Friday 26 August 2016

गोरक्षको, दलित तुमसे ज्यादा धर्मनिष्ठ हैं

गोरक्षा की बात हो, गोरक्षा दल बनें…कोई समस्या नहीं। हमें जन्म देकर अपने दूध से हमारी हड्डियों को मजबूती प्रदान करने वाली मां की तरह गाय भी हमारी जीवनदायनी है। लेकिन इस समय भारत में दलितों के साथ जो हो रहा है, उससे उनकी रक्षा के लिए क्या कोई दल नहीं बनना चाहिए? क्या दलितों की रक्षा की जिम्मेदारी हमारी नहीं है? क्या वे हमारे भारत का हिस्सा नहीं हैं? क्या भारत बनाने में उनका कोई योगदान नहीं है? अरे साहब! याद करिए वह मुगलकालीन दौर जब अपने धर्म की रक्षा के लिए इन्होंने अपने जनेऊ को तोड़कर अर्थात ‘भंग’ कर मुगल शासकों के यहां मैला ढोने और उनके द्वारा पात्र में किए गए शौच को सिर पर उठाकर फेंकने का काम तक शुरू कर दिया। याद करिए वह दौर जब हमारी ही अग्रज पीढ़ियां तीन भागों में बंट गईं थीं। एक तो वे जिन्होंने मुगलों के आगे झुककर इस्लाम स्वीकार कर लिया, दूसरे वे जिन्होंने संघर्ष किया या खुद को छिपाते रहे और तीसरे वे जिन्होंने धर्म को नहीं छोड़ा और मुगलों की दृष्टि में जो सबसे गंदा काम था, उसे करना स्वीकार किया।

आज आप उन्हें उनकी शादी में घोड़ी पर नहीं बैठने देते हैं। अरे हिम्मत नहीं है आपकी कि आप उनसे आंख मिलाकर बात कर सकें। आपको तो उनके चरणों को धोकर पीना चाहिए कि जो काम आज आप अपने घर में भी नहीं कर पाते हैं, उस काम को वे बड़ी निष्ठा से करते हैं। एक जानवर के मर जाने पर जब आप अपनी नाक पर कपड़ा रखकर उसके पास से निकलते हैं तो वे हीं हैं जो आपकी सुविधा के लिए खुद को कष्ट देकर उस जानवर को हटाते हैं। हो सकता है कि आप अब कुतर्क करें कि वे अपना काम करते हैं। साहब! यह उनका काम नहीं है बल्कि आपके लिए आईना है कि जो आप नहीं कर सकते वह वे कर सकते हैं। आपको तो शर्म से डूब मरना चाहिए लेकिन आप तो उन्हें पीटेंगे, उन्हें कुएं से पानी नहीं भरने देंगे, उनको मंदिर में नहीं घुसने देंगे। क्या आपके भगवान कहते हैं कि जो मैला उठाएगा या जो उस परिवार में जन्म लेगा, वह उनके मंदिर में नहीं जा सकता? क्या आपके भगवान छुआछूत मानते हैं? क्या वह तुमसे कहते हैं कि छुआछूत मानो और दलितों पर अत्याचार करो? अगर हां, तो एक समय में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा था और आज मैं कहता हूं कि अगर आपका भगवान छुआछूत मानता है तो मैं उसे भगवान नहीं मानता।

याद करिए चंवरवंश का गौरवशाली इतिहास और चंवरवंश से संबंध रखने वाले संत रविदास को, जिन्हें राणा सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने अपना गुरु बनाकर उनको मेवाड़ के राजगुरु की उपाधि दी थी। जिन्हें आपके पूर्वजों ने गुरु माना, आप उनके वंशजों को अछूत मानते हैं। क्या आपने एक संत का वह शौर्य नहीं पढ़ा कि जब सिकंदर लोधी ने रविदास को कैद करके उनके अनुयायियों को ‘चमार’ कहकर अछूत घोषित किया और उन पर इस्लाम स्वीकार करने का दबाव डाला तो उन्होंने कहा,

वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान,
फिर मैं क्यों छोड़ू इसे, पढ़ लूं झूठ कुरान।
वेद धर्म छोड़ू नहीं, कोसिस करो हज़ार,
तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार।। (रविदास रामायण)

माफ कीजिएगा लेकिन जो काम सिकंदर लोधी ने किया था, वही काम आप भी कर रहे हैं। हमारे-आपके तथाकथित सनातनी पुरखों ने उन्हें अछूत बनाकर सनातन धर्म के सीने में कटार घोंपने जैसा काम किया। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि आज 21वीं सदी में जब भारत के हर नागरिक को एक सूत्र में पिरोने की आवश्यकता है तो आप अपने पूर्वजों की उसी कुत्सित परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।  हमारे-आपके पूर्वजों ने इन धर्मरक्षकों को अपने ही समाज से बहिष्‍कृत कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू धर्म कुरीतियों का घर बन गया, जो आज जातिप्रथा के रूप में एक अभिशाप बनकर अपनी जड़ें जमा चुका है।

मछुआरी मां सत्‍यवती की संतान महर्षि व्‍यास की तो आप पूजा करते हैं और आज एक मछुआरे को निम्न स्तर का कहकर उसे अपने साथ खाना भी नहीं खिलाते। हो सकता है आपको बुरा लगे लेकिन मैं इसे दोगला चरित्र ही मानता हूं। आप श्रीकृष्ण की बात करते हैं ना तो गीता के चौथे अध्‍याय का 13वां श्‍लोक भी पढ़ लीजिए, जिसमें श्रीकृष्‍ण ने कहा है, ‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः’ (महाभारत आदि पर्व 64/8/24-34) अर्थात चारों वर्ण ‘मैंने’ ही बनाए हैं, जो गुण और कर्म के आधार पर है। यह पढ़ने के बावजूद अगर आपके मन में यह प्रश्न न उठे कि जब सभी का निर्माता एक ही है तो मन में दलित, अस्‍पृश्‍य जाति जैसी भावना कैसे आ गई?

याद रखिए, हमारे आराध्य श्रीराम ने भी कभी किसी को स्वयं से अलग नहीं समझा। उन्होंने निषादराज को भी गले लगाया साथ ही शबरी के जूठे बेर भी खाए। आज इन तथाकथित दलितों को खुद से दूर करके आप श्रीराम का अपमान कर रहे हैं। बस इतना ही निवेदन है कि भारत की सांस्कृतिक एकता को मत तोड़िए। गोरक्षा के नाम पर, अपनी झूठी परंपराओं के नाम पर इन्हें खुद से दूर मत करो। याद रखिए, भारत सिर्फ आपसे नहीं बनता। भारत बनाने में हमारे इन भाइयों का भी योगदान है। आज जिस गौरवशाली और शौर्यपूर्ण अतीत की बात करके आप खुद को श्रेष्ठ जताने की कोशिश करते हो, उस अतीत की नींव इनके समर्पण पर ही टिकी है।

Thursday 25 August 2016

काम-रेड कथा: क्रांतिकारी का चोला ओढ़े बलात्कारी

देश के दिल दिल्ली में स्थित एक विश्वविद्यालय, जहां मेरे-आपके टैक्स के पैसे से वहां पढ़ने वाले छात्रों को सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) प्रसिद्ध है अपनी प्रगतिवादी सोच के लिए... इस विश्वविद्यालय की सबसे खास बात यहा है कि यहां के छात्रों का एक गुट भारत में 'आजादी' चाहता है। भारत में कुछ चीजें सिर्फ हमारे जेएनयू में ही होती हैं। उदाहरण स्वरूप, जब बस्तर में भारतीय सेना के 72 जवानों को नकसलियों द्वारा मार दिया जाता है तो जश्न मनाया जाता है। लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने के दोषी अफजल गुरू को जब देश की सर्वोच्य अदालत फांसी की सजा सुनाती है तो इस जेएनयू में उस फैसले का विरोध होता है, एक आतंकी की फांसी पर यहां मातम मनाया जाता है। इंटरनैशनल फूड फेस्टिवल के बहाने यहां पर कश्मीर का एक अलग स्टॉल लगाकर उसे एक देश के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इस विश्वविद्यालय के छात्रों का एक गुट मानता है कि भारत ने पूर्वोत्तर राज्यों पर गलत तरीके से 'कब्जा' करके रखा है और उन्हें 'आजाद' कर देना चाहिए। यहां के 'प्रगतिशील' छात्र आतंकी अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने की कसमें खाते हैं। यहां शक्ति की प्रतीक मां दुर्गा को 'वेश्या' और महिषासुर को 'दलित' बताया जाता है। यहां भारत की बर्बादी तक जंग को जारी रखने के नारे लगते हैं। यह है मेरा जेएनयू... 

ऐसा नहीं है कि जेएनयू का मात्र यही रूप है। इसके अलावा जेएनयू का एक रूप भी है जिसने 'भारत' बनाने में अहम योगदान दिया है लेकिन यहां इस सकारात्मक रूप पर नकारात्मक रूप हमेशा प्रभाव स्थापित किए रहता है और इसी मजबूरी के कारण हमारी आंखों के सामने जेएनयू का नकारात्मक स्वरूप ही प्रदर्शित होता है। 2 दिन पहले इस विश्वविद्यालय के एक छात्रनेता ने विश्वविद्यालय की ही एक छात्रा को मराठी फिल्म सैराट दिखाने के बहाने अपने हॉस्टल में बुलाया और फिर उसे शराब पिलाई। इसके बाद छात्र संगठन आइसा के 'अनमोल रतन' ने छात्रा का बलात्कार किया। क्या कहेंगे इसे आप? आधुनिकता, प्रगतिवादिता या फिर आजादी?

इस देश में आजादी के मायने क्या होते जा रहे हैं, यह इन हालातों में समझने की कोशिश करना, व्यवहारिकता को एक कभी न सुलझने वाले जाल में उलझा सकता है। हैरानी की बात तो यह है कि मानवतावाद, नारीवाद और शोषण के विरोध में लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले लोग इस पूरे मामले पर खामोश हैं। उन्हें न तो इसमें किसी महिला का शोषण दिख रहा है और ना ही इसमें उन्हें मानवता की हत्या दिख रही है। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि अब आधुनिकता के पैमानों पर बहस भी नहीं हो रही है। किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस लड़की की संवेदनाओं की हत्या क्यों की गई? आइसा ने अपने 'अनमोल रतन' की प्राथमिक सदस्यता रद्द करके अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। अगर वह सामान्य कार्यकर्ता होता तो बात को सामान्य कहकर टाल दिया जाता लेकिन वह दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष रह चुका है। छात्र संगठनों को जितना मैं जानता हूं वे ऐसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी ऐसे ही व्यक्ति को देते हैं जो उनकी विचारधारा को अपने कृतित्व में आत्मसात करता हो। तो क्या यह मानना ठीक नहीं होगा कि वर्तमान वामपंथी विचारधारा ही इस कुत्सित मानसिकता से ग्रसित है।

आज यह बात सामने आ गई है, साथ ही यह भी सामने आया है कि उस छात्रनेता ने छात्रा पर इस घटना का बाहर जिक्र न करने को लेकर दबाव भी बनाया था। तो क्या इस बात को लेकर कोई शंका रह जाती है कि जेएनयू में यह सब आए दिन होता रहता हो और ऐसे ही दबाव के चलते छात्राएं इसका जिक्र बाहर न कर पाती हों। 

बेहतर होता अगर हमारे देश के नेता उस पीड़िता को अपनी बेटी बताकर उसे न्याय दिलाने की बात करते। बेहतर होता कि हमारी राजनीतिक पार्टियां एकमत से रेड झंडे को लेकर 'काम' की आग में जलने वाले कामरेडों की 'आजादी' पर प्रतिबंध लगाने की बात करतीं। बेहतर होता कि 'आजादी' के सिपहसालार इस विषय पर भी अपनी कलम चलाकर ऐसी कुत्सित मानसिकता से प्रेरित हरकत करने वाले व्यक्ति के लिए सजा की मांग करते। बेहतर होता अगर मेरे देश के प्रगतिशील वर्ग के पत्रकार ऐसे विषयों पर भी अपने चैनल की स्क्रीन काली करते। काश! यह सब हो पाता। काश....!!!

