Saturday 26 September 2015

क्यों समाप्त नहीं हो सकता टोल टैक्स? : गडकरी जी से एक सवाल


बहुत समय से देश का एक वर्ग ऐसी हवा बनाए हुए था कि भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि देश से टैक्स खत्म कर दिए जाएं। कहीं न कहीं मुझे भी ऐसा लगता था कि भाजपा उन टैक्सेज को खत्म कर देगी जिनको लगाने के पीछे अंग्रेजों का उद्देश्य भारत और भारतीयों को लूटना था। लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के पहले कई बार बैठकों में भी भाजपा के नेताओं से सुना कि कांग्रेस सरकार ऐसे टैक्सेज लगा कर हमें लूट रही है। जब राजीव दीक्षित जी सर्कुलर टैक्सेशन सिस्टम के विषय में बोलते थे तो भाजपा के नेता भी उनकी हां में हां मिलाते थे। लेकिन अब ऐसा क्या हुआ कि  बीजेपी इन करों को समाप्त करने से बच रही है।

आज लेकिन केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इस संभावना से पूरी तरह इनकार किया कि भविष्य में टोल टैक्स को वापस लिया जा सकता है। एक न्यूज चैनल की ओर से आयोजित कार्यक्रम के दौरान गडकरी ने एक सवाल के जवाब में कहा कि टोल टैक्स कभी खत्म नहीं होगा। उन्होंने कहा कि सरकार के पास सड़क बनाने के लिए पैसे नहीं हैं। टोल कम या ज्यादा हो सकता है पर खत्म नहीं। उन्होंने कहा कि यदि हमें बेहतर रोड का इस्तेमाल करना है तो टैक्स तो देना ही होगा। उन्होंने कहा कि सड़कों के निर्माण के लिए विदेश से कर्ज लेंगे तो ब्याज लगेगा।

मैं माननीय मंत्री महोदय से पूछना चाहता हूं कि इनकम टैक्स, कैपिटल गेन टैक्स और सर्विस टैक्स, वैट, कस्टम ड्यूटी, ऑक्टरॉय जैसे टैक्सेज का क्या करते हैं आप? क्या इस देश के विकास में इतना पैसा वास्तव में लगाते हैं।

मित्रों इस देश का टैक्सेशन सिस्टम भी जबरदस्त है।

मुझसे सरकार के एक प्रतिनिधि ने पूछा कि क्या करते हो?
तो मैंने कहा कि बिजनेस।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- प्रोफेशनल टैक्स चुकाओ।

सरकार के प्रतिनिधि ने फिर कहा -क्या बिजनेस करते हो?
मैंने कहा -सामान बेचता हूं।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा -सेल्स टैक्स चुकाओ।

सरकार के प्रतिनिधि का अगला प्रश्न था कि सामान लाते कहां से हो?
मैंने कहा -दूसरे प्रदेशों या विदेश से।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा -सेन्ट्रल सेल्स टैक्स, कस्टम ड्यूटी और ऑक्टरॉय चुकाओ।

सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- आप चीजें कहां बनाते हो(पैकिंग इत्यादि)?
मैंने कहा- फैक्ट्री में।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- एक्साइज ड्यूटी चुकाओ।

सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- क्या आपके पास ऑफिस, फैक्ट्री है?
मैंने कहा- हां।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- मुंशिपल और फायर टैक्स चुकाओ।

सरकार के प्रतिनिधि ने फिर कहा- क्या आपके पास स्टॉफ है?
मैंने कहा- हां
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- स्टाफ प्रोफेशनल टैक्स चुकाओ

सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- आप किसी प्रकार की सर्विस लेते या देते हो?
मैंने कहा- हां।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- सर्विस टैक्स चुकाओ।

सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- आप बिजनेस की वजह से काफी टेंशन में रहते होंगे।
मैंने कहा- हां।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- आप टेंशन मिटाने के लिए क्या करते हो?
मैंने कहा- फिल्म देखने चला जाता हूं।
तो सरकार के प्रतिनिधि ने कहा- इंटरटेनमेंट टैक्स चुकाओ।

और अगर एक भी टैक्स चुकाने में देरी की तो पेनॉल्टी / फाइन अलग से दो।


ये है हमारा टैक्सेशन सिस्टम। ये सिर्फ बड़े कारोबारियों के लिए ही नहीं है। अगर आप अपनी गली में या गांव में सेवा भाव से कोई छोटी सी दुकान भी चला रहे हैं तो भी आपको ये सारे टैक्सेज चुकाने पड़ेंगे। अब आप स्वयं सोचकर देखिए कि यदि आपके मन में एक बार सेवा भाव आया तो क्या आप कर पाएंगे।
मैंने सरकार के उस प्रतिनिधि के समक्ष भी यही कहा तो वो बोले कि इन सारे टैक्सेज से ही तो सरकार चलती है। इन्ही से तो विकास का काम होता है। इतना कहकर वो चले गए। अब कोई मुझे ये बताए कि क्या वास्तव में इन टैक्सेज से ही विकास होता है।

हमारे दिए गए टैक्सेज से देश के नेताओं को तन्ख्वाह दी जाती है। दुर्भाग्य देखिए कि जिस देश में अर्थशास्त्र का जन्म हुआ, जिस देश में चाणक्य जैसा अर्थशास्त्री हुआ उस देश में अर्थशास्त्र की परिभाषा ही बदल गई।
अन्त में माननीय गडकरी जी से मैं बस इतना ही कहना चाहता हूं कि कृपया राजधर्म का पालन करते हुए सामान्य जनमानस की परिस्थियों को समझते हुए कुछ भी बोलें। आपको यह समझना होगा कि राजनीति का अर्थ राज करने की नीति न होकर राजकीय व्यवस्था को चलाने की नीति है।



Thursday 24 September 2015

मैं और वो

सुबह मैं जैसे ही सो कर उठा, वो मेरे बिस्तर के पास ही खड़े थे। उन्हें लगा कि मैं उनसे कुछ बात करूँगा।
कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिए धन्यवाद कहूंगा। लेकिन मैं फटाफट चाय पी कर तैयार होने चला गया और उनकी तरफ देखा भी नहीं।

फिर उन्होंने सोचा कि मैं नहा के उन्हें याद करूंगा। पर मैं इस उधेड़बुन में लग गया कि मुझे आज कौन से कपड़े पहनने हैं। फिर जब मैं जल्दी जल्दी नाश्ता कर रहा था और अपने ऑफिस के कागज इक्ठेहं करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहा था...तो भी उन्हें लगा कि शायद अब मुझे उनका ध्यान आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

फिर जब मैंने आफिस जाने के लिए मेट्रो पकड़ी तो वो समझे कि इस खाली समय का उपयोग मैं उनसे बातचीत करने में करूंगा पर मैंने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और फिर मोबाइल में गेम खेलने लगा और वो खड़े के खड़े ही रह गए।
वो मुझे बताना चाहते थे कि दिन का कुछ हिस्सा उनके साथ बिता कर देखूं, फिर मेरे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन मैंनें उनसे बात ही नहीं की...

एक मौका ऐसा भी आया जब मैं बिलकुल खाली था और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठा रहा, लेकिन तब भी मुझे उनका ध्यान नहीं आया। दोपहर के खाने के वक्त जब मैं इधर-उधर देख रहा था, तो भी उन्हें लगा कि खाना खाने से पहले मैं एक पल के लिए उनेक बारे में सोचूंगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
दिन का अब भी काफी समय बचा था। उन्हें लगा कि शायद इस बचे समय में हमारी बात हो जाएगी, लेकिन घर पहुँचने के बाद मैं रोजमर्रा के कामों में व्यस्त हो गया। जब वे काम निबट गए तो मैंनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखता रहा। देर रात थक कर मैं बिस्तर पर जाकर लेट गया।

मैंनें अपनी पत्नी, बच्चों को शुभरात्रि कहा और चुपचाप चादर ओढ़कर सो गया। उनका बड़ा मन था कि वो भी मेरी दिनचर्या का हिस्सा बनें...मेरे साथ कुछ वक्त बिताएं...कुछ मेरी सुनें और कुछ अपनी सुनाएं... मेरा कुछ मार्गदर्शन करें ताकि मुझे समझ आए कि मैं किस लिए इस धरती पर आया हूं और किन कामों में उलझ गया हूं, लेकिन मुझे समय ही नहीं मिला और वे मन मार कर ही रह गए।
वो मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। हर रोज वो इस बात का इंतजार करते हैं कि मैं उनका ध्यान करूंगा और
अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए उनका धन्यवाद करूंगा। पर मैं तब ही उनके पास जाता हूं जब कुछ चाहिए होता है। मैं जल्दी में जाता हूं और अपनी माँगें उनके सामने रख कर चला जाता हूं।
वो बस यही सोचते हैं कि हो सकता है कल मुझे उनकी याद आ जाए। बस इसी अपेक्षा के साथ समय बीतता जाता है लेकिन मैं बिल्कुल भी उन्हें याद नहीं करता। जब कोई समस्या आती है तो मैं उनको दोषी ठहरा देता हूं।

अन्त में वो बस यही कहते हैं कि


दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोई।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होए।।


आप समझ ही गए होंगे कि वो कौन हैं जो हमसे इतनी अपेक्षाएं रखते हैं। जी हां सही पहचाना, वो ईश्वर ही हैं....

