Wednesday 27 July 2016

एक साल पहले कलाम की मौत पर इसलिए रोया था पूरा देश

आज से ठीक एक साल पहले देश ने अपने एक मजबूत स्तंभ को खो दिया था, देश के लिए यह एक अपूर्णीय क्षति थी। आज आपको अपने जीवन का एक अनकहा सच बताने जा रहा हूं। मेरे जीवन में एक दौर ऐसा भी था, जब मन के एक हिस्से में मुस्लिमों के प्रति दुर्भावना बसी हुई थी। यह दुर्भावना मेरे अध्ययन की कमी और कुछ हद तक कुसंगति के कारण थी। उस समय मेरी उम्र मुश्किल से 15-16 साल रही होगी। वह एक ऐसा समय था जब मैं ना ही उस संगठन के मूल विचार को समझता था जिससे मैं जुड़ा था और ना ही मैं हिन्दू शब्द की मूल परिकल्पना को समझता था। मैं अपने परिवार का एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो इस तरह की सोच रखता था। मेरी इस तरह की सोच के लिए पूरी तरह से मैं ही जिम्मेदार था क्योंकि मैं इस्लाम का प्रतिनिधि उन आतंकवादियों को मानने लगा था जो निर्दोषों की जान लेते हैं। 
उसी दौरान एक दिन मेरे बाबा जी ने मुझे कलाम साहब की जीवनी पढ़ने को दी, वह मेरे विचारों में परिवर्तन के लिए पर्याप्त थी। सिर्फ 3 दिन में मेरे विचारों में अद्भुत परिवर्तन आया। मेरे विचार बदल चुके थे, मेरे लिए इस्लाम की परिभाषा बदल चुकी थी और साथ ही उसका प्रतिनिधित्व करने वाले भी बदल चुके थे। मदरसे से पढ़कर निकला एक व्यक्ति राष्ट्र निर्माण में अपना अभूतपूर्व योगदान किस तरह से दे सकता है, इस बात को डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने प्रमाणित किया था। तमिलनाडु जैसे स्थान पर रहने के बावजूद कलाम साहब शाकाहारी बन गए। यह कोई सामान्य बात नहीं है क्योंकि हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जहां कुछ मांसाहारी लोग यह तक कहते हैं कि जीव-जंतु तो खाने के लिए ही बने हैं और घास-फूस इंसानों के लिए नहीं बल्कि जानवरों के लिए है। अगर वे किसी ऐसे स्थान पर रह रहे होते जहां शाकाहारी भोजन की सुविधा उपलब्ध नहीं होती तो समझ में आता है लेकिन दिल्ली जैसी जगह पर ऐसी बातें करके वे क्या जताना चाहते हैं यह समझना मेरे जैसे ‘नासमझ’ के लिए बहुत ज्यादा मुश्किल हो जाता है। खैर, यह उनकी व्यक्तिगत ‘चॉइस’ है लेकिन कलाम साहब ने जो किया उसे सामान्य श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता।
कलाम साहब की जीवनी में मैंने एक वाक्य पढ़ा। उस एक वाक्य को मैं अपने जीवन में प्रतिस्थापित करने का प्रयास कर रहा हूं। वाक्य था, ‘अंग्रेजी आवश्यक है क्योंकि वर्तमान में विज्ञान के मूल काम अंग्रेजी में हैं। मेरा विश्वास है कि अगले दो दशक में विज्ञान के मूल काम हमारी भाषाओं में आने शुरू हो जायेंगे, तब हम जापानियों की तरह आगे बढ़ सकेंगे…’ राष्ट्रभाषा के प्रति उनके समर्पण को देखकर उनके उद्देश्य को मूर्त रूप देने के लिए मैंने अपने स्तर पर प्रयास शुरू किया और अपने सभी कार्यों को हिंदी में करने का प्रयास आज भी करता रहता हूं।
डॉ. कलाम के व्यक्तित्व में आपको एक बच्चे की ईमानदारी, एक वयस्क की ऊर्जा, एक वयस्क की परिपक्वता और एक बुजुर्ग का अनुभव दिखाई देगा। भारत में राष्ट्रपति का पद, एक ऐसा पद होता है जिसका चुनाव सीधे आम जनमानस के द्वारा नहीं होता लेकिन संपूर्ण भारत में शायद ही कोई ऐसा हो जो कलाम साहब का विरोध करने की क्षमता और मानसिकता रखता हो। वह चाहते थे कि भारत विश्व पटल पर एक विशिष्ट पहचान के साथ विश्व शक्ति बनकर खड़ा हो, भारत ज्ञान के शक्ति पुंज के रूप में उभरे यानी भारत पूर्व की भांति विश्वगुरु के पद पर पुनः प्रतिस्थापित हो। उनको सच्ची श्रद्धांजलि देने की इच्छा रखने वालों के लिए अनिवार्यता है कि वे डॉ कलाम के स्वप्न को यथार्थ रूप देने के लिए एक साथ मिलकर राष्ट्रीय एकात्मता को आधारभूत स्तंभ मानते हुए एकजुट हों।
