भारत’ की लाख गुना ज्यादा समझ है।

अतहर आमिर खान जब ‘युवान’ के मंच पर स्वामी विवेकानंद की तस्वीर के नीचे खड़े होकर युवाओं के सामने सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ ‘भारत भक्ति’ के प्रेरणापुंज के रूप में खड़ा होता है तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन जब वह एक हिंदू लड़की से शादी की बात करता है तो कुछ लोगों के पेट में दर्द क्यों होता है?


यह दर्द सिर्फ इसलिए है क्योंकि उनको धर्म और मजहब के बीच की खाईं को और गहरा करके अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी हैं। अगर प्रेम की प्रतिमूर्ति श्रीकृष्ण के देश में कोई यह कहता है कि दो अलग-अलग पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग विवाह नहीं कर सकते, तो एक बात तो तय है कि जिस ‘भगवान’ की सेवा के नाम पर वे यह सब कर रहे हैं, उसे मैं ‘भगवान’ नहीं मान सकता क्योंकि मेरा भगवान कभी ‘जातिवादी’ और ‘सांप्रदायिक’ नहीं हो सकता।

सानिया के लिबास पर सवाल, एक शायर का घटिया ख़याल

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टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा ने कुछ साल पहले पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक से शादी की। कैसा लगा था आपको? एक भारतीय के रूप में अपनी सोच को एक सीमित दायरे में रखकर यदि आप सोचेंगे तो आपको यही लगेगा कि नहीं! सानिया मिर्जा को ऐसा नहीं करना चाहिए था। अगर आप भी ऐसा ही सोच रहे हैं तो मैं आपसे सहमति नहीं रखता। क्योंकि मैं मानता हूं कि प्यार को देश की सीमाओं में नहीं बंधना चाहिए और हम किसी के प्यार को सीमाओं में बांधने वाले कोई नहीं होते। हालांकि जब सानिया की शादी की खबर आई थी तो मुझे भी ‘गुस्सा’ आया था। क्योंकि मुझे लगता था कि सानिया को ‘सानिया’ भारत ने बनाया है, भारत के लोगों की मोहब्बत ने उन्हें पहचान दी और वह शादी के लिए ‘दुश्मन’ देश के साथ चली गईं। मुझे लगता था कि जिसका शौहर पाकिस्तानी हो, वह मन से भारतीय कैसे रह सकती है? मैं सोचता था कि अब सानिया भारत के लिए नहीं खेलेंगी… लेकिन समय ने मेरी सोच को गलत साबित किया। सानिया उसी शिद्दत के साथ भारत के लिए खेलती रहीं। विंबल्डन से लेकर ओलिंपिक तक सानिया भारत के प्रतिनिधि के तौर पर खेलीं और विश्व स्तर पर भारत के मस्तक को ऊंचा किया। ना सिर्फ उन्होंने भारत के मस्तक को ऊंचा किया बल्कि ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की मूल अवधारणा को भी प्रतिस्थापित किया। 2015 में जब देश के सिलेब्रिटीज भारतीय सेना के साथ खड़े होकर देश का मनोबल बढ़ा रहे थे तो उस पाकिस्तानी बहू ने भी अपना राष्ट्रीय दायित्व निभाते हुए भारतीय सेना के त्याग के लिए धन्यवाद दिया।


saniaआप सोच रहे होंगे कि मैं ये सारी बातें क्यों कह रहा हूं? चलिए, एक बार कल्पना करिए कि किसी भारतीय पुरुष सिलेब्रिटी ने किसी पाकिस्तानी महिला सिलेब्रिटी से शादी/निकाह किया होता और वह महिला किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पाकिस्तान का नेतृत्व करती तो? तो, भारत के फर्जी राष्ट्रवादी उन दोनों को जीने नहीं देते। कल्पना करिए वही महिला यदि पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर पाकिस्तानी सेना के समर्थन में ट्वीट करती तो? तो क्या होता मुझे बताने की जरूरत नहीं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि पाकिस्तान में रहने वाले लोग सानिया मिर्जा को लेकर क्या-क्या कहते होंगे? सब छोड़िए! एक बार उस पाकिस्तानी शौहर के बारे में सोचिए जो खुलेआम कहता है कि उसकी भारतीय पत्नी पाकिस्तान के खिलाफ भारत का समर्थन करेगी। यहां क्लिक कर पढ़ें खबर।

चलिए अब मूल बात पर आते हैं। ऐसी महिला के बारे में एक व्यक्ति कहता है कि सानिया मिर्जा उसकी मां को इसलिए पसंद नहीं क्योंकि उसके सिर पर दुपट्टा नहीं है। और वह व्यक्ति अपनी मां की इस सोच को बहुत गर्व के साथ बताता है। क्यों कहता है वह ऐसा? क्योंकि इस्लाम पर्दाप्रथा का हिमायती है।

क्या कहेंगे आप इस पर? मुझे नहीं पता आप क्या कहेंगे लेकिन मेरा मानना है कि ऐसे लोग ‘देशभक्ति’ के नाम पर एक महिला की स्वतंत्रता का हनन कर रहे हैं। खास बात यह है कि ऐसी बातें करने वाले इमरान प्रतापगढ़ी के जेएनयू और भारत के बड़े-बड़े वामपंथियों से बहुत ही नजदीकी संबंध हैं। लेकिन वे लोग इमरान को अपना ‘नारीवादी’ पाठ क्यों नहीं पढ़ाते हैं, यह सोच का विषय है। यह वही इमरान हैं जिन्हें अपनी ऐसी ही बातों को शायरी के रूप में पिरोने के कारण उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा सम्मान ‘यश भारती’ दिया जाता है। उसे 11 लाख रुपए और प्रतिमाह 50,000 रुपये की पेंशन प्रदेश सरकार उसकी बातों के लिए देती है।

सिर्फ इतना ही नहीं, इमरान प्रतापगढ़ी नामक यह तथाकथित शायर उस किशन बाबूराव (अन्ना) हजारे पर भी सवाल उठाते हैं। उस अन्ना हजारे पर जिसने 60 सालों से सोए हुए देश को भ्रष्टाचार के खिलाफ जगाया, जिसने देश को लड़ना सिखाया। इमरान अन्ना के अनशन को बीमारी और नाटक बताते हैं।

उनकी समस्या यह है कि जिस संजीव भट्ट नाम के एक पूर्व आईपीएस अफसर के बारे में गुजरात में सन 2002 में हुए दंगों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाया गया विशेष जांच दल (एसआईटी) कहता है कि उन्होंने गुजरात सरकार को बदनाम करने के लिए फर्जी दस्तावेज तैयार किए, जिस संजीव भट्ट को सुप्रीम कोर्ट फटकार लगाते हुए कहता है वह पाक-साफ नहीं है, उसे जेल भेजे जाने पर अन्ना हजारे क्यों कुछ नहीं बोलते? क्या गजब का तर्क है इमरान साहब का?

बड़ी बात यह नहीं है कि इमरान यह सब बोलते हैं। वह तो नादान हैं, अभी विद्यार्थी हैं लेकिन जब अन्ना हजारे को नौटंकीबाज बताने वाले व्यक्ति को कुमार विश्वास जैसा व्यक्ति अपना भाई बताते हुए उसकी बातों का समर्थन करता है, तो सवाल कुमार विश्वास की सोच पर उठना लाजमी है, जब ऐसा वैचारिक विद्वेष फैलाने वाले व्यक्ति को साहित्य के नाम पर हमारे-आपके द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे से आजीवन पेंशन दी जाती है तो सवाल अखिलेश सरकार पर उठाना एक भारतीय होने के नाते मेरी जिम्मेदारी बनती है। लेकिन मेरे सवालों का कोई अर्थ नहीं क्योंकि वोटबैंक के लिए तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और कुमार विश्वास को यह सब करना ही पड़ेगा, नहीं?

