Wednesday 21 September 2016

आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, तो उन्हें दफनाया क्यों जाता है?


'आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता', यह जुमला तो आपने लगभग हर एक राजनीतिक पार्टी के नेताओं के मुंह से सुना ही होगा। आगे बढ़ने से पहले एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैं इसे जुमला इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वोटबैंक की राजनीति के चलते इसका प्रयोग किया जाता है। कोई भी दल मन से इस बात को मानता नहीं है कि आतंकवादियों का सच में कोई धर्म नहीं होता। मेरा एक छोटा सा सवाल है कि देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां 'कांग्रेस' और 'बीजेपी' दोनों ही अलग-अलग समय में सत्ता में रही हैं? यदि ये दोनों पार्टियां मानती हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता तो फिर उन आतंकियों को इस्लामिक तरीके से दफनाया क्यों जाता है। इससे तो एक ही बात जाहिर होती है कि ये पार्टियां मानती हैं कि आतंकवादी, मुसलमान होते हैं, यानी देश को इस्लामिक आतंकवाद से खतरा है।

मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता, मैं मानता हूं कि देश सिर्फ हिंदुओं का नहीं है। भारत को 'भारत' बनाने की कोशिश मुसलमानों का सहयोग भी रहा है। भारत के गौरवशाली अतीत में अगर मैं महाराणा प्रताप को एक मजबूत स्तंभ मानता हूं तो मुझे उनके सेनापति हकीम खां सूर के शौर्य को अनदेखा करने का अधिकार बिलकुल भी नहीं है। मैं अगर भगत सिंह की शहादत को नमन करता हूं तो मुझे बिलकुल अधिकार नहीं है कि मैं अशफाक उल्ला खां की शहादत को अनदेखा कर दूं। मैं अगर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष को नमन करता हूं तो मुझे यह अधिकार बिलकुल नहीं है कि मैं लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व करने वाली बेगम हजरत महल की देशभक्ति को अनदेखा कर दूं। मैं अनदेशा नहीं कर सकता  85 साल के उस बूढ़े शेर, बहादुर शाह ज़फर को, जो अंग्रेजों की जेल (रंगून) में कैद था तो अंग्रेजों ने दो पंक्तियां लिखवाकर भेजीं कि,
दमदमे में दम नहीं है, खैर मांगो जान की।
अब ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।।

तो बहादुर शाह जफर ने वहीं जेल की दीवारों पर दो पंक्तियां जवाब के तौर पर लिखीं:
गाज़ियों में में बू रहेगी, जब तलक ईमान की।
तख्त-ए- लंदन तक चलेगी, तेग हिंदुस्थान की।।

मैं मानता हूं कि इस देश को बनाने में जितना सहयोग हिंदुओं का है उतना ही  अन्य पूजा पद्धतियों में विश्वास रखने वाले लोगों का। और इसी के साथ मैं यह भी मानता हूं कि जो इंसानियत की हत्या करे, जो मासूमों का कत्ल करे, जिसकी मानवीयता शून्य के स्तर से भी नीचे पहुंच गई हो, वह किसी धर्म या मजहब का अनुपालक नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी मजहब यह नहीं कहता कि आतंक फैलाना या निर्दोषों की हत्या करना जायज अथवा धर्मसंगत है।

अब आते हैं मूल बात पर, यदि यह बात सभी मानते हैं कि आतंकियों का कोई धर्म या मजहब नहीं होता तो उनका इस्लामिक पद्धति से अंतिम संस्कार करके क्या हम दुनिया में एक मजहब विशेष की छवि खराब करने की कोशिश नहीं कर रहे? कल उड़ी (जम्मू कश्मीर) में आतंकवादी हमले को अंजाम देने वाले, 18 भारतीय सैनिकों की हत्या करने वाले आतंकियों की लाशों को सेना और पुलिस ने मिलकर दफना(इस्लामिक पद्धति से) दिया। ऐसा करने के पीछे तर्क दिया गया कि इस्लाम के मुताबिक, मौत के बाद शव को नहीं रखा जाना चाहिए। यदि सच में देश की सरकार यह मानती है कि आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता तो इस तरह से अंतिम संस्कार करना पूरी तरह से अन्यायोचित है।

