Thursday 31 December 2015

उस साल की वो आखिरी रात...

31 दिसंबर 2006, की सुबह 10 बजे मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा आयोजित प्राथमिक शिक्षा वर्ग (ITC) पूर्ण करके घर पहुंचा। 8 दिनों तक बिना किसी बाहरी संपर्क के बस 283 लोगों के साथ अपना एक अलग समाज बन गया था। वर्ग स्थल से निकलते समय आंखों में आंसू थे लेकिन घर पहुंचते पहुंचते सब सामान्य हो गया। घर पहुंचते ही सबसे पहले मोबाइल ऑन किया और उसे चार्जिंग पर लगाया। उन दिनों संघ के कैंप में मोबाइल पूरी तरह से प्रतिबंधित था और मेरे पास Bird का मोबाइल हुआ करता था जिसमें एयरटेल का सिम था। 1.99 रुपए कॉलरेट के उस दौर में पिता जी महीने में 50 रुपए का रिचार्ज कराते थे यानि बात करने के लिए मिलते थे 21 मिनट। उनके अनुसार मुझे कहीं बात करने की जरूरत ही नहीं थी क्यों कि परिवार के सभी सदस्य मेरी कॉल को काट कर कॉल बैक करते थे। मिसकॉल के उस दौर में मैंने शाम पांच बजे उसे कॉल की तो उसकी मां ने फोन उठाया। उसकी मां से मैंने कहा कि मुझे राहुल से बात करनी है तो उन्होंने रॉन्ग नंबर कहते हुए फोन काट दिया। उसी कॉल के साथ मेरा बैलेंस भी खत्म हो गया।






उन दिनों जब भी उसकी मां या पापा फोन उठाते थे तो मन में जो भी नाम आता था उसे ले लेता था। क्या प्यार था, यही सोचता था कि अगर उसका नाम लिया तो उसके सामने कई सवाल खड़े हो जाएंगे। पिछले 5 महीने में ऐसा पहली बार हुआ था जब मैं उससे लगातार 8 दिन मिला नहीं था। मिलना तो छोड़िए उसकी आवाज भी नहीं सुनी थी। 31 की शाम को शाखा पर अंग्रेजी नववर्ष और वर्ष प्रतिपदा (भारतीय नववर्ष) पर एक लंबा चौड़ा भाषण दिया और शाखा खत्म होते ही अपनी अंग्रजी की ट्यूशन पढ़ने के लिए निकला लेकिन वहां ना जाकर उसके घर के नीचे खड़ा हो गया इस उम्मीद के साथ कि शायद वह बॉलकनी में आ जाए और उसका चेहरा मुझे दिख जाए लेकिन 1 घंटे के इंतजार के बाद भी वह नहीं आई। बैलेंसहीन मोबाइल होने की वजह से मिसकॉल भी नहीं कर सकता था। अंधेरा भी काफी हो गया था और पिताजी का फोन भी आ चुका था तो वापस जाना ही बेहतर समझा। वापस पहुंचने पर उसकी पसंदीदा फिल्म मोहब्बतें लगाई और देखने लगा।

मेरे घर पर रात 9 बजे के बात टीवी देखने की अनुमति नहीं थी। उस दिन भी दादी जी ने आकर कहा कि अब इसे बंद करके खाना खा लो तो मैंने कहा कि आप सब लोग खाकर सो जाओ मैं देर से खाऊंगा क्यों कि 8 दिनों तक टीवी से दूर रहा हूं तो आज देखने की बहुत इच्छा है। क्या बहाने थे...खैर.... रात में फिल्म खत्म होने के बाद दुबारा से लगा ली। कई सारी शंकाएं मन में आ रही थीं कि कहीं ऐसी कौन सी वजह है जिसकी वजह से वह बात नहीं कर रही? कहीं मुझसे कोई गलती तो नहीं हो गई, कहीं वह नाराजगी के चलते हमेशा के लिए बात करना ना बंद कर दे... यही सब सोचते सोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं लगा। अगली सुबह बाबा जी ने 5 बजे जगाया लेकिन नींद पूरी ना होने के कारण मैं सर दर्द का बहाना बनाकर फिर से सो गया। उस दौरान शीतकालीन अवकाश चल रहा था तो कॉलेज की परेशानी भी नहीं थी

