Wednesday 24 February 2016

इस संस्कृति में रामभक्ति करें या न करें, लेकिन...

पिछले कुछ समय से हमारा देश अजीब दौर से गुजर रहा है। इस देश के हालात ऐसे हो गए हैं कि वोट के सौदागर सत्ता के सिंहासन पर बैठने के लिए नीचता की पराकाष्ठा पार करने से भी गुरेज नहीं करते। देश की इस स्थिति के लिए सिर्फ इस देश के राजनेता ही जिम्मेदार नहीं नहीं हैं अपितु इसके लिए कहीं ना कहीं हम स्वयं जिम्मेदार हैं। हम आज सामने वाले व्यक्ति को उसके तर्कों के आधार पर नहीं अपितु उसके तर्कों से सहमति रखने वाली राजनीतिक पार्टियों से जोड़ देते हैं। आज हम जिसे भी चाहते हैं उसे अपनी तरह का देखना चाहते हैं, आज हमारी स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि अगर हम कहते हैं कि आइए सब एक हो जाइए तो साथ में शर्त लगा देते हैं कि एक तब होंगे जब आप हमारी तरह से सोचने लगेंगे। इसको अगर एक सामान्य पंक्ति में कहें तो हम आज ‘एकता’ नहीं अपितु ‘एकरूपता’ चाहते हैं। इस एकरूपता की विचारधारा का प्रभाव सभी तरह की विचारधाराओं पर है।

कोई कहता है कि देश के मजदूरों एक हो जाओ तो वह साथ में यह भी कहने लगता है कि आपको एक होने के लिए ‘राम’ को मानना बंद करना होगा। अगर कोई यह कहता है कि इस देश के सनातनियों एक हो जाओ तो साथ में अप्रत्यक्ष शर्त लगा दी जाती है कि इसके लिए आपको मुसलमानों का विरोध करना होगा। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम जैसे हैं उसी तरह रहकर मात्र भारतीयता के नाम पर एक हो जाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि इस देश में कुछ लोगों को इस बात पर शर्म आती है कि हमारे लोकतांत्रिक मंदिर, यानी संसद पर हमला करके इस देश की एकात्मता पर प्रहार करने वाले अफजल गुरु नाम के आतंकी को फांसी पर लटका दिया जाता है।

इन शर्मीले लोगों के साथ-साथ एक अन्य वर्ग कहता है कि अगर वह हमला सफल हो जाता तो क्या होता? कुछ भ्रष्ट लोग ही तो मरते। मैं उनको बताना चाहता हूं कि इस देश की संसद में कोई व्यक्ति नहीं बैठता बल्कि इस देश की संसद में जनमत बैठता है। वह जनमत जिसे मैं और आप चुनते हैं, आपने जिसको अपना वोट दिया हो भले ही वह व्यक्ति उस संसद में ना पहुंचा हो लेकिन किसी अन्य की पसंद तो वहां बैठती है। सिर्फ मैं और मेरी विचारधारा, कैसी समानता है आपकी? जो काम आपके मन-मुताबिक ना हो उस पर आपको शर्म आने लगती है, कैसी मानवता है आपकी? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में जब छात्रों के वर्ग ने कहा कि ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा है…’ मुझे समझ नहीं आया कि यहां कातिल कौन है? देश का उच्चतम न्यायालय, देश का राष्ट्रपति, अफजल की फांसी के लिए अपने शहीद पति को मरणोपरांत दिए गए शौर्यता के प्रमाण पत्रों को लौटाने की बात करने वाली वे वीरांगनाएं, वे पुलिस वाले जिन्होंने अफजल को पकड़ा अथवा देश का हर एक वह नागरिक जो सड़क से लेकर संसद तक अफजल के कुकृत्य के लिए फांसी की मांग कर रहा था?

हो सकता है कि इन शर्मीले लोगों का अफजल या उसकी विचारधारा से कोई परिवारिक अथवा व्यक्तिगत संबन्ध हो इसलिए इन्हें अफजल के तथाकथित कातिलों के जिंदा होने पर शर्म आती हो, मुझे भी शर्म आती है लेकिन इस विषय को लेकर नहीं बल्कि कुछ अन्य विषयों को लेकर… अगर आप इससे आगे पढ़कर यह जानना चाहते हैं कि मुझे किन विषयों को लेकर शर्म आती है तो सबसे पहले आपने जो राजनीतिक विचारधाराओं के दुशाले ओढ़कर रखें हैं उन्हें उतार फेकें। इस लेख को आगे पढ़ने से पहले आप अपने ह्दय से अपनी प्रिय राजनीतिक पार्टी के झंडे को नीचे करके सिर्फ तिरंगे को स्थान दें और फिर आगे पढ़ें…

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश की एक केन्द्रीय मंत्री निरंजन ज्योति, सत्ता के मद में इस कदर चूर हो जाती हैं कि वह मान लेती हैं कि उसकी राजनीतिक पार्टी के पक्ष में मतदान करने वाले लोग ‘रामजादे’ हैं और उसके विपक्ष में मतदान न करने वाले लोग ‘हरामजादे’ हैं। क्या उनके कहने का अर्थ यह था कि 2014 में उनकी पार्टी को वोट देने वाले 31% लोग रामजादे तथा अन्य 69% लोग हरामजादे थे? अगर आज सबसे अधिक वोट पाने वाली पार्टी को देश की सरकार मान लिया जाता है तो क्या उसी आधार पर यह भी मान लिया जाए कि यह देश हरामजादों का है (बहुमत के आधार पर)।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश में एक प्रदेश की सत्ता का संचालन करने वाली पार्टी, टीएमसी के नेता तमस पॉल अपने प्रदेश की एक प्रमुख विपक्षी पार्टी की महिला कार्यकर्ताओं को रेप करवाने की धमकी दे डालते हैं।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश की जनता कुछ उम्मीदों के साथ मात्र वाकपटुता को देखकर एक व्यक्ति को इस देश की संसद का नेतृत्व करने के लिए भेजती है और वह व्यक्ति पार्टी स्वार्थ में लिप्त होकर विरोधियों को नक्सली करार देते हुए जंगल जाने की सलाह दे देता है। देश का प्रधान यहीं पर नहीं रुकता वह उस समय के सबसे लोकप्रिय युवा राजनेता अरविंद केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट करार देता है।

मुझे शर्म तब आती है जब ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ वाली संस्कृति को मानने वाले देश में एक बेटी ‘दामिनी’ सड़क पर तड़पती रहती है और कोई उसे उठाकर हॉस्पिटल तक ले जाने की कोशिश नहीं करता।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश के एक प्रदेश का एक पूर्व मुख्यमंत्री तथा केन्द्रीय सरकार का पूर्व मंत्री दिग्विजय सिंह एक महिला सांसद के लिए ‘100 टका टंच माल’ जैसी उपमाओं का प्रयोग करता है।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश में हजारों सेवा प्रकल्प चलाने वाले विश्व के सबसे बड़े गैर राजनीतिक संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकी और उससे जुड़े कार्यकर्ताओं को गुंडा कहा जाता है।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का एक नेता गिरिराज सिंह कहता है कि जो उसके ‘प्रधान’ का विरोध कर रहे हैं उनका स्थान पाकिस्तान में है भारत में नहीं। इतना ही नहीं वह महाशय अशफ़ाक उल्ला खां और वीर अब्दुल हमीद के देश में आतंक फैलाने वालों को एक समुदाय विशेष से जोड़कर पूरे समुदाय को आतंकी घोषित करने की कोशिश करते हैं।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले प्रदेश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का सर्वोच्च नेता कहता है कि बलात्कार करने वाले लड़कों को फांसी नहीं देनी चाहिए, लड़कों से गलती हो जाती है।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार, जिसने इस देश में सबसे अधिक शासन किया है, उसकी सर्वोच्च नेता अपने देश के बेटों पर भरोसा न करके विदेश इलाज कराने जाती हैं और इस देश से उम्मीद करती हैं कि हम उनके बेटे के भरोसे देश छोड़ दें।