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने जैसे नारे लगे थे। क्या हुआ फिर? मीडिया चीखा, ‘राष्ट्रवादी’ चिल्लाए, पुलिस ने कुछ लेफ्ट विंग के छात्रनेताओं को उठाया, उनको कोर्ट में पेश किया और फिर कोर्ट ने उन्हें सशर्त अंतरिम जमानत दे दी। बस कहानी खत्म….

लगभग 9 महीने बीत गए, लेकिन आज तक भारत विरोधी नारे लगाने वालों को सजा नहीं मिली। अरे सजा छोड़िए साहब, हमारी पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां उन लोगों की पहचान तक नहीं कर पाईं जिन्होंने देश को गालियां दी थीं। हम भी खामोश हो गए। हमें तो भूलने की बीमारी है। हम भूल गए कि हमारी मां को गालियां दी गई थीं।

भारत, एक ऐसा देश जहां के एक विश्वविद्यालय का छात्र गुमशुदा हो जाता है तो उस विश्वविद्यालय के वीसी तक को बंधक बना लिया जाता है, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां विश्व के सबसे बड़े गैर-राजनीतिक संगठन के कार्यकर्ताओं की हत्या पर नेता से अभिनेता तक, सभी मौन हो जाते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां गोरक्षक बनकर लोग अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी निकालते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां एक आतंकी के जनाजे में हजारों की संख्या में लोग मातम मनाते हुए दिखते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां एक अभिनेता सीमा पर तैनात सैनिक की शहादत पर ‘बिगड़े बोल’ बोलने से भी नहीं हिचकता, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां एक आतंकी को ‘शहीद’ कहकर सम्मान दिया जाता है, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत एक ऐसा देश जहां सिर्फ तीन बार ‘तलाक-तलाक-तलाक’ बोलकर एक महिला के सपनों को एक झटके में चकनाचूर कर दिया जाता है, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते? (क्लिक कर पढ़ें: महिलाओं के शोषण का नायाब तरीका है तीन तलाक)

भारत, एक ऐसा देश जहां के लोग नवरात्र में तो भोज के लिए कन्याएं खोजते हैं, लेकिन पैदा होने से पहले ही अपनी बेटी को मार देते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?
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भारत, एक ऐसा देश जहां के लोग हलाला और मुताह जैसी कुप्रथाओं का खुले आम समर्थन करते हुए एक धर्मनिरपेक्ष देश में मजहबी कानून का पक्ष लेते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां के लोग बात तो ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की करते हैं, लेकिन महिला को दहेज के लालच में जिंदा जला देते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां के लोग राष्ट्र की वंदना की पर्याय सूक्ति, वंदे मातरम को एक संगठन और धर्म विशेष से जोड़कर देखते हैं और कहते हैं कि उनके गले पर चाकू भी रख दी जाएगी तब भी वंदे मातरम नहीं बोलेंगे, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां के लोग राजनीतिक विरोध करते-करते अपने स्तर को राष्ट्र विरोध तक ले आते हैं, उन्हें विदेशों में भी अपने प्रधानमंत्री की बुराई करने से कोई परहेज नहीं होता, वे घर के मतभेदों को मनभेद के रूप में विश्वपटल पर प्रदर्शित करते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां के लोग सरकार की अच्छी योजनाओं के साथ इसलिए नहीं खड़े होते क्योंकि वे विपक्षी पार्टी से आते हैं, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां ‘सवर्ण’ होते हुए भी दलितों को सम्मान दिलाने का प्रथम प्रयास करने वाले विनायक दामोदर सावरकर को गद्दार और सांप्रदायिक करार दिया जाता है, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां सनातन धर्म की सर्वोच्च पदवी पर विराजमान, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती कहते हैं कि महिलाओं द्वारा शनि शिंगणापुर में पूजा किए जाने से बलात्कार बढ़ेंगे, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

भारत, एक ऐसा देश जहां के तथाकथित नारीवादियों ने महिला आजादी का पैमाना उनके कम कपड़ों और सिगरेट-शराब पीने को बना दिया है, क्या इसे असहिष्णुता नहीं कहते?

असहिष्णुता क्या है?  कोई भारत को गाली दे और उसे रोका जाए, असहिष्णुता यह नहीं है। असहिष्णुता है अपने कर्तव्य और अधिकार के मध्य सामंजस्य स्थापित न करना। लेकिन इस असहिष्णुता के होने का अर्थ यह कतई नहीं है कि मैं अपने देश को छोड़कर पाकिस्तान चला जाऊं या अगर मैं यह कहूं कि भारत में असहिष्णुता है तो कोई फर्जी राष्ट्रवादी मुझे देशद्रोही करार करके मेरे लिए पाकिस्तान का टिकट कटाकर ले आए। वास्तविक पीड़ा तो इस बात की है कि इस तरह की ‘असहिष्णुताओं’ पर ना ही कोई अवॉर्ड वापसी अभियान चलता है और ना कोई पत्रकार अपने चैनल की स्क्रीन काली करता है….

तीन तलाक: महिलाओं के शोषण का नायाब तरीका

जनवरी 2016 में एक मुस्लिम महिला को स्पीड पोस्ट से एक लेटर मिलता है, जिसमें उसके पति ने कथित तौर पर इस्लामी कानून का प्रयोग करके तलाक दे दिया होता है। जयपुर की रहने वाली आफरीन नामक उस महिला के दर्द को क्या आप महसूस कर सकते हैं? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि निकाह से पहले आफरीन ने अपनी जिंदगी को लेकर कैसे-कैसे सपने देखे होंगे? उत्तराखंड की निवासी शायरा बानो ‘तलाक’ से सताई हुईं एक अन्य महिला हैं। शायरा का कहना है कि उनका पति उनके साथ मारपीट करता था और बाद में उसने शायरा को तलाक दे दिया। शायरा के दो बच्चे हैं लेकिन वे उसके पति के साथ रहते हैं और शायरा का पति बच्चों से उनकी मां को बात तक नहीं करने देता। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक मां, अपने बच्चों से दूरी कैसे बर्दाश्त करती होगी।

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देश में इस समय ट्रिपल तलाक को लेकर बहस छिड़ी है। इस बहस में एक पक्ष ऐसा भी है जो कहता है कि अगर कोई मर्द तीन बार तलाक यानी ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कह दे तो उसकी उस महिला के प्रति सारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है जो अपने परिवार को छोड़कर अपनी पूरी जिंदगी उस मर्द के साथ बिताने का सपना देखकर आई है। यह सही है या गलत इस बहस में पड़ने से पहले उन परंपराओं पर बात कर लेते हैं जो कई सौ सालों से उस मजहब का आधार बनी हुई हैं जो महिलाओं को सर्वाधिक अधिकार देने का दावा करता है।