वीर सावरकर की प्रेरणा से सुभाष चन्द्र बोस ने बनाई थी आजाद हिंद फौज

वैसे तो अभी तक भारत के वीर सपूत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत पर रहस्यात्मक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है लेकिन एक प्रचलित 'तथ्य' यह भी है कि आज से ठीक 71 साल पहले 18 अगस्त 1945 को तोक्यो जाते हुए उनका हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और इस हादसे में नेताजी की मौत हो गई थी। नेताजी की मौत से जुड़ा सच क्या है, यह एक अलग विषय है लेकिन देश के प्रति पूर्ण मनोयोग के समर्पित होकर ब्रिटिश सेना के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने वाले सुभाष बाबू के जीवन के जुड़े कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनके बारे में शायद आपको जानकारी न हो। विश्व इतिहास में आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहां 1,50,000 हजार युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर अंग्रेजों के सामने खड़ा किया गया हो।

सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस, कांग्रेस के अध्यक्ष बने लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुखी होकर सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 3 मई 1939 को उन्होंने कोलकाता में फॉरवर्ड ब्लॉक अर्थात अग्रगामी दल की स्थापना की तथा भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए वह तत्कालीन नेताओं एवं क्रांतिकारियों से संपर्क करने लगे।

आपको जानकर हैरानी होगी कि सुभाष बाबू को अंग्रेजों के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने की प्रेरणा विनायक दामोदर सावरकर से मिली थी। 26 जून 1940 को सुभाष चन्द्र बोस, सावरकर के घर गए। वह सावरकर से मिलने मोहम्मद अली जिन्ना के कहने पर गए थे क्योंकि जिन्ना, सावरकर को हिंदुओं का नेता मानता था और खुद को मुस्लिमों का नेता कहता था। मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए जब अलग देश की मांग की गई तो सुभाष बाबू जिन्ना के पास गए। सुभाष बाबू चाहते थे कि मुस्लिम लीग देश के विभाजन की मांग न करे। जिन्ना के पास पहुंचने पर जिन्ना ने सुभाष बाबू से पूछा कि वह किसकी तरह से उससे बात करने आए हैं? इस पर सुभाष बाबू ने कहा कि वह ने कहा कि वह फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता के तौर पर बात करना चाहते हैं। सुभाष बाबू की इस बात पर जिन्ना ने कहा, 'मैं मुसलमानों का नेता हूं और मुझसे कोई हिंदू नेता ही बात कर सकता है।' जिन्ना की नजर में विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुओं के नेता थे। जब सुभाष बाबू, विनायक दामोदर सावरकर से मिलने पहुंचे तो सावरकर ने सुभाष बाबू को महान क्रांतिकारी रायबिहारी बोस के साथ हुए पत्रव्यवहार के बारे में बताया। सावरकर ने उनको बताया कि रायबिहारी बोस, युद्धबंदी भारतीयों को एकत्रित करके एक सेना बनाने का प्लान कर रहे हैं। इसके बाद नेता जी जर्मनी गए। जर्मनी में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की।

जर्मनी में सुभाष बाबू ने हिटलर से मुलाकात की। नेताजी भारत को आजाद करवाने के लिए दुनिया भर की मदद चाहते थे। हिटलर ने एक सीमा तक नेताजी की मदद भी की। वह सुभाष बाबू से बहुत प्रभावित हुआ। महान देशभक्त रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में नेता जी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के वैफथे नामक हॉल में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) का गठन किया। इस सरकार को जापान, इटली, जर्मनी, रूस, बर्मा, थाईलैंड, फिलीपींस, मलयेशिया सहित नौ देशों ने मान्यता प्रदान की। आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री के पद की शपथ लेते हुए सुभाष ने कहा, 'मैं अपनी अंतिम सांस तक स्वतंत्रता यज्ञ को प्रज्वलित करता रहूंगा।'

इसके बाद पूर्व एशिया और जापान पहुंच कर उन्होंने आजाद हिंद फौज का विस्तार करना शुरू किया। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहां स्थानीय भारतीय लोगों से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने का और आर्थिक मदद करने का आहृान किया। रंगून के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस ने अपने भाषण के दौरान कहा, 'स्वतंत्रता संग्राम के मेरे साथियों! स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आजादी को आज अपने शीश फूल की तरह चढ़ा देने वाले पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढ़ा सकें। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। खून भी एक-दो बूंद नहीं बल्कि इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाये और उसमें में ब्रिटिश साम्राज्य को डुबो दूं।' 

6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गांधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गांधी जी को पहली बार राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी 'जंग' के लिए उनका आशीर्वाद मांगा। हमारा दुर्भाग्य है कि हम आज तक उस महान क्रांतिवीर की मौत के सच का पता नहीं लगा पाए हैं। अगर आज हम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो हमें भारत को सर्वोपरि रखना होगा। 

जो लोग मानवाधिकार के नाम पर याकूब मेमन की फांसी और बुरहान वानी के वध का विरोध करते हैं, जो लोग मनवतावाद के नाम पर 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे नारों का समर्थन करते हैं, जो लोग 'दलित उद्धार' के नाम पर भारतीय एकता, अखंडता तथा एकात्मता के विपक्ष में खड़े हो जाते हैं, जो लोग गौ रक्षा के नाम पर किसी निर्दोष को पीटकर अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी का बदला लेते हैं और जो लोग 'अधुनिकता' के नाम पर अश्लीलता का समर्थन करते हुए भारतीयता के विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनको यह समझना होगा कि  21वीं सदी लिर्फ मेरे भारत की है। भारत को तो हम 'विश्वगुरु' के पद पर पुनः प्रतिष्ठित करके ही रहेंगे। अगर 'उन्होंने' साथ दिया तो उनके साथ, अगर साथ नहीं दिया तो उनके बिना और अगर विरोध किया तो उनके विरोध को 'कुचलकर', मेरा भारत, 'भारत' बनकर ही रहेगा।

बलिदान दिवस: फांसी से पहले मदन लाल ने कहा...

'मेरा विश्वास है की विदेशी संगीनों से पराधीन किया गया राष्ट्र सदैव युद्ध की स्थिति में ही रहता है। चूंकि निःशस्त्र जाति द्वारा खुला युद्ध करना असंभव है इसलिए मैंने अकस्मात हमला किया। मैंने पिस्टल निकली और गोली चला दी। मुझ जैसा निर्धन बेटा खून के अलावा अपनी मां को और क्या दे सकता है? इसीलिए मैंने उसकी बलिवेदी पर अपना बलिदान कर दिया है। आज भारतीयों को जो एकमात्र सबक सीखना है, वह है कि किस तरह मरें और यह सिखाने का एक ही तरीका है, खुद मरकर दिखाना। मेरी भगवान से एक ही प्रार्थना है कि मैं फिर से उसी मां की गोद में पैदा होऊं और जब तक हमारा लक्ष्य पूरा न हो, उसी पावन लक्ष्य के लिए दोबारा मरूं। वन्दे मातरम्।'

एक अंग्रेज अधिकारी के वध के बाद भारत के एक वीर सपूत ने यह बात फांसी के तख्ते पर खड़े होकर कही थी। 17 अगस्त,1909 को सुबह 6 बजे क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा को फांसी दे दी गई। जब 11 अगस्त 1908 को भारत में खुदीराम बोस और उसके बाद कन्हाई दत्त सहित कई क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गयी तब मदन लाल ने लंदन में विनायक दामोदर सावरकर से पूछा की क्या अपनी मातृभूमि के लिए प्राण देने का यह सही वक्त है? उनके इस सवाल का जवाब देते हुए सावरकर ने कहा, 'अगर तुम सर्वोच्च बलिदान के लिए तैयार हो और तुम्हारे मन ने अंतिम मुक्ति के बारे में सोच लिया है तो निश्चित रूप से अपने राष्ट्र के लिए प्राण देने का यह सही समय है।' सावरकर की प्रेरणा से ही मदनलाल ने तत्कालीन भारत सचिव के सहायक सैनिक अधिकारी कर्जन वायली का वध करने का निर्णय लिया और 1 जुलाई 1909 को वायली का वध कर दिया। इसके बाद धींगरा ने खुद को समाप्त करने की भी कोशिश की लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

23 जुलाई 1909 को ओल्ड बेली कोर्ट में जब मदन लाल धींगरा पर मुकादमा चलाया जा रहा था तो उन्होंने कहा, 'मुझे कर्जन की हत्या का कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैंने ऐसा करके भारत को अमानवीय ब्रिटिश राज की गुलामी से मुक्त कराने में अपना योगदान दिया है। जबकि कावसजी को मारने का मेरा कोई इरादा नहीं था।' कावसजी लाल्काका एक पारसी डॉक्टर था जिसने वायली को बचाने की कोशिश की तो मदनलाल ने उस पर भी दो गोलियां चला दीं।

उन्होंने कोर्ट में कहा, 'मेरा मानना है कि अगर जर्मन, अंग्रेजों पर कब्ज़ा कर लें तो अंग्रेजों का जर्मनों के खिलाफ युद्ध करना ही राष्ट्रभक्ति है। ऐसे में मेरा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना और भी ज्यादा न्यायोचित और देशभक्तिपूर्ण है। पिछले 50 सालों में अंग्रेजों ने 8 करोड़ भारतीयों की हत्या की है और हर साल भारत से 100,000,000 पाउंड (8.7 अरब रुपए) धन लूटा है। मैं अंग्रेजों को अपने देशभक्त देशवासियों को फांसी देने और निर्वासित करने के लिए भी जिम्मेदार मानता हूं, मैंने वही किया था जो यहां अंग्रेज अपने देश के लोगों को करने की सलाह देते हैं। जिस तरह जर्मन्स को इस देश (इंग्लैंड) पर कब्ज़ा करने का कोई अधिकार नहीं है उसी तरह अंग्रेजों को भी हमारे भारत पर कब्ज़ा करने का कोई हक़ नहीं है। इस तरह हमारी ओर से यह पूरी तरह न्यायोचित है कि हम उन अंग्रेजों को मारें जो हमारी पवित्र भूमि को अपवित्र कर रहे हैं। मैं अंग्रेजों के इस भयानक पाखंड, तमाशे और मज़ाक पर आश्चर्यचकित हूं।'

इसके बाद मदन लाल को जज ने दोषी करार देते हुए पूछा कि क्या उन्हें कुछ कहना है कि उन्हें मृत्युदंड क्यों न दिया जाए? इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'मैं आपको बार-बार कह चुका हूं कि मैं इस कोर्ट को मान्यता नहीं देता। आप जो चाहें कर सकते हैं मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज तुम गोरे लोग सर्व-शक्तिशाली हो लेकिन याद रखो कभी हमारा भी वक्त आयेगा ,तब हम जो चाहेंगे वह करेंगे।' सजा सुनाए जाने के बाद उन्होंने वीरता से कहा ,'धन्यवाद, मुझे गर्व है कि मुझे अपने देश के लिए अपने प्राण देने का सौभाग्य मिला है।'

आज 107 साल बाद मदन लाल धींगरा के बलिदान दिवस पर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को समझें। हम कहीं भी रहें, कुछ भी करें लेकिन यह मत भूलें कि जिस धरती पर हमने जन्म लिया है, जिस धरती ने हमें अन्न और जल दिया है, उसके प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारी है। आप सबसे पहले एक इंसान हैं, उसके बाद एक भारतीय और फिर अंत में उस क्षेत्र के प्रतिनिधि, जिसमें आप काम करते हैं।

Saturday 20 August 2016

कौन हूं मैं....