मुझे शर्म तब आती है जब जाति व्यवस्था को पानी पी-पी कर कोसने वाले वामपंथी मात्र चर्चाओं में रहने के लिए एक छात्र को दलित बनाकर जातिगत राजनीति करने लगते हैं।

मुझे शर्म तब आती है जब इस देश में चंद राष्ट्रद्रोहियों की वजह से देश को कई नेता, अभिनेता, पत्रकार, शिक्षाविद् देने वाले विश्वविद्यालय को आतंक का अड्डा करार दिया जाता है।

मुझे शर्म तब आती है जब किसी ‘दल’ के लोग संस्कृति का झंडा लेकर हिंसा का रास्ता अपनाते हैं। इतना ही नहीं संस्कृति के ये तथाकथित ठेकेदार अपने शहीदों की पुण्यतिथि और उन शहीदों से जुड़े तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने से नहीं हिचकते। अपनी सांस्कृतिक भव्यता को समझाने की क्षमता तो इनमें रही नहीं इसलिए लाठी-डंडे और झूठे तथ्यों का सहारा लेते हैं।

मुझे शर्म तब आती है जब कुछ लोग देश के प्रधान के लिए ‘नीम का पत्ता कड़वा है, नरेन्द्र मोदी भ… है’ जैसी बातें बोलकर राज-द्रोह करते हैं और उन पर पुलिस जमकर लाठियां बरसाती है लेकिन जब कुछ लोग एक शैक्षिक संस्थान के अंदर ‘भारत तेरी बर्बादी तक….’ जैसे नारे लगाते हैं तो हमारे देश की वीर पुलिस आई-कार्ड देखने लगती है। किसकी नौकरी करते हैं ये पुलिस वाले… राजा की या राष्ट्र की…

मुझे शर्म तब आती है जब हत्यारों और बलात्कारियों को पकड़ने में नाकाम रहने वाली पुलिस एक नेता की भैंस को चोरी करने वाले को पकड़ लेती है।

मुझे शर्म तब आती है जब एक कामचोर कर्मचारी, एक टैक्स चोर और सड़क पर बिना घबराए सिग्नल तोड़ने वाला व्यक्ति पूछता है कि पीएम साहब अच्छे दिन कब लाएंगे?

मुझे शर्म तब आती है जब इतने सारे विषयों के होते हुए कोई एक आतंकी की फांसी को गलत बताते हुए उसके मानवाधिकार की बात करता है। जिस आतंकी में मानवता नाम की चीज ही नहीं है उसके लिए किस आधार पर मानवाधिकार की बातें की जाती हैं यह मेरी समझ से परे है। एक बात और इतिहास के द्वारा बताना चाहता हूं। शायद कुछ लोगों का उसमें विश्वास ना हो लेकिन मेरा है, अपने विश्वास के आधार पर एक अतिमहत्वपूर्ण विषय की ओर आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।

दोस्तो, विभीषण रावण के राज्य में रहने वाला एक ऐसा व्यक्ति था जिसके सहयोग के बिना श्रीराम को सीता नहीं मिलतीं, जिनके सहयोग के बिना लक्ष्मण जीवित नहीं बचते, जिसके सहयोग के बिना रावण के राज्य की गोपनीय बातें हनुमान-श्रीराम को पता नहीं लगतीं। एक लाइन में कहें तो ‘श्रीराम का आदर्श भक्त’… इतना कुछ होते हुए भी आज उस घटना के हजारों सालों के बाद भी किसी पिता ने अपने बेटे का नाम ‘विभीषण’ नहीं रखा। जानते हैं क्यों?

क्योंकि इस संस्कृति में आप राम भक्ति करें या ना करें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर राष्ट्रभक्ति नहीं की तो कभी माफ नहीं किए जाएंगे।

Tuesday 23 February 2016

कैसी मानवीयता है आपकी, यह दोहरा चरित्र क्यों?

आज वामपंथ को लेकर मेरे मन में कुछ सवाल उत्पन्न हुए। मुझे उन प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे इसी अपेक्षा के साथ इस ब्लॉग को लिख रहा हूं। उन सवालों को आपके समझ रखने से पहले मैं एक बात स्पष्ट कर दूं कि मुझे वामपंथ के मूल विचार से कोई आपत्ति नहीं है अपितु मुझे तो लगता है कि जहां से वामपंथ आया है वहां के लिए वह सर्वश्रेष्ठ था। अपने विषय को स्पष्ट करने से पहले एक उदाहरण देता हूं। मान लीजिए आप तमिलनाडु में रहते हैं जहां 12 महीने गर्मी रहती है, उस मौसम के हिसाब से आप लुंगी या कोई हल्का कपड़ा पहनते हैं लेकिन फिर किसी कारणवश आप जम्मू-कश्मीर में रहने के लिए चले जाते हैं। क्या आप वहां पर भी सिर्फ इस तर्क के साथ कि अरे मैं तो तमिलनाडु का हूं, वहां मैंने हमेशा लुंगी पहनी है, इसलिए यहां भी वही पहनूंगा कहकर वही पुराने कपड़े पहनकर जी सकते हैं?

आपका जवाब ना ही होगा, क्योंकि आपको पता है कि वातावरण, परिस्थिति और परिवेश के अनुसार परिवर्तित होना ही समझदारी है।

यही स्थिति आज वामपंथ की है। आधुनिक वामपंथ के जनक कार्ल मार्क्स ने कहा था कि समाज में दो ही वर्ग होते हैं: पूंजीपति और सर्वहारा। कार्ल मार्क्स जहां के थे वहां वास्तव में दो ही वर्ग थे, एक शोषक यानि पूंजीपति और दूसरा शोषित यानी सर्वहारा। लेकिन क्या भारत में भी दो ही वर्ग रहे हैं? हो सकता है भारतीय इतिहास को सिरे से नकार देने वाले वामपंथी यहां भी कह दें कि भारत में भी यही दो वर्ग थे लेकिन जिसने सकारात्मक दृष्टि के, बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए भारतीय इतिहास का अध्ययन किया है, उसे पता होगा कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति का एक विशिष्ट वर्ग था। हर एक व्यक्ति स्वयं में पूर्ण था लेकिन फिर भी एक दूसरे पर आश्रित था। यही भारत की सामाजिक व्यवस्था थी। अगर इसी के साथ हम वामपंथी इतिहास पर नजर डालें तो हमें पता लगेगा कि मार्क्‍सवाद को बड़े पैमाने पर व्यवहार में उतारने का एक बड़ा प्रयास माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीन में किया गया, जिसके फलस्वरूप 1949 में चीनी लोक गणराज्य की स्थापना हुई। आरंभ में साम्यवादी चीन को समस्त प्रकार की सोवियत सहायता प्राप्त हुई। ऐसा लगा कि इतनी विशाल आबादी और क्षेत्र वाले ये दोनों साम्यवादी देश पूंजीवादी विश्व के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर विश्व के अन्य देशों में साम्यवाद का प्रसार करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