मैं भारत का दुर्भाग्य मानता हूं कि इस विषय के पक्ष में जो टीवी चैनल खड़ा होता है, उसके पत्रकार पर कश्मीर में पत्थर चलाए जाते हैं, उसकी ओवी वैन को तोड़ने की कोशिश की जाती है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि कांग्रेस के नेता कहते हैं कि देश में इस विषय को लेकर राष्ट्रीय स्तर की चर्चा होनी चाहिए। क्यों भाई, इसमें कैसी चर्चा-बहस, जिनका कोई धर्म नहीं उनका धार्मिक तरह से अंतिम संस्कार क्यों हो? जिसमें मानवीयता शून्य के स्तर तक पहुंच जाए, वह मानव कहलाने का अधिकारी नहीं और जब वह मानव कहलाने का अधिकारी नहीं है तो उसके लिए मानवाधिकार की बात क्यों हो?

आतंकियों को भ्रमित करते हुए बताया जाता है कि अगर वे तथाकथित जिहाद करेंगे तो मरने के बाद उन्हें जन्नत में 72 हूरें मिलेंगी। इस्लाम की मान्यता है कि दफनाए गए लोगों को कयामत के दिन अल्लाह जन्नत ले जाएगा। विश्वास मानिए अगर हमने आतंकियों के शव को कूड़े के ढेर के साथ जलाना शुरू कर दिया तो भ्रम में फंसकर आतंक का रास्ता अपनाने वाले लोगों की संख्या में भारी कमी आ जाएगी। इसके अलावा एक भारतीय होने के नाते हम उन लोगों को अपने देश की 2 गज जमीन भी क्यों दें हमारे देश में निर्दोषों की हत्या हैं।

मानवाधिकार की बात सैनिकों के लिए होनी चाहिए, भले ही वह किसी भी देश के हों। युद्ध के दौरान यदि कोई पाकिस्तानी सैनिक यदि शहीद होता है तो उसके शव को ससम्मान पाकिस्तान को वापस किया जाए और यदि पाकिस्तान उस शव को वापस लेने से इनकार करे तो उसका सम्मान सहित मजहबी रीति-रिवाजों के मुताबिक अंतिम संस्कार किया जाए। क्योंकि उसकी मौत अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए हुई है ना कि किसी आधारहीन लालच के कारण।

Monday 12 September 2016

'न्याय की देवी' के मुंह पर तमाचा है शहाबुद्दीन की जमानत

इस देश में 2 दिन पहले एक ऐसे व्यक्ति को जेल से छोड़ दिया गया जिसे 2 अलग-अलग मामलों में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। उस व्यक्ति पर हत्या, रंगदारी और अपहरण जैसे गंभीर अपराधों के 63 मामले दर्ज हैं।

 उस व्यक्ति ने देश में मजलूमों की लड़ाई लड़ रहे चंद्रशेखर प्रसाद नामक एक युवा नेता की हत्या करवा दी ताकि उसके खौफ से कोई उस पर उंगली उठाने की कोशिश न करे। उस व्यक्ति के घर से पाकिस्तान में बने हथियार बरामद हुए थे। उस व्यक्ति पर आईएसआई से संबंध होने का आरोप है। वह व्यक्ति एक सीनियर पुलिस अधिकारी को इसलिए थप्पड़ मारता है क्योंकि वह पुलिस अधिकारी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी निभाते हुए उसके एक करीबी नेता को गिरफ्तार करने पहुंच गया था। उस व्यक्ति पर लोकतात्रिंक व्यवस्था का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले एक पत्रकार की हत्या का आरोप है। इतने ‘बड़े’ व्यक्ति को देश की ‘महान’ न्याय व्यवस्था जमानत दे देती है।