इस तस्वीर को देखिए, भारत समझ में आ जाएगा।
21 साल की एक लड़की जिससे 130 करोड़ लोगों की उम्मीदें जुड़ी थीं, वह मैच हार गई तो निराश होकर गिरना स्वाभाविक था... वह गिरी...फिर चंद सेकंड बाद वह उठी और उठकर पहुंच गई उसे शुभकामनाएं देने जिससे वह हारी थी... यह है मेरा भारत और यह है मेरी संस्कृति...एक 'आप' हैं, जिससे यदि किसी के विचार न मिलें तो आप उसे 'गाली' देने लगते हैं... उस पर भड़कने लगते हैं... अरे साहब! भारत यूं ही नहीं बनता... ऐसी बेटियां बनाती हैं भारत... आपकी विचारधारा पहुंची होगी कभी बड़े-बड़े देशों तक... जीते होंगे आपने देश... हमने दिलों को जीता है... और दिलों में ही बसते हैं इसीलिए हम आज भी हैं और आप खत्म होनी की कगार पर...


एक वर्ग के लोग मुझसे कहते हैं, आप बहुत अच्छा लिखते हो, बड़े राष्ट्रवादी हो, यह मोहब्बत पर लिखना बंद कर दो, शायरी लिखना बंद कर दो... दूसरे वर्ग के लोग कहते हैं, यार कहां फालतू संस्कृति-देश के चक्कर में पड़े हो, बहुत अच्छी कहानियां लिखते हो, बहुत अच्छी शायरी लिखते हो, #क्वीन पर नॉवेल लिखो, छोड़ो यह सब...

मैं आप सबकी मोहब्बत के विश्वास पर उन दोनों तरह के लोगों को एक ही जवाब देता हूं कि आज जरूरत है कि इस देश के लड़के-लड़की किसी एक चेहरे से मोहब्बत करने के साथ-साथ वतन से भी मोहब्बत करें... आज जरूरत है कि शायरी लिखने वाले लोग भी देश के लिए लिखना सीखें, अपनी शायरी में संस्कार लाएं... आज जरूरत है कि जींस पहनने वाले लोग भी तिलक के वैज्ञानिक महत्व को समझें... आज जरूरत है कि संस्कृति की रक्षा के नाम पर प्रेम विवाह या अंतर जातीय विवाह का विरोध न किया जाए बल्कि इस बात को समझा जाए कि एक दूसरे को जितना ज्यादा बेहतर तरीके से समझने के बाद शादी होगी, जीवन के लिए उतना ही बेहतर होगा....

वतन से मोहब्बत हुई तो राष्ट्रवाद लिखना शुरू किया और जब एक लड़की से मोहब्बत हुई तो मोहब्बत पर लिखने लगा, शायरियां लिखने लगा, कविताएं लिखने लगा... इसमें क्या गलत किया... दोनों को दायित्व के रूप में लिया और आज भी दोनों से पूरी शिद्दत से मोहब्बत करता हूं और उसी समर्पण भाव से अपने मन के भावों को लिख देता हूं... चूंकि वह वास्तविक है, उसमें स्वार्थ नहीं है इसलिए लोगों को पसंद आता है...

मैं राष्ट्रवाद लिखता हूं तो संस्कृति बचाने की कोशिश करता हूं और जब मोहब्बत पर लिखता हूं तो हिंदी के संस्कार बचाने की कोशिश करता हूं। मुझे नहीं पता कि मैं आज तक कितना सफल हुआ लेकिन आप लोगों के भरोसे मैं इतना जरूर जानता हूं कि आज से 15-20 साल के बाद जब मेरी बहन की बेटी मुझसे कहेगी कि मामा जी, आपने अपनी जिंदगी में क्या किया तो मैं उससे नजर मिलाकर कह सकूं कि मैंने उन लोगों तक हिंदी का संस्कार पहुंचाया जो गर्लफ्रेंड द्वारा मेसेज का जवाब न दिए जाने पर रात भर अंग्रेजी गानों को सुनते थे, मैंने उन लोगों का भारत की गौरवशाली संस्कृति पहुंचाई जो किसी 'बुद्धिजीवी' के प्रभाव में अपने भारतीय स्वभाव को भूल गए थे...

मुझे नहीं पता कि वेदों में क्या-क्या लिखा है। मैंने पूरी तरह से वेदों का अध्ययन नहीं किया है। सच तो यह है कि मेरा स्तर ही वह नहीं है कि वेदों के मूल अर्थ को समझ सकूं लेकिन इधर-उधर से वेदों की ऋचाओं का वास्तविक अर्थ पता लगाने का प्रयास करता रहता हूं। अब तक मुझे किसी ने ऐसा न कुछ बताया जो आपत्तिजनक हो और ना ही अब तक मैं ऐसा कुछ खोज पाया। मैंने मनुस्मृति को भी नहीं पढ़ा था लेकिन जब लोग मनुस्मृति की प्रतियां जलाने लगे तो मनुस्मृति का अध्ययन करना शुरू किया। जितना मैंने समझा उसमें कुछ भी ऐसा नहीं मिला जो किसी जाति अथवा लिंग के विरोध में हो।

लेकिन हां, मैंने जिस परिवार में जन्म लिया उसमें परदादी जी,दादा जी और दादी जी रामचरित मानस का पाठ करते थे और फिर मुझे भी राम जैसा बनने को कहते थे, बचपन में मुझे राम और छोटे भाई को लक्ष्मण कहकर बुलाया जाता था। इतना कुछ होने पर बालमन में इच्छा जगती थी कि राम में आखिर ऐसा क्या है कि उनकी तरह बनने को कहा जा रहा है। उत्सुकतावश जब दादा-दादी से पूछता था तो वह सब कुछ बताते थे। जितना जाना, जितना समझा बहुत अच्छा चरित्र लगा और जब चरित्र पसंद आया तो उन्हीं के आदर्शों पर चलने का प्रयास करने लगा...

जिस विद्यालय में शिक्षा पाई, वहां पर गीता के श्लोकों और सुभाषितों से सुबह होती थी। वहां उन श्लोकों को सिर्फ रटाया नहीं जाता था बल्कि उनका अर्थ बताया जाता था, साथ ही उनकी व्यवहारिकता बताते हुए अनुसरण करना भी बताया जाता था। वहां सारी लड़कियां बहनें होती थीं जो एक सगी बहन की तरह ही प्रेम देती थीं।

जिस संगठन से जुड़ा उसने सकारात्मकता दी, उसने बताया कि क्यों अपनी संस्कृति पर गर्व करें। लेकिन वहां मुझे कभी नहीं कहा गया कि दूसरों को गाली दो, वहां मुझे कभी नहीं कहा गया कि सिर्फ हम अच्छे हैं। वहां पर सिर्फ यही कहा गया कि सबका अपना विशिष्ट महत्व है, स्थान के अनुसार प्रासंगिकता बदल जाती है... उनके लिए यह उचित नहीं हो सकता और यहां के लिए वह ठीक नहीं हो सकता।

मुझे जो कुछ मिला, उससे बेहतर नहीं मिल सकता था और शायद इसी कारण आज जब किसी के सामने खड़े होकर बात करता हूं तो नजरें नीचे नहीं करनी पड़ती...  शीशे के सामने खड़े होने पर खुद से नजर मिला पाता हूं और इसी वजह से आपकी झल्लाहट पर भी शांत भाव से आपके बीच में खड़ा रहता हूं। शायद यही वजह है कि मैं 'आप' को पसंद नहीं आता...क्योंकि 'आप' अपने कर्मों की वजह से, अपने विचारों की वजह से लोगों से नजर नहीं मिला पाते और आपको लगता है कि जब मैं लोगों के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं रखता तो यह कैसे खड़ा रहता है...

लोग मुझसे कहते हैं तुमने क्या किया है, तुम क्या करोगे? मैंने अब तक जो भी किया है, उससे पूर्ण रूप से संतुष्ट हूं। स्कूल में जब मोहब्बत हुई तो पूरी शिद्दत से की... सिर्फ मोहब्बत की... सब-कुछ छोड़ दिया... मोहब्बत की तो ऐसे की कि जब वह लड़की पहली बार किसी की बाहों में गई तो उससे बोली कि प्यार कर रहे हो तो गौरव की तरह करना। वह बेचारा इतना परेशान हो गया कि मुझे फोन लगाकर हमारे रिश्ते के 'स्तर' के बारे में पूछने लगा... जब सच बताया तो बस यही कह पाया कि 'अजीब' हो दोस्त...वह लड़की अब मेरे साथ नहीं है लेकिन आज भी उसी निष्ठा से प्यार करता हूं... मोहब्बत की तो ऐसे की, कि इतने सालों बाद आज जब #क्वीन पर लिखना शुरू किया तो अगर बीच में कुछ दिन न लिखूं तो पचासों मेसेज यह पूछने के लिए आ जाते हैं कि मैं अपनी #क्वीन के बारे में लिख क्यों नहीं रहा...

यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान निःस्वार्थ भाव से छात्रों के लिए संघर्ष किया, लाठियां खाईं, घरवालों से मार खाई... 'नेतागिरी करते हो' कहकर पापा ने बात करना बंद कर दिया फिर भी मैं वही करता रहा जो कर रहा था... मेरे साथ के लोग एडमिशन के नाम पर, पास कराने के नाम पर छात्रों से खूब पैसे लेते थे, मैं भी वह सब कर सकता था, इतना सक्षम था, लेकिन नहीं किया...

एक दिन मन में आया कि जब इन सब में कोई भविष्य नहीं बनाना है तो फिर क्यूं यह सब कर रहा हूं लेकिन उसी शाम जब विश्वविद्यालय में आरटीआई आंदोलन के दौरान पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जमकर पीटा और गिरफ्तार करके ले जाने लगी तो पुलिस की गाड़ी के सामने वे लड़कियां जिनसे मेरा कोई रिश्ता नहीं था, जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था, सैकड़ों की संख्या में लेट गईं... थाने में पुलिस मुझे लेकर पहुंची तो मेरे घरवालों से पहले वे लड़कियां पहुंच कर बैठ गईं...लखनऊ जैसी जगह में थाने में जब उन्होंने चीखना शुरू किया कि जब तक भईया को नहीं छोड़ा जाएगा तब तक नहीं जाएंगे तो अहसास हुआ कि जो कर रहा हूं वह सही है...

सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हुआ तो दिन में 14-14 घंटे फेसबुक चलाता था... इतना 'कड़वा' लिखा कि फेसबुक ने आईडी ही बंद कर दी। 2008 का वह दौर जब साथ के लोग फेसबुक के बारे में जानते नहीं थे तब एक-एक पोस्ट पर सैकड़ों की संख्या में लाइक आते थे, मेरी टाइमलाइन से शेयर की गई तस्वीरों पर हजारों की संख्या में शेयर आते थे... लोगों ने साइबर सेल में केस किए... लोगों ने धोखे से बुलाकर पीटा लेकिन हार नहीं मानी, लिखना बंद नहीं किया... कल रात तक 16 बहनें राखियां भेज चुकी हैं... मेरी कलाई पर मेरी सगी बहन की राखी तो सजी लेकिन जिनसे कभी नहीं मिला, सिर्फ सोशल मीडिया पर बात हुई, वे राखी भेजना नहीं भूलीं... ऑफिस और कॉलेज की व्यस्तताओं के चलते पिछले 4 सालों से रक्षाबंधन पर अपनी एकलौती बहन को हर बार बहाने बताकर टाल देता हूं लेकिन इन बहनों की राखियां कभी मुझे अपनी नजरों में 'अपराधी' जैसा महसूस नहीं होने देतीं।

जब किसी लड़की को 'बहन' कहकर संबोधित करता था तो एक बार को तो लड़कियां हैरत में पड़ जाती थीं क्योंकि दिनभर भद्दे-भद्दे कॉमेंट सुनने वाले को अगर उन्हें कोई इस तरह से संबोधित कर रहा है तो निश्चित ही हर लड़के को एक जैसा समझने का उनका भ्रम तो टूट ही जाता था। और क्या कहकर संबोधित करता... किसी को गर्लफ्रेंड तो बना नहीं सकता...एक लड़की को ही  सब कुछ जो मान चुका हूं... उसके बाद 'समर्पित' रिश्ते के नाम पर बस यही एक रिश्ता बचता है। मैं जहां पला-बढ़ा वहां पर तो दुकान वाले को भी चाचा जी और सफाई करने वाली महिला को बुआ जी कहा जाता था... न सिर्फ कहा जाता था बल्कि इसी के अनुरूप सम्मान भी दिया जाता था। अब अगर अपनी पुरातन परंपरा का निर्वहन करते हुए किसी को बहन कहता हूं तो क्या गलत कहता हूं।

लेकिन अब दिल्ली में यह भी गलत लगने लगा... यहां ऐसी लड़कियां भी मिलीं जिनको बहन कह दो तो 'तंज' कसने लगती हैं। उनको आपत्ति इस बात से नहीं होती कि उन्हें किस संबोधन से संबोधित किया जा रहा है बल्कि उन्हें आपत्ति इस बात से होती है कि कोई 'अपना' कैसे बन सकता है...उनको डर लगता है अपनेपन से... पता नहीं अपनेपन से डर लगता है कि इस बात को लेकर परेशान रहती हैं कि इतना सजने संवरने की कोशिश करने के बाद भी कोई 'भाव' क्यों नहीं दे रहा है। रिश्तों को बाजारू घोषित करने में लगी रहती हैं....
पीड़ा होती है यार, आखिर मेरा भारत जा कहां रहा है....

भारत मांगे आजादी, हम ले के रहेंगे आजादी

आजादी, हर एक व्यक्ति के लिए इस शब्द के अलग-अलग मायने हैं? जेल में कैद एक व्यक्ति के लिए जेल से बाहर निकलना आजादी है तो भारत के कुछ प्रगतिशील छात्रों के लिए ‘अफलज के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाना’ आजादी है। लेकिन इन सबके बीच भारत की बेटियां जब आजादी की बात करती हैं तो मन में सवाल उठता है कि आखिर उनके लिए ‘आजादी’ क्या है? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि इस ‘आजादी’ की मांग करने वाली लड़कियां किसी पिछड़े गांव से ताल्लुक नहीं रखती हैं, जहां उन्हें जींस नहीं पहनने दी जाती है या जहां उन्हें पढ़ने से रोका जाता है या फिर जहां उन्हें ‘संस्कृति’ के नाम पर किसी लड़के से बात करने की भी मनाही होती है बल्कि इस आजादी की मांग वे लड़कियां करती हैं जिन्होंने देश की राजधानी दिल्ली में उच्चस्तरीय शिक्षा पाई है, जो अपने मन मुताबिक कपड़े पहन सकती हैं और किसी भी समय, किसी के भी साथ कहीं भी जा सकती हैं।

उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश में महिलाओं का एक ऐसा वर्ग भी है जिसे पढ़ने नहीं दिया जाता, जिसे सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाता है और जो आज भी अपनी शादी से पहले अपने होने वाले पति से बात तक नहीं कर सकती। तो क्या करें? क्या महिलाओं यानी स्त्रियों को ‘आजादी’ दे दी जाए। बिल्कुल, मेरा मानना है कि महिलाओं को आजादी मिलनी चाहिए लेकिन उस आजादी की एक ‘परिधि’ होनी चाहिए ताकि स्वतंत्रता और स्वछंदता का अन्तर बना रहे। इस अंतर का बना रहना भी जरूरी है क्योंकि यदि यह अंतर समाप्त हो गया तो नारी का ‘स्त्रीत्व’ समाप्त हो जाएगा।

लेकिन क्या स्त्रीत्व का अर्थ सिर्फ बच्चे पैदा करना है? क्या महिला बच्चे पैदा करने की मशीन है? बिल्कुल नहीं। बच्चे पैदा करने से सिर्फ स्तनों में दूध आता है। तो फिर आखिर स्त्रीत्व के मायने क्या हैं? एक छोटी सी सच्ची घटना सुनाता हूं।

एक बार मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई। घर के सभी लोग तीर्थ यात्रा पर गए हुए थे। सिर्फ पिता जी और मैं घर पर थे। मैं अपनी परीक्षाओं की वजह से और पिता जी अपने काम की वजह से परिवार के साथ नहीं जा सके थे। मेरा और मेरे पिताजी का संवाद बहुत अधिक नहीं होता था। मैं अपने बाबा-दादी जी के अधिक निकट था। माता जी के देहान्त के बाद मुझे मेरी दादी जी से मां का प्रेम मिला था। उस दिन जब मेरी तबियत खराब हुई तो मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। आखिरकार मैंने पिता जी को फोन कर अपनी स्थिति बताई। वह कहीं बाहर थे तो उन्होंने घर के पास रहने वाली एक लड़की को फोन करके मेरे पास भेजा। वह लड़की मुझसे 4-5 साल बड़ी रही होगी। मैं उन्हें दीदी कहकर बुलाता था।

उस दिन जिस तरह से उन्होंने मुझे संभाला, मुझे लगा जैसे मेरी मां मेरे पास है। उनकी शादी नहीं हुई थी, उनके बच्चे भी नहीं थे और वर्तमान में वह भारतीय सेना में कार्यरत हैं। एक स्त्री के तौर पर उनमें क्या खास था? उनका वात्सल्य… यही उन्हें स्त्री बनाता था।

एक महिला और एक पुरुष में बहुत अंतर होता है। वह अंतर सिर्फ यह नहीं हो सकता कि महिला बच्चे पैदा करती है और पुरुष नहीं कर सकते। वह अंतर होता है, भाव का। मातृत्व भाव होने के लिए, वात्सल्य भाव होने के लिए बच्चे पैदा करना आवश्यक नहीं। लेकिन यदि आप हर वह काम करती हैं जो पुरुष करते हैं और आप में वात्सल्य भाव समाप्त हो गया है तो आप स्त्री कहां बचीं? फिर तो आप पुरुष ही हो गईं। शारीरिक बनावट तो कोई मायने रखती नहीं। क्या आप सिर्फ अपनी शारीरिक बनावट के आधार पर खुद को ‘खास’ बताना और जताना चाहती हैं? ऐसे में सिर्फ एक ही अंतर रह जाता है कि आपको ‘पीरियड्स’ आते हैं और मुझ जैसे पुरुषों को नहीं।

स्त्रीत्व मात्र एक भाव है जो आपको मुझसे श्रेष्ठ बनाता है। आपके समर्पण को प्रणाम करता हूं। परंतु यह समर्पण तब तक ही है जब तक आपमें स्त्रीत्व शेष है, आपमें वात्सल्य शेष है। आजादी के नाम पर यदि आप स्वछंदता चाहती हैं तो विश्वास मानिए आप मुझे या पुरुषों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रही हैं बल्कि आप मेरे ‘भारत’ की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं। माफ कीजिएगा लेकिन भले ही आपको आजादी के नाम पर अश्लीलता पसंद हो लेकिन यह तथाकथित आधुनिकता रूपी अश्लीलता मेरे देश के हित में नहीं है और मेरे साथ-साथ आपकी भी जिम्मेदारी है कि देश के प्रति, देश की संस्कृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें।

मुझे गर्व है कि मेरे देश का प्रधानमंत्री आज बेटियों के लिए इतना कुछ कर रहा है। मुझे गर्व है कि मेरे देश की सरकार उनकी पढ़ाई के लिए, उनकी सुरक्षा के लिए सरकारी योजनाएं ला रही है। लेकिन अगर आप चाहती हैं कि ‘फ्री सेक्‍स’ जैसी चीजों के लिए भी सरकार योजनाएं लाए तो मेरा करबद्ध निवेदन है कि बहुत से देश हैं जहां ये सब सामान्य है, वहां चली जाइए क्योंकि मेरा भारत और मेरे भारत की बेटियां ये नहीं चाहतीं।

यह मेरे देश का दुर्भाग्य है कि मेरे देश के कुछ लोग गरीबी, वंशवाद, रूढ़िवाद, परिवारवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद और पुरुषवाद से आजादी के नाम पर एक खास ‘विचार’ को देश पर थोपना चाहते हैं। इन सभी ‘वादों’ से आजादी मेरे भारत को भी चाहिए लेकिन वह आजादी अगर अपने साथ वैश्विकता और आधुनिकता के नाम पर एक कुत्सित मानसिकता लेकर आती है तो भले ही कुछ समय के लिए ‘आजाद’ हो जाएं लेकिन वह आजादी भारत की आत्मा को मार देगी।

मेरा भारत ‘आजादी’ चाहता है लेकिन अब वह आजादी किसी ‘वामपंथ’ के कंधे पर सवार होकर नहीं आनी चाहिए। उस आजादी को साथ चाहिए भारतीयता का, क्योंकि मेरे भारत का आधार भारतीयता है, वह भारतीयता जिसमें रिश्ते हैं, रिश्तों में मर्यादा है, मर्यादा में विश्वास है, विश्वास में प्रेम है और प्रेम में समृद्धता है। समृद्ध भारत के लिए ‘भारतीयता’ का बचा रहना बहुत जरूरी है इसलिए आइए और भारतीयता को केन्द्र में रखकर भारत को ‘आजाद’ कराएं।

श्रीराम-रावण मंदिर से ज्यादा भी कुछ है क्या?