1960 के दशक के आरंभ में दोनों देशों के बीच वैचारिक मतभेद उभरने लगे। इसका एक कारण दोनों के अलग-अलग राष्ट्रीय हित और उसके अनुसार मार्क्‍सवाद की अलग-अलग व्याख्याएं थीं। इसके साथ एक प्रमुख कारण यह था कि निकिता ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत संघ पूंजीवाद के साथ ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ की नीति अपनाना चाहता था जबकि माओ पूंजीवादी देशों के प्रति युद्धरत रहने पर बल दे रहे थे। वामपंथ वहां स्थायित्व नहीं ले पाया।

1920 में जब वामपंथ ने भारत में पैर रखा तो उसके सिद्धान्त वही थे जो उसका मूल आधार थे, लेकिन चूंकि भारत के परिपेक्ष्य में यहां का परिवेश वामपंथ को अपना चुके अन्य देशों की तरह नहीं था इस नाते यह तय था कि इससे भारत का नुकसान ही होगा। बिना परिस्थितियों का अध्ययन और विश्लेषण किए वामपंथ भारत में जड़ें जमाने की कोशिश करने लगा। जिस भारतीय संस्कृति को धर्म से जोड़कर कहा गया कि ‘धर्म अफीम की तरह होता है’ उस संस्कृति का चिंतन ही नहीं किया गया। यानी जिस स्थान पर रहकर वहां के तथाकथित धर्म को अफीम बताया गया, उन पूजा पद्धतियों में बुराइयां रही थीं। वहां धर्म के नाम पर शोषण किया जाता था। लेकिन इस भारत की स्थिति तो ऐसी नहीं थी। मैं मानता हूं कि भारत में भी एक लंबे समय तक कुछ वर्गों को दबाने की भरसक कोशिशें की गई हैं लेकिन अगर हम मूल भारतीय संस्कृति के बारे में सोचे तो उसमें कोई कमी नहीं। पूर्ण समानता आधारित संस्कृति को लाने के लिए आपको भारत की शिक्षा देनी होगी। अगर आप भारत में जर्मनी या रूस की शिक्षा देंगे तो यह संभव ही नहीं है कि इस देश में शांति बनी रहेगी।

आप ईश्वर को नहीं मानते, हमें कोई समस्या नहीं, आपका पूजा पद्दतियों में विश्वास नहीं, हमें कोई समस्या नहीं, आप धर्म को भी नहीं मानते फिर भी कोई समस्या नहीं लेकिन किसी एक विषय पर तो आपको हमारे साथ खड़ा होना होगा या किसी एक विषय पर तो हमें अपने साथ खड़ा कर लीजिए। आपसे हम कहते हैं कि ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ के विषय पर ही आप हमारे साथ आ जाइए लेकिन आप नहीं आते। चलिए हम आपसे पूछते हैं कि आखिर आप किस विषय पर हमें अपने साथ लेना चाहते हैं? हमें पता है आपका जवाब ‘मानवता’ होगा, लेकिन यह कैसी मानवता है कि आप एक कलबुर्गी की हत्या पर अवार्ड वापसी का दौर शुरू कर देते हैं लेकिन देश के दिल, दिल्ली में खड़ी देश की संसद पर हमला करके दिल्ली पुलिस के पांच जवानों, सीआरपीएफ की एक महिला कर्मी और 2 सुरक्षा गार्डों के हत्यारे के समर्थन में नारे लगाते हैं। वहीं, जब एक स्वयंसेवक की खुलेआम आपकी विचारधारा के लोग उसके परिवार के सामने हत्या कर देते हैं तब आपके मुंह में दही जम जाता है। कैसी मानवीयता है आपकी? यह दोहरा चरित्र क्यों?

मैं निंदा करता हूं किसी भी व्यक्ति की हत्या की, चाहे वह किसी भी विचारधारा का अनुपालक हो लेकिन महोदय एक वामपंथी साहित्यकार की हत्या पर आप देश के उस पीएम से इस्तीफा मांगने लगते हैं जिसे इस देश की जनता ने चुन कर भेजा है, एक इखलाक की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या पर आप पूरे देश को असहिष्णु करार देते हैं परंतु क्या एक ऐसे व्यक्ति के लिए आपका मानवाधिकार नहीं है, जिसे आपकी विचारधारा से ग्रसित लोगों से समर्थन प्राप्त नक्सलियों के द्वारा, वनवासियों के आधुनिकीकरण में प्रयासरत, शिक्षा का विस्तार कर रहे वनवासी कल्याण आश्रम के पूर्णकालिक को मार दिया जाता है। जल-जंगल-जमीन के लिए तथाकथित लड़ाई लड़ने वाले, हमारे सुरक्षा जवानों की हत्या करने वाले नक्सलियों की आप वकालत करने लगते हैं। आप कहते हैं कि वे अगर अपनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं तो बुराई क्या है? लेकिन आपकी ये दलीलें कश्मीर के मुद्दे पर कहां चली जाती हैं? आप अपनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ें तो क्रांतिकारी और अगर हम अपनी जमीन को बचाए रखने की बात करें अपने लिए नहीं आम जनता के लिए तो असहिष्णु हो जाते हैं। आप बात करते हैं समानता की, कैसी समानता? जिन देशों में वहां की महिलाओं को मात्र वस्तु समझा जाता हो वहां पर महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए आंदोलन शुरू हुए और हमारे देश में तो भव्यता की नींव पर टिकी एक संस्कृति है जिसमें महिला को पूज्य माना गया है। आप उन कुछ साल पुरानी अपरिपक्व संस्कृतियों के नजरिए से इस देश में महिला सशक्तीकरण के पैमाने तय करते हैं।

सबसे ऊपर दिए गए उदाहरण के आधार पर जो इस क्षेत्र(जिसे मैं राष्ट्र कहता हूं) के लिए उपयुक्त हो उसे स्वीकार करिए। सिर्फ स्वयं को बुद्धिजीवी दिखाने के लिए ऐसे काम मत करिए जिससे सोवियत संघ से भी बुरी हालत हो जाए। इस देश को आधुनिक विश्वगुरु बनाइए। एक साथ मिलकर काम करिए। देश की संकल्पना को साकार करिए और अपने ही विषय को वसुधैव कुटुंबकम के नजरिए से सिर्फ एक बार देखने की कोशिश करिए।

Monday 15 February 2016

JNU के 'प्रगतिवादियों' को राष्ट्रवादी शिक्षा देनी होगी


आज वॉट्सऐप पर एक मित्र ने मेसेज किया कि अगर कश्मीर के लोग चाहते हैं कि वे अलग हो जाएं तो उनकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए, उनको स्वतंत्र कर देना चाहिए ताकि वे अपने हिसाब से जी सकें। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से अपने उस मित्र को मेरे प्रिय बागी कवि विनीत चौहान की दो पंक्तियां समर्पित करना चाहता हूं-

अपनी इस केसर घाटी को इतना लहू दे चुके हैं हम,
अब तो जो भी फूल खिलेंगे, सारे फूल हमारे होंगे।