‘मेरे दो बेटों गिरीश और सतीश को मारा गया था, तब एक की उम्र 23 और दूसरे की 18 साल थी। दो बेटों की हत्या का बदला लेने के लिए मेरा बेटा राजीव लड़ रहा था। राजीव मेरा सबसे बड़ा बेटा था, लेकिन 16 जून, 2014 को उसे भी मारकर, मेरे लड़ने की सारी ताकत खत्म कर दी गई। राजीव को शादी के ठीक 18 दिन बाद मार डाला गया।’ ये शब्द हैं एक लाचार पिता के… चंदा बाबू नामक उस पिता की खामोश जुबान बता रही है कि कानून की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी न्यायिक व्यवस्था के मुंह पर एक तमाचा है।

 किस परिस्थिति, किस दबाव, किस डर और किस लालच के चलते एक ऐसे व्यक्ति को जमानत दे दी जाती है जिसके सामने खड़े होने में एक सामान्य व्यक्ति घबराता हो। विक्रमादित्य नाम का एक राजा, जो रात में अपने क्षेत्र में वंचितों की समस्याओं को सुनने के लिए निकलता था, उसके क्षेत्र में एक पिता के भय को नजरंदाज करके, अपराध का दूसरा नाम कहे जाने वाले शहाबुद्दीन की रिहाई पर अहंकार में चूर नीतीश कुमार नामक वर्तमान ‘सम्राट’  खामोश क्यों बैठा है, यह समझ से परे है। क्या आप ऐसी परिस्थितियों में कह सकते हैं कि कोई वंचित अथवा आप स्वयं वर्तमान न्याय व्यवस्था पर भरोसा कर सकते हैं।

मुझे पता है कि याकूब मेमन और अफजल गुरू के समर्थन में आवाज उठाना पूरी तरह से देशद्रोह भी है और राष्ट्रद्रोह भी लेकिन शहाबुद्दीन जैसे अपराधियों के समर्थन में गाड़ियों की रैली निकालना और लिखना देशद्रोह की श्रेणी में क्यों नहीं आता। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सिर्फ देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। बहुत अच्छी बात है, सवाल उठना भी चाहिए लेकिन सवाल न्याय व्यवस्था के साथ-साथ उस अवार्ड वापसी गैंग पर क्यों नहीं उठाया जा रहा जो कभी सहिष्णुता और मानवीयता के नाम पर सड़कों पर उतर आए थे।

जेएनयू की जीत पर जश्न मनाने वाले लोग अपनी अग्रज पीढ़ी के उस वास्तविक कॉमरेड के हत्यारे की रिहाई पर खामोश क्यों हैं जिसने वामपंथ की परिभाषा को नए आयाम दिए? डूसू चुनाव की जीत पर राष्ट्रवाद का झंडा उठाकर पटाखे फोड़ने ऐसे लोग जो लखनऊ में एक शिक्षक के पीटे जाने पर ‘शिक्षक के सम्मान में…’ जैसे नारे लगाते हैं और समाजवादी पार्टी को अपराध का प्रणेता बताते हैं, वे भी चुप्पी क्यों साधे हैं? शायद किसी ने सच ही कहा कि सत्ता का नशा अपने ‘परिवार’ पर किए गए जुल्मों को भी भुला देता है। देश आज चुपचाप बैठा है, क्यों? क्योंकि शायद उसे अब भी उम्मीद है कि आप खड़े होंगे, उस व्यवस्था के खिलाफ जिसने आपको अपनों से दूर किया है, उस राजनीति के खिलाफ जिसने पता नहीं कितने मासूमों को पिता विहीन कर दिया, उस तथाकथित नेता के खिलाफ जिसने ‘अपराधवाद’ की एक नई परिभाषा प्रतिस्थापित की, उस न्याय व्यवस्था के खिलाफ जिसमें मानवीयता शून्य के स्तर तक पहुंच गई है।