मैं फिलहाल गौतमबुद्ध नगर जिले में रहता हूं। मेरे ही जिले में स्थित बिसरख गांव के गणेश मंदिर, राम परिवार मंदिर, राधा कृष्ण मंदिर, मां दुर्गा मंदिर, हनुमान मंदिर, शनि मंदिर और साथ में रावण मंदिर बनने की चर्चाएं नैशनल मीडिया में होती रहती हैं। सामान्य बात थी हमारे लिए, बचपन से सुनते थे कि श्रीलंका में रावण की पूजा होती है। बस यही सोचते थे कि वहां का राजा था, वहां के लोगों के लिए तो अच्छा किया ही होगा। प्रत्येक अच्छे राजा के रूप में उसने भी अपना धर्म निभाया होगा और अपनी जनता को खुश रखा होगा। लेकिन एक बार वास्तविक निष्पक्ष होकर उन चरित्रों का विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं, जिनकी मूर्तियां इस देश में बन रही हैं। दो चरित्र जो समकक्ष हैं, वे हैं राम-रावण। राम वह जिनकी पत्नी का अपहरण हो गया था और रावण वह जिसमें बहुत सी अच्छाइयां थीं लेकिन बस एक गलती हो गई कि सीता जी का अपहरण कर लिया। ऐसा सोच रहे हैं क्या आप?

या फिर यह कि आखिर रावण तो रावण था, उसने अपहरण किया तो श्रीराम ने दंड दे दिया, सृष्टि का विधान है कि इसी जन्म में दंड मिलता है तो मिल गया। अब चूंकि श्रीराम अच्छाई के प्रतीक हैं और उन्होंने कालांतर में रावण का वध किया था तो रावण का मंदिर नहीं बनना चाहिए लेकिन राम मंदिर तो बनवा के रहेंगे। अयोध्या में श्रीराम का मंदिर तो इन्हीं पांच सालों में बनवा लेंगे या फिर अगले चुनाव के बाद फिर उन्हीं पुराने लोगों को इन कुर्सियों पर बैठा देंगे। हम तो गोडसे का मंदिर बनवाएंगे, यही हमारी आजादी है। ऐसा सोचते हैं क्या आप?
या फिर एक बड़े ‘बुद्धिजीवी’ के रूप में सोचकर कहेंगे, ‘राम वह जिनकी पत्नी का अपहरण हो गया था और रावण वह जिसमें बहुत सी अच्छाइयां थीं लेकिन बस एक गलती हो गई कि सीता जी का अपहरण कर लिया। हम उसमें भी अच्छाई देखेंगे। उसमें ज्ञान था, उसने अपनी बहन के लिए जो किया-वह किया, वह एक अच्छा भाई था, शिव भक्त था…और भी बहुत कुछ। इसलिए उसी अच्छाइयों के आधार पर राम के साथ रावण ‘जी’ की भी मूर्ति होनी चाहिए। हम अच्छाई-बुराई का अंतर समाप्त कर देंगे। आप लोग पूजा करते हो राम के साथ रावण की क्यों नहीं कर सकते?’

अगर आप आज इस ब्लॉग को पढ़ते समय इनमें से किसी रूप में भी सोच रहे हैं तो आप इस देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं। आज देश एक नई दिशा में अग्रसर है। जिस विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होने का स्वप्न भारत की वीर हुतात्माओं ने देखा था, आज लग रहा है हम वह बन सकते हैं। विश्व के सबसे युवा देश को भावी भविष्य अपनी बांहों में भरने के लिए तैयार खड़ा है। अब या तो हम यहां राम मंदिर-रावण मंदिर के लिए लड़ लें या फिर अपने अधिकारों के साथ-साथ दयित्वों का निर्वहन करते हुए नए ‘डिजिटल भारत’ को विश्व पटल पर प्रतिस्थापित करने के लिए अपने स्तर पर योगदान दें। निर्णय हम पर निर्भर करता है। मुझे अपने विवेक के आधार पर लगता है कि अभी भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह श्रीराम जैसे मर्यादा का प्रतीक माने जाने वाले चरित्र के मंदिर का बोझ झेल सके।

मैं यह नहीं कहता कि हम अपनी संस्कृति से विमुख होकर मंदिर निर्माण करना या पूजा करना बंद कर दें लेकिन मैं इतना जरूर कह रहा हूं कि उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग पैसे देकर मंदिर में अपने खड़े होने की जगह तय करते हैं। उस देश में श्रीराम मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां आप राम के मूल चरित्र के विपरीत जाकर मंदिर में ही तोड़फोड़ करते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग गौ रक्षा के नाम पर अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी निभातें हों या व्यक्तिगत कुंठा निकालते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग एक जाति को ऊंचा और दूसरी को नीचा समझ कर उसी राम को ठुकरा देते हों जिसके मंदिर के लिए वे तलवारें लेकर तैयार रहते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग एक कौम को सिर्फ इसलिए आतंकवाद से जोड़ देते हैं क्योंकि उसी इबादत पद्धति में तथाकथित विश्वास रखने वाले कुछ लोग आतंकवाद के रास्ते पर हैं। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग मानवाधिकार के नाम पर एक आंतकवादी का जनाजा निकालते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग बुराई के प्रतीक माने जाने व्यक्ति को ‘दलितों’ का मसीहा बताकर उसके नाम पर ‘महिषासुर दिवस’ मनाते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग नारीवाद और आधुनिकतावाद के नाम पर स्वछंदता का समर्थन करते हों।

उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग अपनी मर्यादा भूलकर अपने शब्दों और अपनी भाषा शैली पर नियंत्रण न रख सकें। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग पूरी दुनिया से उल्टा चलते हों और हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजतें हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकते हों। उस देश में मंदिर का कोई अर्थ नहीं जहां लोग किसी परमशक्ति के न होने के अंधविश्वास में अपने नश्वर शरीर को ही परमशक्तिशाली मानते हों।

आज आवश्यकता है कि राम-रावण के मंदिर के झगड़े में न पड़कर अपने दायित्व का निर्वहन करें। पहले राम के मूल चरित्र को अपनाएं। हां, अब हो सकता है कि कोई कहे कि हम तो रावण के चरित्र को मानेंगे, वह भी तो ज्ञानी था। ठीक है साहब! अच्छाई ही माननी है तो मानो, लेकिन अभी मंदिर वगैरा के मामले में मत फंसाओ सबको। अभी सिर्फ भारत बनाने दो। मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारा-चर्च इत्यादि बाद में बैठकर तय कर लेंगे, हमारे घर के अंदर का मामला सुलझा लेंगे। मंदिर इत्यादि बनने का समय आने तक हमें इन चरित्रों के विश्लेषण का मौका दीजिए और आप भी एक बार निष्पक्ष होकर एक चरित्र के रूप में ठीक से इन चीजों का अध्ययन करिए। और हां, इस अध्ययन के दौरान इस तस्वीर में जिन महान लोगों की तस्वीरें लगी हैं, उनका इतिहास पता कर लें तो शायद आपके आधे से अधिक भ्रम खत्म हो जाएं।
बैनर रावण मंदिर(1)

नारीवाद के नाम पर आपको अश्लीलता चाहिए क्या?

नारीवाद, आखिर इस ‘विचारधारा’ के मायने क्या हैं? क्या नारीवाद का अर्थ यह है कि आप आधुनिकता के नाम पर नग्नता का समर्थन करें या फिर यह कि आप नारी के महत्व को समझें और अपने व्यवहार में नारी के समर्पण के प्रति सम्मान रखें। यदि नारीवाद का अर्थ पिछले वाक्य में लिखा गया पहला भाग है तो विश्वास मानिए वैसा नारीवाद भारत के लिए और भारतीय नारी के अस्तित्व के लिए एक जहर है। और यदि नारीवाद का अर्थ उस वाक्य का दूसरा हिस्सा है तो वह भारतीयता के मूल सिद्धान्त का प्रतिरूप ही तो है। कुछ समय पहले ‘एक गुजारिश है, आधुनिकता अपनाएं लेकिन नग्नता नहीं‘ शीर्षक से एक ब्लॉग लिखा था। इस ब्लॉग को पढ़कर आप समझेंगे कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में वास्तविक नारीवाद क्या होता है।

जब मैं दुनिया समझने वाला हुआ तब मेरी मां मेरे साथ नहीं थीं। मुझे नहीं पता कि मां का प्रेम क्या होता है, लेकिन एक महिला या लड़की के रूप में मुझे यदि सबसे अधिक स्नेह किसी से मिला है तो वह मेरी बहन है। आज भी उसी प्रेम की चाह में मैं हर एक लड़की में अपनी बहन को खोजता हूं। मैं प्रयास करता हूं कि मैं जितना समर्पण भाव अपनी बहन के प्रति रखता हूं, उतना ही अन्य महिलाओं के प्रति रख सकूं। क्या ‘नारीवाद’ का पैमाना यह नहीं हो सकता? क्या ‘नारीवाद’ का पैमाना सिर्फ यह हो सकता है कि आप किसी लड़की को नग्नता के चरम पर पहुंचने में अपना सहयोग करें।

नारीवाद के वर्तमान संरक्षकों को विज्ञापनों में जिस तरह से नारी की देह को बेचा जा रहा है, वह नहीं दिखता। क्यों? क्योंकि उनको तो वही देखना है न! उनको जो देखना है उस पर नारीवाद का चोंगा डालकर देखने के लिए जो भी कर पाएंगे करेंगे ही। लेकिन यदि उस रूप में उनकी पत्नी, बेटी अथवा बहन आना चाहेगी तो फिर बैठकर रोएंगे। उनके विशिष्ट ‘नारीवाद’ के पैमाने तब बदल जाएंगे। आज के टीवी सीरियल्स में जिस तरह से ‘इसकी पत्नी उसके साथ और उसकी पत्नी इसके साथ’ वाली परंपरा को आज के तथाकथित नारीवादी चटखारे लेकर देखते हैं, नारी के उसी रूप को यदि उनकी पत्नी आत्मसात कर ले तो? इस प्रश्न का जवाब संभवतः वे नहीं दे सकते। और देंगे भी कैसे, जब अपने घर का विषय आता है तो फर्जी सिद्धान्त की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं ध्वस्त हो जाती हैं।

2 दिन पहले संघ के एक समवैचारिक संगठक राष्ट्रीय सेविका समिति के एक कार्यक्रम में वक्ता ने कहा, ‘महिलाओं को अपने अधिकारों अधिक दायित्व के विषय में सोचना चाहिए। उन्हें सीता और द्रौपदी को आदर्श मानना चाहिए।’ स्वाभाविक है कि इस बयान को सुनने के बाद मन में प्रश्न उठेगा कि भाई कोई सीता और द्रौपदी जैसी महिलाओं को आदर्श क्यों माने? मेरा मानना है कि हर एक नारी जिसने कुछ अच्छा किया है, उससे सकारात्मक कर्तव्यों तथा अधिकारों को सीखना चाहिए। इस बात में कोई संदेह नहीं कि मध्यकाल के बाद भारतीय नारी की स्थिति बहुत खराब हो गई थी लेकिन उन कठिन परिस्थितियों में भी जिन नारियों ने संघर्ष करते हुए एक उदाहरण प्रस्तुत किया क्या उन्हें आदर्श नहीं माना जा सकता?
सीता की बात आई तो क्या हम सिर्फ इसलिए उन्हें नकार दें क्योंकि उनकी चर्चा आरएसएस के विचार परिवार से जुड़े एक संगठन की कार्यकर्ता ने की है? क्या सीता को सिर्फ इसलिए नकार दें कि वह एक विशेष पूजा पद्धति में विश्वास करने वालों द्वारा ‘मां’ अथवा ‘देवी’ मानी जाती हैं। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि जिन्हें एक विशेष वर्ग ‘भगवान’ कहता है, मैं उन्हें एक चरित्र मानता हूं और मैंने उनको जितना पढ़ा है उसके आधार पर वे मुझे मुझसे कई गुना बेहतर लगे।

बात सीता जी की है तो क्या उनमें कुछ भी ऐसा नहीं था जो हम अनुसरण कर सकें। जब श्रीराम वनवास जा रहे थे तब वह चाहते थे सीता जी मां कौशल्या के पास ही रुक जाएं। जबकि सीता श्रीराम के साथ वनवास जाना चाहती थीं। कौशल्या भी चाहती थीं कि सीता वन न जाएं। इस विषय पर सीता की इच्छा और श्रीराम तथा कौशल्या की इच्छा अलग-अलग थी। आज के समय में सास, बहू और बेटा, इन तीनों के बीच मतभेद होते हैं तो परिवार में तनाव बढ़ जाता है, लेकिन रामायण में श्रीराम के धैर्य, सीता जी और कौशल्या जी की समझ से सभी मतभेद दूर हो गए। क्या आज की नारी अपने परिवार में समन्वय स्थापित करने के लिए सीता जी से नहीं सीख सकती?