वैसे उन्होंने सच ही कहा कि कश्मीर का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि वह भारत से अलग हो जाए। ऐसे लोगों के लिए विनीत ने कहा है, ‘कश्मीर वह बेवफा औरत हो चला है जो खाता हमसे है, पहनता हमसे है, जीता हमसे है और नैन-मटक्के पड़ोसी के साथ करना चाहता है।’ मेरे उस मित्र की बात का जवाब आज मैं राजनीतिक तौर पर देने की स्थिति में नहीं हूं क्योंकि मैंने पिछले लोकसभा चुनाव में अपना वोट बीजेपी को दिया था। वही बीजेपी जो विपक्षी पार्टी होने के दौरान अफजल गुरु की फांसी के लिए आंदोलन करती थी, वही बीजेपी जिसके मातृ संगठन के द्वारा एक राष्ट्र, एक ध्वज, एक निशान और एक विधान के नारे सुनकर मुझे लगता था कि राष्ट्रीय एकात्मता के लिए कार्य करने वाला अन्य कोई संगठन हो ही नहीं सकता। उसी बीजेपी ने सत्ताकांक्षा के नशे में चूर होकर दो ध्वजों के नीचे खड़े होकर स्व. मुफ्ती साहब से हाथ मिलाया।

यह वही मुफ्ती साहब थे जिन्होंने घाटी में सफल चुनाव का श्रेय पाकिस्तान, सीमापार के तत्वों और हुर्रियत को दिया था। यह वही मुफ्ती साहब थे जिनके दिसंबर 1989 में भारत का गृहमंत्री बनते ही आतंकवादियों ने इन्हीं की बेटी रूबिया को अगवा कर लिया था, और फिर भारत सरकार को रूबिया की रिहाई के बदले पांच आतंकवादियों को जेल से छोड़ना पड़ा था।


यह वह दौर था जब घाटी में आतंकी गतिविधियां अपने चरम पर पहुंच गई थीं और आतंकवाद कश्मीरी पंडितों को वहां से खदेड़कर एक इस्लामिक गणतंत्र की मांग करने लगा था। लेकिन इस देश की सबसे बड़ी तथाकथित लोकतांत्रिक पार्टी ने इतिहास को भूलते हुए अपने सिद्धान्तों से समझौता कर लिया और सत्ता लोलुपता के चलते घाटी में गठबंधन कर कमल खिला दिया। जब ऐसा हुआ तो मुझे लगा कि बीजेपी का यह कदम उन पचास हजार से अधिक सैनिकों के मुंह पर तमाचा है जिन्होंने कश्मीर के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आपने प्राणों की बाजी लगा दी।
दोस्तों, मैं आपको इस समस्या के बारे में बेहतर तरीके से बताने के लिए थोड़ा सा इतिहास में ले जाऊंगा। वैसे तो कश्मीर को हथियाने के लिए पाकिस्तान की ओर से लगातार कोशिश होती रहती हैं, लेकिन 1971 के बाद से पाकिस्तान इसे लेकर ज्यादा गंभीर हो गया है। पाकिस्तान ने जितने कश्मीर पर कब्जा कर रखा है उसे ही नहीं झेल पा रहा है तो और ज्यादा लेकर क्या करेगा? जब कश्मीर से स्वतंत्र होने की मांग उठती है तो यहां कुछ लोगों को लगता है कि भले ही कश्मीर स्वतंत्र हो जाए लेकिन पाकिस्तान के पास ना जाए। फिर लोग कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग करने लगते हैं।

ऐसे लोगों को मैं इतिहास का एक पृष्ठ याद दिलाना चाहता हूं, 1971 में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के एक हिस्से को पूर्ण स्वतंत्र बांग्लादेश बना दिया था, उसी तरह अब पाकिस्तान भारत के टुकड़े करना चाहता है। पाकिस्तान अब कश्मीर को अपना हिस्सा नहीं बनाना चाहता अपितु वह चाहता है कि कश्मीर अलग करके वह 1971 का बदला ले सके और इसी उद्देश्य के साथ पाकिस्तान से आतंकी भेजे जाते हैं जो भारत में ‘अलगाववादी’ कहे जाते हैं। भोले-भाले कश्मीरियों को बरगलाकर ये अपने साथ मिलाते हैं और कश्मीर में अलग झंडा लेकर भारत का विरोध करने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। जब लोग यह कहते हैं कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए तो मेरा उनसे कहना है कि अगर जनमत संग्रह कराना है तो कश्मीर में नहीं बल्कि पूरे भारत के लोगों से कराइए। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि तीन प्रदेशों के बराबर हम सिर्फ एक जम्मू कश्मीर पर खर्च करते हैं। इस देश के लोगों के द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे से कश्मीर का खर्च चलता है, ऐसे में कश्मीर का क्या करना है यह तय करने का अधिकार सिर्फ वहां रह रहे लोगों का नहीं बल्कि पूरे भारत का है।

जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो जम्मू-कश्मीर हमारे (यानी भारत के) साथ नहीं था। 20 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया और 24 अक्टूबर तक जम्मू कश्मीर की सेना ने पाकिस्तानी हमलावरों के आगे घुटने टेक दिए थे, पाकिस्तानी सेना श्रीनगर के नजदीक पहुंच गई थी। महाराजा हरि सिंह को लगा कि अब अगर पाकिस्तान को रोका नहीं गया तो ना सिर्फ जम्मू-कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखने का सपना टूट जाएगा बल्कि जम्मू-कश्मीर एक इस्लामिक राष्ट्र बन जाएगा। इस मामले में भारत की सेना कुछ कर नहीं सकती थी क्योंकि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं था। आखिरकार महाराजा हरि सिंह ने भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को पत्र लिखकर कहा कि ‘आप हमारी पाकिस्तान से रक्षा कीजिए, बदले में हम अपना पूरा का पूरा राज्य भारत में मिलाने को तैयार हैं।’ इसके बाद एक लिखित समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस विषय में आप यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के साथ महाराजा हरि सिंह ने एक शर्त भी रखी। हरि सिंह अपनी संस्कृति की विशिष्टता को बनाए रखना चाहते थे इसलिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर को एक विशेष राज्य का दर्जा देने की शर्त रखी। कश्मीर के भारत राष्ट्र में विलय के बाद भारतीय सेना ने कार्रवाई शुरू की लेकिन वह उतना आसान नहीं था क्योंकि इस अवधि में वहां बर्फबारी होती है और पाकिस्तानी सेना काफी अन्दर तक घुस आई थी इसलिए भारतीय सेना को दो-ढाई महीने का समय लग गया। चूंकि कश्मीर की सेना की जगह अब भारतीय सेना आ गई थी और जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय का समझौता भी कर लिया था तो पाकिस्तान को लगा कि जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा करना अब मुश्किल है, इसलिए पाकिस्तान ने कूटनीतिक प्रयास शुरू कर दिया। पाकिस्तान ने मान लिया था कि जम्मू-कश्मीर पर तो अब हम कब्ज़ा कर नहीं सकते लिहाजा जितना इलाका हमारे हाथ लगा है उसी को अपने आधीन कर लिया जाए। इसी उद्देश्य के साथ पाकिस्तान ने अमेरिका से संपर्क किया और समझौता कराने को कहा।