लेकिन इसमें एक समस्या है, हमारे समाज में, हमारे बीच में एक ऐसा वर्ग भी है जो भारत को ‘गाली’ देता है… उसे भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपराओं में सिर्फ कमियां और खामियां नजर आती हैं। अब ऐसे लोगों की नकारात्मक सोच के साथ एक सकारात्मक स्वप्न को मूर्त रूप देना कैसे संभव हो पाएगा? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुताबिक, डॉ कलाम में दम (आत्म नियंत्रण), दान और दया का अनूठा संगम व्याप्त था। लेकिन संभव है कि वह ‘खास’ वर्ग इस बात का विरोध मात्र इसलिए करने लगे क्योंकि यह बात एक स्वयंसेवक राजनेता ने कही है। हमारा वह वर्ग कहता है कि संघ के प्रचारक अगर शादी करके बच्चे पैदा करते तो शायद देश के लिए ज्यादा बेहतर कर पाते लेकिन कलाम साहब ने भी तो बच्चे नहीं पैदा किए, तो क्या उन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया? क्या सच में भारत और भारतीय संस्कृति के पास ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके कारण लोग यहां शिक्षा और ज्ञान की लालसा के साथ आते थे? कुछ तो जरूर रहा होगा, उस ‘कुछ’ को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। साहब, कलाम साहब ने भारत को ‘अग्नि’ संपन्न बनाया, उन्होंने भारत को उस स्थिति में ला दिया जहां से भारत विश्व शक्तियों की नजर से नजर मिलाकर बात कर सकता है, जहां से भारत पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिस्थापित होने के लिए प्रथम कदम बढ़ा रहा है।
जमीन से जुड़े उस व्यक्ति को, जिसने भारत को रॉकेट सफर करने का हौसला दिया, उसे मैं राष्ट्रवादी मानता हूं। मेरे राष्ट्रवाद की परिभाषा डॉ. कलाम से शुरू होकर उन पर ही समाप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति ने गीता और कुरान दोनों का अध्ययन किया हो उसे एक संप्रदाय विशेष से जोड़ना कहीं न कहीं बेईमानी लगता है। अपने व्यक्तिगत जीवन में मैंने भारत को परमाणु संपन्न बनाने वाले डॉक्टर अब्दुल कलाम से बहुत कुछ सीखा है और मैं चाहता हूं कि भारत का मुसलमान जाकिर नाईक ने समर्थन में खड़े होने से पहले एक बार डॉ. कलाम को अनिवार्य रूप से पढ़ें।

Tuesday 26 July 2016

'दलित उद्धारक' पत्रकारों के नाम खुला पत्र

नमस्ते भाई,
हो सकता है कि आपको मेरे संबोधन से भी आपत्ति हो क्योंकि रिश्तों की पवित्रता से अधिक महत्व आप भौतिकता को देते हैं लेकिन मैं साफ कर दूं कि इस पत्र में जो कुछ भी है वह एक राष्ट्रवादी लिख रहा है। एक ऐसा राष्ट्रवादी जो किसी तथाकथित राष्ट्रवादी राजनीतिक पार्टी का अंधभक्त नहीं है लेकिन उसे अपनी संस्कृति और सभ्यता पर बहुत गर्व है। आपसे निवेदन है कि कृपया अगले 10 मिनट के लिए आपने जिस भी ‘वाद’ का चश्मा पहन रखा है, उसे उतार कर रख दें और फिर इस पत्र को पढ़ें।
मैं पिछले कई सालों से जानने की कोशिश कर रहा था कि आखिर वामपंथियों की मूल समस्या क्या है? वे पत्रकारिता जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी के साथ धोखा कैसे कर सकते हैं, वे पत्रकार होते हुए भी अपनी कुत्सित मानसिकता पर ‘मानवतावाद’ का चोंगा डालकर पूरे देश पर थोपने का प्रयास कैसे कर सकते हैं? ऐसे कई सवाल मन में आते थे लेकिन इनका उत्तर मिलना नामुमकिन सा लगता था। इसका कारण यह था कि वामपंथी विचारधारा से संबंध रखने वाले जिन पत्रकारों या पत्रकारिता के शिक्षकों से मेरा संवाद होता था, वे एक सीमा तक ही वामपंथ को मानते थे। वे एक सीमा में थे शायद इसीलिए मेरा और उनका संवाद हो पाता था। लेकिन पिछले 2 सालों में मेरे सामने वामपंथ का जो रूप आया उसने मुझे पूरी तरह से हिलाकर रख दिया।