एक अन्य प्रसंग आता है कि केवट की नाव में जब सीता जी ने श्रीराम के चेहरे पर संकोच के भाव देखे तो यह देखते ही सीता जी समझ गईं कि राम, केवट को कुछ भेंट देना चाहते हैं, लेकिन उनके पास देने के लिए कुछ नहीं था। यह बात समझते ही सीता ने अपनी अंगूठी उतारकर केवट को देने के लिए आगे कर दी। क्या इस बात से यह नहीं सीखा जा सकता कि पति और पत्नी के बीच ठीक समझ कैसी होनी चाहिए? वैवाहिक जीवन में दोनों की आपसी समझ जितनी मजबूत होगी, वैवाहिक जीवन उतना ही ताजगी भरा और आनंददायक बना रहेगा। इस बात से तो कोई नारीवादी इनकार नहीं कर सकता न?

रही बात द्रौपदी की तो मैंने उस चरित्र का बहुत अधिक अध्ययन तो नहीं किया है लेकिन क्या आज के समय में एक महिला अपनी ‘सास’ के प्रति ऐसा समर्पण रख सकती है कि उसके एक बार कहने पर पांच पुरुषों को अपना पति स्वीकार कर ले। मैं यह नहीं कहता कि आज के समय में वह सही रहेगा लेकिन उन जैसे समर्पण भाव का एक सकारात्मक पक्ष तो अपनाया जा सकता है ना।

हर वह काम जो एक पुरुष कर सकता है, उसे स्त्री भी कर सकती है। यह स्त्रियों का अधिकार नहीं उनकी क्षमता है लेकिन यदि स्त्रियों का वात्सल्य खो गया तो विश्वास मानिए स्त्री, स्त्री न रहकर पुरुष बन जाएगी। अपने अधिकारों के साथ भारतीय नारित्व के मूल स्तंभ को भी यदि आपने बचाकर रख लिया तो यह सोने पर सुहागा कहा जाएगा। भारतीय संस्कृति में नारी की विशिष्टता का मूल आधार महिलाओं का सतीत्व और उनकी मर्यादा रही है। यहां संभव है कि आप मेरे ‘सतीत्व’ शब्द को सती प्रथा से जोड़ दें लेकिन सती शब्द का अर्थ भारतीय सनातन परंपरा में अपने कर्म तथा धर्म के प्रति समर्पण होता है। आज घर में रहकर खाना बनाना या बच्चे को संभालना ही कर्म अथवा धर्म नहीं कहा जा सकता। आज आवश्यकता है कि आप हमारे साथ चलें, इसलिए आज धर्म वही है, आखिर इस भारतीय परंपरा में दायित्व ही तो धर्म है। आज जो आप हमारे साथ मिलकर पूरी शिद्दत के साथ कर रही हैं वही आपका धर्म है और मुझे वास्तव में आपके संघर्ष पर गर्व होता है। आपके समर्पण को नमन है लेकिन आप अगर यह भी चाहती हैं कि मेरे साथ-साथ विश्व भी आपके समर्पण को नमन करे तो अनिवार्य रूप से मर्यादा और शक्ति के मूल स्वरूप के बीच का सामन्जस्य बरकरार रखना होगा।

नारी को भले ही देवी न बनाएं लेकिन कम से कम उन्हें पुरुष भी न बनाएं क्योंकि यदि वे पुरुष बन गईं तो सृष्टि समाप्त हो जाएगी।

Thursday 18 August 2016

वीर सावरकर की प्रेरणा से सुभाष चन्द्र बोस ने बनाई थी आजाद हिंद फौज

वैसे तो अभी तक भारत के वीर सपूत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत पर रहस्यात्मक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है लेकिन एक प्रचलित 'तथ्य' यह भी है कि आज से ठीक 71 साल पहले 18 अगस्त 1945 को तोक्यो जाते हुए उनका हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और इस हादसे में नेताजी की मौत हो गई थी। नेताजी की मौत से जुड़ा सच क्या है, यह एक अलग विषय है लेकिन देश के प्रति पूर्ण मनोयोग के समर्पित होकर ब्रिटिश सेना के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने वाले सुभाष बाबू के जीवन के जुड़े कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनके बारे में शायद आपको जानकारी न हो। विश्व इतिहास में आजाद हिंद फौज जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहां 1,50,000 हजार युद्ध बंदियों को संगठित, प्रशिक्षित कर अंग्रेजों के सामने खड़ा किया गया हो।

सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस, कांग्रेस के अध्यक्ष बने लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुखी होकर सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 3 मई 1939 को उन्होंने कोलकाता में फॉरवर्ड ब्लॉक अर्थात अग्रगामी दल की स्थापना की तथा भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए वह तत्कालीन नेताओं एवं क्रांतिकारियों से संपर्क करने लगे।

आपको जानकर हैरानी होगी कि सुभाष बाबू को अंग्रेजों के सामने एक भारतीय सेना खड़ी करने की प्रेरणा विनायक दामोदर सावरकर से मिली थी। 26 जून 1940 को सुभाष चन्द्र बोस, सावरकर के घर गए। वह सावरकर से मिलने मोहम्मद अली जिन्ना के कहने पर गए थे क्योंकि जिन्ना, सावरकर को हिंदुओं का नेता मानता था और खुद को मुस्लिमों का नेता कहता था। मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए जब अलग देश की मांग की गई तो सुभाष बाबू जिन्ना के पास गए। सुभाष बाबू चाहते थे कि मुस्लिम लीग देश के विभाजन की मांग न करे। जिन्ना के पास पहुंचने पर जिन्ना ने सुभाष बाबू से पूछा कि वह किसकी तरह से उससे बात करने आए हैं? इस पर सुभाष बाबू ने कहा कि वह ने कहा कि वह फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता के तौर पर बात करना चाहते हैं। सुभाष बाबू की इस बात पर जिन्ना ने कहा, 'मैं मुसलमानों का नेता हूं और मुझसे कोई हिंदू नेता ही बात कर सकता है।' जिन्ना की नजर में विनायक दामोदर सावरकर हिन्दुओं के नेता थे। जब सुभाष बाबू, विनायक दामोदर सावरकर से मिलने पहुंचे तो सावरकर ने सुभाष बाबू को महान क्रांतिकारी रायबिहारी बोस के साथ हुए पत्रव्यवहार के बारे में बताया। सावरकर ने उनको बताया कि रायबिहारी बोस, युद्धबंदी भारतीयों को एकत्रित करके एक सेना बनाने का प्लान कर रहे हैं। इसके बाद नेता जी जर्मनी गए। जर्मनी में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की।

जर्मनी में सुभाष बाबू ने हिटलर से मुलाकात की। नेताजी भारत को आजाद करवाने के लिए दुनिया भर की मदद चाहते थे। हिटलर ने एक सीमा तक नेताजी की मदद भी की। वह सुभाष बाबू से बहुत प्रभावित हुआ। महान देशभक्त रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में नेता जी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के वैफथे नामक हॉल में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) का गठन किया। इस सरकार को जापान, इटली, जर्मनी, रूस, बर्मा, थाईलैंड, फिलीपींस, मलयेशिया सहित नौ देशों ने मान्यता प्रदान की। आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री के पद की शपथ लेते हुए सुभाष ने कहा, 'मैं अपनी अंतिम सांस तक स्वतंत्रता यज्ञ को प्रज्वलित करता रहूंगा।'

इसके बाद पूर्व एशिया और जापान पहुंच कर उन्होंने आजाद हिंद फौज का विस्तार करना शुरू किया। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहां स्थानीय भारतीय लोगों से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने का और आर्थिक मदद करने का आहृान किया। रंगून के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस ने अपने भाषण के दौरान कहा, 'स्वतंत्रता संग्राम के मेरे साथियों! स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आजादी को आज अपने शीश फूल की तरह चढ़ा देने वाले पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढ़ा सकें। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। खून भी एक-दो बूंद नहीं बल्कि इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाये और उसमें में ब्रिटिश साम्राज्य को डुबो दूं।' 

6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गांधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गांधी जी को पहली बार राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी 'जंग' के लिए उनका आशीर्वाद मांगा। हमारा दुर्भाग्य है कि हम आज तक उस महान क्रांतिवीर की मौत के सच का पता नहीं लगा पाए हैं। अगर आज हम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो हमें भारत को सर्वोपरि रखना होगा। 

जो लोग मानवाधिकार के नाम पर याकूब मेनन की फांसी और बुरहान वानी के वध का विरोध करते हैं, जो लोग मनवतावाद के नाम पर 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे नारों का समर्थन करते हैं, जो लोग 'दलित उद्धार' के नाम पर भारतीय एकता, अखंडता तथा एकात्मता के विपक्ष में खड़े हो जाते हैं, जो लोग गौ रक्षा के नाम पर किसी निर्दोष को पीटकर अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी का बदला लेते हैं और जो लोग 'अधुनिकता' के नाम पर अश्लीलता का समर्थन करते हुए भारतीयता के विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनको यह समझना होगा कि  21वीं सदी लिर्फ मेरे भारत की है। भारत को तो हम 'विश्वगुरु' के पद पर पुनः प्रतिष्ठित करके ही रहेंगे। अगर 'उन्होंने' साथ दिया तो उनके साथ, अगर साथ नहीं दिया तो उनके बिना और अगर विरोध किया तो उनके विरोध को 'कुचलकर', मेरा भारत, 'भारत' बनकर ही रहेगा।

Wednesday 17 August 2016

बलिदान दिवस: फांसी से पहले मदन लाल ने कहा...

