Monday 17 August 2020

#MediaMafia : डर और अहंकार का कॉकटेल है ये 'प्रजाति'

मीडियाकर्मियों और पत्रकारों से संपर्क संबंध को लेकर निजी तौर पर मेरा दायरा बहुत छोटा सा है। बहुत अधिक संबंध बनाने का ना ही समय मिलता है और ना ही मीडिया में ऐसा कोई गॉडफादर है, जिसके नाम पर बिना समय दिए संबंध बनाए जा सकें। संस्थानों में क्या हो रहा है, कौन कहां जा रहा है, इससे कोई खास मतलब नहीं रहा। लेकिन अभी हाल में ट्विटर पर एक दिन अचानक टॉप 50 ट्रेंड देख रहा था तो उसमें #MediaMafia दिखा। यह ट्रेंड कुछ  रोचक लगा क्योंकि 'मीडिया में माफिया' जैसा मैंने कभी कुछ महसूस नहीं किया था। और वैसे भी मीडिया जैसे जिम्मेदारी भरे काम में माफिया का क्या काम?

खैर, ट्रेंड देखा तो ट्वीट्स भी देखने की इच्छा हुई।  ट्वीट्स में कई तरह की बातें थीं। किसी को उसके संस्थान में कथित तौर पर लिखने से रोका जा रहा था, किसी को इस वजह से नौकरी नहीं मिल रही थी, क्योंकि उसका कोई 'गॉडफादर' नहीं था। कोई किसी संस्थान पर खबरें रोकने का दबाव बनाने का दावा कर रहा था। कोई किसी संस्थान पर नेताओं की पीआर खबरें चलाने का आरोप लगा रहा था। किसी को इस बात का कष्ट था कि मीडिया गरीबों की खबरें नहीं चलाता, तो कोई किसी संस्थान पर समाचारों की जगह पर विचार थोपने का आरोप लगा रहा था। इन ट्वीट्स में कई ऐसे भी थे जो पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मेरे सीनियर या जूनियर रहे। उनमें से कई से इस बारे में बात की। सभी के अपने तर्क थे। लेकिन इस बीच बीते कुछ दिनों में निजी तौर पर चिंतन करने के बाद मैं एक निष्कर्ष पर पहुंचा।

क्या होते हैं मीडिया माफिया

#MediaMafia को लेकर मेरा मत है कि यह और कुछ नहीं बल्कि छोटे स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों के मन में अपना निजी अहित होने का डर, मिडिल (मैनेजमेंट से मिलकर) स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों का सत्ता से डर और उनमें व्याप्त अहंकार के कॉकटेल से उपजी एक विशिष्ट प्रजाति है। नहीं समझे हैं तो समझिए, किसी एक इलाके में कोई माफिया कब बनता है? जब वहां के स्थानीय लोगों के द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को बढ़ावा दिया जाने लगता है। आप किसी गांव में रहते हैं, वहां किसी ने आपके पड़ोसी को दबाने की कोशिश की, वह दब गया, फिर उसका दुस्साहस बढ़ा, वह दूसरे के पास पहुंचा, उसे दबाया... फिर उसका क्षेत्र बढ़ता गया और वह लोगों को दबाता गया। आगे चलकर वह माफिया बन गया। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं कि वह बहुत दबाया गया हो, उसे व्यवस्था ने बहुत प्रताड़ित किया हो, फिर वह बागी बन गया हो और फिर उसका क्षेत्र बढ़ता जाए। लेकिन इस तरह का अपवाद मीडिया में सामान्य तौर पर नहीं होता।

चाटुकारों को पसंद करते हैं ये लोग
लोगों से हुई बातचीत और अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि मीडिया के एक हिस्से में एक व्यक्ति के नीचे कई लोग काम करते हैं। वह ऊपर वाला व्यक्ति व्यवस्थाओं को अपने तरीके से चलाने की कोशिश करता है। कई बार निजी स्वार्थ में, तो कई बार 'पूंजीपतियों' और 'सत्ताधारी पार्टी/नेताओं/अधिकारियों' से अपना सिस्टम सेट करने के लिए नीचे के लोगों को अपने तरीके से काम करने के लिए मजबूर करता है। वो उसे लिखने से रोकता है, खबरों का ऐंगल तय करता है, जो 'पत्रकारिता' करने की कोशिश करता है, उसे नौकरी से हटा दिया जाता है या हटाने की साजिश रची जाने लगती है। वो समाचार से ज्यादा विचार पर फोकस करता है। वो कई बार तो इस स्तर तक चला जाता है कि एक सामान्य व्यक्ति को भी उसके सामने खड़ा कर दिया जाए तो अपने 'कुकर्मों' का हिसाब नहीं दे पाएगा। वो अपने आसपास ऐसे ही लोगों को रखता है, जो उसके हिसाब से उसके फायदे की बात करें। लेकिन सवाल ये है कि इन्हें बनाता कौन है? क्या इनपर कोई अंकुश नहीं रहता?

इनके निर्माता 'हम' हैं
आपने कई बार ऐसी खबरें सुनी होंगी, खासकर छोटे संस्थानों में, कि कोई व्यक्ति एक संस्थान से गया तो अपने साथ कई लोगों को लेकर चला गया। या किसी ने कोई नया संस्थान जॉइन किया तो वहां पर अपने कई करीबियों को ले आया। ये सब सामान्य बातें हैं। हो सकता है कि जिन्हें वह लाया हो, उसमें से कई वाकई बेहद प्रतिभावान हों, लेकिन अधिकाशतः ये वही लोग होते हैं जिनसे उस व्यक्ति की 'ट्यूनिंग' अच्छी होती है। नए बच्चों में वो उस संस्थान से निकले लोगों को नौकरी देने की कोशिश करता है, जहां उसने खुद पढ़ाई की हो, या फिर जिस संस्थान में उसके अपने संबंध वाले शिक्षक हों। इस तरह के लोगों को 'हम' बनाते हैं। इस 'हम' में हर स्तर के लोग हैं। चाहे वह कॉपी राइटर हों या संपादक...