आप कहते हैं भारत में सवर्णों ने दलितों पर अत्याचार किए, क्या आपने वह इतिहास नहीं पढ़ा है जिसमें सामान्य वर्ग के जो लोग इस्लाम स्वीकार नहीं करते थे उनसे मुगल शासकों द्वारा मैला उठवाया जाता था। क्या आपने वह इतिहास नहीं पढ़ा है जिसमें वे लोग सहनशीलता की पराकाष्ठा का प्रदर्शन करते हुए अपना शीलभंग तक करवा लेते थे। मैं मानता हूं कि कुछ तथाकथित सनातनी पूजा पद्धति को मानने वालों ने ऐसे लोगों को खुद से दूर कर दिया, उन्हें मंदिरों में नहीं जाने दिया लेकिन साहब आप उस दौर का वह इतिहास क्यों भूल जाते हैं, जब मेरे कुल के बड़े, विनायक दामोदर सावरकर ने तथाकथित सवर्ण होते हुए भी ‘अपनों’ के विरोध में अछूत माने जाने वाले वर्ग को मंदिर में प्रवेश दिलवाया था। और यह सब उन्होंने उसी उद्देश्य के साथ किया था जिस उद्देश्य के साथ आज मैं यह पत्र लिख रहा हूं।
आप अपने नाम के आगे ‘सवर्ण सूचक शब्द’ इसलिए लगाते हैं ताकि जब दलित उद्धार के नाम पर कोई आग भड़के तो उस आग में घी डालते हुए आप जता सकें कि देखो, हम सवर्ण होते हुए भी दलितों के साथ खड़े हैं… आप ऐसा इसलिए करते हैं ताकि जो वामपंथ पूरी दुनिया से शून्य के स्तर तक पहुंचता जा रहा है उसे दलितों के सहारे समाज में प्रतिस्थापित कर सकें। आप संघ को गालियां देते हैं, मैं संघ को बहुत करीब से जानता हूं और पूरी जिम्मेदारी के साथ कहता हूं कि संघ की मूल विचारधारा में कहीं कोई बुराई नहीं है। और बुराई होगी भी कैसे, जिस संगठन के एक-एक सिद्धान्त पर लोगों ने बिना किसी स्वार्थ के अपना जीवन खपा दिया उसमें बुराई की संभावना तो नगण्य हो जाती है। मैं जिस संगठन से आता हूं, वहां ना ही किसी की जाति पूछी जाती है और ना ही जाति के आधार पर किसी को सम्मान दिया जाता है। लेकिन जब आपसे संघ की बात करो तो आप बजरंग दल, साध्वी प्राची और बीजेपी पर आ जाते हैं।
rssअरे, संघ की मूल विचारधारा पर बात करिए ना। वामपंथ के नाम पर पूरे देश में गिने-चुने लोग बचे हैं फिर भी आपके समर्थक ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ एवं ‘भारत मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हैं और उनके मामले पर आप कह देते हैं कि किस-किस को नियंत्रण में रखें? अरे साहब, आप चार लफंगों पर नियंत्रण नहीं रख सकते और उम्मीद करते हैं कि संघ की शाखा में कभी-कभार गए लोगों पर विश्न का सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन पूर्ण नियंत्रण रखें। अरे! आपके पूरे देश में आपके जितने कार्यकर्ता हैं उससे कहीं अधिक संघ के स्वयंसेवक अपना अलग संगठन बनाकर दुनिया भर में बिना किसी स्वार्थ के काम कर रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा वर्ग के दौरान मेरे प्रांत प्रचारक ने अपने वक्तव्य के दौरान कहा था कि हम संघ के स्वयंसेवक हैं, ऐसा व्यवहार में आना चाहिए… मैंने उसे माना और वापस आने के बाद जब 11वीं की परीक्षा के दौरान रजिस्ट्रेशन फॉर्म भरा तो अपना जातिसूचक शब्द हटा दिया… वर्तमान जातिव्यवस्था को खत्म करने के लिए मैंने स्वयं से शुरुआत की… और यही कारण है कि जब आपसे बात करता हूं तो आप तर्कहीन हो जाते हैं… इसके विपरीत एक बार अपने बारे में सोचिए, आप तो पहला सवाल ही यही करते हैं कि ‘कौन जात हो?’ हद हो गई यार, लेकिन अब यह नहीं चलेगा कि तुम खेलो तो गोल्फ और हम खेलें तो कंचा।