भले ही वह देश के एक राज्य के एक छोटे से जिले में रहने वाला एक ‘बाहुबली’ हो लेकिन याद रखिएगा, उसके कर्म किसी आतंकी से भी बुरे हैं। आतंकी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिसे वह मारने जा रहा है वह कौन है, लेकिन शहाबुद्दीन जैसे लोग तो घर के अंदर रहकर ही हमारे भाइयों को मार देते हैं, औरतों को विधवा कर देते हैं, पिता से उनका बेटा छीन लेते हैं, मां बच्चों को अनाथ कर देते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ तो आप सड़कों पर उतर आते हैं लेकिन ऐसे ‘हत्यारे’ जब जेल से छूट जाते हैं तो आपका खून क्यों नहीं खौलता? अपनी ताकत को पहचानिए और बताइए सत्ता के सिंहासन पर बैठे राजनेताओं को कि देश, अपराध और अपराधी मुक्त होना चाहता है।

Thursday 8 September 2016

स्वीकार्यता के सिद्धांत पर वामपंथी सहिष्णुता का दोहरापन

‘मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता तथा सार्वभौमिक स्वीकार्यता दोनों की ही शिक्षा दी है, हम लोग सभी धर्मों के प्रति ही केवल सहनशीलता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि सारे धर्मों को सत्य मान कर स्वीकार करते हैं। हमारा मानना है कि सभी रास्ते अंत में एक ही ईश्वर यानी सत्य तक जाने का मार्ग हैं।’ यह बात शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने कही थी। यदि स्वामी विवेकानंद के पूरे भाषण को एक पंक्ति में समझें तो उसका अर्थ यही निकलता है कि भारत की संस्कृति स्वीकार्यता के सिद्धांत पर टिकी है। आज स्वामी विवेकानंद के भाषण के इस अंश को ब्लॉग में सम्मिलित करने का एक कारण है।

कुछ दिन पहले का मामला है, वामपंथी संगठनों द्वारा आयोजित भारत बंद के समर्थन में लखनऊ विश्वविद्यालय में विभिन्न छात्र संगठनों ने विश्वविद्यालय बंद का आह्वान किया। प्रदर्शन के दौरान आइसा और एबीवीपी कार्यकर्ताओं के बीच धक्का-मुक्की भी हुई। (पढ़ें खबर) आइसा कार्यकर्ता पूजा का आरोप है कि एबीवीपी कार्यकर्ताओं के सामने जब पूजा ने ‘हर लड़की है भारत माता’ के नारे लगाए तो जवाब में एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने सिक्के उछालते हुए ‘नाचो भारत माता’ के नारे लगाने शुरू कर दिए। किसी के साथ भी ऐसा व्यवहार करना पूरी तरह से गलत और निंदनीय है। यह मामला और ज्यादा गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि एबीवीपी का दावा रहता है कि उनके कार्यकर्ता भारतीय संस्कृति के ‘संरक्षक’ हैं।

अपनी मां (भारत माता) को नाचने के लिए कहना, सिर्फ इसलिए एक लड़की का अपमान करना क्योंकि वह दूसरी विचारधारा से आती है, कहीं से भी नारी को देवी मानने वाली संस्कृति को प्रदर्शित नहीं करता। स्वामी विवेकानंद के स्वीकार्यता के सिद्धांत को ताक पर उन लोगों के द्वारा रखा जा रहा है जो स्वामी विवेकानंद को कथित तौर पर अपना आदर्श मानते हैं। जिसने भी ऐसा किया है उस पर संगठन के द्वारा भी और कानूनी रूप से भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। हालांकि जब लखनऊ विश्वविद्यालय में यह सब हो रहा था, उस दौरान वहां खड़े लोगों के मुताबिक एबीवीपी कार्यकर्ताओं की ओर से ‘नाचो भारत माता’ जैसे नारे नहीं लगाए गए थे लेकिन फिर भी यदि आरोप लगा है तो जांच तो होनी ही चाहिए।

लेकिन इसके साथ एक दूसरे पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए। पूजा की फेसबुक टाइमलाइन पर इस घटना को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है। राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े लोगों को संघी लंपट, संघी गुंडा, वानर, लड़की छेड़ने वाला इत्यादि संज्ञाओं से नवाजा जा रहा है। मैं फिर कह रहा हूं, जिसने भी ऐसी गंदी हरकत की है, उस पर कार्रवाई होनी चाहिए, एबीवीपी से ऐसे लोगों को लेकर जवाब मांगा जाना चाहिए लेकिन पूरी विचारधारा को गलत ठहरा देना कहीं से भी ठीक नहीं है।