वन्दे भारती

Wednesday 23 September 2015

फलाह, अगर हिम्मत है तो जवाब दो ताहिर के इस प्रश्न का...

लो अब एक नई मांग- एक मुस्लिम व्यक्ति ने Change.org पर एक पिटिशन लॉन्च करके बकरीद के त्योहार पर सब्जियों पर बैन लगाने की मांग की है। फलाह फैजल नामक इस शख्स ने अपनी पिटिशन में लिखा कि जैन संप्रदाय के त्योहार 'पर्यूषण पर्व' पर देश के कई राज्यों की सरकारों ने कुछ दिनों के लिए मीट पर बैन लगा दिया था इस लिए बकरीद पर सब्जी बैन होनी चाहिए।

फलाह की मांग है कि उनके त्योहार बकरीद पर सब्जियां बैन कर दी जानी चाहिए, क्योंकि उनकी भी 'भावनाएं' हैं। फलाह ने कहा, 'पैगंबर अपने खुद के बेटे का बलिदान देने के लिए राजी थे। मुझे लगता है कि हम सभी एक दिन के लिए सब्जियों का बलिदान दे सकते हैं यानी न खाकर काम चला सकते हैं।' फलाह ने कहा कि रमजान के दौरान मुस्लिम पूरे एक महीने तक रोजा रखते हैं, ऐसे में शाकाहारी एक दिन तो आराम से 'भूखे' रह सकते हैं। अपनी इस व्यंग्य भरी पिटिशन में फलाह ने सब्जियों पर बैन न लगाए जाने की स्थिति में एक विकल्प की पेशकश भी की। फलाह ने कहा, 'मेरी वैकल्पिक मांग यह है कि देश का हर नागरिक अपने धर्म की मान्यताओं की परवाह किए बगैर बकरीद के दिन मटन (बिरयानी) खाकर हमारे इस त्योहार में हिस्सा लें।' फलाह की इस आधारहीन पिटिशन को अब तक 500 लोगों का समर्थन मिल चुका है, लेकिन इसे 490 लोगों के समर्थन की जरूरत और है।

मुझे समझ में नहीं आता कि ये देश तोड़ने वाले लोग आखिर इस देश में जिन्दा क्यों हैं। क्या इनके खुदा ने इनको विवेक नाम की कोई चीज नहीं दी है। ये लोग आखिर क्यों देश की एकता, अखंडता और एकात्मता के साथ खेल रहे हैं। क्यों इन्हें राष्ट्रीय समरसता से कोई मतलब नहीं। आखिर ये ऐसी मांगे करके प्रदर्शित क्या करना चाहते हैं?

मित्रों वास्तव में बहुत पीड़ा होती है जब ऐसी खबरें सामने आती हैं। जब विभिन्न प्रदेशों की सरकारों ने जैन संप्रदाय के त्योहार 'पर्यूषण पर्व' को ध्यान में रखते हुए मीट पर बैन लगाया था तो मेरी अपने एक मुस्लिम मित्र से इस विषय पर चर्चा हुई। उस मित्र का नाम ताहिर है। ताहिर ने मुझसे कहा कि विश्व गौरव भाई आप मीट नहीं खाते हो और जब हमारे साथ खाना खाते हो तो हम भी मीट नहीं खा पाते, लेकिन ऐसा करके आपके चेहरे पर जो संतुष्टि दिखती है उससे मुझे बहुत सुकून मिलता है। लेकिन उसकी इस बात से मुझे जो सुकून मिला उसे मैं प्रदर्शित नहीं कर सकता।

अभी फलाह की मांग की जानकारी मिलने के बाद मैंने ताहिर को फोन किया तो उसने कहा कि भाई हमको मीट न मिले तो हम सब्जी खा सकते हैं लेकिन मुझे पता है अगर आपको सब्जी न मिले तो आप भूखे रहना ज्यादा पसंद करेंगे। उसने कहा कि जिसने ये मां की है कि सब्जी बैन कर दो उससे कहो कि जैन समाज ने एक दिन मीट बैन करने की मांग की थी और वो जीवन पर्यन्त मीट नहीं खाते, क्या फलाह भी एक दिन सब्जियों पर बैन लगा देने से जीवन भर मुस्लिम समाज के द्वारा सब्जी न खाने की जिम्मेदारी लेता है।

मैं ताहिर के इस प्रश्न को फलाह से पूछना चाहता हूं। ऐसे मुस्लिम मित्रों को पाकर मैं स्वयं को धन्य मानता हूं....
वन्दे भारती

Tuesday 22 September 2015

नेपाल में भारत विरोध और मेरी सलाह


नेपाल राष्ट्र के लिए दुर्भाग्य का विषय है कि तथाकथित सेकुलरिज्म वाले कुछ महानुभाव उस देश में जन्म ले चुके हैं। हिन्दुत्व का आधार बनकार खड़ा नेपाल आज टूट चुका है। आज दिन में ट्विटर पर #backoffindia ट्रेन्ड कर रहा था। मेरी इच्छा हुई कि इस विषय का पूरा सच जानूं। जब इसका सच जाना तो मेरे होश ही उड़ गए। नेपाल में नया संविधान लागू होने के बाद करीब 50 हजार लोगों ने ट्वीट करके भारत को नसीहत दी कि भारत नेपाल के अंदरूनी मसलों से दूर ही रहे।
मित्रों जब वो ट्वीट्स मैनें पढ़े तो समझ में ही नहीं आया कि क्या करूं और इन सबके लिए किसको जिम्मेदार ठहराऊं। लेकिन फिर भी नेपाल के जो मित्र आज ट्विटर पर आंदोलनरत थे उनको कुछ आंकड़ें याद दिलाना चाहता हूं। मैं उनको इन आंकड़ों के माध्यम से बताना चाहता हूं कि जब जब नेपाल में कोई समस्या आई है तो सबसे पहले भारत ही खड़ा हुआ।

एक संपूर्ण राहत व बचाव अभियान कार्यक्रम जिसका कूट नाम ऑपरेशन मैत्री है शुरु करके भारत आपदा के वक्त प्रतिक्रिया करने वाला पहला देश था। सिर्फ पंद्रह मिनट के अंदर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक शीर्ष अधिकारियों व मंत्रियों की एक बैठक बुलाई और राहत व बचाव कार्यों को शुरू करने व राष्ट्रीय बचाव दल की टुकडियों को नेपाल भेजने के निर्देश दिये। दोपहर तक भारत के राष्ट्रीय आपदा मोचन बल और नागरिक सुरक्षा की 10 टुकडियाँ जिसमे 450 अधिकारी व तमाम खोज़ी कुत्तों के साथ नेपाल पहुंच गये थे। दस अन्य भारतीय वायुसेना के विमान राहत व बचाव कार्य के लिये काठमांडू पहुंच गये। भूकम्प के तुरंत बाद सहायता भेजते हुए भारत ने 43 टन राहत सामग्री, टेंट, खाद्द पदार्थ नेपाल भेजे। प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल के अपने समकक्ष सुशील कोइराला से फोन पर बात की और उन्हें हर संभव मदद का भरोसा दिलाया। भारतीय थल सेना ने एक मेजर जनरल को राहत व बचाव कार्यों की समीक्षा व संचालन के लिये नेपाल भेजा। भारतीय वायुसेना ने अपने इल्यूशिन आइएल-76 विमान, सी-130 हर्क्युलीज़ विमान, बोईंग सी-17 ग्लोबमास्टर यातायात वायुयान और एम आई 17 हेलिकॉप्टरों को ऑपरेशन मैत्री के तहत नेपाल के लिये रवाना किया। लगभग आठ एमाई 17 हेलिकॉप्टरों को प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री गिराने के काम में लगाया गया। देर शनिवार रात से लेकर रविवार की सुबह तक भारतीय वायु सेना ने ६०० से ज्यादा भारतीय नागरिकों को नेपाल से सुरक्षित निकाला। दस उडानें जो रविवार के लिये तैयार थीं सेना के चिकित्सकों, चलायमान अस्पतालों, नर्सों, दवाइयों, अभियाँत्रिकी दलों, पानी, खाद्द पदार्थ, राष्ट्रीय आपदा मोचन बल और नागरिक सुरक्षा की टुकडियों, कम्बल, टेंट व अन्य जरूरी सामान लेकर नेपाल पहुंचें।