मैं अगर जाति व्यवस्था की मूल अवधारणा आपको समझाने की कोशिश करता हूं तो आप कहते हैं कि तुम जातिवाद के समर्थक हो, तुम्हें अपने सवर्ण होने पर गर्व है, तुम्हारे इसी गर्व के कारण दलित पिछड़ गए हैं। अरे भइया, मैं जातिवाद का समर्थक नहीं हूं, मैं मानता हूं कि वर्तमान जाति व्यवस्था हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या है। लेकिन उसके मूल रूप को नकार देना मेरे बस में नहीं क्योंकि मैं उसका अध्ययन कर रहा हूं। जिसे आज आप सवर्ण कहते हैं, मैं उसका हिस्सा नहीं हूं। ‘मैं श्रेष्ठ हूं’, ऐसा मानना गलत नहीं है लेकिन सिर्फ मैं ही श्रेष्ठ हूं, यह कहना और मानना पूर्णतया गलत है। स्वयं को श्रेष्ठ मानने और श्रेष्ठ होने में कोई बुराई नहीं है… मैं चाहता हूं कि सभी श्रेष्ठ हों और स्वयं को श्रेष्ठ मानें। आखिर जो हैं उसे मानने में क्या बुराई है? बशर्ते पहले सभी श्रेष्ठ हों तो… और इसमें हम सबकी जिम्मेदारी है कि श्रेष्ठ बनें और दूसरों को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करें, हम तो उस परंपरा के लोग हैं जो ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ में विश्वास रखते हैं। यानि सिर्फ मैं ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व श्रेष्ठ बने। अब अगर आपको श्रेष्ठ बनने में भी बुराई नजर आती है तो यह आपका दृष्टिदोष है और इसके लिए आपको किसी चिकित्सक के पास जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसका इलाज कोई चिकित्सक कर ही नहीं सकता।
बांटने की राजनीति तो आपकी विचारधारा के कारण आपके व्यवहार में व्याप्त हो गई है। आपको सीधी सी बात समझाने की कोशिश करो कि कर्म के आधार पर जाति व्यवस्था का निर्धारण किया गया था तो आप कहते हो कि ब्राह्मण को मुख से और शूद्र को पैर से क्यों निकला हुआ बताया। अरे पैर कौन सी खराब चीज है, मैं जिस परंपरा से आता हूं उसमें अगर हनुमान अपने बाल्य काल में सूर्य के अहंकार को तोड़ने के लिए अपना मुख बड़ा करके भानु को अपने मुख में रख लेते हैं तो वहीं राजा बली के भक्ति भाव से परिपूर्ण अहंकार को तोड़ने के लिए वामन रूप में उस ईश्वर स्वरूप को अपने पैरों का उपयोग ही करना पड़ता है।
मैं साफ-सफाई करने को जब एक सामान्य कर्म बताता हूं तो आप कहते हैं कि वह कोई बड़ी बात नहीं। वास्तव में यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि मैं जिस संगठन से आता हूं उसके प्रशिक्षण वर्ग में ‘श्रम साधना’ नाम का एक कालांश होता है, उसमें हमें हर दिन मैदान से लेकर टॉइलट्स तक साफ करना होता है। वहां ऐसा नहीं होता कि आपका व्यक्तिगत टॉइलट आपको साफ कराना है। उस वर्ग में प्रत्येक ‘जाति’ के लोग होते हैं और हमें उस काम को करने में कोई शर्म नहीं आती क्योंकि यह तो एक सामान्य कर्म है।
आपके लिए मनुस्मृति कुत्सित मानसिकता से लिखी गई एक पुस्तक मात्र हो सकती है, लेकिन अगर आप ऐसा कहते हैं तो उसका कोई तर्क तो होगा, कोई आधार तो होगा। मैंने जितना पढ़ा है उतने में कोई बुराई नहीं दिखी अगर आपको दिख रही है तो कृपया हमें भी बताइए। और अगर है भी तो उसे इग्नोर करके सिर्फ अच्छी बातों को मानने में क्या बुराई है? आपकी विचारधारा में एक सीमा तक अच्छाइयां हैं, हम तो उनको स्वीकार करने के लिए तैयार बैठे हैं। लेकिन आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि आप दुनिया भर की संस्कृतियों के भारतीय संस्कृति से उत्कृष्ट होने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। आपसे जब संवाद करने की कोशिश की जाती है तो आप हम दोनों की विचारधाराओं को विपरीत छोर का मान लेते हैं। अरे साहब! राजनीति छोड़िए… और राष्ट्रनीति की बात करिए… एक राष्ट्र जहां सब एक हों… सबकी एक विशिष्ट पहचान हो… जहां कोई भेदभाव न हो…खुद को बदलिए… तब बदलेगी व्यवस्था… कुछ न करिए तो कम से कम संवाद क्षमता तो रखिए।

Monday 25 July 2016

हां, मैं सवर्ण हूं और शूद्र भी