एबीवीपी को छोड़ दीजिए, मैं राष्ट्रवादी विचारधारा से आता हूं और मुझे ऐसे शब्दों से आपत्ति है। इस आपत्ति का कारण भी है। इन्हीं वामपंथी संगठनों का झंडा लेकर, इनके ही द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में शामिल होकर कुछ ‘देशद्रोही’ लोग भारत की बर्बादी के नारे लगाते हैं। इस देश के वामपंथी एक सीमा तक उन लोगों का समर्थन भी करते हैं। लेकिन हम अपनी निष्पक्षता और सहिष्णुता दिखाते हैं और सभी वामपंथियों को देशद्रोही नहीं कहते।
इनके संगठन का एक महत्वपूर्ण दायित्वधारी कार्यकर्ता एक छात्रा का रेप करता है लेकिन हम हर एक वामपंथी को बलात्कारी नहीं कहते। इनके ‘बड़े’ लोग इस घटना पर शर्मिंदा होकर अपने अवॉर्ड नहीं वापस करते लेकिन हम इसे मुद्दा नहीं बनाते क्योंकि हम अपनी जिम्मेदारी और इनकी राजनीति समझते हैं। ये छात्रहित में विश्वविद्यालय में आंदोलन करते हैं, बहुत अच्छी बात है। इनके साथ कोई व्यक्ति कोई अवांछित हरकत करे , बहुत बुरी बात है। हम इनका पक्ष पूरी जिम्मेदारी के साथ समाज तक पहुंचाते हैं।

लेकिन ये लोग जब अपनी विचारधारा को केन्द्र में रखकर कोई पोस्ट लिखते हैं तब कोई विपक्षी विचारधारा का व्यक्ति अपनी विचारधारा के समर्थन में कॉमेन्ट करता है तो ये क्या करते हैं? ये उसे संघी लंपट, संघी गुंडा, वानर, लड़की छेड़ने वाले और न जाने कैसी कैसी संज्ञाएं देते हैं। गजब, सहिष्णुता है इनकी। भारत स्वीकार्यता के सिद्धांत पर टिका है। हम इनको स्वीकार करते हैं लेकिन ‘भारत की बर्बादी’ के नारे लगाने वालों और बलात्कार करने वालों का विरोध करते हैं।

स्वीकार्यता के सिद्धांत पर आधारित एक उदाहरण देता हूं। 2012 की बात है, इसी लखनऊ विश्वविद्यालय में बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं को फेल कर दिया गया था। विश्वविद्यालय का कहना था कि स्क्रूटनी के लिए 1400 रुपए प्रति कॉपी के हिसाब से जमा करना होगा और तब कॉपी दोबारा से जांची जाएगी। अब आप ही सोचिए, स्नातक का एक लड़का जो 10 में से 9 पेपर्स में फेल है वह इतना पैसा कहां से लाएगा और वह भी तब जब इस बात की कोई गारंटी ना हो कि कॉपी ठीक से चेक की जाएगी।

उस दौरान आरटीआई के तहत 10 रुपए में कॉपी दिखाने की मांग की गई। लेकिन विश्वविद्यालय ने इस मांग को मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद सपा छात्रसभा और एनएसयूआई को छोड़कर एबीवीपी, आइसा, एसएफआई सहित सभी छात्र संगठनों ने एक नया मंच बनाया और पूरे 2 महीनों तक संघर्ष किया। आखिरकार छात्रहित में किए गए उस संघर्ष की जीत हुई और छात्रों को अगले वर्ष का परीक्षा फॉर्म भरने से ठीक 5 दिन पहले विश्वविद्यालय ने आरटीआई के तहत 10 रुपए में कॉपी दिखाने की मांग मान ली। हजारों की संख्या में छात्र पास हुए। यह होती है सहिष्णुता, यह होती है स्वीकार्यता।

स्वीकार्यता तो लानी ही होगी…आपको भी और उनको भी… मैं इस बात को जानता भी हूं और मानता भी हूं कि दोनों विचारधाराओं के सिद्धांत का आधार स्वीकार्यता ही है।

Saturday 3 September 2016

संदीप कुमार की सेक्स सीडी पर इतना हंगामा क्यों?