मित्रों आज जिस नरेन्द्र मोदी को नेपाल के लिए अनावश्यक बताया जा रहा है उन्हीं प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में हर नेपाली के आँसू पोंछने की बात कही। भारतीय सेना के एक पर्वतारोही दल ने एवरेस्ट के आधार शिविर से 19 पर्वतारोहियों के शवों को बरामद किया और 61 फंसे हुए पर्वतारोहियों को बाहर निकाला। भारतीय वायुसेना के हेलीकॉप्टर एवरेस्ट पर्वत पर बचाव अभियान के लिये 26 अप्रैल की सुबह पहुंच गये थे। भारतीय विदेश सचिव एस जयशंकर ने 6 और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन दलों को अगले 48 घंटों में नेपाल भेजने की घोषणा की। उन्होने यह भी कहा कि जो वायुयान नेपाल भेजे जा रहे हैं वो सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशी नागरिकों को भी निकालने में लगाए जाएंगे। रविवार की शाम तक भारत ने 50 टन पानी, 22 टन खाद्द सामग्री और 2 टन दवाइयाँ काठमांडू भेजीं। लगभग 1000 और एनडीआरएफ के जवानों को बचाव अभियान में लगाया गया। सड़क मार्ग से भारी संख्या में भारतीय व विदेशी नागरिकों का नेपाल से निकलना जारी था। सोनौली और रक्सौल के रास्ते फंसे हुए भारतीयों व विदेशियों को निकालने के लिये सरकार ने 35 बसों को भारत-नेपाल सीमा पर लगाया। भारत ने फंसे हुए विदेशियों को सद्भाव वीजा जारी करना शुरू कर दिया था और उन्हे वापस लाने के लिये सडक मार्ग से कई सारी बसें और एम्बुलेंस भेजना शुरू कर दिया था। भारतीय रेलवे ने राहत अभियान के तहत 1 लाख पानी की बोतलें भारतीय वायुसेना की मदद से नेपाल भेजीं। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने बाद में ट्वीट करते हुए लिखा की रोजाना 1लाख पानी की बोतलें नेपाल भेजने के उपाय किये जा रहे हैं। एयर इंडिया ने नेपाल को उड़ान भरने वाली अपनी सभी उडानों के टिकट किराए में भारी घटोत्तरी कर दी। एयर इंडिया ने घोषणा करते हुए कहा कि वह अपनी सभी उडानों में यथासंभव राहत सामग्री भी ले जायेगी। 1 दिन में भारतीय वायुसेना ने 12 विमानों की मदद से 2000 भारतीय नागरिकों को नेपाल से बाहर निकाल लिया था।

मैं यह सब आंकड़े बताकर भारत के द्वारा किए गए सहयोग को एहसान के रूप में जताने का प्रयास नहीं कर रहा। मेरी इच्छा मात्र इतनी सी है कि नए संविधान के आते ही किसी कुचक्र में न फंसे। नेपाल के नागरिक एक बार भारत का इतिहास पढ़ लें कि यहां की राजनीतिक पार्टियों ने किस प्रकार से देश को तोड़ा है। कहीं ऐसा न हो कि कुछ विकृत मानसिकता वाले लोगों के कारण नेपाल की राष्ट्रीय एकात्मता पर प्रश्न चिन्ह लगने के साथ साथ एक अच्छा सहयोगी भी खो जाए।

वन्दे भारती


Saturday 19 September 2015

क्या आप भी कूल ड्यूड हैं?

आज मैं आपको बता रहा हूं कूल डूड के कुछ लक्षण-
पढ़कर तय करिए कि कितने कूल डूडों को आप जानते हैं।

कूल डूड वही हैं जिनको देशी भाषा में हम “घोंचू” कहते हैं। इनको पहचानने के कुछ खास तरीकों पर आज चर्चा करते हैं। इनकी पहचान कूल्हों से सरकती हुई पैंट, बेतरतीब बढ़े हुए बाल जैसी कई अजीबोगरीब चीजें होती हैं। कभी कभी तो  इनके बाल ऐसे दिखते है जैसे जोर का बिजली का झटका खा कर आए हों । ये वो लोग होते हैं जो अपनी मां की प्रत्येक सलाह पर तो बद्तमीजी से उत्तर देते हैं लेकिन अपनी गर्लफ्रेंड के सामने गिड़गिड़ाते हुए दिख जाते हैं। इनकी सोच भारत की नहीं अपितु इंडिया का प्रतिनिधित्व करती है। इनकी कुछ और विशिष्ट पहचानों को जानते हुए इनकी सोच को समझने का प्रयास करते हैं। 1. सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इनकी प्रोफाइल पिक्चर से पश्चिमी सभ्यता साफ झलकती है।

2. कवर फोटो पर किस करते हुए कपल की फोटो होगी जैसे इनकी परिवारिक परंपरा वही रही हो।

3. ये देशहित से जुड़ी पोस्ट को नजरअंदाज करते हैं क्योंकि ये लोग इंडियन है भारतीय नहीं। देश के विषय सोचना इनको अपने वश की बात नहीं लगती। आधुनिकता के नाम पर नग्नता को ये आधार बना लेते हैं।

4. इनको राजनीति से बहुत नफरत है। ये मतदान वाले दिन को छुट्टी का दिन मानकर अपनी गर्लफ्रेंड के साथ शॉपिंग करने जाते हैं। ये मतदान तो करते नहीं लेकिन किसी भी समस्या का दोष सीधे सरकार पर मढ़ देते हैं।




5. इन्हें अश्लीलता और बॉलीवुड बहुत पसंद होता है। भजन, लोक गीत-संगीत यहां तक कि कवि सम्मेलन भी इन्हें बोरिंग और पकाऊ लगते हैं।

6. इन्हें हिन्दी और अपनी मातृभाषा बोलने में शर्म आती है। ये लोग Hi, LoL, What’s up, Dude, Thanks या India Is my Love, Please Chat आदि तरह से बात करते हुए पाए जाते हैं।

7. इनकी टाइमलाइन पर जाकर अगर आप देखेंगे तो इन्होंने कुछ अश्लील पेज लाइक कर के रखे होंगे। इनके लिए हनी सिंह और सनी लियोनी तक ही जीवन सीमित है क्योंकि इन लोगों की आत्मा ही मर चुकी होती है और ये लोग केवल लाश बनकर जिंदा रहते हैं।

8.ये लोग अधिक से अधिक लड़कियों को जोड़कर उन्हें मदर डे,फादर डे, कुत्ता डे, सूअर डे ये डे वो डे पर गुलाब के फूल मैसेज करेंगे और अँग्रेजी में लिखेगें I LOVE YOU में भले ही सामने वाली प्रोफाइल इन लोगों के बाप के माँ की आयु वाली महिला की हो। 

9. इस तरह के लोग सुबह जय श्री राम नाम से शर्म महसूस करेंगे और सुबह GOOD MORNING तथा शाम को GOOD EVENING कहेंगे।

10. ये लोग विदेशी डे आते है तो ज्यादा ही उत्सुकता से मनाते हैं लेकिन इन लोगों ने कभी अपने माँ बाप की दिल से सेवा नहीं की है, ये लोग गौशाला में नहीं जाएँगे। ये लोग 5 रूपये गौदान नहीं करेंगे लेकिन रोज डे या कुत्ता डे पर 500 रूपये के नकली फूल जरूर लेंगे।

ऐसे नकारा युवाओं से देश क्या उम्मीद कर सकता है, इस सब के पीछे अश्लील फिल्में और मीडिया द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता जिम्मेदार है और इन लोगों को यही पता नहीं इंडिया और भारत में धरती आसमान जैसा अंतर है। हम भारत माता कह सकते हैं और एक बार सोच कर देखिए कि ये गुलामी की सोच वाले लोग जब इंडिया माता कहेंगे तो कैसा लगेगा ?  हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि इस तरह के लोगों को देश के प्रति जागरुक करें। इन लोगों को भारत की पहचान दें, इन्हें संस्कार दे, धर्म का ज्ञान दें ताकि ये लोग आने वाली पीढ़ियों को बर्बादी की ओर ना जाने दें।
॥ इंडियन नहीं भारतीय बनो ॥
वन्दे भारती



Thursday 17 September 2015

एक सच जिसको जानकर आंखे खुल जाएंगी आपकी...

गणेश स्थापना क्यों?

इस देश की एक बड़ी समस्या है कि इस देश के लोगों ने सोचना बंद कर दिया है। उन्हें किसी भी परंपरा का इतिहास नहीं पता, बस जो चल रहा है उसका अनुसरण करते हुए चलते रहना है। उस परंपरा को प्रारंभ करने का उद्देश्य भी हमनें जानना जरूरी नहीं समझा। आज गणेश चतुर्थी है। महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पर्व, उस पर्व का उत्साह यहां दिल्ली में भी देखने को मिल रहा है। घरों से लेकर विद्यालयों तक हर जगह गणेश प्रतिमा की स्थापना हो रही है। हर टीवी चैनल पर गणेश चतुर्थी से जुड़े कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं, लेकिन मैं सुबह से प्रतीक्षा करता रहा कि कोई इस गणपति उत्सव की स्थापना का उद्देश्य बताएं। सच कहूं तो इस देश के मीडिया संस्थानों से अधिक अपेक्षा मुझे सोशल मीडिया के क्रांतिकारियों से थी लेकिन मुझे एक भी पोस्ट ऐसे विषय से सम्बन्धित नहीं दिखी। इसी नाते अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए मैंने स्वयं इस विषय पर लिखने का मन बनाया।

मित्रों जब स्वदेशी शब्द हमारे कानों में पड़ता है तो सबसे पहले हमारे मस्तिष्क में महात्मा गांधी और खादी का नाम ध्यान में आता है। लेकिन क्या आपको पता है कि स्वदेशी से स्वतंत्रता का स्वप्न देखने वाले प्रथम क्रांतिकारी का नाम क्या था? उनका नाम था लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक। 1894 मे अंग्रेजों ने भारत में धारा 144 नाम का एक बहुत खतरनाक कानून बना दिया था।  इस कानून के तहत किसी भी स्थान पर 5 से अधिक भारतीय इकट्ठे नहीं हो सकते थे। वे समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन नहीं कर सकते थे और अगर कोई ब्रिटिश पुलिस अधिकारी उनको कहीं इकट्ठा देख ले तो आप सोच भी नहीं सकते कि उनको कितनी कड़ी सजा दी जाती थी।