किसी भी व्यक्ति के अधिकारों का हनन करना और उसे किसी काम के लिए बाध्य करना, असंवैधानिक भी है और अनैतिक भी लेकिन आज दलित उद्धार के नाम पर सवर्ण समाज को जिस तरह से निशाने पर लिया जा है उसका अर्थ मेरी समझ से परे है। मैं एक तथाकथित सवर्ण परिवार से आता हूं लेकिन जब से मैं समझने वाला हुआ हूं तब से मेरे परिवार में कभी किसी जाति विशेष से संबन्ध रखने वाले व्यक्ति के साथ किसी तरह कोई भेदभाव नहीं किया गया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत में जातिगत भेदभाव नहीं है, बिल्कुल है लेकिन उसके लिए जिम्मेदार कौन है, यह सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए।
ऋग्वेद में एक वाकसूत्र आता है:
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद्‍ बाहु राजन्य कृत:।
उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद)
इस वाकसूत्र का अर्थ है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से, वैश्य की उदर से तथा शूद्रों की पैरों से हुई है। भाष्यगत गलती या यूं कहें कि भारतीयता एवं सनातनी साहित्य को निकृष्ट दिखाने के उद्देश्य से इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों और अंग्रेजी परंपरा के तथाकथित साहित्यकारों ने गलत विवेचना करके अर्थ का अनर्थ कर दिया। सोचने का विषय है कि क्या पैरों का महत्व मुख, भुजा अथवा उदर से कम है क्या? बिल्कुल नहीं। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग का अपना विशिष्ट महत्व है। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन अथवा अध्यापन। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात उस दौर के राजा या उनकी सेना में कार्यरत लोग, जिन्हें आज के समय में सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति कहा जा सकता है। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग और अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ण।
हमें समझना होगा कि साजिशन मात्र पैरों से उत्पन्न हुआ बताए जाने के कारण ‘शूद्र’ वर्ण को अपवित्र या निकृष्ट बताया गया है। जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो। मैंने पहले भी लिखा है कि जब मैं अपने घर की सफाई कर रहा होता हूं या गुरुवार को साईं मंदिर जाकर श्रमदान कर रहा होता हूं तो वह ‘शूद्रकर्म’ होता है और मुझे नहीं लगता कि इस कर्म को करने में कोई बुराई है। बल्कि मैं तो इसे बहुत अच्छा काम मानता हूं।
वर्तमान ब्राह्मणवाद या तथाकथित सवर्णवाद किसी वर्ग विशेष की देन नहीं है। इसके लिए समाज में व्याप्त कुछ स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। पुराने समय में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में आप स्वयं देखिए कि किस तरह से एक परिवार विशेष की महारानी अपने अयोग्य पुत्र को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाना चाहती हैं। वह जानती हैं कि उनका पुत्र इस लायक नहीं है कि देश की सत्ता का संचालन कर सके लेकिन पुत्र मोह के वशीभूत होकर वह ऐसा कर रही हैं। संभव है कि उस दौर में भी कुछ लोगों ने अपने वंशमोह के चलते परिभाषाएं ही बदल दीं। लेकिन इसके लिए समाज के एक वर्ग विशेष को पूरी तरह से जिम्मेदार करार देना पूरी तरह से गलत है। मैं मानता हूं कि किसी पर भी अत्याचार नहीं होना चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति अथवा वर्ग से संबन्ध रखता हो लेकिन समस्या यह है कि केरल में जब वामपंथी कट्टरवादी, विपरीत परिस्थितियों में भी राष्ट्रनिर्माण में लगे एक स्वयंसेवक को जान से मार देते हैं तो इनके कलम की स्याही सूख हो जाती है? आखिर ये लोग जब असमानता की प्रतिमूर्ति बनकर सैकड़ों मानदंडों पर भेदभाव करते हैं तो समानता का झुनझुना बजाने का ढोंग क्यों करते हैं?