निकाह- इस्लाम में निकाल को एक तरह का ‘अग्रीमेंट’ जैसा माना गया है। निकाल के दौरान मेहर की एक रकम तय की जाती है, जिसे किसी परिस्थिति में विवाह विच्छेद यानी तलाक के बाद पुरुष द्वारा महिला को अदा करना होता है। लेकिन सवाल यह है कि एक लड़की जो अपने परिवार, संबंध, रिश्ते, सपने और अपने भविष्य को छोड़कर अपनी जिंदगी को जिस इंसान के हवाले कर देती है, तलाक के बाद उसे कितना भी पैसा मिल जाए, क्या वह उस पैसे से खुश रह सकती है? क्या भावनाओं और अधूरे सपनों की एक ‘रकम’ तय कर देना न्यायसंगत है? तर्क चाहे कुछ भी हों लेकिन इस अग्रीमेंट जैसी परंपरा को सही नहीं ठहराया जा सकता।

तीन तलाक- अगर पत्नी-पत्नी के रिश्ते सामान्य नहीं हैं तो एक खास तरीके से तीन बार में एक निश्चित समय अंतराल पर पति, अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। लेकिन आज जो परंपरा चल रही है वह वास्तविक इस्लामिक कानून से एकदम भिन्न है। आज तीन बार एक ही समय पर तलाक कहकर निकाह को खत्म कर दिया जाता है। इस तरह के तलाक में खास बात यह है कि कुछ मुल्ले-मौलवी आज 21वीं सदी में भी इसे जायज ठहरा रहे हैं। उनका तर्क है कि इस्लाम में इस तरह से दिया गया तलाक गलत जरूर माना गया है लेकिन ‘तलाक-तलाक-तलाक’ बोल दिया तो तलाक माना तो जाएगा ही। यानी अगर किसी को अपनी पत्नी पर गुस्सा आ जाए तो वह दो गवाहों के सामने अपनी पत्नी को तीन बार ‘तलाक’ बोलकर रिश्ते को तत्काल प्रभाव से समाप्त कर सकता है। सवाल यह है कि जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं?

हलाला- तलाक के बाद अगर पूर्व पति को अपनी गलती का अहसास हो और वह अपनी पत्नी से दोबारा निकाह करना चाहे तो उसकी पत्नी को पहले किसी और मर्द से निकाह करना होगा, उस मर्द के साथ शारीरिक संबन्ध बनाने होंगे, क्योंकि बिना शारीरिक संबंध के तो निकाह पूरा ही नहीं माना जाता। और फिर उस नए शौहर से तलाक लेकर या उसकी मौत हो जाने पर वह महिला पुराने शौहर से निकाह कर सकती है। हालांकि कुछ मौलवियों का तर्क है कि ये सब ‘सुनियोजित’ नहीं होना चाहिए और ‘हलाला’ कानून बनाकर इस्लाम, मर्दों को एक तरह से सजा देता है। यानी कि अगर मर्द ने कोई गलती की, उसे कुछ समय के बाद अपनी गलती का एहसास हो गया, उसकी पूर्व पत्नी गलती की माफी देकर फिर से उसके साथ रहना भी चाहे तो उसे पहले अपने शरीर को किसी और मर्द के हवाले करना पड़ेगा और यह पूर्व पति के लिए सजा होगी। एक महिला को किसी और के साथ बिना मर्जी के मजबूरी में शारीरिक संबंध बनाए और इसे मर्द को दी गई सजा माना जाए, कैसे? एक बार तलाक हो गया और फिर मियां-बीवी चाहें तो भी उनके पास एक प्रताड़ना भरी प्रक्रिया से गुजरने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

मुताह- यह एक तरह का निकाह होता है जिसमें पहले से ही समय तय कर लिया जाता है कि मियां-बीबी कितने समय तक साथ रहेंगे। इसके लिए बाकायदा औरत को पैसा दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया को यदि इस्लामी कानून आधारित वेश्यावृत्ति कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हाल ही में कई ऐसे मामले सामने आए हैं कि खाड़ी देशों से महीने-दो महीने के लिए मर्द वापस जब आते हैं तो वक्त बिताने के लिए, अपने शरीर की भूख मिटाने के लिए उन्हें कोई औरत चाहिए होती है और वे जिम्मेदारी भी नहीं निभाना चाहते। इसलिए वे मुताह निकाह करते हैं। जितने दिन का करार तय हो जाता है, उतने दिन के बाद सब कुछ खुद-ब-खुद खत्म हो जाता है।

खुला- यह भी एक तरह का तलाक होता है जो औरत की ओर से मर्द को दिया जाता है लेकिन यह ‘तीन तलाक’ के जैसा नहीं होता। औरत अगर मर्द से खुला मांगती है तो अंतत: देता मर्द ही है। अगर वह नहीं चाहे तो उसे मनाना पड़ता है। किसी काजी, किसी बुजुर्ग या दोस्त से दबाव डलवाना पड़ता है या कुछ संपत्ति वगैरा देकर मनाना पड़ता है। औरत को बच्चों से मिलने का अधिकार छोड़ना पड़ता है या मेहर की रकम छोड़नी पड़ती है। इस तरह कुछ चीजें छोड़कर महिला को तलाक मिलता है। इतना सब होने के बावजूद अंतिम घोषणा पुरुष को ही करनी पड़ती है। महिला सब कुछ दे दे, तब भी ‘तलाक-तलाक-तलाक’ की घोषणा पुरुष ही करता है। गजब की समानता है यार।

हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां विविध पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। जहां अंतिम नागरिक तक को अपने धर्म के मुताबिक जीवन जीने का अधिकार है लेकिन क्या मानवता से बड़ा कोई धर्म है, क्या इंसानियत से बड़ा कोई धर्म है? जो अधिकार हिंदू औरत को मिलें वह मुसलमान औरत को क्यों नहीं? जो अधिकार एक पुरुष को मिलें वह एक औरत को क्यों नहीं? आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस इस्लाम की दुहाई देकर ‘तीन तलाक’ के नियम में परिवर्तन न करने की बात कही जा रही है, उसी इस्लाम को मानने वाले कई इस्लामिक देशों में इस तरह के कानूनों में बदलाव किया जा चुका है।
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पाकिस्तान में 1961 के अध्यादेश के अनुसार, आर्बिट्रेशन काउंसिल की अनुमति के बिना कोई भी पुरुष दूसरा निकाह नहीं कर सकता। अफगानिस्तान में एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक लेना गैरकानूनी है। मोरक्को में पहली पत्नी की रज़ामंदी और जज की इजाजत लिए बिना दूसरा निकाह नहीं हो सकता। ट्यूनीशिया में तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। तुर्की में एक से अधिक निकाह करने पर 2 साल की सज़ा दी जाती है। इंडोनेशिया में दूसरे निकाह और तलाक के लिए धार्मिक अदालत से इजाज़त लेनी होती है और अल्जीरिया में पुरुष द्वारा तलाक देने के एकतरफा अधिकार को खत्म किया जा चुका है। वहां तलाक के मामले कोर्ट के ज़रिए ही निपटाए जाते हैं। पाकिस्तान में 1961 से, बांग्लादेश में 1971 से, मिस्र में 1929 से, सूडान में 1935 से और सीरिया में 1953 से तीन तलाक को बैन किया जा चुका है।

तलाक एक ऐसा शब्द है जो ना सिर्फ हंसते-मुस्कुराते परिवार को तोड़ देता है बल्कि रिश्तों के सौन्दर्य को भी समाप्त कर देता है। भारत में रुढ़िवादी मुसलमानों के एक वर्ग की ‘जिद’ के कारण तीन तलाक का जहर पीकर भी खामोश रहने वाली हजारों महिलाएं पड़ी हैं। कोई व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, उसके संवैधानिक अधिकार बराबर हैं। एक महिला के सम्मान और उसकी गरिमा के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जाना चाहिए। हमारे और आपके जन्म के साथ-साथ इस सृष्टि के संचालन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान यदि किसी का है तो वह औरत का है। हमारी जिम्मेदारी है कि हम उसके अधिकारों के लिए आवाज उठाएं।

क्रिसमस को भारतीय क्यों नहीं बना सकते?