लोगों में व्याप्त भय को समाप्त करने के लिए लोकमान्य तिलक ने गणपति उत्सव की स्थापना की और सामान्य जनमानस में यह विश्वास दिलाया कि विघ्नहर्ता गणेश जी आपके सारे विघ्न हर लेंगे और अंग्रेजों से हमें मुक्ति दिलाएंगे। सबसे पहले पुणे के शनिवारवाड़ा मे गणपति उत्सव का आयोजन किया गया। 1894 से पहले लोग अपने अपने घरो मे गणपति उत्सव मनाते थे लेकिन 1894 के बाद इसे सामूहिक तौर पर मनाने लगे तो पुणे के शनिवारवाडा मे हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी।
इस प्रकार पूरे 10 दिन तक 20 अक्तूबर 1894 से लेकर 30 अक्तूबर 1894 तक पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया। हर दिन लोकमान्य तिलक वहां भाषण के लिए किसी बड़े व्यक्ति को आमंत्रित करते थे। 20 अक्तूबर को बंगाल के सबसे बड़े नेता बिपिन चंद्र पाल वहाँ आए और ऐसे ही 21 अक्तूबर को उत्तर भारत के लाला लाजपत राय वहाँ पहुंचे। वहां 10 दिन तक इन महान नेताओं के भाषण हुआ करते थे ! और सभी भाषणों का मुख्य मुद्दा यही होता था कि गणपति जी हमको इतनी शक्ति दें कि हम भारत से अंग्रेजों को भगाएं, गणपति जी हमें इतनी शक्ति दें कि हम भारत में स्वराज्य लाएं। तिलक जी के प्रयासों के कारण ही अगले वर्ष 1895 मे पुणे के शनिवारवाड़ा मे 11 स्थानों पर गणपति स्थापित किए गए, उसके अगले साल 31 और 1897 में संख्या 100 को पार कर गई। धीरे -धीरे पुणे के नजदीक महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों अहमदनगर ,मुंबई ,नागपुर आदि तक में ये गणपति उत्सव फैलता गया। हर वर्ष हजारों लोग इकट्ठे होते और बड़े नेता उनमें राष्ट्रीयता की भावना भरने का कार्य करते।  इसी तरह लोगों का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और साथ में राष्ट्र के प्रति चेतना भी बढ़ती गई।

1904 में लोकमान्य तिलक ने लोगों से कहा कि गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वराज्य हासिल करना और अंग्रेजों को भारत से भगाना है। बिना आजादी के गणेश उत्सव का कोई महत्व नहीं है। तब पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के इस उद्देश्य को बहुत गंभीरता से समझा। तभी 1905 मे अंग्रेजी सरकार ने बंगाल का बंटवारा कर दिया। कर्जन नाम के अंग्रेज अधिकारी ने बंगाल को पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल नामक दो हिस्सों मे बाँट दिया। हिन्दू और मूसलमान के आधार पर यह पहला बंटवारा था। डिविजन ऑफ बंगाल एक्ट नामक कानून के आधार पर यह विभाजन किया गया। बंगाल उस समय भारत का सबसे बड़ा राज्य था और इसकी कुल आबादी 7 करोड़ थी।

लोकमान्य तिलक ने इस बंटवारे के खिलाफ सबसे पहले विरोध की घोषणा की उन्होनें ने लोगों से कहा कि अगर अंग्रेज भारत में संप्रदाय के आधार पर बंटवारा करते हैं तो हम अंग्रेजों को भारत में रहने नहीं देंगे। उन्होने अपने एक मित्र तथा बंगाल के सबसे बड़े नेता बिपिन चंद्र पाल को बुलाया साथ ही उन्होंने एक अन्य नेता अरबिंदो घोष जी को बुलाया और उन्हें कहा कि आप बंगाल मे गणेश उत्सव का आयोजन कीजिए। तो बिपिन चंद्र पाल जी ने कहा कि बंगाल के लोगों पर गणेश जी का प्रभाव ज्यादा नहीं है,  तो तिलक जी ने पूछा फिर किसका प्रभाव है ? तो उन्होनें कहा कि बंगाल में नवदुर्गा नामक एक उत्सव मनाया जाता है उसका बहुत प्रभाव है। तब तिलक जी ने कहा ठीक है मैं यहाँ गणेश उत्सव का आयोजन करता हूँ आप वहाँ दुर्गा उत्सव का आयोजन करिए। तभी से बंगाल मे समूहिक रूप से दुर्गा उत्सव मनाना शुरू हुआ जो आज तक जारी है।

लोगों ने तिलक जी से पूछा कि विरोध का तरीका क्या होगा? तो लोकमान्य तिलक ने कहा कि भारत में अंग्रेजी सरकार ईस्ट इंडिया कंपन्नी की मदद से चल रही है। ईस्ट इंडिया कंपनी का माल जब तक भारत मे बिकेगा तब तक अंग्रेजों की सरकार भारत मे चलेगी और अगर माल बिकना बंद हो गया तो अंग्रेजों के पास धन जाना बंद हो जाएगा और अंग्रेज भारत से भाग जाएँगे।
तब वहां पर एक आंदोलन शुरू हुआ। उस आंदोलन के प्रमुख नेता थे लाला लाजपतराय (उत्तर भारत), विपिन चंद्र पाल (बंगाल और पूर्व भारत) और लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक (पश्चिम भारत)। इस तीनों नेताओं ने अंग्रेजों के बंगाल विभाजन का विरोध शुरू किया।

लोकमान्य तिलक ने अपने शब्दों में इसको स्वदेशी आंदोलन कहा। अँग्रेजी सरकार इसे बंग भंग आंदोलन कहती रही। उस समय इन तीन नेताओं के आवाह्न पर करोड़ों भारत वासियों ने अंग्रेजी कपड़े पहनना बंद कर दिया, भारत के हजारों नाईयों ने अंग्रेजी ब्लेड से दाड़ी बनाना बंद कर दिया,  यहां तक कि विदेश से आने वाली चीनी का बहिस्कार करके इस देश में गुड़ की मिठाइयां बनने लगीं। इसी आंदोलन के आगे झुकते हुए अंग्रेजों ने 1911 में डिविजन ऑफ बंगाल एक्ट वापिस लियाऔर इस तरह पूरे देश मे लोकमान्य तिलक की जय जयकार होने लगी।
आज हम गणेश उत्सव तो मनाते हैं लेकिन विदेशी वस्तुओं का साथ नहीं छोड़ते। और तो और हम तो अपनी खुशी के लिए गणपति को टाई भी पहनाने लगे। मित्रों यदि वास्तविक स्वराज्य चाहिए तो मेरे निवेदन को स्विकार करें और विदेशी वस्तुओं को बहिस्कार करते हुए गणपति स्थापना की सार्थकता प्रमाणित करें।
वन्दे भारती।

Wednesday 16 September 2015

ठाकुर रोशन सिंह : भारत मां का लाल

9 अगस्त 1925 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास स्थित काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खजाना लूटा गया था उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे। इसके बावजूद अंग्रेज सरकार ने उन्हें 19 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद की नैनी जेल में फांसी पर लटका दिया गया।

36 वर्षीय ठाकुर रोशन सिंह का चेहरा काकोरी कांड में शामिल केशव चक्रवर्ती मिलती थी। अंग्रेज सरकार के लिए कोशव से बड़ी चुनौती रोशन थे। इस लिए झूठे सबूतों के आधार पर रोशन सिंह को फांसी दे दी गई। अंग्रेजी सरकार के द्वारा बंगाल की अनुशीलन समिति के सदस्य केशव चक्रवर्ती को खोजने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया।

सी.आई.डी. के कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन पंडित राम प्रसाद बिस्मिल पर बार-बार यह दबाव डालते रहे कि वह किसी भी तरह अपने दल का संबंध बंगाल के अनुशीलन दल या रूस की बोल्शेविक पार्टी से बता दें, परंतु बिस्मिल टस से मस नहीं हुए। आखिरकार रोशन सिंह को दफा 120 'बी' और 121 'ए' के तहत पांच-पांच वर्ष की बामशक्कत कैद और 396 के तहत फांसी की सजा दी गई। इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय और वायसराय के यहां अपील भी की गई परंतु नतीजा वहीं निकला 'ढ़ाक के तीन पात।'

क्रांतिकारी ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तरप्रदेश के ख्याति प्राप्त जनपद शाहजहांपुर में स्थित गांव नबादा में 22 जनवरी 1892 को हुआ था। उनकी माता का नाम कौशल्या देवी और पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था।

ठाकुर रोशन सिंह ने छह दिसंबर 1927 को इलाहाबाद नैनी जेल की काल कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था। उन्होंने पत्र में लिखा था 'मुझे एक सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप मेरे लिए रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का कारण होगी। मैं दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूं। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्टभरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिंदगी जीने के लिए जा रहा हूं। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले महात्मा मुनियों की।'

पत्र के अंत में उन्होंने अपना यह शेर भी लिखा-
'जिंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन
वरना कितने ही यहां रोज फना होते हैं।'


फांसी से पहली की रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए। फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त हो यथा नियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर गीता पाठ में लगाया फिर पहरेदार से कहा, 'चलो'। पहरेदार हैरत से उन्हें देखने लगा कि यह कोई आदमी है या देवता। जाते जाते उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फांसी घर की ओर चल दिए। उन्होंने फांसी के फंदे को चूमा फिर जोर से तीन बार वंदे मातरम का उद्घोष किया और वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।

उनके अंतिम दर्शन करने और उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए इलाहाबाद के नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और वृद्ध एकत्र थे । 19 दिसंबर 1927 को भात मां के इस सपूत को फांसी दे दी गई। जैसे ही जेल कर्मचारी उनका शव बाहर लाए वहां उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया 'रोशन सिंह अमर रहें'। भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा-यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहां वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।

फांसी के बाद ठाकुर रोशन सिंह के चेहरे पर एक अद्भुत शांति दृष्टिगोचर हो रही थी। मूंछें वैसी की वैसी ही थीं बल्कि गर्व से ज्यादा ही तनी हुई लग रहीं थी। उन्हें मरते दम तक बस एक ही मलाल था कि उन्हें फांसी दे दी गई, कोई बात नहीं। उन्होंने तो जिंदगी का सारा सुख उठा लिया परंतु बिस्मिल, अशफाक और लाहिड़ी जिन्होंने जीवन का एक भी ऐशो-आराम नहीं देखा, उन्हें इस बेरहम बरतानिया सरकार ने फांसी पर क्यों लटकाया?