सवर्णों ने हमेशा तुम्हें लूटा है, तुम्हें दबाया है, तुम्हारा शोषण किया है जैसी बातें लिखकर या कहकर हम कहीं न कहीं उन बिछड़े हुए लोगों के मन में एक वर्ग विशेष के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न कर रहे हैं। आज हमारी जिम्मेदारी है कि इन बिछड़े हुए लोगों को यह बताने के बजाय सकारात्मक पक्ष को रखें। अगर आज उनके साथ किसी तरह का अत्याचार हो तो हमारी जिम्मेदारी है कि उसकी निंदा करें और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए जो कुछ कर सकें, वह करें। लेकिन हम करते क्या हैं? उन्हें भड़काते हैं कि देखो, उस समय तुमसे सवर्णों ने टट्टी उठवाई थी और आज भी तुमको नंगा करके पीट रहे हैं। हद हो गई यार, किसी के साथ गलत हो रहा है तो उसका विरोध होना चाहिए लेकिन वोट बैंक की राजनीति के लिए आप खुद को एक वर्ग विशेष के लिए ‘उद्धारक’ बना कर पेश करें तो यह पूरी रह से गलत है क्योंकि ऐसा करने पर अनजाने में फिर से भेदभाव पनपने लगता है बस ‘कर्ता’ बदल जाता है।
बाबा साहब का मत थ कि वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं किसी जाति विशेष के नहीं और ब्राह्मणवाद को परिभाषित करते हुए वे कहते थे की इसका अर्थ ऊंच-नीच और अंधविश्वास का होना है जो किसी भी समुदाय में हो सकता है। अगर बाबा साहब के लिए मन में सम्मान है तो आवश्यक है कि उनके सिद्धांतों का सम्मान करें।
मनुस्मृति को गालियां देने वाले लोग और मनुस्मृति के तथाकथित ‘पूजक’ अगर उसके मूल ज्ञान को सकारात्मक दृष्टिकोण से समझ लें तो सभी समस्याओं का समाधान हो जाए। मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे व्यक्ति को वह विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। अब बात करते हैं उस खास वर्ग की जिसे दबाया हुआ बताया जाता है। मैं फिर कह रहा हूं कि उनके साथ अत्याचार हुए हैं लेकिन उसके अलावा एक पक्ष और भी है जिसे हम अनदेखा कर देते हैं।
प्रख्यात लेखक डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने भी गहन शोध के बाद इनके स्वर्णिम अतीत को विस्तार से बताने वाली पुस्तक ‘हिन्दू चर्ममारी जाति: एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास’ लिखी। डॉ. शास्त्री के अनुसार प्राचीनकाल में न तो चमार कोई शब्द था और न ही इस नाम की कोई जाति ही थी। डॉ. विजय सोनकर शास्त्री के मुताबिक, तुर्क आक्रमणकारियों के काल में चंवर राजवंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था और इसके प्रतापी राजा चंवरसेन थे। इस क्षत्रिय वंश के राज परिवार का वैवाहिक संबंध बप्पा रावल वंश के साथ था।  राणा सांगा व उनकी पत्नी झाली रानी ने चंवरवंश से संबंध रखने वाले संत रैदास को अपना गुरु बनाकर उनको मेवाड़ के राजगुरु की उपाधि दी थी और उनसे चित्तौड़ के किले में रहने की प्रार्थना की थी।
संत रविदास चित्तौड़ किले में कई महीने रहे थे। उनके महान व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें गुरु माना और उनके अनुयायी बने। सिकन्दर लोदी ने मुल्ला सदना फकीर को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा। वह जानता था की यदि रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम मतावलंबी हो जाएंगे लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गयी। स्वयं मुल्ला सदना फकीर शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सका और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर अपना नाम रामदास रखकर उनका भक्त बन गया। लेकिन हम कभी उनको यह नहीं कहेंगे कि देखो, तुम्हारे पूर्वजों ने कितने शौर्य का काम किया था। मेरा बहुत सीधा सा सवाल है कि ‘दलित’ वर्ग को भड़काकर ‘सवर्ण’ वर्ग के सामने खड़ा करना ज्यादा बेहतर है या फिर ‘सवर्ण समाज’ को ‘दलित’ वर्ग का गौरवशाली अतीत बताकर सामाजिक रूप से उनकी स्वीकार्यता को 100 प्रतिशत करना ज्यादा बेहतर है?