'मेरा विश्वास है की विदेशी संगीनों से पराधीन किया गया राष्ट्र सदैव युद्ध की स्थिति में ही रहता है। चूंकि निःशस्त्र जाति द्वारा खुला युद्ध करना असंभव है इसलिए मैंने अकस्मात हमला किया। मैंने पिस्टल निकली और गोली चला दी। मुझ जैसा निर्धन बेटा खून के अलावा अपनी मां को और क्या दे सकता है? इसीलिए मैंने उसकी बलिवेदी पर अपना बलिदान कर दिया है। आज भारतीयों को जो एकमात्र सबक सीखना है, वह है कि किस तरह मरें और यह सिखाने का एक ही तरीका है, खुद मरकर दिखाना। मेरी भगवान से एक ही प्रार्थना है कि मैं फिर से उसी मां की गोद में पैदा होऊं और जब तक हमारा लक्ष्य पूरा न हो, उसी पावन लक्ष्य के लिए दोबारा मरूं। वन्दे मातरम्।'

एक अंग्रेज अधिकारी के वध के बाद भारत के एक वीर सपूत ने यह बात फांसी के तख्ते पर खड़े होकर कही थी। 17 अगस्त,1909 को सुबह 6 बजे क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा को फांसी दे दी गई। जब 11 अगस्त 1908 को भारत में खुदीराम बोस और उसके बाद कन्हाई दत्त सहित कई क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गयी तब मदन लाल ने लंदन में विनायक दामोदर सावरकर से पूछा की क्या अपनी मातृभूमि के लिए प्राण देने का यह सही वक्त है? उनके इस सवाल का जवाब देते हुए सावरकर ने कहा, 'अगर तुम सर्वोच्च बलिदान के लिए तैयार हो और तुम्हारे मन ने अंतिम मुक्ति के बारे में सोच लिया है तो निश्चित रूप से अपने राष्ट्र के लिए प्राण देने का यह सही समय है।' सावरकर की प्रेरणा से ही मदनलाल ने तत्कालीन भारत सचिव के सहायक सैनिक अधिकारी कर्जन वायली का वध करने का निर्णय लिया और 1 जुलाई 1909 को वायली का वध कर दिया। इसके बाद धींगरा ने खुद को समाप्त करने की भी कोशिश की लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

23 जुलाई 1909 को ओल्ड बेली कोर्ट में जब मदन लाल धींगरा पर मुकादमा चलाया जा रहा था तो उन्होंने कहा, 'मुझे कर्जन की हत्या का कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मैंने ऐसा करके भारत को अमानवीय ब्रिटिश राज की गुलामी से मुक्त कराने में अपना योगदान दिया है। जबकि कावसजी को मारने का मेरा कोई इरादा नहीं था।' कावसजी लाल्काका एक पारसी डॉक्टर था जिसने वायली को बचाने की कोशिश की तो मदनलाल ने उस पर भी दो गोलियां चला दीं।

उन्होंने कोर्ट में कहा, 'मेरा मानना है कि अगर जर्मन, अंग्रेजों पर कब्ज़ा कर लें तो अंग्रेजों का जर्मनों के खिलाफ युद्ध करना ही राष्ट्रभक्ति है। ऐसे में मेरा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना और भी ज्यादा न्यायोचित और देशभक्तिपूर्ण है। पिछले 50 सालों में अंग्रेजों ने 8 करोड़ भारतीयों की हत्या की है और हर साल भारत से 100,000,000 पाउंड (8.7 अरब रुपए) धन लूटा है। मैं अंग्रेजों को अपने देशभक्त देशवासियों को फांसी देने और निर्वासित करने के लिए भी जिम्मेदार मानता हूं, मैंने वही किया था जो यहां अंग्रेज अपने देश के लोगों को करने की सलाह देते हैं। जिस तरह जर्मन्स को इस देश (इंग्लैंड) पर कब्ज़ा करने का कोई अधिकार नहीं है उसी तरह अंग्रेजों को भी हमारे भारत पर कब्ज़ा करने का कोई हक़ नहीं है। इस तरह हमारी ओर से यह पूरी तरह न्यायोचित है कि हम उन अंग्रेजों को मारें जो हमारी पवित्र भूमि को अपवित्र कर रहे हैं। मैं अंग्रेजों के इस भयानक पाखंड, तमाशे और मज़ाक पर आश्चर्यचकित हूं।'

इसके बाद मदन लाल को जज ने दोषी करार देते हुए पूछा कि क्या उन्हें कुछ कहना है कि उन्हें मृत्युदंड क्यों न दिया जाए? इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'मैं आपको बार-बार कह चुका हूं कि मैं इस कोर्ट को मान्यता नहीं देता। आप जो चाहें कर सकते हैं मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज तुम गोरे लोग सर्व-शक्तिशाली हो लेकिन याद रखो कभी हमारा भी वक्त आयेगा ,तब हम जो चाहेंगे वह करेंगे।' सजा सुनाए जाने के बाद उन्होंने वीरता से कहा ,'धन्यवाद, मुझे गर्व है कि मुझे अपने देश के लिए अपने प्राण देने का सौभाग्य मिला है।'

आज 107 साल बाद मदन लाल धींगरा के बलिदान दिवस पर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को समझें। हम कहीं भी रहें, कुछ भी करें लेकिन यह मत भूलें कि जिस धरती पर हमने जन्म लिया है, जिस धरती ने हमें अन्न और जल दिया है, उसके प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेदारी है। आप सबसे पहले एक इंसान हैं, उसके बाद एक भारतीय और फिर अंत में उस क्षेत्र के प्रतिनिधि, जिसमें आप काम करते हैं।

Tuesday 9 August 2016

'ढोल, गंवार, शूद्र...' वाली चौपाई का सच जानते हैं आप?

भारत की सबसे बड़ी समस्या है, यहां के आम जनमानस में व्याप्त विभिन्न प्रकार के 'भेद'। जाति भेद और लिंग भेद जैसे कई तरह के 'भेद' भारत की एकता, अखंडता एवं एकात्मता को नुकसान पहुंचाने में किसी तरह की कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इस तरह के भेदों को देखने पर मन में एक सवाल उठता है कि आखिर इन सबके लिए जिम्मेदार कौन है? कुछ दिन पहले 'भारतीय साहित्य व परंपराओं को गलत पेश न करें' शीर्षक से एक ब्लॉग लिखा था। उस ब्लॉग को लिखने का उद्देश्य भारतीय परंपराओं एवं साहित्य को गलत तरह से प्रस्तुत करने का जो षड्यंत्र भारत में चल रहा है, उसे उजागर करना था।

हमारे देश में तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग है जिसे भारतीय साहित्य एवं परंपराओं में सिर्फ कमियां दिखती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे लोग अपने तरह से कमियों का 'निर्माण' कर देते हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि सभी धर्मों की किताबों में स्त्रियों और एक खास तबके के लिए आपत्तिजनक बातें कही गई हैं। जबकि मेरा मानना है कि यदि कहीं कुछ 'आपत्तिजनक' है तो उसे इग्नोर करके अच्छी बातों का अनुसरण किया जाए। लेकिन समस्या यह है कि हमारे यहां कुछ ऐसे लोग जिनका अध्ययन तो बहुत है परंतु उनकी चेतना शून्य के स्तर से भी नीचे पहुंच गई है। ऐसे लोग अच्छी बातों की भी गलत तरह से प्रस्तुति करके स्वयं को 'बुद्धिजीवी' प्रमाणित करने के प्रयास में लगे रहते हैं।

मेरी एक महिला मित्र ने कुछ दिन पहले राम चरित मानस की एक चौपाई का उदाहरण देते हुए कहा कि देखो तुम्हारे सनातन साहित्य में कैसी अनुचित बातें लिखी हैं। वह चौपाई थी,
ढोल, गंवार, पशु, शूद्र अरु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी।।

जब इस चौपाई को पहली बार पढ़ा था तो इसे पढ़कर मेरे मन में भी प्रश्न उठा था कि आखिर गोस्वामी तुलसीदास जैसा व्यक्ति, जिसने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी है, वह ऐसी बात कैसे लिख सकता है? अपनी शंका का समाधान करने के लिए मैंने देवभूमि नैमिषारण्य में रहने वाले श्रीराम कथा वाचक श्री अतुल मिश्रा जी से बात की। उन्होंने जो बात बताई वह चौंकाने वाली थी। इस चौपाई का वास्तविक अर्थ समझने से पहले एक अन्य बात समझना जरूरी है।

मेरे वामपंथी मित्र दावा करते हैं कि यह चौपाई गंवार, पशु, दलित और महिला विरोधी है। लेकिन क्या आपके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि जब गोस्वामी तुलसीदास के मन में जितनी आस्था और श्रद्धा श्रीराम के प्रति थी उतनी ही आस्था और श्रद्धा माता सीता के प्रति थी, जो व्यक्ति रावण राज में रहने वाली मंदोदरी और त्रिजटा को सकारात्मक रूप से चित्रित करता है एवं जो व्यक्ति उर्मिला के विरह और त्याग को लक्ष्मण से भी बड़ा बताता है, वह संपूर्ण नारी जाति के विषय में यह कैसे कह सकता है कि वह 'प्रताड़ना' की अधिकारी है।

जो व्यक्ति अपने साहित्य में एक गिलहरी जैसे छोटे से जीव और जटायु तथा संपाती के समर्पण को नमन करना नहीं भूलता और जो व्यक्ति यह लिखता है कि उनके आराध्य श्रीराम जटायु के प्रति पितृ-स्नेह और शबरी के प्रति मातृ-स्नेह रखते हैं, वही व्यक्ति एक जाति विशेष या 'पशु' को प्रताड़ित करने की बात कैसे कर सकता है? दूसरे शब्दों में समझें तो क्या हमारे माननीय बुद्धिजीवी यह कहना चाहते हैं कि तुलसीदास जी ने यह लिखा कि उस जाति के लोगों को प्रताड़ित किया जाए जिसके प्रति उनके आराध्य, माता-पिता जैसा स्नेह रखते हैं।

चलिए तो अब बात करते हैं उस चौपाई की, दरअसल ताड़ना एक अवधी शब्द है, जिसका अर्थ होता है पहचानना अथवा परखना। गोस्वामी तुलसीदास जी के कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी। अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है ।
इसी तरह गंवार का अर्थ अज्ञानी होता है और यदि एक अज्ञानी की प्रकृति या व्यवहार को सही तरह से नहीं जाना जाएगा तो स्वाभाविक सी बात है कि उसके साथ समय बिताना निरर्थक ही होगा। इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष्य में, जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते, उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता। इसका एक प्रमाण आपको रामायण से ही देता हूं। एक नारी, जिन्हें मैं मां कहकर संबोधित करता हूं, माता सीता जब वन में थीं तो उन्हें सोने का हिरण चाहिए था और जब वह सोने की लंका में थीं तो श्रीराम-श्रीराम जप रही थीं। किसी सामान्य व्यक्ति के मूल स्वभाव को समझना भी नामुमकिन सा ही लगता है लेकिन इन चारों को सामान्य से अधिक महत्वपूर्म यानी 'विशिष्ट' बताया गया है।

उपरोक्त चौपाई का सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु  और नारी के व्यवहार को ठीक प्रकार से समझना चाहिए और मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई बुराई है। यह चौपाई यदि ठीक तरह से समझें तो इसका उच्चारण समुद्र ने एक विशेष समय के दौरान श्रीराम के समक्ष किया है। सुन्दर कांड की पूरी चौपाई कुछ इस तरह है:
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी ।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

भावार्थ: (समुद्र देव कहते हैं कि) प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी और सही रास्ता दिखाया किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है क्योंकि  ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा तथा सही ज्ञान के अधिकारी हैं। इस चौपाई में शूद्र शब्द के प्रयोग पर भी प्रश्नचिन्ह लग सकता है। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि शूद्र शब्द एक कर्म आधारित जाति व्यवस्था से आया है। जो व्यक्ति सिर्फ सेवा कार्य करता हो, संभव है कि वह आपके सामने अपने मन के विचारों को व्यक्त न कर पाए इसलिए आवश्यक है कि उसे पहचाना जाए और उसके मन के वास्तविक विचारों को समझा जाए।

दोस्तो, यह इस चौपाई का वास्तविक अर्थ है, यह वह है जिस विचार के साथ गोस्वामी तुलसीदास ने लेखन किया। अब आगे आपको तय करना है कि आप नकारात्मकता की नींव पर निर्मित उस 'झूठे' वामपंथी साहित्य पर विश्वास करेंगे या सकारात्मकता आधारित मूल विचारों पर.... मुझे गर्व है कि मैं उस संस्कृति से आता हूं जहां के साहित्य में रामायण, महाभारत और उपनिषद शामिल हैं... फिर भी कहता हूं कि यदि कहीं लेखन में किसी से कोई कमी रह गई है तो उसे अनदेखा करके सकारात्मक विषयों का अनुसरण करें।

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बरखा जी! आप पहले भारतीय हैं या पत्रकार?