समझौता हुआ लेकिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने एक गलती कर दी, नेहरु ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी, जबकि युद्धविराम का नियम है कि युद्धविराम का फैसला कैबिनेट की मीटिंग बुलाकर किया जाता है, पर नेहरु ने अकेले ही यह घोषणा ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से कर दी। जिसके बाद पाकिस्तान की सेना जहां तक थी वहां तक का पूरा क्षेत्र पाक अधिकृत कश्मीर बन गया। आज धारा 370 के आधार पर कश्मीर का झंडा अलग है, कश्मीर का कानून अलग है, कश्मीर का संविधान अलग है। फिर भी जब कोई सरकार कहती है कि कश्मीर, भारत का अभिन्न अंग है तो मुझे लगता है कि देश को धोखा देने की कोशिश की जा रही है।

आपको पता होगा कि भारत सरकार आपके लिए कोई भी खर्चा करती है तो उसका हिसाब कैग (Comptroller and Auditor General of India) रखता है लेकिन जम्मू-कश्मीर पर आज तक जितना भी खर्च हुआ है उसका हिसाब कैग के पास नहीं है। इस बारे में स्वर्गीय राजीव दीक्षित के द्वारा जब कैग से पूछा गया तो कैग ने कहा कि कश्मीर के खर्च का हिसाब जम्मू-कश्मीर की सरकार के पास है। उस जम्मू-कश्मीर से भारत को बाहर करने के लिए जब नारे लगाए जाते हैं तो पीड़ा होती है। यह पीड़ा इसलिए होती है क्योंकि जिस राजनीतिक पार्टी को मैंने व्यक्तिगत रूप से लोकसभा चुनाव में वोट दिया था उस राजनीतिक पार्टी के राज में एक साल में जितने पाकिस्तानी झंडे घाटी में लहराए गए उतने तो पिछले 68 सालों में नहीं लहराए गए। क्या आपने इतने भारत विरोधी नारे देश की राजधानी में पहले कभी सुने। लेकिन फिर भी थोड़ी सी संतुष्टि इस बात की है कि कम से कम इन भारत विरोधियों पर कुछ कार्रवाई तो हो रही है। खैर, बुद्धिजीवियों का गढ़ कहे जाने वाले जेएनयू के ‘प्रगतिवादी’ छात्रों को अब राष्ट्रवादी शिक्षा देनी होगी।


Tuesday 9 February 2016

वैलंटाइंस डे स्पेशल: धिक्कार है 'संस्कृति' के ठेकेदारों पर


वैलंटाइंस डे आने वाला है, उसकी भूमिका वाले 'डे' भी चल रहे हैं। अच्छी बात है कि इस प्रकार के पाश्चात्य दिनों को मनाने वाले लोग भारतीय उत्सवधर्मिता को प्रदर्शित कर रहे हैं लेकिन इस देश के कुछ फर्जी देशभक्त और सोशल मीडिया के तथाकथित क्रांतिकारी 14 फरवरी को एक नया शहीदी दिवस बनाकर पेश करने में लगे हैं। पिछले कई दिनों से देख रहा हूं कि एक मेसेज सोशल मीडिया पर काफी शेयर हो रहा है। मेसेज है - 'हममें से ज्यादातर लोग जानते हैं कि 14 फरवरी वैलंटाइंस डे के रूप में मनाया जाता है। लेकिन आपको पता होना चाहिए कि 14 फरवरी 1931 को लाहौर में हमारे देश के महान सपूतों को फांसी दी गई थी। हम केवल वैलंटाइंस डे को सेलिब्रेट करते हैं। इस मेसेज को सभी को शेयर करें।'

ऐसे कई मेसेज पिछले कई सालों से सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे हैं। इतना ही नहीं इन 'देशभक्तों' के अनुयायियों को ऐतिहासिक तथ्यों की जांच किए बिना शेयर करने से भी कोई गुरेज नहीं है। ऊपर दिए गए मेसेज के अलावा एक अन्य मेसेज भी सोशल मीडिया पर चल रहा है। उस मेसेज के मुताबिक 14 फरवरी को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई थी।

इन दोनों ही प्रकार के संदेशों का ऐतिहासिक तथ्यों से किसी प्रकार का संबन्ध नहीं है। वास्तविकता यह है कि 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की, कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। महात्मा गांधी ने इस विषय को लेकर 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए।

भगत सिंह से जुड़े साहित्य को पढ़ने पर पता लगता है कि जब भगत सिंह ने सांडर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने के बाद असेंबली में बम फेंकने का निर्णय लिया तब चंद्रशेखर आजाद ने पूरी योजना तैयार की कि किसी तरह और किन रास्तों से बम विस्फोट करने के बाद निकालकर भागा जा सकता है। उन्होंने यह योजना भगत सिंह को बताई लेकिन भगत सिंह ने इस पर अमल करने से साफ तौर से मना कर दिया। भगत सिंह गिरफ्तार होना चाहते थे। इस मुद्दे पर आजाद से भगत सिंह की गर्मागर्म बहस भी हुई। भगत सिंह का कहना था, 'हम असेंबली में बम किसी की जान लेने के लिए नहीं फेंकने वाले हैं। हमारा उद्देश्य है, लोगों को जगाना और उस उद्देश्य को मैं गिरफ्तार होकर ज्यादा बेहतर तरीके से पूरा कर सकता हूं। केस चलेगा, जिरह होगी और उस जिरह हमें अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाने का मौका मिलेगा।'

इस पर आज़ाद का कहना था कि केस का मतलब होगा मौत की सजा। इसके बाद भगत सिंह ने आजाद से कहा, 'मैं जान देने के लिए ही गिरफ्तार होना चाहता हूं, मैं जीवित रहकर आजादी के आंदोलन में उतना योगदान नहीं दे पाऊंगा जितना मरकर दे सकता हूं।' भगत सिंह बोले, 'मेरी मौत कई भगत सिंह पैदा कर देगी।' दोनों महान क्रांतिकारियों के बीच लंबी बहस हुई लेकिन भगतसिंह अपनी जिद के पक्के थे। आखिरकार आजाद को उनके आगे हार माननी पड़ी। फिर वही हुआ जो भगतसिंह चाहते थे। उनकी उनकी 116 दिन की भूख हड़ताल और उसके बाद तय तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को हुई फांसी ने पूरे देश को झकझोर दिया और आजादी के आंदोलन की एक मजबूत नींव पड़ गई।

मुझे पीड़ा इस बात की है कि संस्कृति के ठेकेदार तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करके इस राष्ट्र को खोखला कर रहे हैं। क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है कि हमें उसे बचाने के लिए झूठे तथ्य गढ़ने पड़ें। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे 'डेज' का समर्थन नहीं करता लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं प्रेम का विरोधी हूं। प्रेम तो शाश्वत है। प्रेम तो मेरे आराध्य श्री राम ने किया था, जिन्होंने अपनी जीवनसंगिनी के लिए नदियां छोड़िए समुद्र पर पुल बना दिया। प्रेम के नाम पर अश्लीलता और फेसबुक से शुरू होकर वॉट्सऐप से होते हुए बिस्तर पर जाकर खत्म हो जाने वाले प्रेम के कारण ही आज इस देश में वृद्धाश्रम की परंपरा शुरू हो गई है। इन संस्कृति के ठेकेदारों ने ऐसा खेल किया कि विकिपीडिया के 14 फरवरी के पेज पर भी यही दिया है कि इसदिन भगत सिंह को फांसी दी गई थी।