नैनी जेल के फांसी घर के सामने अमर शहीद ठाकुर रोशन सिंह की आदमकद प्रतिमा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अप्रतिम योगदान का उल्लेख करते हुए लगाई गई है। वर्तमान समय में इस स्थान पर एक मेडिकल कॉलेज स्थापित है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमें अपनी पुस्तकों में इन वीरों के विषय में नहीं पढ़ाया जाता।
वन्दे भारती

Friday 11 September 2015

बैन लगाकर मीट की कालाबाजारी करना चाहती है महाराष्ट्र सरकार?



हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने जैन समुदाय के पर्यूषण पर्व और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए मीट पर बैन लगा दिया। संभव है कि उसमें कहीं न कहीं उन्हें खुश करने का उद्देश्य हो लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आ रही कि ऐसे छोटे से विषय को राष्ट्रीय मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है। यदि किसी समुदाय विशेष की भावनाओं का सम्मान करते हुए सरकार कोई कदम उठाती है तो क्या उस विषय पर राजनीति करना आवश्यक है? क्या ऐसा संभव नहीं कि इन बेवजह के मुद्दों को छोड़कर राष्ट्रीय हित से जुड़ें विषयों को उठाया जाए।

मुझे आज की स्थिति देखकर हंसी आ रही है और हंसी आने का एक सामान्य सा कारण है कि ये सब उस देश में हो रहा है जिस देश में भाग्यलक्ष्मी माता के मंदिरों में लगी घंटियों को इस लिए रस्सी से बांध कर बंद कर दिया जाता है क्यों कि उनकी आवाज से एक समुदाय विशेष की नींद में बाधा आती थी। उस देश में जहां पर हर सप्ताह के एक विशेष दिन को हजारों स्थानों पर रास्ता बदलने को कह दिया जाता है। ये आखिर ऐसे विषयों पर राजनीति करके जताना क्या चाहते हैं? प्रदेश एवं देश की सरकार का एक तथाकथित हिंदूवादी सहयोगी राजनीतिक दल ये कहता है कि प्रदेश सरकार बैन लगाकर समुदाय विशेष को खुश करना चाहती है। अरे ठाकरे साहब, आप भी तो इस बैन का विरोध करके एक समुदाय विशेष को खुश करके तुष्टीकरण की राजनीति ही तो कर रहे हैं।

आज अगर स्वर्गीय बाला साहब जी स्वर्ग से शिवसेना, उद्धव ठाकरे और वर्तमान कार्यपद्धति को देख रहे होंगे तो निश्चित ही उनकी आखों से खून के आंसू निकल रहे होंगे। उन्होंने शिवसेना को इस लिए तैयार किया था जिससे कि देश की गिरती हुई राजनीति को एक कलाकार का हृदय संभाल ले, जिससे कि देश की राजनीतिक व्यवस्था से परिवारवाद का नाश हो और एक सामान्य व्यक्ति, सामान्य व्यक्तियों के लिए व्यवस्था चलाए। राजनीति, जिसका अर्थ था राज करने की नीति उसे पूर्ण रूप से परिवर्तित करने का श्रेय स्व. बाल ठाकरे जी को ही जाता है। उन्होंने राजकीय व्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाने वाली नीति को राजनीति माना था। परिवारवाद का विरोध करने वाले बाल ठाकरे ने अपने पुत्र को शिवसेना में सबसे अधिक महत्व इसलिए दिया क्यों कि उन्हें लगता था कि यह मेरे साथ अधिक समय रहता है इस लिए मेरे विचारों को ठीक प्रकार से समझकर उसे आगे ले जाएगा, लेकिन आज हो कुछ और ही रहा है। शिवसेना एक सामान्य व्यक्ति का राजनीतिक दल न होकर ठाकरे परिवार का दल बन गया है। मूल विचारों और सिद्धान्तों के साथ समझौता करके सत्ता के सिहांसन के प्रति प्रेम स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। 

आज मीट पर बैन लगा तो शिवसेना और मनसे वाले सड़क पर दुकान लगा कर मीट बेचने लगे, कल को अगर सरकार वेश्यवृत्ति पर बैन लगा दे तो ये दोनों दलों के कार्यकर्ता क्या करेंगे?

लेकिन इसके बाद जो हुआ उसकी अपेक्षा नहीं थी। भाजपा की ओर से दिया गया तर्क मेरी समझ से बाहर है। सरकारी अधिवक्ता से जब न्यायालय ने पूछा कि मटन पर बैन लगा दिया लेकिन मछली, सी-फूड, फ्रोजन मटन व अंडों पर बैन क्यों नहीं लगाया, क्या उनको नहीं मारा जाता है?
तो हमारे माननीय अधिवक्ता महोदय के द्वारा जवाब में कहा गया कि मटन और मछली में फर्क है। मछली को जैसे ही पानी से बाहर निकाला जाता है, वह मर जाती है, उसे काट कर मारा नहीं जाता।
अरे अधिवक्ता महोदय मछली को पानी से क्या दाना खिलाने के लिए निकाला जाता है। मछली को पानी से निकालने का उद्देश्य यही होता है कि वह मर जाए और फिर उसका भक्षण किया जाए।

न्यायालय ने फिर अधिवक्ता महोदय से पूछा कि अहिंसा की बात करते हैं, पर ये क्या बात हुई कि कुछ दिन के लिए कत्ल और मटन की बिक्री रोक दें, बाकी दिन जारी रहे। क्या ऐसी भावनाएं एक दिन के लिए मन में आती हैं, अगले दिन चली जाती हैं?
सरकारी अधिवक्ता महोदय के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।

न्यायालय ने पूछा कि मटन की बिक्री कैसे रोकेंगे? क्या पुलिस और म्युनिसिपल अधिकारी घर-घर जाकर तस्दीक करेंगे कि मीट न खाया जाए?
तो अधिवक्ता महोदय द्वारा उत्तर दिया जाता है कि हम लोगों के किचन में जा कर उन्हें रोकने नहीं जा रहे हैं। बैन सिर्फ जानवरों को काटने और सेल पर है। खाने पर नहीं है।
अरे अधिवक्ता महोदय यदि कोई अपने किचन में मीट बनाएगा तो वह लाएगा कहां से? क्या आपके कहने का तात्पर्य यह है कि बैन लगने के बाद कालाबाजारी करो।

मुझे समझ में नहीं आता कि इन जैसे अल्पज्ञानियों को अधिवक्ता बना कौन देता है? जिन लोगों के मस्तिष्क में किसी विषय को लेकर उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं होता उन्हें सरकार का प्रतिनिधित्व करने के लिए क्यों भेज दिया जाता है। इनसे बेहतर विषय का स्पष्टीकरण तो वैचारिक आधार पर जुड़ा हुआ एक सामान्य सा कार्यकर्ता दे सकता है। ऐसे विषयों पर भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को चिंतन की आवश्यकता है।

Thursday 10 September 2015

मांसाहार क्यों? - एक विवेचन




कभी कभी कुछ अल्पज्ञानी मुझसे कहते हैं कि विश्व गौरव जी ये बताइए कि आपके सनातन धर्म में तो मांसाहार प्रचलित है और आप नहीं खाते, ऐसा क्यों? वो कुछ मंदिरों का नाम गिनाकर कहते हैं कि आपके इन इन मंदिरों में तो मांस ही चढ़ाया जाता है तो आप क्यों मांस का विरोध करते है? ऐसे लोगों को उस समय तो मैं उत्तर दे देता हूं लेकिन आज मुझे लग रहा है कि ऐसे प्रश्न तो बहुत से लोगों के दिमाग में आते होगें। इस लिए आज इस विषय पर विस्तार से लिखने की योजना बनाई है।

किसी भी क्षेत्र की संस्कृति उसके प्राकृतिक वातावरण पर आधारित होती है। जिन स्थानों पर जिस चीज की पैदावार होती है वहां पर वही चीज खाई जाती है। हमारे शास्त्रों में तो यह भी कहा गया है कि पौधों में भी प्राण होते हैं तो क्या हम शाकाहारी मनुष्य हत्यारे नहीं हुए। मित्रों इस विषय को ठीक प्रकार से समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा, उस समय में जब यातायात की व्यवस्था नहीं थी। दक्षिण भारत के क्षेत्र में समुद्र होने के कारण वहां के मुख्य भोजन में मछली का विशेष महत्व है। उत्तर भारत में मांस इस लिए प्रचलन में नहीं है क्यों कि वहां पर गेहूं इत्यादि की पैदावार अधिक है।