आम आदमी पार्टी, राजनीति की ‘दशा और दिशा’ सुधारने के दावे के साथ सत्ता के सिंहासन तक पहुंची एक नई पार्टी… उस पार्टी की सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री रहे संदीप कुमार की ‘सेक्स सीडी’ लीक हो जाती है तो भारत के राजनीतिक गलियारों में अजीब सा माहौल बन जाता है… पार्टी अपनी जिम्मेदारी को समझती है और तत्काल कार्रवाई करते हुए आधे घंटे के अंदर आरोपी नेता को पदमुक्त कर देती है। लेकिन सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं की बखिया उधेड़ दी जाती है। इन सबके बीच मेरा एक सीधा सा सवाल है कि क्या किसी के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करना उचित है? मैं मानता हूं कि संदीप ने जो किया वह ठीक नहीं था। किसी महिला के साथ आपत्तिजनक अवस्था में तस्वीरें खींचना – जैसा कि आरोप है – अनैतिक भी है और असंवैधानिक भी लेकिन इसमें उस महिला की क्या गलती है?

सोशल मीडिया के धुरंधर संदीप कुमार के साथ उस महिला की तस्वीरें भी पोस्ट कर रहे हैं।ज़्यादा चिंता की बात यह है कि जो लोग सोशल मीडिया पर उस लड़की की आपत्तिजनक तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं  उनका दावा है कि वे उस परिवार से आते हैं जो नारी को ‘देवी’ मानता है। अपनी ‘देवी’ को बदनाम करना कैसी ‘पूजा’ है यह मेरी समझ से परे है। संदीप एक जनप्रतिनिधि था तो क्या वह अपना व्यक्तिगत जीवन छोड़ दे? बिल्कुल नहीं, लेकिन यह उस जनप्रतिनिधि को पता होना चाहिए कि लोगों ने एक विशेष चरित्र की आड़ में उसे चुन लिया, अब उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह जनता के सामने एक आदर्श स्थिति प्रस्तुत करे। लेकिन अगर वह जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं भी करना चाहता है तो क्या समस्या है? भारत में बड़े-बड़े नेताओं की बड़ी-बड़ी करतूतें तो झेल ही रहे हैं ना हम।