सुबह साढ़े 10 बजे नींद पूरी हुई... तो फ्रेश होने के बाद मोबाइल चेक किया तो देखा कि उसके नंबर से 3 मिसकॉल पड़ी हैं। अब बैलेंस ना होने की वजह से ना ही मैं कॉल कर सकता था और ना ही मेरे पास पैसे थे। और अचानक किसी नई किताब के लिए भी पैसे नहीं ले सकता था तो एक नया बहाना बनाया। मैंने घर पर कहा कि मैम का फोन आया है आज अभी ट्यूशन पढ़ने जाना है और नीचे जाकर साइकल की हवा निकाल दी फिर वापस आकर बाबा से कहा कि बाबा साइकल पंचर है और कोचिंग जाना बहुत जरूरी है तो 10 रुपए देकर बोले कि जाओ रास्ते में साइकल सही कराकर चले जाना। मैंने उनसे पैसे लिए और रास्ते में जाकर खुद से हवा भरी। रास्ते भर क्वाइन बॉक्स वाला पीसीओ ढ़ूढता रहा सिससे कि 1 रुपए में बात हो जाए। उसकी कॉलोनी के पास में ही एक पीसीओ मिला। वहां से मैंने उसे डरते डरते कॉल की। उसने जैसे ही फोन उठाकर हेल्लो बोला... ऐसा लगा जैसे दुनिया कि सारी खुशियां मिल गईं। उस दौर में मैं यह नहीं समझता था कि ऐसी खुशियां क्षणिक होती हैं जिनमें कोई स्थायित्व नहीं होता।

जब मैंने हेलो बोला तो उसने कहा, 'गौरव कहां हो तुम? मैं कब से तुम्हें कॉल कर रही हूं... ऐसा कौन सा कैंप होता है जहां बात भी नहीं की जा सकती।' मैं कुछ बोलता इससे पहले ही उसने कहा, 'सब लोग न्यू ईयर पर 1 घंटे में चंद्रिका देवी मंदिर जा रहे हैं.. तुम घर आ जाओ.. हम लोग बैठ कर ढ़ेर सारी बातें करेंगे।' यह सुनते ही लगा जैसे रात को मेरी आंखों में आई नमी को मेरे श्रीराम ने महसूस कर लिया।

मैं तुरंत वापस गया और कपड़े बदलने लगा। बाबा ने पूछा कि क्या हुआ तो मैंने बोला कि ठंड लग रही थी इस लिए सोचा कि एक स्वेटर और पहन लूं। कुछ ही मिनटों में मैं उसके गेट पर था। बेल बजाने पर उसने दरवाजा खोला और अंदर आकर बैठने को कहा और खुद पानी लेने चली गई... कुछ पलों के बाद सोफे पर मेरे ठीक बगल में वह बैठी थी। मैं उठकर उसके सामने बैठ गया और उससे कहा कि, आज मैं तुम्हें जी भरकर देखना चाहता हूं।

वह बार-बार बालकनी ले नीचे अपने मां-पापा को देखने जा रही थी। हम लोग एक साथ लगभग 3 घंटे बैठे रहे। उसने कई सवाल पूछे लेकिन मेरे पास किसी का जवाब नहीं था। मैं उसे नहीं बस उसे देखता जा रहा था। मैं उसे 'संघ' समझाने की स्थिति में नहीं था। मैं उसे यह नहीं बता सकता था कि मैं इतने दिनों तक कहां था। मैं उसमें खोया था कि अचानक सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आवाज आई, वह दौड़कर बालकनी में गई और वापस आकर बोली कि गौरव सब लोग आ गए, अब क्या होगा। मैं तुरंत उठा और उसके घर के ऊपर वाले फ्लोर पर चला गया। फिर लगभग 10 मिनट के इंतजार के बाद नीचे आकर देखा तो उसके घर का दरवाजा बंद था। सबसे सुकून भरा दिन था वह... ऐसा लगा जैसे उन 3 घंटों में सारी जिन्दगी जी ली हो। उसके साथ बिताए उन लम्हों के बारे में सोचते सोचते मैं घर पहुंचा और फिर से 'मोहब्बतें' लगा कर देखने लगा लेकिन इस बार वह फिल्म कुछ अलग लग रही थी। मेरे लिए 2007 की इससे बेहतर शुरुआत नहीं हो सकती थी।