संत रैदास की बड़ती स्वीकार्यता के फलस्वरूप सिकंदर लोदी आगबबूला हो उठा एवं उसने संत रैदास को कैद कर लिया और इनके अनुयायियों को चमार या दूसरे शब्दों में कहें तो अछूत चंडाल घोषित कर दिया। उसने संत रैदास को बहुत शारीरिक कष्ट दिए लेकिन उस कट्टरपंथी के सामने रैदास ने स्वयं को डिगने नहीं दिया। संत रैदास पर हो रहे अत्याचारों के प्रतिउत्तर में चंवर वंश के क्षत्रियों ने दिल्ली को घेर लिया। इससे भयभीत होकर सिकन्दर लोदी को संत रैदास को छोड़ना पड़ा था। चंवर वंश के वीर क्षत्रिय जिन्हें सिकंदर लोदी ने ‘चमार’ बनाया और हमारे-आपके कुछ स्वार्थी पूर्वजों ने उन्हें अछूत बना कर खड़ा कर दिया। हम तो स्वार्थी नहीं हैं, हम तो भेदभाव नहीं करते तो फिर क्यों उनके मन में हमारे खिलाफ जहर भरा जा रहा है? मैं कहता हूं कि देश के अंतिम नागरिक के साथ भी अगर कुछ गलत हो तो पूरा देश कुछ इस तरह से एक हो जाए कि सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोग हिल जाएं। लेकिन यह नहीं चलेगा कि सोने का मुकुट और हीरे की अंगूठी पहनकर ‘दलित देवी’ के रूप में स्वयं को प्रतिस्थापित करके हमारे समाज के दो वर्गों के बीच की दूरियों को पाटने के बजाय उसे और लंबा करें।

Wednesday 20 July 2016

एक गैर कश्मीरी का अपने कश्मीरी भाई के नाम खुला खत

मेरे प्रिय कश्मीरी भाई,
कल यूट्यूब पर एक विडियो देखा। उस विडियो में उन भारतविरोधियों के पक्ष को रखा गया था जो कथित तौर पर पाकिस्तान से मोहब्बत करते हैं और पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं। उस विडियो को देखकर मुझे तुम्हारी याद आ गई, तुम तो हमेशा कहते हो कि तुम भारत से मोहब्बत करते हो…तुम्हारे अब्बू जान ने मां वैष्णों देवी मंदिर जाने वाले सनातनी यात्रियों को अपने खच्चर पर बैठा कर ही तो दर्शन कराए… उन्हीं सनातनी यात्रियों से मिले पारिश्रमिक से तुम्हारी पढ़ाई हुई और उसी की बदौलत तो तुम आज एक बड़े ऑफिसर बनकर बैठे हो। तुम्हारे अब्बू को तो भारतीय सेना के किसी ऑफिसर ने गोली नहीं मारी, वह भी तो यही कहते हैं, ‘मैंने कभी भारत माता की जय नहीं बोला लेकिन दिन में 5 बार नमाज पढ़ते समय हर बार इस मुल्क की सरजमीं का ही तो सजदा करता हूं।’ एक सवाल मुझे बहुत परेशान करता है कि क्या सच में भारतीय सेना इतनी बुरी है कि कश्मीर में रहने वाले मुस्लिम उससे नफरत करने लगें? और तुम हर बार मेरे इस सवाल पर बस यही कहते हो कि हमारी सेना तो हमारी लाइफलाइन है।
बहुत कन्फ्यूज हूं यार, कि आखिर किसकी मानूं… तुम सही हो या वे लोग। आखिर वे भी तो तुम्हारी तरह ही इंसान हैं… उनको इग्नोर तो नहीं किया जा सकता लेकिन अगर उनको मान लिया तो तय है कि अनर्थ हो जाएगा। अगर उनकी मानकर अपने कुछ बुद्धिजीवियों की तरह हम भी भारत सरकार से कहने लगे कि आपने फ़ौज के बल पर उनकी ज़मीन पर कब्जा करके रखा है, आपने उनको उनके ही घर में बंधक बनाकर रखा है, उन्हें आजाद छोड़ दीजिए ताकि पाकिस्तान उन पर वैसे ही कब्जा कर ले जैसे कथित तौर पर आपने किया है तो भाई, तुम्हारा क्या होगा… फिर… बस इसी ‘फिर’ की वजह से हमारी हिम्मत नहीं होती कि हम भारत सरकार के सामने कह पाएं कि ‘कश्मीर-राग’ अलापना बंद करो।