आज क्रिसमस है। मैं पिछले 3-4 दिनों से लगातार सोशल मीडिया पर देख रहा हूं कि समाज का एक वर्ग कह रहा है कि क्रिसमस विदेशी त्योहार है, इसे मत मनाइए। कोई कह रहा है, ‘क्रिसमस अंग्रेजों का त्योहार है, हम अब उनके गुलाम नहीं हैं, क्रिसमस की बधाई ना दें।’ कोई कह रहा है कि हिंदू हैं, तो ईसाइयों का त्योहार क्यों   मनाएं? अजीब-अजीब से सवाल और सुझाव हैं, लेकिन इस सबके बीच मैं बस इतना जानता हूं कि भारतीय संस्कृति की आत्मा का आधार यहां की उत्सवधर्मिता है। हमारी संस्कृति की खासियत यह है कि लगभग हर दिन हमारे यहां कोई ना कोई त्योहार होता ही है। christmasऐसे में अगर हम भारत के अंदर ही रहने वाले एक वर्ग के प्रमुख त्योहार को स्वीकार कर लेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा? इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि क्या जिस सभ्यता से यह त्योहार आया है, हमें उसी रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए? मेरा मानना है ‘नहीं’…
हम पश्चिम से आए त्योहार में भारतीयता  को क्यों नहीं घोल सकते? भारतीय परंपरा के जितने भी पर्व और त्योहार हैं उन सभी का कोई ना कोई वैज्ञानिक अथवा पर्यावरणीय पक्ष जरूर होता है। हम होली मनाते हैं। शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ जाती है, लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 फ़ारनहाइट तक तापमान बढ़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं, तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।
christmas-celebrationsहम दिवाली मनाते हैं, दिवाली वर्षा ऋतु के बाद आती है। इसलिए यह समय कीटों, फफूंदियों आदि के पोषण का समय होता है। अर्थात इस समय कीड़े-मकोड़े अधिक हो जाते हैं क्योंकि इनको सही वातावरण मिलता है। इससे कई तरह की बीमारियां होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। दिवाली की परंपरागत मान्यता के मुताबिक दिवाली के दौरान घरों की सफाई की जाती है। माना जाता है कि सफाई रखने से मां लक्ष्मी आपके घर आती हैं। दिवाली के दौरान सफाई करने से कीटों का खतरा कम हो जाता है, साथ ही घी और तेल के दीपक जलाने से वातावरण भी शुद्ध होता है।
हम नवरात्र में और रमजान में उपवास अथवा रोजे रखते हैं। सभी रोजा या व्रत रखने से पाचन क्रिया ठीक हो जाती है और पेट में पल रहे जहरीले तत्व निष्कासित होने शुरू हो जाते हैं। हमारी रक्षात्मक ताकत में बढ़ोतरी होती है और दिमागी ताकत भी बढ़ जाती है। इसके अलावा इससे हमारे व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन भी आता है।
homeless-peopleहम छठ मनाते हैं। छठ के व्रत के साथ सूर्य की अग्नि के माध्यम से ऊर्जा का संचय किया जाता है, ताकि शरीर सर्दी में स्वस्थ रहे। इसके अलावा सर्दी आने से शरीर में पाचन तंत्र से संबंधित कई परिर्वतन होते हैं। छठ पर्व का उपवास पाचन तंत्र के लिए लाभदायक होता है। इससे शरीर की आरोग्य क्षमता में वृद्धि होती है। जब सूर्यदेव को अर्घ्य और जलाशय में पूजन करके उपवास किया जाता है तो शरीर की जीवनी शक्ति ज्यादा मजबूत होती है।
tulsi-plantअब बात करते हैं क्रिसमस की। मैंने कई लोगों से बात की, लेकिन कोई इस बात का उत्तर नहीं दे पाया कि क्रिसमस मनाने का वैज्ञानिक कारण क्या है। हालांकि एक सामाजिक कारण जरूर सामने आया कि पश्चिम में अधिकतर परिवार आज बिखरे हुए हैं, ऐसे में एक त्योहार के मौके पर सब एक जगह एकत्रित होकर कुछ समय साथ में बिताते हैं, लेकिन हमारे भारत में तो कुछ अपवादों को छोड़कर यह समस्या नहीं है कि परिवारों में विघटन हो। यहां तो कोई त्योहार हो या ना हो, मां के हाथ का खाना खाने के लिए बेटा हजारों किलोमीटर दूर से चला आता है। यहां परिवार और कुछ खास परिचितों से मिलने के लिए किसी त्योहार रूपी कारण की तो जरूरत नहीं महसूस होती।
मुझे लगता है कि प्लास्टिक के पेड़ को सजाने से बेहतर है कि क्यों ना हम तुलसी, अशोक या पीपल का पूजन करें। पूजन हमारी परंपरा भी है और इन पेड़ों से मानव जाति को लाभ भी होता है, तो क्यों ना इस खास दिन हम इन विशिष्ट पौधों या पेड़ों को धन्यवाद दें। हम पढ़े लिखे हैं, क्रिसमस पर हम अपने परिचितों को, अपने परिवार के सदस्यों को, अपने दोस्तों को गिफ्ट देते हैं। हम दूसरों के सैंटा क्लॉज बनते हैं। क्यों ना क्रिसमस पर हम उनके सैंटा क्लॉज बनें, जो इस कड़कड़ाती ठंड में सड़क के किनारे बनी झोपड़पट्टियों में, स्टेशनों के बाहर, अस्पतालों के बाहर ठिठुर रहे हैं। क्यों ना हम एक निर्जीव चीज को सजाने के लिए बर्बाद होने वाले धन से किसी की जिंदगी को कुछ गर्माहट दें। एक बार सोचिएगा जरूर…

ऐसे 'निष्पक्ष' हिंदुस्तान पर शर्मिंदा हूँ!


मिलाद-उन-नबी के अगले दिन कोलकाता से 28 किलोमीटर दूर स्थित हावड़ा के धूलागढ़ में मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों के द्वारा एक मंदिर पर बम फेंके गए, हिंदुओं की दुकानें जला दी गईं, उनके घरों में घुसकर मारपीट की गई। पुलिस और धूलागढ़ के मुस्लिमों का कहना है कि मुस्लिमों के जुलूस पर कुछ हिन्दुओं ने घात लगाकर हमला किया और जुलूस को बाधित करने की कोशिश की जिसके जवाब में अगले दिन प्रतिक्रिया स्वरूप दंगे भड़के। इसमें गलती किसकी? निश्चित तौर पर प्रशासन की... लेकिन आज बात करते हैं मीडिया की...