पिछले साल 31 दिसंबर 2014 को मैं अपने दोस्तों के साथ 'क्वीन ऑफ हिल्स' कहे जाने वाली मसूरी में था। उन हसीन वादियों में अपनी क्वीन के बारे में सोच रहा था कि काश वह भी हमारे साथ होती। 31 की रात तो दीपक, सिद्धार्थ, शशिकांत और उत्कर्ष के साथ बीत गई लेकिन मैं अपनी जिन्दगी के नए साल यानी 2016 की शुरुआत अपनी क्वीन की आवाज सुनकर करना चाहता था। मैंने उसे कॉल किया लेकिन उसने फोन नहीं उठाया। पूरी रात सुबह के इंतजार में बीत रही थी। मैं अपने साथ-साथ अन्य दोस्तों को भी जागने पर मजबूर कर रहा था। उनको लग रहा था कि मैं उन लोगों के साथ नए साल के मजे लेना चाहता था लेकिन सच तो कुछ और ही था। मैं बस इतना चाहता था कि जल्दी से सुबह हो जाए और मैं उसे कॉल करके उसकी आवाज सुनूं। सुबह के 6 बजते-बजते सब सो गए और मैं होटल के बाहर टहलने निकल गया। सुबह का 8 बजा और उसका फोन भी... उसने फोन उठाते ही कहा 'इतनी रात में कॉल क्यों किया था?' मेरे पास कोई जवाब नहीं था, मेरा काम हो गया था। नए साल की शुरुआत में उसके द्वारा इस तरह के प्रश्न की अपेक्षा नहीं थी.... लेकिन आवाज सुन ली तो मन को सांत्वना दे दी कि यह साल बहुत ही बेहतर जाने वाला है... और सच में पिछला साल बहुत ही बेहतर गया... बहुत से चेहरे बेनकाब हो गए... उन बेनकाब चेहरों में एक चेहरा उसका भी था...

अंग्रेजी नववर्ष का विरोध क्यों? इस तरह मनाएं इसे.....

इस बार मैं अपने जीवन का दूसरा अंग्रेजी नववर्ष मनाऊंगा, जी हां, सही पढ़ा, दूसरा। 1 साल पहले तक मैं अंग्रेजी नववर्ष के उत्सव को नहीं मनाता था लेकिन जब दिसंबर 2014 में इस विषय पर चिंतन किया तो कोई ऐसा कारण नजर नहीं आया जिसके कारण अंग्रेजी नववर्ष का बहिष्कार किया जाए। जब हम अंग्रेजी तिथियों के अनुसार अब तक का अपना पूरा जीवन जी रहे हैं तो उस नववर्ष को मनाने में क्या बुराई है? यह बात मेरी समझ से परे है। रही बात प्रकृति की तो दीवाली भी ठंड में होती है, उसे पूरी ऊर्जा के साथ मनाते हैं तो 31 दिसंबर को या 1 जनवरी को क्यों इतनी ठंड लगती है? यह मुझे समझ में नहीं आ रहा। मैं इसे गुलामी के पर्व के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे दिन के रूप में लेता हूं जिस दिन पूरी दुनिया, शराब और शबाब के नशे में डूबी होती है उस दिन हम भारत के लोग कुछ अच्छा करने का संकल्प ले रहे होते हैं। पिछले साल की तरह ही इस बार भी 31 दिसंबर की रात आगामी अंग्रेजी नववर्ष के लिए एक संकल्प लेने की रात होगी।

जैसा कि मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि मैं बहुत ही स्वार्थी किस्म का व्यक्ति हूं और अंग्रेजी नववर्ष के उत्सव को मनाना के पीछे भी मेरा एक स्वार्थ है। प्रत्येक वर्ष भारतीय नववर्ष के प्रारम्भ में मैं एक संकल्प लेता हूं और प्रयास करता हूं कि उस संकल्प को पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से पूर्ण कर सकूं। लेकिन पिछले साल से वैसा ही एक संकल्प अंग्रेजी नववर्ष पर लेना शुरू किया। इससे अब एक साल में मेरे दो-दो संकल्प हो जाते हैं। दोस्तों, भारत में बहुत ही उत्सवधर्मी प्रकृति के लोग रहते हैं। छोटी छोटी बातों में खुशियां ढ़ूढना हमारी खासियत है। अपने जीवन में हर दिन हम खुश रहने के बहाने ढूढ़ते हैं तो अंग्रेजी नववर्ष में हम अपनी खुशियां क्यों नहीं ढ़ूढ सकते? क्यों हम इस दिन कुछ नया और समाज के लिए अच्छा करने का संकल्प नहीं कर सकते? मैंने तो सोच लिया है कि मैं इस साल आने वाले हर पर्व पर अपने आस पास के एक बच्चे को खुशी देने की कोशिश करूंगा। बहुत छोटी सी कोशिश है लेकिन मैं इसी में अपनी खुशी खोजने की कोशिश करूंगा। कुछ अच्छा करने के लिए हमें एक बहाना चाहिए होता है। उस बहाने के रूप में मेरा यह संकल्प काम करेगा।