पिछले वर्ष रिपोर्टिंग के लिए कोलकाता जाना हुआ था, 10 दिनों के उस प्रवास में वहां पर गेहूं की रोटियां मिलना बहुत मुश्किल हो रहा था। दाल के नाम पर दाल का पानी ही मिलता था। तब मुझे पता चला कि आखिर यहां के क्षेत्र में मछली क्यों खाई जाती है। ये बहुत ही सामान्य सी बातें हैं जिन पर बिना चिंतन किए हम उसे धर्म से जोड़ देते हैं। चिंतन का विषय ये है कि उस समय जब यातायात की व्यवस्था नहीं थी तो लोंगो के मुख्य आहार के रूप में मछली इत्यादि को लिया जाता था। उस समय के जानवर और मनुष्य के अनुपात में और आज के मनुष्य और जानवर के अननुपात में चिंतन की आवश्यकता है।

आज जब सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं तो हम क्यों मांसाहार को इतना अधिक महत्व दे रहे हैं ये चिंतन का विषय होना चाहिए।

Tuesday 8 September 2015

दृष्टि और दृष्टिकोण



एक बार की बात है। एक नवविवाहित जोड़ा दिल्ली में किराए के घर में रहने पहुंचा। पति का नाम आशीष और पत्नी का नाम शिप्रा था। अगली सुबह, जब आशीष और शिप्रा नाश्ता कर रहे थे, तभी शिप्रा ने खिड़की से देखा कि सामने वाली छत पर कुछ कपड़े फैले हैं। शिप्रा ने कहा कि लगता है सामने वाले घर में रहने वाले लोगों को कपड़े साफ करना भी नहीं आता, जरा देखो तो कितने मैले लग रहे हैं?
आशीष ने उसकी बात सुनी पर अधिक ध्यान नहीं दिया।
एक-दो दिन बाद फिर उसी जगह कुछ कपड़े फैले थे। शिप्रा ने उन्हें देखते ही अपनी बात दोहरा दी, 'कब सीखेंगे ये लोग कि कपड़े कैसे साफ़ करते हैं।'
आशीष सुनता रहा पर इस बार भी उसने कुछ नहीं कहा।
लेकिन अब तो ये आए दिन की बात हो गई, जब भी शिप्रा कपड़े फैले देखती भला-बुरा कहना शुरू कर देती।
लगभग एक महीने बाद सुबह के समय आशीष और शिप्रा नाश्ता कर रहे थे। शिप्रा ने हमेशा की तरह नजरें उठाईं और सामने वाली छत की तरफ देखा और देखते ही बोली कि अरे वाह! लगता है इन्हें अक्ल आ ही गई। आज तो कपड़े बिलकुल साफ दिख रहे हैं, जरूर किसी ने टोका होगा!'
आशीष ने कहा कि नहीं उन्हें किसी ने नहीं टोका।
शिप्रा ने आश्चर्य से आशीष को घूरते हुए पूछा कि तुम्हें कैसे पता?
तो आशीष ने जवाब दिया कि आज मैं सुबह जल्दी उठ गया था और मैंने इस खिड़की पर लगे कांच को बाहर से साफ कर दिया, इसलिए तुम्हें कपड़े साफ दिखाई दे रहे हैं।

इस छोटी सी कहानी के मर्म को समझा आपने? हम बिना स्थितियों का विवेचन किए दूसरों के विषय में अपनी राय बना लेते हैं। इस देश की राजनीति की वर्तमान स्थिति कुछ ऐसी ही हो गई है। देश के राजनेता बिना स्वयं का विश्लेषण किए मात्र आरोप और प्रत्यारोप की राजनीति कर रहे हैं और इस देश का दुर्भाग्य ये है कि देश की जनता उन राजनेताओं के मायाजाल में फंसती जा रही है। आत्मचिंतन के बिना इस देश को पुनः विश्वगुरू बनाने का स्वप्न साकार नहीं हो सकता। इस देश की बागडोर इन राजनेताओं के हाथ में सौंपकर हम ये समझने लगते हैं कि अब देश की पूरी जिम्मेदारी इन पर ही है लेकिन क्या हमारी जिम्मेदारी मात्र 5 साल में 2 बार मतदान कर देने भर से समाप्त हो जाती है। क्या हम अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं रहे हैं? यदि हमने अभी अपने दृष्टकोण में परिवर्तन नहीं किया तो शिप्रा की तरह ही बस बुराइयां ही देखते रहेंगे। हमें अच्छाई को समर्थन और बुराई को पहचान कर उसका विरोध करना ही होगा। तभी हम मां भारती के पुत्र कहलाने के हकदार होंगे।
वन्दे भारती

Friday 4 September 2015

फिर हमें गुलाम बनाने का षड़यंत्र है ये...


जैसे ही कोई भारतीय पर्व या त्योहार आता है सोशल मीडिया पर कुछ  मैसेज प्रसारित होने लगते है।जिनमें उन त्योहारों का उस त्योहार के मूल उद्देश्य का मजाक उड़ाया जाने लगता है।ऐसे एक विषय पर पहले भी लिख चुका हूँ।


मुझे ये समझ नही आता कि क्या इन तथाकथित हिंदुओं के लिए भगवान मानने का पैमाना ये है कि किसके कितने लफड़े थे। सोचने वाली बात ये है कि हम और आप तो ऐसे सन्देश बना नहीं रहे...और जो हिन्दू ऐसे सन्देश भेज रहे हैं वो भी केवल कॉपी पेस्ट करते हैं।तो ये सब लिखता कौन है....
मित्रों हमारा चारित्रिक पतन करने के लिए ये एक षडयंत्र है कि हम अपनी संस्कृति और अपने इतिहास को निम्नतम स्तर का समझने लगें।
अपने पूज्यनीय पूर्वजों को टपोरी बिलकुल भी ना कहें।

कृष्ण जी ने नाग देवता को नहीं बल्कि लोगों के प्राण लेने वाले उस दुष्ट हत्यारे कालिया नाग का मर्दन किया था जिसके भय से लोगों ने यमुना नदी में जाना बन्द कर दिया था।
श्री कृष्ण जी कंकड़ मारकर लड़कियाँ नहीं छेड़ते थे, अपितु दुष्ट कंस के यहाँ होने वाली मक्खन की जबरन वसूली को अपने तरीके से रोकते थे और स्थानीय निवासियों का पोषण करते थे।
और दुष्ट चाहे अपना सगा ही क्यों न हो, पर यदि वो समाज को कष्ट पहुँचाने वाला हो तो उसको भी समाप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए, यह भगवान कृष्ण से सीखना चाहिए।
एक छोटी सी बात से आप उनके चरित्र की कल्पना कर सकते हैं कि भगवान श्री कृष्ण सर पर मोर पंख क्यों लगाते है.........क्यों कि मोर और मोरनी एक दूसरे को कभी स्पर्श नही करते मोर के पसीने को मोरनी चाट लेती है तो और मोर पैदा होते है अर्थात जो चरित्र का अच्छा होता है भगवान उसे अपने सर पर बैठाते है।

उनके 16000 लफड़े नहीं थे, अपितु नरकासुर की कैद से छुड़ाई गई ब्रज की महिलाएं थीं जिन्हें सम्भवतः समाज स्वीकार नहीं कर रहा था, उन्हें पत्नी का सम्मानजनक दर्जा देकर व्यवस्था परिवर्तन का पाञ्चजन्य फूंकने वाले उस पूर्वज के विषय में ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। वो भोगी नहीं योगी थे।इसलिए उन्हें भगवान मानते हैं। उनके ऐसे चरित्र की वजह से ही उन्हें योगेश्वर कृष्ण कहा जाता है भोगेश्वर नहीं।

कृपया भविष्य में कभी भी किसी हिन्दू देवी देवता के लिये कोई अपमानजनक बात न तो प्रसारित करें और न ही करने दें।

यदि यह संदेश किसी और ने आपको भेजा है तो उसे भी रोकें। आप मेरे इस विषय को अन्य लोगों तक भी भेजें जिससे इस षड्यंत्र का पर्दाफास हो सके।

Thursday 3 September 2015

तेरी याद आई है....

तेरी वो प्यारी सी मुस्कराहट याद आई है
खुद रोकर मुझे हँसाने की आदत याद आई है
तू नहीं है मेरे साथ अब शायद इसीलिए आज
अपनी वो बचपन वाली चाहत याद आई है।

तेरी हर एक अदा,तेरी एक एक बात
मुझे आज फिर से याद आई है
तेरी दोस्ती का वो वादा और फिर वादे से मुकर जाना
तेरी खुली जुल्फों की याद दिलाने आज ये रात आई है।

तू थी तो सब कुछ था पास मेरे
अब तू नहीं तो कुछ भी नहीं सिवाय मेरे
आज ही के दिन तू मिली थी मुझे 
उस लम्हे का एहसास दिलाने 
 मेरी जेब से तेरी तस्वीर निकल आई है।

तुझे बिना लालच के चाहा मैंने
और तुझे उस चाहत पर विश्वास नहीं है।
तेरा जिस्म ,तेरी बातें और तेरा गुरुर है कुछ खास
पर इसमें से कुछ भी स्थाई नहीं है...