इस मामले में एक समाचार संस्थान यह तो लिखता है कि मोहम्मद साहब के जुलूस पर हमला हुआ लेकिन वह ये लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता कि वहां हिंदुओं के घर और दुकानें जलाए जा रहे हैं, वह यह नहीं लिख पाता कि हिंदू मंदिर तोड़े गए। एक अन्य प्रतिष्ठित समाचार चैनल ने अपनी वेबसाइट पर यह तो बताया गया कि मोहम्मद साहब के जुलूस पर हमला किया गया लेकिन उसके बाद किस समुदाय के लोगों ने बम तक से हमला किया।

कोलकाता में रहने वाले कुछ परिचितों से बात की तो उनका साफ तौर पर कहना है कि टीएमसी, सीपीएम और बीजेपी, किसी भी पार्टी से जुड़ा हिंदू हो, वह सिर्फ हिंदू होता है और उन्हें दंगाइयों के आक्रोश को झेलना ही पड़ता है। निष्पक्षता का बाजा बजाने वाले लोगों में तो इतनी भी हिम्मत नहीं है कि वे खुलकर ऐसी घटनाओं के बारे में बता सकें कि किस समुदाय विशेष से जुड़े लोगों ने किस समुदाय विशेष के लोगों को अपना निशाना बनाया। क्योंकि अगर वे बता देंगे कि मुस्लिमों ने हिंदुओं को मारा है तो वे सांप्रदायिक हो जाएंगे और उनकी निष्पक्षता खतरे में पड़ जाएगी। क्या आपको शर्म नहीं आती कि आप एक ऐसे देश में रहते हैं जहां का मीडिया भी निष्पक्षता के नाम पर तुष्टीकरण करता है?

इन सबके बीच एक सवाल मन में यह भी आता है कि जिस पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित 350 हिंदू और 20 मुस्लिम परिवारों वाले कांगला पहाड़ी गांव में हिंदुओं को दुर्गा पूजा की अनुमति नहीं दी जाती है। उसी पश्चिम बंगाल के हिंदुओं में इतनी हिम्मत कहां से आएगी कि वे मुस्लिमों के जुलूस पर घात लगाकर हमला करें। क्या वे सीएम साहिबा की 'मुस्लिम ममता' से अनजान थे? क्या उन्हें इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि यदि वे लोग ऐसा कुछ भी करेंगे तो उसके परिणामस्वरूप उन्हें क्या भुगतना पड़ेगा। मेरे मन में यह सवाल इसलिए भी उठा क्योंकि कोलकाता के आसपास के हिस्से में 2 साल पहले मैं एक सप्ताह रहकर आया और वहां जाने का उद्देश्य भी यही था कि वहां कि सांप्रदायिक स्थिति को समझा जाए। मैंने वहां मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा को देखा है।

जानी-मानी अमेरिकी पत्रकार जेनेट लेवी ने अमेरिकन थिंकर नामक पत्रिका में 'The Muslim Takeover of West Bengal'  शीर्षक से लिखे गए लेख में लेखिका ने 2013 के उस दौर का जिक्र भी किया था जब पहली बार बंगाल के कुछ कट्टरपंथी मौलानाओं ने अलग ‘मुगलिस्तान’ की मांग शुरू कर दी थी। उसी साल बंगाल में हुए दंगों में सैकड़ों हिंदुओं के घर तथा दुकानें लूटी गईं और कई मंदिरों को तोड़ दिया गया। ममता बनर्जी पर आरोप भी लगा था कि सरकार की तरफ से ऑर्डर दिया गया था कि दंगाई मुसलमानों पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। आरोप के मुताबिक, ममता को डर था कि मुसलमानों को रोका गया तो वे नाराज हो जाएंगे और वोट नहीं देंगे। इस आरोप में सच्चाई इसलिए नजर आती है क्योंकि उन दंगों के आरोपियों को अब तक किसी तरह की सजा नहीं हुई है।

जेनेट ने लेख में बताया गया था कि पश्चिम बंगाल के जिन जिलों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है वहां पर वे हिंदू कारोबारियों का बॉयकॉट करते हैं। मालदा, मुर्शिदाबाद और उत्तरी दिनाजपुर जिलों में मुसलमान हिंदुओं की दुकानों से सामान तक नहीं खरीदते। इसी कारण बड़ी संख्या में हिंदुओं को घर और कारोबार छोड़कर दूसरी जगहों पर जाना पड़ा। ये वो जिले हैं जहां हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। लेकिन इन विषयों पर ना तो हमारी मीडिया बोलेगी और ना ही हमारे नेता...

जून 2014 में ममता बनर्जी ने अहमद हसन इमरान नामक प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी के सह-संस्थापक को अपनी पार्टी के टिकट पर राज्यसभा भेजा। उस पर आरोप था कि उसने शारदा चिटफंड घोटाले का पैसा बांग्लादेश के जिहादी संगठन जमात-ए-इस्लामी तक पहुंचाया, ताकि वे बांग्लादेश में दंगे भड़का सके। हसन इमरान के खिलाफ अभी एनआईए और सीबीआई की जांच चल रही है। हालांकि प्राथमिक रिपोर्ट में जांच एजेंसियों ने कहा है कि उनकी अब तक की जांच में ऐसा कोई लिंक नहीं मिला है और आगे की जांच जारी है। इसके अलावा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी उसके रिश्ते होने के आरोप लगते रहे हैं। क्या ऐसे लोगों को राज्यसभा भेजने वाली पार्टी और उस पार्टी की कार्यपद्धति पर सवाल उठाने की जिम्मेदारी मीडिया की नहीं है?


इन सबके बावजूद अगर मैं किसी एक समुदाय को गालियां दूं तो गलत होगा। क्योंकि मेरा हिंदुस्तान मंदिरों में तोड़फोड़ करने वाले मुस्लिमों और कथित तौर पर जुलूसों पर हमला करने वाले हिंदुओं से नहीं बनता। मेरा हिंदुस्तान तो तब बनता है जब सुबह घर में बजने वाले राधा के भजन को शकील बदायुनी द्वारा लिखा जाता है, उसी भजन को नौशाद साहब द्वारा संगीत दिया जाता है, मोहम्मद रफी साहब उसे अपनी आवाज देते हैं और जब फिल्माने की बारी आती है तो उसे युसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार पर फिल्माया जाता है।

मेरा हिंदुस्तान तो तब बनता है जब ईद उल मिलाद के जुलूस के दौरान हिंदू परिवार बाहर निकल कर मुस्लिम भाईयों को पानी और चाय पिलाते हैं। हां! मुझे शर्म आती है कि मैं एक ऐसे देश में रहता हूं जहां मजहब के नाम पर वोट तो लिए जाते हैं लेकिन मजहब की बुराईयों के बारे में बोलने से डर लगता है। लेकिन इस शर्म के बीच मुझे एक गर्व भी होता है कि मैं एक ऐसे देश में रहता हूं जहां पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले में स्थिति धारन गांव में वर्षों से बंद पड़ी दुर्गा पूजा को वहां के बहुसंख्यक मुस्लिम यह कहकर शुरू करवाते हैं कि वे दुर्गा पूजा के दौरान हिंदू भाइयों के दुखी चेहरे नहीं देख पा रहे।

Thursday 22 December 2016

नोटबंदी: लंबी लाइनों से छुटकारे का यही एक रास्ता

देश में एटीएम और बैंकों के बाहर लाइनें छोटी होने का नाम नहीं ले रही हैं। इन लाइनों से कैसे निपटा जाएगा? 8 नवंबर की शाम को पीएम नरेंद्र मोदी ने देश से वादा किया था कि दिसंबर अंत तक सब कुछ ठीक हो जाएगा लेकिन अभी तक का माहौल देखकर तो नहीं लगता कि इतनी जल्दी सबकुछ सामान्य हो पाएगा। आपको क्या लगता है कि सरकार नोट छापती जाएगी और फिर सरकार ने जिस उद्देश्य के साथ विमुद्रीकरण का फैसला लिया था, वह उद्देश्य पूरा हो जाएगा? बिलकुल नहीं। सरकार जितने ज्यादा नोट छापेगी, उससे नुकसान हमें और आपको होगा। क्योंकि यदि पुरानी मात्रा में ही नोट छपते गए तो फिर उनका भंडारण शुरू हो जाएगा और स्थिति जैसी थी, उससे भी बदतर हो जाएगी, क्योंकि अब तो 2000 का नोट भी है।
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किसी से भी पूछो कि भाई विमुद्रीकरण का फैसला कैसा है? जवाब यही मिलता है कि फैसला बहुत अच्छा है लेकिन सरकार को नोट ज्यादा छापने चाहिए, सरकार ने तैयारियां नहीं की। लेकिन जब उनसे कहो कि इसमें हम क्या कर सकते हैं तो वे मौन हो जाते हैं। हमने व्यक्तिगत रूप से देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी के बारे में कभी सोचा ही नहीं। हम तो यह मानकर बैठे हैं कि सरकार तो है ही सबकुछ करने के लिए लेकिन हमें समझना होगा कि सरकार तब तक कुछ नहीं कर सकती जब तक हम खुद सरकार के साथ खड़े होकर देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें।