मैंने पिछले वर्ष संकल्प किया था कि पूरे साल में सिर्फ एक व्यक्ति की नकारात्मकता दूर करूंगा और जब उसकी नकारात्मकता दूर हो जाएगी तो मैं उससे निवेदन करूंगा कि अपने किसी परिचित की नकारात्मकता दूर करे। इसके लिए मैंने एक ऐसे लड़के को चुना था जो अपने आगे किसी की नहीं सुनता था। बहुत बचपना था उसमें, उम्मीद थी कि एक साल में मैं जरूर सफल हो जाऊंगा। लेकिन मुझे खुशी है कि ईश्वर की कृपा से मैं 8 महीनों में ही सफल हो गया। यह बात आज भी उस लड़के को नहीं पता है कि उससे संबन्धित मैंने अपने जीवन में कोई संकल्प किया था। आज वह एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में कार्यरत है, मेरे साथ ही पढ़ता था। बहुत सी क्षमताएं थी उसमें लेकिन बस नकारात्मकता के कारण अपनी क्षमताओं को समझ नहीं पा रहा था। पिछली बार जब उससे 6 महीने के बाद मिला तो लगा कि चलो अंग्रेजी नववर्ष के कारण अपनी जिंदगी में कुछ तो अच्छा किया।
इस साल भी एक संकल्प लिया है औऱ मुझे पता है कि मैं उसे पूरा कर लूंगा। आप भी कुछ अच्छा करें तो अंग्रेजी नववर्ष को भारतीयता का रूप दे सकते हैं। तो आईए साथ मिलकर मनाते हैं अंग्रेजों के इस नए साल का जश्न, अपनों के साथ और अपनों के लिए.....लेकिन रुकिए इस नए साल के जश्न के चक्कर में भारतीय नए साल को भूल मत जाना....उस दिन भी कुछ अलग करना है और उस समय तो और अच्छे से कर पाएंगे क्यों कि प्रकृति भी हमारे साथ होगी...

वन्दे भारती...

Wednesday 30 December 2015

30 दिसंबर का एक यशस्वी सत्य

दोस्तों, आज 30 दिसंबर है, क्या आपको पता है कि हमारे इस परम पवित्र भारत वर्ष के लिए इस दिन का क्या महत्व है? शायद नहीं...संभव है कि आप इस दिन अगले दिन की तैयारियों में व्यस्त रहते हों...लेकिन इस तिथि के मायने कुछ और भी हैं। इस दिन क्या हुआ था इस बात पर चर्चा करने से पहले मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। क्या आप जानते हैं कि भारत का प्रथम स्वतंत्रता दिवस कब मनाया गया? निश्चित तौर पर आप 15 अगस्त 1947 ही कहेंगे लेकिन मैं उसे स्वतंत्रता दिवस नहीं मानता क्यों कि उस दिन तो मात्र हमारे देश में सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। हमारा देश से उससे 4 साल पहले ही आजाद हो चुका था। जी हां, आजादी का अर्थ होता है मानसिक आजादी, 30 दिसंबर 1943 को हमारे मन में स्वतंत्रता का भाव जागृत हो चुका था। इस दिन भारत के एक हिस्से को पूर्ण स्वतंत्रता मिली थी, लेकिन कौन सा भाग था वह, किसके सहयोग से आजादी मिली, किसने उस स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया, किसने आजादी के बाद उस क्षेत्र को संभाला, ये सारी बातें आपको नहीं पता होंगी, क्यों कि हमें यह सब पढ़ाया ही नहीं गया। हमारा पाठ्यक्रम अकबर और औरंगजेब के आसपास ही घूंता रहा। भारत के मूल इतिहास को पढ़ाने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी।

दोस्तों, 30 दिसंबर 1943 को सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज ने, जापानी सेना के सहयोग से अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह को ब्रिटिश शासन से आजाद कराकर, इसे भारत का प्रथम स्वाधीन प्रदेश घोषित किया था। इसी दिन मां भारती के वीर सपूत नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय स्वतंत्रता का जयघोष करते हुए पोर्ट ब्लेयर में, तिरंगा फहराकर वहां अपने मुख्यालय की स्थापना की थी। दीप समूह पर आजाद हिन्द फौज के कब्जे के बाद, सिंगापुर से भारत की अस्थायी सरकार के प्रमुख सुभाष चन्द्र बोस जी ने भारत की आजादी की घोषणा की और भारत की जनता से आजादी की रक्षा करने का आह्वान किया था।

इस आधार पर हमारा पहला स्वतंत्रता दिवस 30 दिसंबर, 1943 को मनाया गया। उस दिन नेता जी ने एक घोषणा पत्र जारी किया था, जिसमें उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, प्रथम विदेश मंत्री और प्रथम राज्य प्रमुख के रूप में भारत के प्रति निष्ठा की शपथ ली थी।