भूतकाल की कुंठा, अहंकार बन जाती है
मान लीजिए, एक स्थानीय संपादक या रिपोर्टिंग इंचार्ज अपने से छोटे स्तर के पत्रकार को लगातार दबाने की कोशिश करता है, तो जिसे दबाया जाता है, वह चुप क्यों रहता है, क्यों आवाज नहीं उठाता, क्यों मैनेजमेंट से उसकी शिकायत नहीं करता। बहुत परेशान होने के बाद वह नौकरी छोड़ देता है। नई जगह पर भी वही होता है। 20-25 साल बाद किसी तरह जब वह किसी छोटे-बड़े संस्थान में संपादक बन जाता है तो बीते समय में भरी कुंठा को अपने जूनियरों पर उतारता है, उन्हें प्रताड़ित करता है, उसे नौकरी मिलने के टाइम जैसी समस्याएं आई थीं, वैसी ही दिक्कतें वह दूसरों के लिए खड़ी करता है। उसे लगने लगता है कि संपादक बनने के लिए प्राथमिक आर्हता यही है कि आप 'अहंकारी' हो जाएं। उसका दायित्वबोध शून्य हो जाता है, उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि बड़ी शक्तियों के साथ बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं। हालांकि कई बार कोई किसी विशेष प्रकार के 'डर' और 'अहंकार' के कारण भी 'माफियाई' बीज वृक्षाकार रूप लेने लगता है। इस तरह के लोगों में पुराने अनुभवों का कोई रोल नहीं रहता, वे बस अहंकार में अपना काम करते रहते हैं।

इनसे मीडियाकर्मियों का नहीं, देश का नुकसान है
इस तरह के लोगों को जवाब देना सीखिए, ऐसे लोगों को उनकी जिम्मेदारी याद दिलाइए, उन्हें बताइए कि अगर आप संपादक, स्थानीय संपादक, बीट इंचार्ज, सेक्शन इंचार्ज कुछ भी हैं, और आप किसी को नौकरी दे रहे हैं तो उसके ज्ञान और काम को देखकर दीजिए, किसी को नौकरी से निकाल रहे हैं तो भी यही देखिए। निजी संबंधों के आधार पर खासकर इस पेशे में नौकरी देना-निकालना इसलिए नहीं ठीक है क्योंकि इस पेशे के साथ सैकड़ों-हजारों जिम्मेदारियां जुड़ी हैं। आम लोग आपसे अपेक्षा रखते हैं, सत्ता के साथ मिलकर, या संबंधों के लिए, या चाटुकारिता के चलते अगर उन आम लोगों की अपेक्षाओं को, उनके सपनों को कुचलने की कोशिश करोगे तो याद रखना वक्त सबका हिसाब लेता है... बाकी निचले स्तर पर जो काम कर रहे हैं, उनकी खामोशी इस तरह के लोगों को बढ़ावा देती है। ये लोग नहीं हैं, ये सिर्फ एक सोच है जिसमें कुछ लोग फंस गए हैं, इस सोच का खत्म होना मीडिया संस्थानों या पत्रकारों के लिए नहीं बल्कि आम लोगों के लिए जरूरी है... भारत के लिए जरूरी है...

हर जगह ये लोग नहीं 'पनपते'
इन सबके बीच अगर आप ऐसा सोचते हैं कि हर मीडिया संस्थान में ऐसा ही होता है तो आप गलत हैं। यह बात मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। मैं जिस संस्थान में काम करता हूं, वहां पहले नोएडा में रहा। तत्कालीन संपादक कहते थे कि 'हिंदी की कमाई खा रहे हैं तो हिंदी में गलती नहीं होनी चाहिए।' वह कहते थे कि हम जैसी हिंदी पाठक को देंगे, वह उसे ही सही मानेगा, इसलिए भाषागत अशुद्धियां ना जाएं, तभी बेहतर रहेगा। नोएडा में मैं भी एक टेस्ट पास करके गया था, और बाकियों ने भी टेस्ट पास किए थे। मेरे कॉलेज के एक सीनियर ने तो यहां तक कहा कि वह सिर्फ एक 'बिंदी' की गलती की वजह से उस संस्थान में काम नहीं कर पा रहा है, जहां फिलहाल मैं कर रहा हूं। नोएडा से लखनऊ आया, यहां भी वही तरीका देखा। कुल मिलाकर यहां निजी संबंधों के आधार पर लोगों को नौकरी नहीं, बल्कि उनके ज्ञान के आधार पर मिली। मुझे लगता है कि #MediaMafia वाला खेल उन संस्थानों में नहीं चलता होगा, जहां की व्यवस्थाएं लंबे समय से दुरुस्त हैं। हालांकि यह सिर्फ मेरा मत है, जो मेरे निजी अनुभव पर आधारित है। खैर, आप अगर पत्रकारिता कर रहे हैं और भविष्य में आगे जाइए, तो बस कुछ ऐसा न करिए कि लोग आपके लिए भी वही कहें जो आज आप दूसरों के लिए कह रहे हैं।

अंत में राहत इंदौरी के एक शेर की अधूरी पंक्ति के साथ अलविदा...
बन के इक हादसा बाजार में आ जाएगा, जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

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