लेकिन वैलंटाइंस डे न मनाने का यह मतलब बिलकुल नहीं है कि मैं लाठी-डंडे लेकर किसी एक दल का 'कर्मठ' कार्यकर्ता बन जाऊं। यदि वास्तव में धर्म और संस्कृति के ठेकेदारों को भारतीय संस्कृति इतनी समृद्ध लगती है तो उसके महत्व को बताएं जिससे कि उस भारतीय विचार के प्रति व्यक्ति के मन में सम्मान और स्थायित्व स्थापित हो। इस तरह से तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करके तथा लाठी डंडे चलाकर ये लोग अपनी नीचता को प्रमाणित करते हुए 'मेरी' संस्कृति का नुकसान कर रहे हैं। काश! अब भगत सिंह के वामपंथी ठेकेदारों की 'राष्ट्रीय भावनाएं' आहत होतीं।

'लेडी सिंघम', आपसे ऐसी उम्मीद न थी

भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाकर 'लेडी सिंघम' के नाम से ख्याति पाने वाली यूपी के बुलंदशहर जिले की डीएम बी. चन्द्रकला एक सेल्फी मामले को लेकर काफी चर्चा में रहीं। मामला था कि फरहान नाम के एक युवक ने उनके साथ सेल्फी खींचने की कोशिश की तो उन्होंने इसे निजता का हनन बताते हुए शांति भंग करने के आरोप में धारा 151 के तहत जेल भेज दिया। दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले डीएम महोदया उस लड़के के साथ अपनी मर्जी से फोटो खिंचा चुकी हैं।

निश्चित तौर पर किसी के साथ बिना अनुमति तस्वीर खींचने की कोशिश करना गलत है लेकिन क्या डीएम महोदया ने उस लड़के के दृष्टिकोण से सोचकर देखा? एक महिला जिलाधिकारी जो कि लीक से हटकर कुछ कर रही हो, जिसके भ्रष्टाचार विरोधी कुछ विडियोज वायरल हो चुके हों और जो बिना किसी राजनीतिक दबाव के काम कर रही हो ऐसी महिला के साथ एक सामान्य व्यक्ति खास कर युवा के लिए फोटो खिंचाना एक सपना होता है। किसी बड़े चेहरे के साथ फोटो क्लिक कराना एक सामान्य स्वभाव है लेकिन यदि डीएम साहिबा को इसमें निजता का हनन लगता है तो मुझे लगता है कि वह अभी स्वयं का स्तर तय नहीं कर पाई हैं।

खैर उस लड़के को तो जमानत मिल गई लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ वह और भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदी दैनिक समाचार पत्र, दैनिक जागरण के पत्रकार द्वारा सेल्फी मामले से संबन्धित जानकारी मांगी गई तो डीएम महोदया बिफर पड़ी और शिष्टाचार समझाने लगीं। पद के अहंकार में चूर डीएम महोदया यह भूल गईं कि जिस व्यक्ति से वह बात कर रही हैं वह लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ का एक हिस्सा है, वह यह भूल गईं कि जब राजनीति, नौकरशाही को अपने पैर की जूती बनाने की कोशिश करती है तो इसी स्तंभ के सहारे नौकरशाही को स्थायित्व मिलता है। डीएम महोदया का पत्रकार से कहना था कि आपकी बहन, पत्नी के साथ कोई फोटो खींचे तो कैसा लगेगा?

डीएम महोदया, हमारे क्षेत्र में यानि पत्रकारिता के क्षेत्र में जब कोई निर्भीक महिला पत्रकार समाज में जाती है तो बहुत से लोग उसके साथ तस्वीर लेने की कोशिश करते हैं और वह महिला पत्रकार खुशी-खुशी निर्भीकता फोटो खींचने देती है। वह महिला पत्रकार भी किसी की बहन, बेटी, पत्नी और मां होती है लेकिन उसे पता होता है कि हजारों लोग उसके प्रशंसक हैं, हजारों लोग उसके जैसा बनना चाहते हैं। ऐसी ही कुछ स्थिति आपके साथ भी है, आपको भी लाखों लोग फॉलो करते हैं। सिविल की तैयारी करने वाले हजारों छात्र आपके जैसा बनने का सपना देख रहे हैं।

बड़ा पद बड़ी जिम्मेदारियां लेकर आता है लेकिन इस बात को न समझते हुए अपने पद का दुरुपयोग करके लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को तोड़ने की कोशिश करना दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। जब मैंने बी चन्द्रकला महोदया का पहला विडियो देखा तो लगा कि अगर ऐसी प्रशासनिक अधिकारी से अन्य अधिकारी भी प्रेरणा लेकर काम करें तो देश बदल सकता है लेकिन आज की स्थिति को देखकर मुझे यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि अगर नौकरशाही ऐसे ही बेलगाम हो गई और उस बेलगाम नौकरशाही पर पत्रकारिता खामोश हो गई तो देश कहां जाएगा?

पत्रकारिता के क्षेत्र में आने में व्यक्ति पैसे के लिए नहीं आता है, वह पत्रकारिता के क्षेत्र में इस लिए आता है जिससे कि वह प्रशासन और आम जनता के बीच संवाद-सेतु का काम कर सके लेकिन डीएम महोदया ने तो उस पत्रकार पर ही एफआईआर करा दी। डीएम महोदया के भ्रष्टाचार निरोधक लक्ष्य को लेकर मैं कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहा लेकिन उनकी कार्यपद्धति पर तो प्रश्नचिन्ह बनता ही है....


 (डीएम और पत्रकार की बातचीत को सुनने के लिए यहां क्लिक करें)

Friday 5 February 2016

वंचितों को आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन...

कुछ दिन पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला रोहित वेमुला नाम का एक मेधावी छात्र आत्महत्या कर लेता है। निश्चित ही आत्महत्या जैसा कदम उठाना कोई सामान्य बात नहीं होती, तय है कि वह बहुत परेशान रहा होगा तभी उसने ऐसा कदम उठाया। आंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएशन नामक जिस संगठन का वह कार्यकर्ता था, उसकी विचारधारा का मैं समर्थन नहीं करता लेकिन फिर भी मैं उस छात्र विशेष की योग्यता पर पूर्ण विश्वास रखता हूं। रोहित के परिवार के साथ मेरी पूरी संवेदनाएं हैं। देश ने निश्चित तौर पर एक काबिल बेटा खोया है, इस मामले की निष्पक्ष जांच करा कर दोषियों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए लेकिन उस छात्र की मौत के बाद भारत को सबसे अधिक पत्रकार देने वाले दिल्ली के आईआईएमसी में जो चल रहा है उससे बहुत आहत हूं।

पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाला एक छात्र, उत्कर्ष सिंह फेसबुक पर पोस्ट डालता है। उस पोस्ट को पढ़कर उसके कुछ सहपाठियों की तथाकथित तौर पर भावनाएं आहत होती हैं और वे इसकी शिकायत कॉलेज प्रशासन से करते हैं। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए उत्कर्ष माफी मांगता है और आपत्तिजनक शब्दों को अपनी पोस्ट से हटा देता है। यहां तक मामला मुझे समझ में आया लेकिन इसके बाद उसी कॉलेज के एक अन्य छात्र की भावनाएं इस कदर आहत हो जाती हैं कि वह एससी-एसटी आयोग में शिकायत कर देता है। चलिए यहां तक भी ठीक है। शिकायत करना और अपनी भावनाएं आहत करवाना इस देश में एक संवैधानिक अधिकार है लेकिन क्या इस मामले के निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें उस पोस्ट को नहीं पढ़ना चाहिए जिसको लेकर आईआईएमसी के छात्र प्रशांत की भावनाएं आहत हुईं।
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यह उत्कर्ष की पुरानी पोस्ट है जिसमें घेरे में वे शब्द हैं जो प्रशांत की भावनाओं को आहत करते हैं। मैंने कुछ साल पहले एक फिल्म देखी थी ‘रांझणा’ जिसमें ‘रंडीरोना’ शब्द प्रयोग बोला गया था। तब किसी की भावनाएं आहत नहीं हुईं। दिन में 500 फेसबुक पोस्ट देखता हूं जिसमें लिखा होता है ‘….अब मीडिया का रंडीरोना शुरू होगा।’ लेकिन हम तो अपनी भावनाएं आहत नहीं करवाते।

उत्कर्ष ने जो कुछ लिखा उसे एक बार समझकर देखिए। वह तो बाहें फैलाकर बिछड़ों को अपनाना चाहता है, वह तो खुलकर कह रहा है कि आओ और हमारे साथ मिलकर खत्म कर दो इस खाई को, वह तो आपसे पहले जातिप्रथा को समाप्त करने की वकालत कर रहा है, कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात कर रहा है लेकिन हमारे कुछ भावी पत्रकार अपनी भावनाएं आहत करा लेते हैं। कैसी मानसिकता के लोग हैं वे जो आयोग को इस पोस्ट के खिलाफ लिख रहे हैं।

मुझे उत्कर्ष की इस पोस्ट में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि इस देश के तथाकथित नंबर वन चैनल इस विषय को लेकर दिनभर डिबेट करा रहे हैं। एक पीएचडी छात्र की आत्महत्या के बाद जो होता है उसे बहस का मुद्दा बनाने वाले इन तथाकथित समाज के प्रहरी चैनलों के गर्म कमरों में बैठने वाले क्रांतिकारी पत्रकारों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सियाचीन में देश के 10 बेटों का इंतजार ‘काल का गाल’ कर रहा है। इन क्रांतिकारियों को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान में खुले आम घूमने वाला एक आतंकी भारत को धमकियां दे रहा है। इन क्रांतिकारियों को फर्क पड़ता है एक मसालेदार टीआरपी वाली आधारहीन खबर से। ये एक कॉलेज के वैचारिक मतभेद को राष्ट्रीय मुद्दा बना देते हैं।
मैं नहीं जानता उत्कर्ष कौन है, वह किस विचारधारा से जुड़ा है लेकिन मुझे इतना जरूर पता है कि आगे आने वाले सालों में वह एक समाचार संस्थान में काम कर रहा होगा। उस उत्कर्ष की पीड़ा ना ही मैं समझ सकता और ना ही आप। जिन चैनल की माइक आईडी लेकर वह दूसरों से जवाब मांगना चाहता था उसी माइक आईडी के सामने उसे जवाब देना कैसा लग रहा होगा? और रही बाद उस तथाकथित दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या की तो यह बात सामने आ चुकी है कि वह दलित था ही नहीं। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है कि एक ओबीसी कैटिगरी के छात्र द्वारा एससी कैटिगरी का जाति प्रमाण पत्र बनवा लेने पर बहस करे? क्या ऐसी लचर व्यवस्था पर सवाल नहीं उठना चाहिए?

एक दलित छात्र आत्महत्या कर लेता है तो देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता शोक संवेदना व्यक्त करने लगते हैं। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल जी तो पीएम मोदी को देश से माफी मांगने की सलाह तक दे डालते हैं लेकिन अगर यह मामला मीडिया में ना उछाला जाता तो क्या ये नेता वहां जाते? पिछले 10 सालों में हैदराबाद के कुल 10 दलित छात्रों ने आत्महत्या की लेकिन क्या राहुल गांधी एक बार भी वहां गए? एक होनहार छात्र की आत्महत्या पर पीएम मोदी को माफी मांगने की सलाह देने वाले केजरीवाल, गजेन्द्र सिंह की आत्महत्या पर कहते थे कि किसी की मौत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए लेकिन आज?

खैर, आज आहत भावनाओं के साथ संघर्ष कर रहे भावी पत्रकार प्रशांत की कुछ पुरानी फेसबुक पोस्ट देखीं। पहली पोस्ट में प्रशांत जी श्रीराम मंदिर बना रहे हैं, दूसरी पोस्ट में ऐसा लग रहा है जैसे वह देश के प्रत्येक नागरिक में समानता चाहते हैं, तीसरी पोस्ट में अटल जी की कविता के साथ इस बात से इनकार कर रहे हैं कि वह किसी जाति विशेष से आते हैं, चौथी पोस्ट में वह एक ऐसे शब्द का प्रयोग कर रहे हैं जिसे सामान्य तौर पर सभ्य नहीं माना जाता, पांचवीं पोस्ट में आम आदमी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में देश में परिवर्तन की क्रांति लाना चाहते हैं और छठी पोस्ट में भी वह मंदिर निर्माण के आधारभूत स्तंभ के रूप में स्वयं को प्रदर्शित कर रहे हैं। इस तस्वीर को मैं आपके सामने इसलिए नहीं रख रहा कि आप इन विचारों के विरोधाभास को देखें अपितु मैं इसे आपके सामने इस लिए रख रहा हूं ताकि आप इस बात पर एक बार अवश्य चिंतन करें कि जब ऐसी विरोधाभासी विचारधारा वाला व्यक्ति आज एक वैचारिक मतभेद के चलते उसे एक समुदाय विशेष का मुद्दा बना देता है तो कल को जब वह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सबसे मजबूत और निष्पक्ष स्तम्भ का एक अंग बनेगा तो देश कहां जाएगा?
मित्रो, मैं एक समाचार संस्थान में काम करता हूं। मेरे सहकर्मियों को शायद यह भी नहीं पता होगा कि मैं किस जाति वर्ग से आता हूं। जिस दिन से मेरे मन में ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना ने जन्म लिया उस दिन मैंने सबसे पहले अपने नाम से जाति सूचक शब्द को हटाया। मैं भी आरक्षण का विरोध करता हूं लेकिन मेरा मानना है कि वंचितों को, वनवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण मिलना चाहिए। चार पहिया गाड़ियों से घूमने वाले और जातिगत आरक्षण के नाम पर सरकार का शोषण कर प्रतिभावान विद्यार्थियों के अधिकार पर डाका डालने वाले लोगों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए। योग्यता, क्षमता और प्रतिभा किसी आरक्षण की मोहताज नहीं होती।
मुझे गर्व है उस उत्कर्ष पर जिसने अपने मित्रों की भावनाओं का सम्मान करते हुए अपनी पोस्ट से उन सामान्य से शब्दों को हटाया जो तथाकथित तौर पर आपत्तिजनक थे लेकिन उसने कॉलेज प्रशासन के सामने अपनी पूरी पोस्ट को हटाने से साफ तौर से इनकार कर दिया। ऐसी सहिष्णुता और ऐसा विश्वास जिस युवा में होगा वह निश्चित ही पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ बेहतर करेगा। साथ ही मैं प्रशांत से भी कहना चाहता हूं कि अपने विवेक के आधार पर निर्णय करना सीखो दोस्त, कहीं ऐसा ना हो कि किसी के बहकावे में आकर स्थिति ऐसी हो जाए कि आज से 10 साल के बाद खुद से ही नजर न मिला पाओ। आवश्यक है कि हम सभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच के बारीक अंतर को बरकरार रखें साथ ही अपने अधिकारों का दुरुपयोग न करें।