हमने जीप घोटाले से लेकर ताज कॉरिडोर से होते हुए 2जी और CWG तक झेला ना, तो फिर इस बात को क्यों नहीं झेल सकते? हम एक ऐसे नेता को झेल सकते हैं जो कहती हो कि भारत में जो उनकी पार्टी को वोट देगा वह रामजादा है और बाकी विपक्षी हरामजादे हैं, हम एक ऐसा नेता झेल सकते हैं जो बच्चों को शिक्षित करने की सलाह देने के बजाय चार बच्चे पैदा करने की सलाह देता हो, हम एक ऐसा नेता झेल सकते हैं जो बलात्कार करने वालों को ‘बच्चा’ करार देते हुए इस कुकर्म को गलती बताता हो, हम एक ऐसा नेता झेल सकते हैं जो एक महिला सांसद को ‘सौ टका टंच माल’ कहता है, हम एक ऐसा नेता को झेल सकते हैं जो देश के प्रधानमंत्री पद के प्रबल उम्मीदवार को अपने क्षेत्र में आने पर बोटी-बोटी करने की धमकी देता है। जब हम इतना कुछ झेल सकते हैं तो फिर अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी ‘गैर’ महिला के साथ सेक्स करने वाले को क्यों नहीं झेल सकते? ‘सेक्स-संबंधों’ पर आगे की बात करने से पहले जरा एक बार भारतीय राजनीति के ऐसे ही कुछ अन्य नेताओं के बारे में भी जान लेते हैं। खास बात यह है कि ऐसे लोग देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों में भी हैं।
मध्य प्रदेश बीजेपी के नेता और वित्त मंत्री रहे राघव जी की 2013 में आई, वह सीडी भी याद कर लीजिए जिसमें 79 वर्षीय राघव जी अपने नौकर के साथ आपत्तिजनक अवस्था में पाए गए थे। 2009 में आई कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी की वह सीडी याद करिए जिसमें वह तीन महिलाओं के साथ आपत्तिजनक हालत में दिखाई दे रहे थे। इसी पार्टी के राजस्थान के महिपाल मदेरणा और नर्स भंवरी देवी का सेक्स सीडी स्कैंडल याद है ना? उस समय महिपाल भी गहलोत सरकार में कैबिनेट मंत्री थे।
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राघव जी (बाएं), एनडी तिवारी (मध्य) और महिपाल मदेरणा (दाएं)।
इनके अलावा भी अन्य कई नेता हैं जिन पर महिलाओं ने रेप के आरोप तक लगाए हैं परंतु उस पर बात नहीं होगी। बात होगी संदीप कुमार के केस की, जिसमें कोई पीड़िता नहीं है और जिसमें किसी ने आकर शोषण की शिकायत तक दर्ज नहीं कराई है, उस पर पूरा सोशल मीडिया इस तरह से कटाक्ष कर रहा है जैसे सहमति से ‘सेक्स’ करना भी अपराध हो। विरोध का स्तर भी इतना गिरा लिया कि अपने पूर्वज तक याद नहीं रहे। यह भी छोड़िए, कुछ तो ऐसे हैं जो अपने को सही साबित करने के लिए गांधी, नेहरू और अटल तक को बीच में ले आए। अटल जी ने कहा था कि मैं कुंवारा हूं लेकिन ब्रह्मचारी नहीं। यहां उन्होंने ब्रह्मचारी शब्द का प्रयोग किन अर्थों में किया था, यह एक अलग विषय है लेकिन भविष्य में उनके इस वाक्य को किस सीमा तक ले जाया जाएगा, यह जानते हुए भी इस वाक्य को बोलने की हिम्मत रखना मामूली बात नहीं थी। ‘सत्य के प्रयोग’ लिखने वाले मोहनदास करमचंद गांधी जी के व्यक्तिगत जीवन में उनकी सोच क्या रही होगी, वह एक अलग विषय है लेकिन उसे लिखने की क्षमता रखना सामान्य श्रेणी में तो नहीं आता।

पार्टी प्रवक्ता की ओर से उदाहरण तो इन लोगों का दिया जा रहा है लेकिन आरोपी अपनी बात स्पष्ट रूप से कहने के बजाय ‘दलित कार्ड’ फेंक रहा है। कैसी राजनीति है! एक महिला के लिए जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, वह पूर्णरूप से संस्कारविहीन दिखती है। ऐसे लोग जो सोशल मीडिया पर एक लड़की के चरित्र का प्रमाणपत्र बांट रहे हैं, वे कम से कम एक बार अपनी व्यक्तिगत जीवन के विषय में भी सोचें। मेरा मानना है कि सवाल इस बात पर नहीं उठना चाहिए कि एक ‘जनप्रतिनिधि’ के किसी गैर महिला के साथ संबन्ध थे बल्कि सवाल इस बात पर उठना चाहिए कि संदीप कुमार ने आखिर तस्वीरें क्यों खींची और विडियो क्यों बनाया? सवाल इस बात पर उठना चाहिए कि किसी महिला के सम्मान को लेकर एक व्यक्ति इस हद तक गैरजिम्मेदार कैसे हो सकता है? सवाल इस बात पर उठना चाहिए कि सोशल मीडिया पर एक लड़की के सम्मान से खुलेआम खिलवाड़ करने वालों पर कार्रवाई कब होगी?

विश्वास मानिए, यदि विरोध भी सकारात्मकता की नींव पर टिका होगा तो निश्चित ही देश की राजनीति में परिवर्तन देखने को मिलेगा।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...