उनके घोषणा पत्र के अनुसार वह शपथ कुछ इस प्रकार थी-

मैं 'सुभाष चन्द्र बोस', ईश्वर को साक्षी मानकर ये पवित्र शपथ लेता हूं, कि -
मै सदैव भारत का एक दास रहूंगा,
अपने 38 करोड़ भाई-बहनों के कल्याण का ध्यान रखना, मेरा सर्वोच्च कर्तव्य होगा
मैं स्वतंत्रता के इस पवित्र युद्ध को अपने जीवन की अंतिम साँस तक जारी रखूंगा
मैं पूर्ण आज़ादी मिलने के बाद भी, भारत की स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए, अपने रक्त की आखरी बूंद बहाने के लिए सदैव तत्पर रहूंगा
लेकिन आजादी की लड़ाई की इतनी महत्वपूर्ण घटना को भी, सत्ता की ताकत से नेहरू ने दबा दिया। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जिसकी पहचान दो आजन्म कारावास की सजा पाने वाले, काला पानी जेल के नायक 'वीर सावरकर' और 'सुभाष चन्द्र बोस' से होनी चाहिए, उसे सत्ता के मद में चूर नेहरू सरकार ने काला पानी की सजा दे दी। क्या कसूर था उन वीरों का? सिर्फ इतना कि वे निःस्वार्थ भाव से मां भारती की सेवा में लगे हुए थे। उस द्वीप के बंदरगाह का नाम भी नेहरू के नाम पर ही है। इतिहास आज फिर दुनिया के सामने आने के लिए प्रतीक्षारत है। अपने यशस्वी इतिहास को लेकर आप कितने सजग हैं यह बात हमारी अगली पीढ़ी प्रमाणित करेगी।

वंदे भारती

Monday 21 December 2015

'निर्भया' हम शर्मिंदा हैं....

दोस्तों, 16 दिसम्बर 2012, इस तिथि को सुनते ही आत्मा काँप गई ना। जी हाँ, मेरी भी कुछ हालत ऐसी ही हो जाती है। बहुत सी यादें जुड़ी हैं इस तिथि से....

2012 के अंत से लेकर एक लंबे समय तक बहुत सी लाठियां खाईं। छात्रसंघ चुनाव लड़ने की तैयारी के बीच अचानक सब कुछ छोड़ कर चला गया जीपीओ स्थित गांधी प्रतिमा पर प्रदर्शन करने, कालीदास मार्ग स्थित मुख्यमंत्री आवास पर जाकर नारेबाजी शुरू की तो लाठियां चलने लगी। सब झेला सिर्फ इस लिए कि शायद कुछ ऐसा हो जाए कि देश की सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोगों को एहसास हो कि इस देश का युवा चाहता कि भारत की प्रतिष्ठा का सम्मान बना रहे लेकिन आज सब कुछ छलावा लग रहा है। पिछली बातों को याद करके बस आंखों में नमी सी छाने लगने लगती है।

दोस्तों, वह एक ऐसा आंदोलन था जिसमें मैं पूरी शिद्दत से लगा था। मेरे जीवन का सबसे बड़ा किंतु असफल आंदोलन... 22 दिसंबर को जब इस देश के युवाओं ने आजादी के बाद के 65 सालों के इतिहास को बदलते हुए देश के प्रथम व्यक्ति के रायसीना हिल्स स्थित घर के दरवाजे पर सुबह सुबह लात मारते हुए कहा कि उठो और इस देश की बेटी के साथ हुए कुकृत्य का जवाब दो तो इस देश की सत्ता और प्रशासनिक व्यवस्था यह तय नहीं कर पा रही थी कि इन युवाओं को क्या कहकर रोका जाए।  उसके ठीक अगले दिन सुबह लखनऊ में जब हम सब मुख्यमंत्री आवास पहुंचे तो पुलिसवालों का चेहरा बता रहा था कि वो हमें रोकना नहीं चाह रहे थे। उनकी अनचाही नाकाम कोशिश के बाद जब हम मुख्यमंत्री आवास पहुंचे तो सुबह से शाम हो गई लेकिन कोई नहीं आया लेकिन लखनऊ के युवाओं ने भी बता दिया कि वो अपनी 'बहन' के लिए कुछ भी कर सकते हैं। फिर शाम 6 बजे भारी ठंड में राजनीति ने अपनी गंदी चालों को  चलना शुरू किया। हमें वहां से हटाने के लिए तत्कालीन जिला न्यायाधीश अनुराग यादव आए और बोले कि आप सब धरना स्थल चलिए वहां हम आपसे बात करेंगे। जब हम नहीं माने तो वे हमारे साथ पैदल धरना स्थल पर गए। सात किलोमीटर की उस पदयात्रा के दौरान ठंड के बीच उनके चेहरे का पसीना बता रहा था कि वे मजबूरी में पैदल चल रहे हैं। अंत में धरना स्थल पर हम सबको अश्वासनों की मीठी गोली दे दी गई। 1 महीने तक मैं और मेरे कई साथी सुबह के समय धरना स्थल पर बैठते थे तो रात में कैंडिल मार्च करते थे। नेताओं के आश्वासनों ने हम सबको अपनी झूठी चालों में फंसा लिया।