RBI के अनुसार 31 मार्च 2016 तक भारत में 16.42 लाख करोड़ रूपये मूल्य के नोट बाजार में थे जिसमें से करीब 14.18 लाख रुपये 500 और 1000 के नोटों के रूप में थे। RBI की रिपोर्ट के अनुसार देश में तब तक मौजूद कुल 9026 करोड़ नोटों में करीब 24 प्रतिशत नोट (करीब 2203 करोड़ रुपये) ही प्रचलन में थे।

एक अनुमान के अनुसार देश की कुल मुद्रा प्रसार में 25 प्रतिशत तक नकली करंसी है। इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट और नैशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी की ओर से किये गए संयुक्त अध्ययन में यह पाया गया कि लगभग 70 करोड़ रुपये की नकली मुद्रा हर साल चलन में आ जाती है। इसमें से सिर्फ एक तिहाई जाली मुद्रा ही पकड़ी जाती है और बाकी हमारी अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। इन सबसे नुकसान किसका होता है? सिर्फ और सिर्फ हमारे देश की अर्थव्यवस्था का? नहीं…. हमें समझना होगा कि इससे अप्रत्यक्ष रूप से हमारा नुकसान होता है और इस नुकसान से बचने के लिए हमें अपनी जिम्मेदारी तय करनी ही होगी।

आज जरूरत है कि हम कैशलेस इकॉनमी की ओर चलने की कोशिश करें। सरकार के इनकम टैक्स का बड़ा स्त्रोत नौकरीपेशा वाला वर्ग है जबकि कारोबारी समुदाय अपनी आय छिपाने में काफी हद तक कामयाब हो जाते हैं। जब लोगों के आय-व्यय की जानकारी ऑनलाइन हो जायेगी तो निश्चित ही सरकार के राजस्व में बड़ी बढ़ोतरी होगी। इसके अलावा भी कैशलेस इकॉनमी के बहुत से फायदे हैं।

हम जितना अधिक कैश का उपयोग करते हैं, ब्लैकमनी के जमा होने की संभावना उतनी ही अधिक रहती है। ब्लैकमनी से हमारी अर्थव्यवस्था के समानांतर एक और अर्थव्यवस्था तैयार हो जाती है, जिसका सरकार के पास कोई हिसाब नहीं होता। ऐसे में टैक्स चोरी भी काफी ज्यादा होती है। यदि हमारी अर्थव्यवस्था कम से कम कैश वाली होगी तो सरकारी कोष में टैक्स के रूप में अधिकतम पैसा पहुंचेगा और उसका सीधा फायदा हमें यानी आम आदमी को होगा।

कैशलेस व्यवस्था अपनाने से नोट छापने पर होने वाला खर्च बचेगा, नकली नोट का व्यापार खत्म होगा, कागज की बचत होगी, भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी, आतंकवाद और नक्सलवाद कम होगा। इसके अलावा इस व्यवस्था को अपनाने से हमें और भी कई फायदे होंगे।

मैं मानता हूं कि भारत एक झटके में कैशलेस नहीं हो सकता क्योंकि असली भारत तो गांव में बसता है। भारत में वे लोग भी हैं जो इंटरनेट छोड़िए, मोबाइल चलाने भी नहीं जानते। लेकिन हम तो उस श्रेणी में नहीं आते। हम तो मोबाइल, इंटरनेट का भरपूर उपयोग अपने दैनिक जीवन में करते हैं। क्या हम व्यक्तिगत स्तर पर यह प्रयास कर सकते हैं कि अपने परिवार में, अपने परिचितों में और दैनिक जीवन में मिलने वाले लोगों को कम से कम कैश प्रयोग करने के तरीके और उसके फायदे बता सकें? क्या हम अपने व्यक्तिगत जीवन में यह संकल्प कर सकते हैं कि जहां तक संभव होगा बिना कैश के ही जीवन जीने का प्रयास करेंगे? विश्वास मानिए, पिछले 43 दिनों के अनुभव के आधार पर बता रहा हूं कि यह बहुत आसान है।

भारत के वित्त मंत्री अरुण जेटली जी ने भी कह दिया है कि बैन की गई करंसी के बराबर की रकम के नोट दोबारा से नहीं छापे जाएंगे। यहां क्लिक कर पढ़ें जेटली का पूरा बयान। ऐसे में पहले जैसी स्थितियां कभी नहीं आने वालीं। इन लंबी लाइनों से निपटने का एक रास्ता है कि हम मिनिमम कैश का प्रयोग करें। कैश को घर में संचित करके ना रखें। क्योंकि अगर आपने ऐसा किया तो इसका सीधा नुकसान उसे हो रहा है जो दिन भर मजदूरी करके शाम को उसी पैसे से रोटी खरीदता है, उसके पास ना ही बैंक अकाउंट है और ना ही मोबाइल। अब जरूरत है कि हम अपनी जिम्मेदारी समझें और यह मानकर चलें कि आज आप गरीबों के लिए कुछ करने की स्थिति में आए हैं।

मेरे बहुत से परिचित हैं जिन्होंने लाखों रुपये के नए नोट जमा करके रखें हैं। हालांकि वह पूरी तरह से पाक-साफ पैसा है लेकिन फिर भी कैश को संग्रहित करना व्यक्तिवादिता और ‘सिर्फ मैं’ की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है। वे पढ़े-लिखे भी हैं लेकिन अपना पूरा काम कैश से ही कर रहे हैं। समस्या बस इतनी है कि हमने कभी अपनी जिम्मेदारी समझी ही नहीं। हम गरीबी हटाओ के नारे तो लगाते रहे लेकिन कभी इस बारे में सोचने की कोशिश नहीं की कि हम गरीबों और पिछड़ों के लिए क्या कर सकते हैं।

आज हर एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास एक मौका है कि वह पिछड़ों के लिए कुछ कर सके। कम से कम इतना तो जरूर कि लोगों को ऑनलाइन और कैशलेस व्यवस्था के बारे में जागरुक करें…साथ ही अपनी आर्थिक यात्रा को लेस कैश से कैशलेस तक ले जाएं…. इन लंबी-लंबी लाइनों से निपटने का और कोई रास्ता नहीं…