तब तू भी थी पर तुझे एहसास नहीं था
अब एहसास है पर तेरा साथ नहीं है
तेरी कसमों पर तो यकीं न रहा
पर अपने राम पर विश्वास आज भी है।

मेरे विश्वास से आंख मिलाने तेरी याद आई है,
मेरे शब्दों को कविता बनाने तेरी याद आई है....

Wednesday 2 September 2015

वो पहली मुलाकात..

आज दो सितम्बर है, तुम्हें याद है आज ही के दिन तुम मुझे मिली थी....मेरे दिल में बस गई थी तुम्हारी सूरत...पहली बार तुम्हारी आँखों में खुद को देखा था सच में कितना प्यारा सोचती थी तुम...खुद मोम जैसी नाजुक होकर सबके सामने बहुत मजबूत होने का दिखावा कर रही थी..लेकिन तुम्हारा दर्द मुझसे कैसे छिपता...उसी दर्द को तो मैं भी झेल रहा था...अपने को खोने का दर्द क्या होता है ये 4 दिन पहले ही तो जाना था...बस यही सबसे ज्यादा पसंद था तुममें कि तुम अपने जज्बातों को दिल में ही दबा लेती थी...और यही सीखने के लिए तुम्हारे करीब आने का दिल किया ...तब तो मैं जानता भी नहीं था कि प्यार क्या होता है....प्यार की एक नई परिभाषा तुमने ही तो सिखाई। तुमने ही तो बताया कि प्यार भावनाओं से होता है शरीर से नहीं। 

मेरे जीवन, मेरे विचार,मेरी भावनाओं को बदलकर तुमने खुद को बदल लिया। मेरी गलती तो आजतक मुझे समझ में नहीं आई। उस दो सितम्बर में और आज में कितना परिवर्तन आ गया है। अभी कुछ दिनों बाद तुम्हारा जन्मदिन है। याद है तुम्हें पिछली बार जन्मदिन में तुमने क्या कहा था। शायद नहीं याद होगा,अच्छा ही है,जब भी पहले से बेहतर किसी को कुछ मिल जाता है तो कोई क्यों याद रखेगा पुरानी बातों को। लेकिन तुम ये भूल गई कि तुम्हारी वो बातें किसी की जिंदगी का आधार बन गई थीं। कोई तुम्हारी उन बातों पर भरोसा करके,तुम्हारे वादों पर भरोसा करके तुम्हारी जिंदगी को और अधिक खूबसूरत बनाने के स्वप्न संजोने लगा था। आज से कुछ दिनों के बाद जब फिर से तुम्हारा जन्मदिन आएगा तो शायद वो सारे लम्हें तुम्हें याद न आएं लेकिन मेरे लिए इस बार हर एक पल तुम्हारी यादों के साथ ही बीतेगा। तुम्हारी तस्वीर की वो प्यारी सी मुस्कराहट जो आज भी मेरे होठों पर मुस्कान ला देती है उसे भूलना मेरे लिए नामुमकिन ही है। मेरी ज़िन्दगी में इस अवांछित परिवर्तन के लिए आपका अपार सहयोग मेरे लिए एक नया, बुरा किन्तु आवश्यक अनुभव साबित हुआ है। 

तेरी तस्वीर को सीने से लगाकर,
इन गर्म रातों में, तन्हाइयों के बीच
बस तेरी वो मुस्कराहट याद आती है।
तुम थी तो सब कुछ था
तुम बिन सब व्यर्थ लगता है।
आवश्यकता नहीं अनिवार्यता थी तुम 

लेकिन ईश्वर ने तुमसे दूर करने का जो निर्णय लिया है कुछ अच्छा ही सोच कर लिया होगा। इसी विश्वास के साथ तुम्हारी यादों के सहारे जीवन में चिरंतर चलने और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
तुमने सब बातें भुला दीं, अपने वादों को भुला दिया लेकिन मैं अपना वादा निभाउंगा
और अपनी इस अधूरी प्रेम कहानी को अमर कर के दिखाऊंगा।

Tuesday 1 September 2015

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.3

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.2 से आगेे

यदि आरक्षण का भूत इसी तरह जीवित रहा तो इससे एक बड़ा नुकसान यह हो जाएगा कि जो थोड़े-बहुत संघर्षशील लोग आज अपने बल पर मुख्यधारा में मौजूद दिखते हैं, आरक्षण मिलने की स्थिति में वे मेहनत करना छोड़ सकते हैं। इसके अलावा अभी जिन गैर-आरक्षित निजी संस्थाओं में कुछ दरवाजे पिछड़ों के लिए खुले हुए हैं, खतरा है कि वहां उनसे से कहा जाए कि बेहतर होगा कि वे वहां जाएं, जहां उन्हें आरक्षण हासिल है। आज जब भारत तरक्की की राह पर आगे बढ रहा है तो उसे फिर से पीछे धकेलने की साजिश है ये।समाज को दो हिस्सों मे बाँटने की साजिश है। आजादी के छः दशक बाद भी यदि हम आरक्षण की राजनीति करते रहे तो लानत है हम पर। डॉ अम्बेडकर ने ही यह कहा था आरक्षण बैसाखी नही है।

ये भी सच है कि बहुत सी पिछड़ी जाति के लोग अभी भी मुख्य धारा मे शामिल होने से वंचित रह गये हैं और उनको आरक्षण की ज़रूरत है पर इतने साल आरक्षण होने के वावजूद भी वो वंचित क्यों रह गये है इसकी वजह जानने की कोशिश की किसी ने? नहीं? इसका कारण है जागरूकता का अभाव जो कि सही शिक्षा से ही संभव है और ग़रीबी जिसकी वजह से वो शिक्षित नहीं हो पा रहे और ऐसे लोग सिर्फ़ निचली जातियों मे नहीं बल्कि ऊँची जातियों में भी हैं। तो उनको आरक्षण क्यों नहीं?

आज देश मे एक व्यक्ति एक संविधान क्यों नही लागू होता? नौकरी के लिए परीक्षा में आरक्षण, पद में आरक्षण, प्रोमोशन में आरक्षण, योग्य लोगों को दरकिनार कर, कब तक इस आरक्षण के सहारे अयोग्य लोगों को हर आम व खास पदों पर बिठाया जाता रहेगा? कहीं दलित, महादलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा तो कहीं अनुसूचित जाति व जनजाति....महज नाम बदले हैं पर वोटबैंक के लालची नेताओं की नीयत नहीं। आरक्षण से किसी को नौकरी या पदोन्नति मिल सकती है, लेकिन कार्यकुशलता व पद की गरिमा बनाए रखने के लिए वो प्रतिभा कहाँ से लायेंगे, क्योंकि योग्यता किसी बाजार में नहीं बिकती। आज आरक्षण का जो धर्म और जाति पर आधारित ढांचा है वह पूरा का पूरा निरर्थक लगता है।

यदि आरक्षण देना ही है तो जातियों का अंतर खत्म कर देना चाहिए। आरक्षण सिर्फ गरीबों को दिया जाना चाहिए, भले ही वे किसी भी जाति के क्यों न हों फिर भी जिस देश का संविधान अपने आपको धर्म-निरपेक्ष, पंथ-निरपेक्ष और जाति-निरपेक्ष होने का दावा करता है उस देश में जातिगत और धर्म पर आधारित आरक्षण क्या संविधान की आत्मा पर ही कुठाराघात नहीं है। एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में आरक्षण का सिर्फ एक आधार हो सकता है वो है आर्थिक आधार लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ।




अब सवाल ये उठता है कि- 
१. क्या तथाकथित ऊंची जातियों में गरीब और शोषित लोग नहीं है?
२. आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति हो तो क्या हानि होगी?
३. शिक्षा में आरक्षण पाकर जब सामान शिक्षा हासिल कर ली फिर नौकरियों और प्रोन्नति में आरक्षण क्या औचित्य क्या है?
४. वर्ण-व्यवस्था से तथाकथित नीची जातियां भी विरत नहीं फिर भी कुछ को सवर्ण कहकर समाज को टुकड़ों में बांटने के पीछे कौन सी मंशा काम कर रही है?
५. अंग्रेजो के दमन को मुट्ठी भर युवाओं ने नाकों चने चबवा दिए फिर आज का युवा इतना अकर्मण्य क्यों है?
६. क्या हम गन्दी राजनीति के आगे घुटने टेक चुके हैं?
७. क्या आज सत्य को सत्य और झूठ को झूठ कहने वाले लोगों का चरित्र दोगला हो चला है कि आप से एक हुंकार भी नहीं भरी ज़ाती?
जागो ! विचार करो ! सत्य को जिस संसाधन से व्यक्त कर सकते हो करो वर्ना आने वाली नस्लें तुमसे भी ज्यादा कायर पैदा हुईं तो इन काले अंग्रेजों एवं अपनी राजनीतिक दुकान शुरू करने के लिए जमीन की तलाश करते इन आरक्षण के ठेकेदारों के रहमो-करम पर जियेंगी ।

लेख के अन्य भाग

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.1
आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.2

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.2

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.1 से आगे

सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है। परन्तु वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हे आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं है। पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं। कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित है?