पढ़ें: नारी और हमारे समाज की विकृत मानसिकता

आज जब उस घृणित अपराध को अंजाम देने वाले व्यक्ति को नाबालिक करार देते हुए छोड़ दिया गया तो बस मन में यही आया कि क्या से क्या हो गए हैं हम? जिस देश में नारी को पूज्या समझा जाता था और जिस देश में नारी के सम्मान की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने समुद्र पर पुल बना दिया था उस देश में नारी के साथ ऐसा व्यवहार... बातें राम मंदिर की हो रही हैं...कैसा राम मंदिर यार, जब आप अपने सम्मान की रक्षा नहीं कर पा रहे तो क्या राम आएंगे....नहीं, हमें ही राम बनना होगा...बदलनी होगी यह व्यवस्था... आफरोज जैसे रावणों के वंशजों को हमें ही समाप्त करना होगा और अगर हम इस व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम किसी श्रीराम मंदिर की बात करें.... देवताओं का वास तो वहां होता है, जहां महिलाओं का सम्मान होता है।

कल मेरे एक अनुज पंकज ने एक ब्लॉग लिखा...(पंकज के ब्लॉग को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।) उसके अलावा कई छोटे भाई प्रदीप तिवारी जैसे कई लोग फेसबुक पर लगातार लिख रहे हैं कि देश संवेदनाओं से नहीं कानून से चलता है। मैं प्रदीप तथा पंकज की बातों से सहमत नहीं हूं। मेरा मानना है कि यह देश आज भी संवेदनाओं से चल रहा है। इस राष्ट्र का आधार संवेदना है। हम इंग्लैंड में नहीं रहते हैं जहां रिश्ते कानून आधारित होते हों। मेरा इनसे बहुत ही सीधा सा प्रश्न है कि क्या इनकी मां और पिता का रिश्ता कानून यानी लॉज आधारित है? मुझे पता है इसका जवाब नहीं ही होगा। जब इस देश में रिश्ते कानूनन नहीं बनते तो इस देश की बेटी की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने वाले को छोड़ने के पीछे कानून की दुहाई क्यों दी जा रही है, यह मेरी समझ से परे है। और सबसे बड़ी बात कि जो व्यक्ति बलात्कार जैसा कुकृत्य कर सकता है उसे नाबालिग किस आधार पर कहा जा रहा है।

सिर्फ एक यही मामला नहीं है, हाल ही में देश में अपराध दर पर एक रिपोर्ट आई है जो बताती है कि पिछले दस साल में नाबालिगों द्वारा किए गए संज्ञेय अपराधों में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। जहां 2003 में नाबालिगों द्वारा किए गए अपराध के 17,819 मामले दर्ज किए गए, वहीं 2014 में यह संख्या बढ़ कर 38,586 हो गयी। दस साल पहले रेप के 466 मामले सामने आए थे, जबकि पिछले साल दर्ज हुए मामलों में 2,144 बलात्कार के हैं। अकेले दिल्ली में ही संख्या 140 रही।

आज जब इस देश के माननीय प्रधानमंत्री महोदय विश्व पटल पर बहुत ही गर्व से यह कहते हैं कि भारत एक युवा देश है तो उसका आधार होता है कि इस देश में लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या 18 की उम्र से कम है। तो क्या यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि 'भारत एक नाबालिग देश है।'

पढ़ें: आखिर क्यों होते हैं बलात्कार?

बलात्कार गंदी और निम्न स्तर सोच के कारण होते हैं। वह सोच उम्र नहीं देखती। भारत के बहुविध समाज में स्त्रियों का विशिष्ट स्थान रहा हैं। पत्नी को पुरूष की अर्धांगिनी माना गया हैं। वह एक विश्वसनीय मित्र के रूप में भी पुरूष की सदैव सहयोगी रही हैं। कहा जाता हैं कि जहां नारी की पूजा होती हैं वहीं देवता रमण करते है। नारी नर की खान है। वह पति के लिए चरित्र, संतान के लिए ममता, समाज के लिए शील और विश्व के लिए करूणा संजोने वाली महाकृति है। एक गुणवान स्त्री काँटेदार झाड़ी को भी सुवासित कर देती हैं और निर्धन से निर्धन परिवार को भी स्वर्ग बना देती हैं।