Tuesday 2 February 2016

'प्रभु' की रेल का शर्मनाक चेहरा

पिछले कुछ दिनों में विभिन्न समाचार पत्रों में रेल मंत्री सुरेश प्रभु के कार्य की काफी सराहना पढ़ने को मिली। ख़बरों को पढ़कर लगता था की मेरी अगली ट्रेन की यात्रा शायद कुछ शानदार अनुभवों वाली होगी। कुछ पारिवारिक परेशानियों के चलते पिछले कुछ दिनों से लखनऊ में था। इसी दौरान मध्य प्रदेश के रीवा जिले में एक कार्यक्रम के लिए जाना हुआ। रीवा से वापसी के दौरान 31 जनवरी को रीवा-आनंद विहार ट्रेन से दिल्ली जाते समय ट्रेन के स्लीपर कोच में जो कुछ घटित हुआ वह कहीं ना कहीं रेलवे की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगाता है। उस यात्रा के दौरान जो कुछ घटित हुआ वह वास्तव में काफी दुःखद है।
मैं, ट्रेन के एस-5 कोच की 26 नंबर सीट पर लेटा था। ट्रेन रीवा से जब इलाहाबाद पहुंची तो मेरे ठीक सामने वाली 31 नंबर साइड लोअर बर्थ पर तीन अधेड़ उम्र के लोग आकर बैठ गए। कुछ देर बाद वहां से टिकट पर्यवेक्षक महोदय गुजरे।
 
उनमें से एक व्यक्ति ने पर्यवेक्षक महोदय से कहा, ‘सर, हमारा वेटिंग टिकट है, अगर कोई सीट हो तो दे दीजिए।’ पर्यवेक्षक महोदय ने तत्काल अपना मुंह खोला और बोले, ‘एक सीट का 500 रुपए लगेगा।’ मैं चुपचाप लेटा था क्योंकि अगर वेटिंग टिकट है तो थोड़ा सा तो झेलना ही होगा। लेकिन टीटीई  की बात ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। एक ओर जहां प्रभु की रेल भ्रष्टाचार मुक्ति के बड़े-बड़े दावे कर रही है वहीं दूसरी ओर उनका एक कर्मचारी इलाहाबाद से अलीगढ़ के लिए 500 रुपए में सीट बेच रहा था। खुलेआम इस तरह की मांग की कल्पना मैंने नहीं की थी।

एक पत्रकार होने के नाते मैंने उन लोगों से पूरा विषय फिर से पूछा। नियमतः यदि ट्रेन में कोई सीट चार्ट बनने के बाद भी खाली रह जाती है तो टिकट पर्यवेक्षक की जिम्मेदारी है कि RAC वाले व्यक्ति को पूरी सीट उपलब्ध कराए और यदि उसके बाद भी कोई सीट खाली रहती है तो वेटिंग टिकट वाले को सीट दे और यदि फिर भी सीट खाली रहती है तो जनरल टिकट के साथ आरक्षित डिब्बे में यात्रा कर रहे यात्रियों को पेनल्टी के साथ सीट दे।
लेकिन इस ट्रेन के हालात कुछ और ही थे। सहयात्री से पूरा विषय जानने के बाद मैं उनके साथ टीटीई के पास गया। सामान्य तौर पर मैं कहीं पर यह नहीं बताता कि मैं पत्रकार हूं। मैंने टीटीई  से कहा कि आप 500 रुपये में सीट कहां से देते और वो 500 रुपए कहां जाते? तो उनका जवाब था, ‘यह नेतागिरी कॉलेज तक ही रखो और अगर तुमसे दुःख नहीं देखा जा रहा है तो अपनी सीट दे दो। मैं कुछ नहीं जानता।’ इतना कहने के बाद वह मेरे सहयात्री से बोले, ‘तुमको वेटिंग टिकट के साथ आरक्षित डिब्बे में बैठने का अधिकार नहीं है। वो तो मैंने तुमको घुसने दिया है तो चुपचाप बैठ जाओ। ज्यादा नेताओं को लेकर आओगे तो इनके साथ तुमको भी रात में अन्य यात्रियों को डिस्टर्ब करने के आरोप में बंद करवा दूंगा।’ यह मेरे लिए एक आश्चर्यजनक स्थिति थी। 

जितनी आसानी से पर्यवेक्षक महोदय ने रात के 10:20 बजे यह बात बोली थी उतना ही आसान मेरे लिए उनकी इस करतूत को आईना दिखाना था। मैंने तत्काल तय किया कि इस स्थिति के विषय में ट्वीट के द्वारा माननीय रेल मंत्री महोदय को अवगत कराऊंगा। लगभग 5 मिनट तक दो टिकट पर्यवेक्षक मुझे धमकी भरे अंदाज में नियम कानून समझाते रहे। फिर मैंने उनको अपना परिचय देते हुए कहा कि आप अपना नाम बता दीजिए तो वह बोले, ‘मीडिया बहुत अच्छा है क्या? मेरे पर्स में 20 पत्रकारों के कार्ड पड़े हैं। जाकर अपनी सीट पर सो जाओ नहीं तो समस्या में पड़ जाओगे।’
 
तभी फतेहपुर स्टेशन आ गया। उन में से एक टीटीई बाहर उतर गया। मैं चाहता तो बहस कर सकता था लेकिन मैं समझ गया था कि इसका कोई मतलब नहीं निकलेगा। मैंने अपना स्मार्टफोन निकाल कर रेलमंत्री को ट्वीट करने की कोशिश की लेकिन अंबानी के ‘रिलायंस’ ने मेरा साथ नहीं दिया। नेटवर्क की समस्या के चलते मैं ना ही किसी को कॉल कर सकता था और ना ही मेसेज। उन दोनों में एक टीटीई की उम्र मुश्किल से 26 के आस-पास रही होगी। तय है कि अपने छात्र जीवन में उस युवा ने भी भ्रष्टाचार का सामना किया होगा, और संभवतः उसे भी लगता होगा कि काश इस देश में भ्रष्टाचार ना होता। लेकिन आज जब उसके पास जिम्मेदारी है, जब वह कुछ कर सकता है तब वह उसी भ्रष्टाचार की गंदगी में फंस गया।

खैर मैं अपनी सीट पर आकर वापस लेट गया और अपनी सीट पर उनमें से एक अन्य को बैठाया। उस व्यक्ति के मुंह से बस इतना ही निकला कि ‘काश! मोदी जी को यह पता होता’… मैं उसकी सकारात्मक उम्मीद को देखकर हैरान था। कुछ ही देर में मुझे नींद आ गई, फिर मेरी आंख खुली तब तक ट्रेन खुर्जा पहुंच चुकी थी। मैं एक बार फिर से टीटीई का नाम जानने के लिए उसकी सीट पर गया लेकिन वह भी जा चुके थे। मैं चुपचाप आकर अपनी सीट पर बैठ गया और आनंद विहार रेलवे स्टेशन के आने का इंतजार करने लगा। मेरे मन में एक ही सवाल था कि बिना खुद को बदले क्या हमारा ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ की उम्मीद करना ठीक है?

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...