Sunday 18 December 2016

MCU के विद्यार्थियों के नाम खुला पत्र

10 जुलाई 2013, सुबह 7 बजे वेटिंग टिकट के साथ दिल्ली पहुंचा। पता ही नहीं था कि मैंने जिस विश्वविद्यालय में एडमिशन लिया है, उसका परिसर गाजियाबाद रेलवे स्टेशन से करीब पड़ता है। खैर, दिल्ली से ऑटो लेकर कैंपस के सामने गुप्ता जी की दुकान पर पहुंचा। ना तो किसी को यहां जानता था और ना ही आने से पहले किसी सीनियर या शिक्षक से बात की थी। इसलिए गुप्ताजी की दुकान पर चाय पी और सामान उन्हीं के पास छोड़कर एक अनजान शहर में रूम खोजने लगा। 2 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद 5500 रुपए में एक रूम मिला, जिसमें ना ही कोई अलमारी थी और ना ही उस भयंकर गर्मी को कम करने के लिए कोई पंखा। मरता क्या ना करता, अडवांस किराया दिया, गुप्ता जी के यहां से सामान लेकर आया और फिर मार्केट में बाल्टी वगैरह जैसी चीजें लेने निकल गया। सुबह 10 बजे बी ब्लॉक मार्केट से कुछ जरूरी सामान लेकर वापस रूम पर आया और नहाकर कैंपस जाने के लिए निकल गया।

5 सालों तक कैंपस में सिर्फ नेतागिरी ही की थी। छात्रराजनीति के उस दौर से भारत के सबसे बड़े मीडिया संस्थान में वैचारिक संघर्ष करने तक के सफर ने जिंदगी को नए आयाम दिए। 10 जुलाई से अगले 8 दिनों तक जो झेला, उसे झेलकर तय कर लिया था कि कैंपस में आने वाले विद्यार्थियों की जितनी मदद हो सकेगी, करूंगा। अपने बैच के विद्यार्थियों से लेकर वर्तमान बैच के पचासों छात्र नोएडा आते ही सबसे पहले मेरे पास रुके। 18 जुलाई को जब पहली बार रूम बदला तो हमेशा ऐसे ही रूम लिए जहां किसी के भी किसी भी समय आने जाने पर कोई पाबंदी ना हो। मेरे बाद के बैच के बहुत से छात्र जो नोएडा आने के बाद मेरे रूम पर रुके थे, आज नौकरी करते हैं। उनकी शिकायत रहती है कि मैं उनसे मिलने नहीं आता, उनको फोन नहीं करता। लेकिन मैं क्या करूं, मैं भी उनके साथ रहना चाहता हूं, उनसे बातें करना चाहता हूं, आधी रात को उनके साथ बैठकर चाय पीना चाहता हूं, लेकिन मेरे प्रफेशनल जीवन की कुछ मजबूरियां हैं। मैं चाहकर भी वह सब नहीं कर पा रहा क्योंकि मैं जहां हूं, उस जीवन की बंदिशों ने मुझे जकड़ रखा है। नोएडा आने के बाद मुझे एमसीयू के गुरुजनों ने राष्ट्र और समाज के प्रति जिस दायित्व का बोध कराया मैं उसे नहीं छोड़ सकता और इसी के साथ मैं उस विश्वविद्यालय के प्रति अपने दायित्व को भी नहीं छोड़ सकता जिसने एक आत्ममुग्ध और गैरजिम्मेदार लड़के की शून्य में समाहित प्रतिभा को नए आयाम दिए।

हर दूसरे-तीसरे दिन कैंपस जाता हूं। वर्तमान छात्रों से व्यक्तिगत रूप से बात करता हूं, उनको विश्वास दिलाता हूं कि कभी खुद को अकेला मत समझना, उनसे दोस्त की तरह बात करता हूं, उन्हें उस दिन के बारे में बताता हूं जब तिलक लगाने की वजह से एक प्रतिष्ठित समाचार संस्थान के समाचार संपादक ने मुझे नौकरी देने से मना कर दिया था। उनसे मेरा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध नहीं होने वाला लेकिन मैं जानता हूं कि अगर आज मैंने प्यार से उनके सिर पर हाथ फेर दिया, उन्हें गले लगा लिया तो वे कभी हार नहीं मानेंगे। लेकिन पीड़ा होती है जब देखता हूं कि मेरे ही साथ के लोग, मेरे कुछ सीनियर्स अपने विश्वविद्यालय को गालियां देते हैं, अपने शिक्षकों के, अपने कुलपति के नाम को उल्टा-सीधा करके लिखते हैं। वे जिस संस्थान में काम करते हैं वहां विश्वविद्यालय के खिलाफ खबरें लिखते हैं, सोशल मीडिया पर विश्वविद्यालय को गालियां देते हैं।

इन लोगों की समस्या यह नहीं है कि परिसर में उन्हें पर्याप्त संसाधन नहीं मिले बल्कि उनकी समस्या यह है कि उनका कोई शिक्षक अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी खास विचार परिवार के अग्रणी संगठन से जुड़ा था, उनकी समस्या यह है कि वे कैंपस की जिस लड़की से प्यार करते थे, उसने उनके प्यार के प्रस्ताव पर 'ना' कह दिया था, उनकी समस्या यह है कि उनके विश्वविद्यालय के निदेशक संघ के कार्यक्रमों में जाते थे, उनकी समस्या यह है कि उनके एचओडी ने उनको नौकरी नहीं दिलाई। क्या गजब के फर्जी और आधारहीन तर्क हैं। अभी 2 दिन पहले 'अलम्नाई मीट' का कार्यक्रम था, उसमें मेरे ही बैच की एक लड़की सिर्फ इसलिए नहीं आई क्योंकि वह जिस लड़के से प्यार करने लगी थी, वह किसी और से प्यार करता था। अरे इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि 2 सालों की पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय ने उनसे क्या लिया? फीस के नाम पर जो चिल्लर लिए गए, उनके बदले क्या चाहते हो? कोई शिक्षक आपको संस्थान तक पहुंचा सकता है, आपकी जगह नौकरी नहीं कर सकता, वह आपके व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं के लिए जिम्मेदार नहीं है। उन शिक्षकों के दिल के दर्द को क्या कभी इन लोगों ने महसूस करने की कोशिश की है। बहुत योग्यता होगी आप में, प्रतिभा के हिमालय शिखर की नींव होंगे आप, हनुमान होंगे आप लेकिन याद रखिएगा हनुमान को अपनी क्षमता का अंदाजा तब तक नहीं हुआ था जब तक जामवंत ने उन्हें उनकी शक्ति के विषय में बताया नहीं था। आज आपकी कलम से लिखा गया एक-एक अक्षर, आपके मुंह से निकला एक-एक शब्द उन शिक्षक रूपी जामवंतों का कर्जदार होना चाहिए जिन्होंने आपको अहसास दिलाया कि आप में योग्यता, क्षमता और प्रतिभा का अपार भंडार है।

पिछले साढ़े तीन सालों में मैं बहुत बड़े-बड़े लोगों से मिला। मैं ऐसे लोगों से मिला जिन्हें 4 साल पहले तक दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर पढ़ता था, जिन्हें प्राइम टाइम में देखकर लगता था कि बस देश इनको मिल जाए तो देश से गरीबी मिट जाएगी, लेकिन पिछले साढ़े 3 सालों में मुझे पता लगा कि जो लोग बड़े दिखते हैं, वे बड़े होते नहीं। और जो सच में बड़े होते हैं, वे अपने बड़प्पन को प्रदर्शित नहीं करते। 

मेरे एक मित्र हाल ही में हुए दिल्ली सम्मेलन की कमियां गिनाते हुए बोले कि क्यों गौरव! मजा नहीं आया ना? मैंने उनसे कहा कि विश्वविद्यालय द्वारा कराया गया सम्मेलन हम सभी पूर्व विद्यार्थियों की विफलता यानी नाकामी का मानक है। यदि हमने अपनी जिम्मेदारी समझी होती और उसका निर्वहन किया होता तो उस सम्मेलन में शिक्षक हमें नहीं बल्कि हम उन्हें स्मृतिचिन्ह दे रहे होते। 