भारतीय समाज में नारी का देवी स्वरूपा स्थान है। एक आदर्श नारी धैर्य, त्याग, ममता, क्षमा, स्नेह,समर्पण, सहनशीलता, करूणा, दया परिश्रमशीलता आदि गुणों से परिपूर्ण हैं। महादेवी वर्मा ने कहा है कि 'नारी केवल एक नारी ही नहीं अपितु वह काव्य और पे्रम की प्रतिमूर्ति हैं। पुरूष विजय का भूखा होता हैं और नारी समर्पण की' वास्तव में भारतीय नारी पृथ्वी की कल्पलता के समान हैं।

मैं मानता हूं कि मात्र उस बलात्कारी हत्यारे को सजा देने से बलात्कार जैसे अपराध नहीं रुकेंगे लेकिन दोस्तों, एक कठोर सजा देने से समाज में यह संदेश तो जरूर जाता कि यह देश ऐसे अपराधों के लिए माफी देने वाला शांतिप्रिय देश नहीं बल्कि अपने शरीर को छोड़ चुके लोगों भी को न्याय देने वाला न्यायप्रिय चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के सिद्धान्तों का अनुपालक है। एक बात और ऐसे घृणित अपराधों के लिए मैं शरियत का समर्थन करता हूं और मुझे लगता है कि ऐसे बलात्कारियों को बस इस्लाम सजा दे सकता है।


 उस आंदोलन की कुछ तस्वीरें...




तत्कालीन जिलाधिकारी अनुराग यादव जी....

मेरी सहपाठी एवं एबीवीपी की कार्यकर्ता के लगी चोट...

तब लगा था जीत जाऊंगा....लेकिन....

सीएम आवास के अंदर पहुंचने के बाद कुछ ऐसी खुशी थी... 
आंदोलन के इतिहास में अभूतपूर्व परिवर्तन...
 
बच्चों से लेकर महिलाएं...सब छोड़कर आ गईं थी साथ...

पुलिस ने रोकने की कोशिश तो बहुत की लेकिन नहीं रोक लके....


छात्रनेता नितिन मित्तल के सवालों का जवाब तक नहीं था डीएम साहब के पास

सबके साथ...सब जगह...बस एक ही मांग...'हत्यारों को फांसी दो'

वंदे भारती

Sunday 6 December 2015

कैसे राम, और कैसा मंदिर?


दोस्तों, आज से 23 साल पहले बाबरी ढ़ांचे जिसे कुछ अज्ञानी मस्जिद भी कहते हैं, उसे देश की जनता के एक वर्ग ने गिरा दिया। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि एक स्वतंत्र देश में गुलामी की कोई निशानी नहीं होनी चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि देश की सारी मस्जिदें तोड़ दो..अरे मस्जिद भी इस देश के नागरिकों की, हमारे भाइयों की इबादतगाह है, उसका सम्मान होना चाहिए। और इस देश के प्रत्येक नागरिक की यह जिम्मेदारी है कि इस देश के नागरिकों के पूजन स्थल की, इबादतगाह की सुरक्षा करे। अब संभव है कि आपके मन में सवाल उठे कि जब आप मानते हैं कि मस्जिद नहीं टूटनी चाहिए तो फिर बाबरी के गिरने को सही कैसे ठहरा सकते हैं? तो दोस्तों, मैं आपको बता दूं कि पहली बात तो यह कि यह देश राम का देश है, बाबर का नहीं...अब इसे यह मत कहना कि मैं मुस्लिम विरोधी हूं... मैं चाहता हूं कि इस देश के लोगों के बीच चर्चाएं बाबर पर नहीं बल्कि इस देश के सबसे बड़े मुसलमान, एपीजे अब्दुल कलाम पर चर्चा पर हो, अशफाक उल्ला खां पर चर्चा हो। उन पर कोई उंगली उठाएगा तो इस देश के मुसलमानों के साथ नहीं बल्कि उनसे आगे खड़ा होकर उनका विरोध करूंगा जो इस देश की एकात्मता के आधार कलाम जैसे मुस्लिमों पर उंगली उठाएंगे और मैं ऐसा इस लिए करूंगा क्यों कि कलाम साहब सिर्फ मुसलमानों के नहीं अपितु इस देश के प्रत्येक नागरिक के हैं। ठीक इसी प्रकार राम सिर्फ हिंदुओं के नहीं अपितु प्रत्येक हिंदुस्थानी के हैं।