अभी हाल ही में प्रदेश में चुनाव हुए थे, तुम भी बहुत दूर से अपने गांव सिर्फ वोट डालने गए थे। बहुत खुश थे उस दिन तुम, क्योंकि तुम अपने प्रदेश की सरकार चुनने जा रहे थे और तुम्हारी तरह ही प्रदेश की 65 प्रतिशत से अधिक आवाम ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। चुनाव परिणाम आने से पहले जब मेरी तुमसे बात हुई तो तुमने मुझसे यही कहा था कि ये 65 प्रतिशत लोग बिल्कुल तुम्हारी तरह ही हैं। लेकिन भाई, क्या इन 65 प्रतिशत के लिए बाकी 35 प्रतिशत लोगों को नकार देना चाहिए। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास न रखकर वोट न देने वाले कितने प्रतिशत लोग तुम्हारे कश्मीर में हैं? क्या तुम्हारे जैसे 65 प्रतिशत लोगों को छोड़कर बाकी सारे लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते? हमारे भारत के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तो यही कहते हैं। मुझे पता है यह बात पूरी तरह से अवैज्ञानिक भी है और आधारहीन भी लेकिन फिर भी चलो कुछ समय के लिए उन बुद्धिजीवियों की बात मानकर इसी आधार पर बात करते हैं।
माना कि 35 फीसदी लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते, तो क्या उनके लिए कश्मीर को तथाकथित ‘आजादी’ दे देनी चाहिए और भारतीय सेना हटा लेनी चाहिए? चलो यह भी कर लिया तो मानवाधिकार की जीत हो जाएगी क्या? फिर वे 35 प्रतिशत लोग तो खुश हो जाएंगे लेकिन बाकी 65 प्रतिशत लोगों का क्या होगा? वे लोग भी तो वहां उसी तरह से रहेंगे जैसे आज कथित तौर पर भारत विरोधी लोग रहे हैं। वहां की पुलिस कहती है कि ‘उनके’ पास रोजगार नहीं है इसलिए पत्थरबाजी कर रहे हैं। रोजगार के लिए पढ़ना पड़ेगा और पढ़ाई से तो कोसों दूर भागते हैं वे? अब ऐसे में सवाल यह है कि ये सब सही कैसे होगा? बस इसी सवाल का जवाब चाहता हूं तुमसे? वैसे अगर एक आतंकी बुरहान वानी की मौत पर मानवाधिकार का चोंगा ओढ़कर एसी कमरों में बैठने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी भी शांति के लिए कोई वैकल्पिक मार्ग बता सकें तो उस पर सोचा जाना चाहिए। लेकिन इसमें भी समस्या यह है कि उनको उस आतंकी का मानवाधिकार तो दिखेगा लेकिन पत्थर खाकर भी सिर्फ इंसानियत के लिए खाना खिलाने वाले सैनिकों के प्रति उनके मन में दयाभाव नहीं जगेगा।
तुमसे और तुम्हारे जैसे हर एक इंसान से बहुत मोहब्बत है मुझे लेकिन उनसे मोहब्बत कैसे करूं जो मेरे घर के पड़ोस में रहने वाले मिश्रा जी के बेटे पर पत्थर चलाते हैं। असल में वे लोग मिश्रा जी के बेटे पर पत्थर नहीं चलाते हैं, वे लोग तो भारत की ‘कब्जे वाली पॉलिसी’ पर पत्थर चलाते हैं। सही मायनों में वे पत्थर नहीं चलाते, वे तो तमाचा मारते हैं मेरे और तुम्हारे मुंह पर, कि देखो हम तो तुम्हारे घर में रहकर और जिंदा हैं। पता नहीं आज भारत सरकार ने जो कदम उठाया है उस पर तुम क्या स्टैंड लेते हो लेकिन मैं बहुत खुश हूं कि कम से कम मेरे देश के प्रधान में इतनी क्षमता तो है कि वह चंद गिने-चुने लफंगों को सजा देने में देर नहीं कर रहा है। मेरे देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों को इतनी सी बात कब समझ में आएगी कि जिस पाकिस्तान ने अपने देश में मासूम बच्चों की हत्या पर काला दिवस नहीं मनाया, वही पाकिस्तान बुरहान की मौत पर काला दिवस क्यों मनाता है? तुम तो सब समझते हो लेकिन इन बुद्धिजीवियों को समझाने का कोई रास्ता तो बता दो… ऐसे बुद्धिजीवियों को देखकर कवि वेद व्रत बाजपेई की दो पंक्तियां याद आ जाती हैं…
युद्धों में कभी नहीं हारे, हम डरते हैं छल-छंदों से,
हर बार पराजय पाई है, अपने घर के जयचंदों से…
तुम खुश रहो और इन बुद्धिजीवियों की बुद्धि-शुद्दि के लिए खुदा से दुआ करो।
इसी अपेक्षा और आकांक्षा के साथ…
तुम्हारा,
एक गैर कश्मीरी भारतीय भाई

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