मैंने नोएडा परिसर में विद्यार्थियों की गलती पर अरुण भगत जी जैसे मजबूत शिक्षकों को बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोते देखा है, मैंने बीएस निगम और सूर्यप्रकाश जी जैसे शिक्षकों से पितातुल्य प्रेम पाया है, मैंने रजनी नागपाल जी की ममता पाई है जिन्होंने कभी घर से 500 किलोमीटर दूर मां की कमी महसूस नहीं होने दी, मैंने राकेश योगी जैसे कवि हृदय व्यक्ति से बड़े भाई जैसे अधिकारभाव के साथ डांट खाई है। दोस्तो, लाख कमियां होंगी विश्वविद्यालय में लेकिन याद रखिएगा, वह राष्ट्र कभी प्रगति नहीं कर पाता जो अपने शिक्षकों को, अपने गुरुजनों को सम्मान देना बंद कर देता है। आप अपने जीवन में कितनी भी ऊपर पहुंच जाएं लेकिन उस सीढ़ी पर कभी उंगली मत उठाइएगा जिसने आपको ऊपर पहुंचाया है... क्योंकि वह प्रश्नचिन्ह आप किसी और पर नहीं बल्कि खुद पर लगा रहे होंगे....

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Tuesday 13 December 2016

नोटबंदी के बाद लंबी लाइनों के लिए मोदी नहीं, हम जिम्मेदार हैं

15 अगस्त 1947 को हम आजाद हुए थे लेकिन आज 2016 के हालात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम सचमुच आजादी के अधिकारी थे? आइए, आज उन परिस्थितियों पर बात करते हैं जिन्हें महसूस करके मुझे अपनी ‘आजादी’ पर सवाल उठाना पड़ रहा है:

1000 और 500 के पुराने नोट बैन हुए 1 महीने से अधिक का समय बीत चुका है। जब विमुद्रीकरण का यह फैसला आया था तो मन में उम्मीद थी कि लगभग 1 महीने में सब कुछ ठीक हो जाएगा लेकिन हालात जैसे तब थे, आज भी वैसे ही हैं। वही लंबी-लंबी लाइनें, अपनी सब्जी की दुकान बंद करके बैंकों के बाहर सुबह से शाम तक खड़ा रहने के बावजूद खाली हाथ वापस लौटने वाला वही मायूस बुजुर्ग, कैश की कमी के चलते अपनी दुकान के लिए सामान न खरीद पाने के कारण दुकान बंद करके घर में बैठकर सुबगती वह विधवा महिला…. सब कुछ वैसा ही। लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार कौन है? नरेन्द्र मोदी? भारत सरकार? रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया? उर्जित पटेल? या फिर सरकार को विमुद्रीकरण की राय देने वाले लोग? सही मायनों में देखा जाए तो आज के हालातों के लिए इनमें से कोई भी जिम्मेदार नहीं है। आज के हालातों के लिए ‘हम’ यानी आम आदमी जिम्मेदार है। बताता हूं ऐसा क्यों और कैसे।

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क्या आपने कभी सोचा है कि जिन लोगों के पास से करोड़ों रुपए के नए नोट पकड़े जा रहे हैं, उनके पास ये नए नोट आए कहां से? उन तक नए नोट नरेन्द्र मोदी या आरबीआई ने तो नहीं पहुंचाए होंगे। तो फिर उन लोगों के पास नए नोट आ कहां से रहे हैं? नए नोट सरकार ने मुख्य रूप से बैंकों और पोस्ट ऑफिसों को उपलब्ध कराए थे। यानी सीधी सी बात है कि नए नोटों को आम आदमी तक ना पहुंचा कर चंद पैसों या संबंधों के कारण बैंक और पोस्ट ऑफिस वाले गलत हाथों में पहुंचा रहे हैं। इस बात का अनुभव मैंने खुद किया है।

9 नवंबर को रुद्राभिषेक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए घर जाना हुआ। कार्यक्रम में होने वाले खर्चों के लिए घर में कैश की व्यवस्था की गई थी। 10 को एक भंडारे का भी आयोजन था। इस तरह के कार्यक्रमों में बहुत छोटी-छोटी चीजें खरीदनी होती हैं। लेकिन पुराने नोट बैन होने की वजह से उन चीजों को संबंधों के आधार पर उधार ही खरीदना पड़ा। इन सभी खर्चों को लेकर मेरे बाबा जी काफी परेशान थे। 11 नवंबर को आयोजित भंडारे में शामिल होने के लिए मेरे एक दूर के रिश्तेदार जो कि एक पोस्ट ऑफिस में पोस्टमास्टर हैं, वह भी आए हुए थे।
उनके सामने जब इस विषय को लेकर चर्चा होने लगी तो वह बाबा जी से बोले, ‘अरे चाचा, आप बताइए कि कितने के नए नोट चाहिए। कल से आज तक में 40 लाख रुपए अपने परिचितों को बदल कर दे चुका हूं।’ उनके अलावा बैंक में कार्यरत मेरे कई मित्रों सहित रिश्तेदार तक इसी तरह के ऑफर्स दे चुके हैं। एक बात तो साफ है कि जिन लोगों ने कैश के रूप में अपना ब्लैकमनी घर में रखा था उन्होंने साम, दाम, दंड का प्रयोग करके उसे वाइट कर लिया है और लगातार कर रहे हैं। नए नोटों को वे पुरानी तरह से ही अपने घर में छिपाकर रखेंगे और आप एटीएम और बैंक की लाइन में लगे रहेंगे।

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जो लोग इस तरह के गलत कामों में शामिल हैं (बैंक और पोस्ट ऑफिस के कर्मचारी) वे भी आम आदमी ही हैं। लेकिन वे आपका हक मारकर अपनी पॉकेट भरने और संबंध बनाने में लगे हैं। लेकिन हम पीएम को जिम्मेदार मानते हैं। एक बार कल्पना करिए कि हम पर अंग्रेजों का शासन था, भारत उनका देश नहीं लेकिन उनका बनाया हावड़ा ब्रिज आज तक वैसे ही खड़ा है। लेकिन जो पुल भारत सरकार ने अपने ही देश के ठेकेदारों से बनवाए उनके टूटने की खबर हमें मीडिया के माध्यम से मिलती ही रहती है। हमने और आपने व्यक्ति के रूप में भले ही कितना ही विकास कर लिया हो लेकिन एक राष्ट्र के रूप में, एक देश के रूप में हम जहां थे, उससे और भी पीछे चले गए और यही कारण है कि कतारों में आम लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। भले ही आप किसी तरह का भ्रष्टाचार ना कर रहे हों लेकिन हमारे आपके ‘अपने’ ही देश को पीछे, बहुत पीछे ले जाने में लगे हैं।
मेरा देश बदल रहा है लेकिन वह सकारात्मक दिशा में नहीं जा रहा। मेरे देश को पीछे ले जाने में हमारे अपने लोग ही लगे हुए हैं और हम चुपचाप देखते रहते हैं। आखिर हम कर भी क्या सकते हैं? हम सिर्फ सरकार को, उसकी नीतियों को गलत बताकर गालियां दे सकते हैं। याद रखिएगा, जब तक मैं और आप नहीं बदलेंगे, तब तक ‘अच्छे दिन’ नहीं आने वाले।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...