यह भी पढ़ें: कब बनेगा राम मंदिर

सांस्कृतिक आधार पर इस देश के मुसलमान जिन्ना के नहीं अशफाक उल्ला खां के वंसज हैं। जिनको इस भारत मां से प्यार नहीं था वे 1947 में ही यह देश छोड़कर जा चुके हैं। अब जो यहां पर हैं वे हमारे अपने हैं। अगर आप उन पर प्रश्नचिन्ह लगाना पूरी तरह से गलत होगा। मेरे इस कथन को इस रूप में ना लिया जाए कि मैं याकूब की शवयात्रा को निकालने वालों का समर्थन करता हूं। वे भटके हुए लोग हैं जो याकूब की शवयात्रा निकालते हैं। उन्हें सत्य से अवगत कराना होगा और वे यदि इस भारत भूमि के प्रति सम्मान ना रखें तो उन्हें पाकिस्तान मत भेजो बल्कि चौराहे पर खड़े करके गोली मार दो। राम तो हमारी अस्मिता के आधार हैं, राम तो वह हैं जो वनवास के समय जब दुनिया और मानवता के सबसे बड़े दुश्मन, रावण से युद्ध करने निकलते हैं तो एक राजकुमार होते हुए भी वे किसी राजा का साथ नहीं लेते बल्कि वंचितों को, वनवासियों को गले लगाते हैं।

राम का तो पूरा जीवन ही त्रासदीपूर्ण रहा। इसके बावजूद लोग राम की पूजा करते हैं। भारतीय मानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं; बल्कि उनका महत्व इसलिए है कि उन्होंने उन तमाम मुश्किलों का सामना बहुत ही शिष्टता पूर्वक किया। अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने खुद को बेहद गरिमा पूर्ण रखा। मैंने ने राम को इसलिए पसंद किया, क्योंकि मैंने राम के आचरण में निहित सूझबूझ को समझा।

दरअसल, राम की पूजा इसलिए नहीं की जाती कि हमारी भौतिक इच्छाएं पूरी हो जाएं-मकान बन जाए, प्रमोशन हो जाए, सौदे में लाभ मिल जाए। बल्कि राम की पूजा हम उनसे यह प्रेरणा लेने के लिए करते हैं कि मुश्किल क्षणों का सामना कैसे धैर्य पूर्वक बिना विचलित हुए किया जाए। राम ने अपने जीवन की परिस्थितियों को सहेजने की काफी कोशिश की, लेकिन वे हमेशा ऐसा कर नहीं सके। उन्होंने कठिन परिस्थतियों में ही अपना जीवन बिताया, जिसमें चीजें लगातार उनके नियंत्रण से बाहर निकलती रहीं, लेकिन इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उन्होंने हमेशा खुद को संयमित और मर्यादित रखा। आध्यात्मिक बनने का यही सार है।

संत कबीर कहते हैं कि
राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप
स्वामिपना माथे पड़ा, कोइ पुरबले पाप


अर्थात राम नाम को महत्व जाने बिना उसे जपना तो न जपने जैसा ही है क्योंकि जब तक मस्तिष्क पर देहाभिमान की छाया है तब तक अपने पापों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

इस संसार में चार राम हैं-

एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा !
एक राम का सकल पसारा , एक राम है सबसे न्यारा !


संसार में चार राम हैं ! जिनमें से तीन को हम जगत व्यवहार में जानते हैं पर चौथा अज्ञात राम ही सार है । उसका विचार करना चाहिये । एक दशरथ पुत्र राम को सभी जानते हैं और एक जो प्रत्येक जीवात्मा के घट ( शरीर ) में विराजमान है तथा एक ये जो समस्त ( सकल ) दृश्य अदृश्य सृष्टि है , ये ( विराट पुरुष ) राम ही है - राम में ही है । लेकिन इन सबसे परे जो चौथा ( आत्मा ) राम है । वही हमारा और इन सबका सार है । अतः उसी को जानना उत्तम है।



इसलिए मैं उस राम का मंदिर चाहता हूं जो हिंदुओं के नहीं बल्कि प्रत्येक भारतीय के हैं। भाजपा ने तो हमारे राम को भरे बाजार बेच दिया और आज भी उन्ही राम पर राजनीति करना चाहती है, लेकिन यह देश सब समझता है। इस देश की जनता को जब मंदिर बनाना होगा, मंदिर बन जाएगा। मंदिर बनाने के लिए इस देश के 125 करोड़ भारतीयों को किसी 'दल' की जरूरत नहीं लेकिन हां 'दल' को अवश्य इस देश के लोगों की जरूरत होगी। जब इस देश का प्रत्येक 'भारतीय' यह कहेगा कि मंदिर बने तब मंदिर बनना चाहिए और जिसे राम स्वीकार नहीं उसे स्वयं को भारतीय कहलाने का भी अधिकार नहीं। शब्द पर ध्यान दीजिएगा मात्र प्रत्येक 'भारतीय'।

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वंदे भारती

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