कुछ हिन्दू जो मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। इतिहास में तो बहुत कुछ हुआ है उसका रोना लेकर अगर हम आज भी रोते रहे तो देश कैसे आगे बढ़ेगा? वर्तमान में तो युवा देश उन सब बातों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ रहा है परन्तु ये आरक्षण भोगी लोग सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जातियों के नाम पर देश को तोड़ने की बात करते है। इतिहास में ये हुआ और ये हुआ इस तरह की काल्पनिक बातों का हवाला देकर देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे है।

धीरे धीरे जातिवाद खत्म हो रहा है। परन्तु ये नेता उसे खत्म नहीं होने देंगे क्यूँकि ये लोग जानते है कि अगर शोर ना मचाया तो कुछ पीढ़ियों के बाद आने वाली सन्तति भूल जायेगी कि जाति क्या होती है। परन्तु इन लोगों को डर है कि ये होने के बाद कही आरक्षण कि मलाई हाथ से ना निकाल जाए और जाति के नाम पर चलने वाले वोट बैंक बंद ना हो जाए। ऐसे लोग अपने ख़द के उद्धार के लिए जातिवाद को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं । इन्हें बिना परिश्रम के जाति प्रमाण पत्र के सहारे पद चाहिये। भले ही अपने दायित्वों का निर्वाह नही कर पाये क्युंकि योग्यता तो होती नही। फिर देश का नाश हो या सत्यानाश इन्हे कोई फर्क नही पड़ता ।

जातिवाद देश को तोड़ने का काम करता है जोड़ने का नहीं। ये बात इन लोगों की समझ में नही आएगी क्यूँकि समझने लायक क्षमता ही नही है। वैसे भी जब किसी को बिना किए सब कुछ मिलने लगता है तो मेहनत करने से हर कोई जी चुराने लगता है और वह आधार तलाश करने लगता है जिसके सहारे उसे वो सब ऐसे ही मिलता रहे। यही आधार आज के आरक्षण भोगी तलाश रहे है। कोई मनु को गाली दे रहा है तो कोई ब्राह्मणों को ! कोई हिंदू धर्म को ! तो कोई पुराणों को ! कुछ लोग वेदों को तो कुछ लोग भगवान को भी ! परन्तु ख़ुद के अन्दर झाँकने का ना तो सामर्थ्य है और ना ही इच्छाशक्ति ! आज स्थिति यह है कि यदि आप केवल इतना ही पूछ लें कि आरक्षण कब खत्म होगा, तो तुरंत आपको दलित-विरोधी की उपाधि से लाद दिया जाएगा।

कब तक इस प्रकार हम लगातार निम्न से निम्तर स्तर पर गिरते जाएँगे। सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है, जिसका असर पूरे देश के साथ-साथ इन पिछड़े वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। सार्वजनिक बहस का स्तर और पैमाना भी गिरता चला जा रहा है। शिक्षण संस्थानों और सिविल सेवाओं की कुशलता एवं गुणवत्ता का स्तर क्या हो गया है ये वहाँ जाने से ही पता लग जाता है। अंबेडकर एक बुद्धिमान व्यक्ति थे। वो जानते थे कि ये आरक्षण बाद में नासूर बन सकता है इसलिए उन्होंने इसे कुछ वर्षो के लिए लागू किया था जिससे कुछ पिछड़े हुए लोग समान धारा में आ सके। अंबेडकर ने ही इसे संविधान में हमेशा के लिए लागू क्यूँ नहीं किया? सत्य तो यह है कि जिस तरह से शराबी को शराब कि लत लग जाती है इसी तरह आरक्षण भोगियों को इसकी लत लग गयीं है अब ये इसे चाह कर भी नही छोड़ सकते । क्यूँकि बिना योग्यता के सब कुछ जो मिल जाता है तो पढ़ने कि जरूरत ही कहाँ है। हर किसी को बहाना चाहिए होता है। अगर पिछड़ी जाति का होने की वजह से नौकरी नही मिलती तो अंबेडकर इतने बड़े पद पर नही पहुँच पाते।


नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था का और चाहे जो हाल हुआ हो, पर इसका एक स्पष्ट असर यह पड़ा कि इसके चलते समाज के समान रूप से विकास का मकसद खत्म हो गया। और तो और अब तो रिजर्व सीटों के लिए योग्य उमीदवार तक नहीं मिलते हैं। रिजर्व सीटें सालों-साल से खाली रहती चली आई हैं। इससे न केवल सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों का नुकसान हुआ है, बल्कि सरकारी क्षेत्रों में काम की भी हानि हुई है। 1993 में आईआईटी, मद्रास के निदेशक पी. वी. इंदिरेशन और आईआईटी, दिल्ली के निदेशक एन. सी. निगम ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की पचास फीसदी सीटें आईआईटी में खाली रह जाती हैं। आज भी आरक्षण के पश्‍चात् यू.पी.एस.सी, पी.एस.सी एवं अन्य पदों पर न्यूनतम योग्यता वाले अभ्यार्थी नहीं मिल रहे हैं और कई पद रिक्त रखना पड़ रहा है|



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आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.3

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.1

आरक्षण के लिए कभी मांग और कभी विरोध इस देश में समय समय पर होता ही रहता है। कोई इसे राष्ट्र विरोधी बताता है तो कोई इसे दलितों के उत्थान के लिए जरूरी बताता है। कोई कहता है कि आरक्षण हमारा संवैधानिक अधिकार है तो कोई कहता है कि आरक्षण 10 सालों के लिए दिया गया था अब समाप्त कर देना चाहिए। लेकिन क्या आपको पता है कि इस देश में आरक्षण की मूल पृष्ठभूमि क्या थी और कब शुरू हुई थी आरक्षण की मांग....

आरक्षण की कहानी देश में तब शुरू हुई थी जब 1882 में हंटर आयोग बना। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग की थी। बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू था। सन 1891 में त्रावणकोर के सामंत ने जब रियासत की नौकरियों में स्थानीय योग्य लोगों को दरकिनार कर विदेशियों को नौकरी देने की मनमानी शुरू की तो उनके खिलाफ प्रदर्शन हुए तथा स्थानीय लोगों ने अपने लिए आरक्षण की मांग उठाई।

1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू जी महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। 1908 में अंग्रेजों द्वारा पहली बार देश के प्रशासन में हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों के लिए आरक्षण शुरू किया। 1909 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया। 1919 में मोंटाग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया जिसमें आरक्षण के भी प्रावधान थे। 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण दिया। बी आर आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए सन् 1942 में सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की थी।

1950 में अंबेडकर की कोशिशों से संविधान की धारा 330 और 332 के अंतर्गत यह प्रावधान तय हुआ कि लोकसभा में और राज्यों की विधानसभाओं में इनके लिये कुछ सीटें आरक्षित रखी जायेंगी ।  आजाद भारत के संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं बरता जाएगा साथ ही सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गईं। राजशेखरैया ने अपने लेख 'डॉ. आंबेडकर एण्ड पालिटिकल मोबिलाइजेशन ऑफ द शेड्यूल कॉस्ट्स' (1979) में कहा है कि डॉ. आंबेडकर दलितों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे। यही आश्चर्यजनक कारण है कि संविधान सभा में दलितों के आरक्षण पर जितना जोर सरदार पटेल ने दिया उतना डॉ. आंबेडकर ने नहीं।
डॉ. रामगोपाल सिंह अपने शोध ग्रंथ 'डॉ. भीमराव आंबेडकर के सामाजिक विचार' में कहते हैं कि 'कदाचित उनका सोचना था कि एक तो आरक्षण स्थायी नहीं है और न इसे स्थायी करना उचित है और यह परावलंबन को बढ़ावा देता है जो कि डॉ. आंबेडकर के दलितों को स्वावलंबी बनाने की अवधारणा का विरोधी था।' तब डॉ अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि- “दस साल में यह समीक्षा हो कि जिनको आरक्षण दिया जा रहा है क्या उनकी स्थिति में कुछ सुधार हुआ कि नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप में कहा यदि आरक्षण से यदि किसी वर्ग का विकास हो जाता है तो उसके आगे कि पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नही देना चाहिए क्योकि आरक्षण का मतलब बैसाखी नही है जिसके सहारे आजीवन जिंदगी जिया जाये,यह तो मात्र एक आधार है विकसित होने का ।”

महात्मा गांधी ने 'हरिजन' के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में लिखा कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो। इसी तरह 26 मई 1949 को जब पंडित जवाहर लाल नेहरू कांस्टिट्वेंट असेंबली में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने जोर देकर कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी। 22 दिसंबर, 1949 को जब धारा 292 और 294 के तहत मतदान कराया गया था तो उस वक्त सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था।

भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यवस्था उत्पत्ति काल में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर की ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली।
आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी किया। उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के सामने आत्मदाह किये थे। नैनी जेल में न जाने कितने ही छात्रों को कैद करके यातनाएं दी गई थी। कितनों का कोई अता-पता ही नहीं चला। तब से लेकर आज तक एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी गई कि ऊंची जातियों के कमजोर हों या मेधावी सभी विद्यार्थी और नवयुवक इसे ढोने के लिए विवश हैं।

1953 में तो कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग उभरकर सामने आया OBC यानी अदर बैकवर्ड क्लास। इसने भी कोढ़ में खाज का काम किया। बिना परिश्रम किये सफलता पाने के सपनों में कुछ और लोग भी जुड़ गये। साल 2006 में तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण इस कदर बढा कि वह 95% के नजदीक ही पहुंच गया था। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वित्तपोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया पर सम्पन्न तबके को इससे बहर रखने को कहा । आज संविधान को लागू हुए 65 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 65 वर्ष पूर्ण कर चुका है किन्तु क्या दलित समाज स्वावलंबी बन पाया?


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