बरखा जी नमस्ते,
आशा है राष्ट्रवाद और निष्पक्षता की बहस को नए आयाम देने के लिए आपका अध्ययन जारी होगा। मैडम, हाल ही में आपके द्वारा की गई फेसबुक पोस्ट को पढ़ा। उसे पढ़कर मन में एक सवाल उठा कि आप और आपके कुनबे के लोग पहले भारतीय हैं या पत्रकार? आपको शर्म आती है क्योंकि एक पत्रकार स्वयं को पहले भारतीय कहता है। लेकिन आपको पता है, मुझे गर्व होता है कि मैं उस पेशे से जुड़ा हूं जहां ऐसे लोग हैं जो राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है और वह लोकतंत्र, भारत का लोकतंत्र है। आखिर क्यों हम ‘भारतीय पत्रकार’ नहीं हो सकते?
मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हाफिज सईद जैसा कोई आतंकवादी आपको जानता है। आप बड़ी पत्रकार हैं, स्वाभाविक है कि सभी तरह के लोग आपको जानते होंगे। अब आप अपने पीएम साहब को ही ले लीजिए, उनको भी तो हाफिज सईद जानता है। इसमें इतना हो-हल्ला मचाने वाली क्या बात है। मोहतरमा, समस्या यह नहीं है कि आपको हाफिज सईद जानता है। समस्या यह है कि वह कहता है, ‘भारत में एक तबका ऐसा है जो पाकिस्तान के खिलाफ जहर उगलता है, लेकिन वहां बरखा दत्त जैसे अच्छे लोग भी शामिल हैं। कांग्रेस में भी अच्छे लोग हैं जिन्होंने कहा है कि पाकिस्तान पर इल्जाम लगाने की जगह अपने अंदर झांककर देखना चाहिए।’ मुझे पता है आप भी उससे उतनी ही नफरत करती हैं जितनी मैं करता हूं लेकिन अगर आपको वह ‘अच्छा’ समझता है तो जाहिर है उसको आपसे कुछ तो सकारात्मक ऊर्जा मिलती ही होगी। आपके ‘कर्मों’ से वह एक सीमा तक आपको स्वयं के करीब पाता होगा। तो अब अगर एक आतंकवादी, जिसे आप जेल में देखना चाहती हैं, वह अगर आपको अपने नजरिए से अच्छा कहता है तो क्या आपको अपने ‘कर्मों’ पर चिंतन नहीं करना चाहिए?
आपको समस्या इस बात से है कि एक पत्रकार, सरकार को उपदेश देता है कि मीडिया के कुछ धड़ों को बंद कर देना चाहिए। तो महोदया, क्या बुराई है इसमें? क्या जब कोई नेता कुछ गलत और असंवैधानिक काम करता है तो अन्य नेता उसके विरोध में आ ही जाते हैं। हालांकि तब भी नेताओं का एक छोटा सा वर्ग गलत का समर्थन करता है क्योंकि वह स्वयं गलत होता है और उसे पता होता है कि अगर वह चुप रहा और उसके ‘साथी’ के साथ कुछ हुआ तो उसका निपटना भी तय है। और वैसे ही आपके साथ, आपके समर्थन में, आपकी ‘कैटिगरी’ के लोगों का आना स्वाभाविक है। आप और आपके साथी कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करते हैं ना? तो एक बार अपने विचारों पर भी जनमत संग्रह करा लीजिए। मुझे पता है कि आप लोग ऐसा नहीं करा सकते क्योंकि हर रोज अपने ट्वीट्स, फेसबुक पोस्ट्स इत्यादि पर आपको जिस तरह से आम जनता गाली देती है, उससे आपको अंदाजा हो गया है कि देश क्या चाहता है।
अब जब आपको यह पता है कि देश आपको नकार चुका है तो फिर क्यों वैश्विकता और समानता के नाम पर भारत विरोध का झुनझुना लेकर घूमते रहते हैं? और जब आप लोगों से इन सारे विषयों पर बात करो तो आप लोग कहते हो कि मोदी, पाकिस्तान से नजदीकियां क्यों बढ़ा रहे हैं? मुझे भी एनडीए सरकार आने के बाद ये चीजें नहीं भा रही थीं और मेरी पीड़ा भी आपसे ज्यादा बड़ी थी क्योंकि मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में मेरी भी ऊर्जा लगी थी। लेकिन जब शांत मन से इस विषय पर सोचा तो सरकार जो कर रही है, उससे ज्यादा बेहतर कोई अन्य रास्ता नहीं दिखा। और अगर इससे बेहतर रास्ता आपके पास है तो दीजिए… मैं, आप और हम सब एक नए विकल्प के तौर पर सरकार के सामने आपके उस ‘रास्ते’ को रखेंगे। लेकिन आप रास्ता देंगे कहां से, आपको तो सिर्फ सरकार पर उंगली उठाना आता है।
मोहतरमा, अरनब ने तो आपका नाम कभी नहीं लिया, लेकिन उन्होंने जिन ‘ऐंटी नैशनलिस्ट जर्नलिस्ट्स’ की बात की थी, आप और आपके साथी खुद उस कैटिगरी में जाकर खड़े हो गए। बार-बार के झंझट से बचने के लिए मैं, आप और आपके समर्थकों के लिए सिर्फ 4 सवाल छोड़ रहा हूं। अगर आपकी संवाद क्षमता शून्य के स्तर तक न पहुंची हो तो सिर्फ इनका विस्तृत जवाब दे दीजिए और बाकी देश पर छोड़ दीजिए, देश स्वयं आपका और आपकी विचारधारा का स्तर तय कर लेगा।
1. कश्मीर पर देश के प्रधान को क्या करना चाहिए?
2. पाकिस्तान पर देश की सरकार को क्या करना चाहिए?
3. आप निष्पक्ष हैं या तटस्थ?
4.आप पत्रकार पहले हैं या भारतीय?
सरकार की नीतियों पर उंगली उठाना बहुत आसान होता है लेकिन इन सबके बीच काम करना उतना ही मुश्किल हो जाता है। मैं यह नहीं कह रहा कि मोदी सरकार सब कुछ अच्छा कर रही है लेकिन इतना तो कह सकता हूं कि पूर्व की तुलना में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। और जो नहीं हो रहा है उसे करवाने का काम एक जिम्मेदार व्यक्ति होने के नाते मेरा और आपका है। लेकिन इसके लिए लानी होगी सकारात्मक सोच, जिसका आधार भारतीयता हो। मेरे सिर्फ चार सवाल हैं, और जो व्यक्ति पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हो कि वह आपके कुनबे का वैचारिक प्रतिनिधित्व करता है… आए और इन सवालों के जवाब दे…
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Friday 5 August 2016

भारतीय साहित्य व परंपराओं को गलत पेश न करें

बहुत जगह पढ़ता था, बहुत जगह सुनता था और बहुत जगह उस सुने हुए को बोलता भी था कि भारत के इतिहास को वामपंथी और अंग्रेजी लेखकों ने ध्वस्त कर दिया है। आज इस बात को मीडिया में काम करते हुए प्रत्यक्ष देख रहा हूं। कल नवभारत टाइम्स डॉट कॉम पर एक ब्लॉग पढ़ा। मेरा आपसे आग्रह है कि मेरे इस ब्लॉग को पढ़ने से पहले कृपया यहां क्लिक करके  उस ब्लॉग को पढ़ लें। उनका विषय बहुत अच्छा था लेकिन उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जिस चीज को भारत में हो रहे बलात्कारों के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया था, वह ठीक नहीं था। ब्लॉग में दिए गए उदाहरण पूरी तरह से निराधार हैं। महाभारत के जिस अनुशासन पर्व का लेखक ने अपने ब्लॉग में उल्लेख किया है, उसके विषय में तो मुझे जानकारी नहीं है लेकिन  हितोपदेश के विषय में जो लिखा है उसमें मुझे कुछ भी गलत नहीं लगता क्योंकि विज्ञान भी यह मानता है कि मासिक धर्म के कारण महिलाओं में काम प्रवृत्ति पुरुषों की तुलना में अधिक होती है।
आगे लेखक ने लिखा है कि
नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः ।
नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥
यह श्लोक विदुर नीति के 40वें अध्याय से लिया गया है। इसका अर्थ होता है, ‘लकड़ियां आग को तृप्त नहीं कर सकतीं, नदियां समुद्र को तृप्त नहीं कर सकतीं, सभी प्राणियों की मृत्यु यम को तृप्त नहीं कर सकती तथा पुरुषों से कामी स्त्री की तृप्ति नहीं हो सकती।’ अर्थात तृप्ति के पीछे भागना व्यर्थ ही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘स्त्री, पुरुष से कभी तृप्त नहीं हो सकती।’
सत्यकेतु द्वारा अनुवादित विदुर नीति को सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है। इसके पेज नंबर 123 पर यह बात एकदम स्पष्ट लिखी हुई है।
आगे लेखक ने रामचरित मानस का जिक्र किया है। हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से श्रीराम के मूल चरित्र को गोस्वामी तुलसीदास के नजरिए से न देखकर महार्षि वाल्मीकि की दृष्टि से देखता हूं। लेकिन फिर भी गोस्वामी तुलसीदास के ज्ञान पर संदेह नहीं कर सकता। उनके लेखन से कुछ स्थानों पर असहमत रहता हूं लेकिन जिस चौपाई का उदाहरण लेखक ने दिया है वह पूरी तरह से गलत है।
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।
इस चौपाई में काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि हे गरुड़जी! (शूर्पणखा- जैसी राक्षसी, धर्मज्ञान शून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वाला से पिघल जाती है)।
इसमें सामान्य स्त्रियों के विषय में बात नहीं हो रही है। इसके लिए इस चौपाई के ठीक पहले की चौपाई से बहुत कुछ स्पष्ट हो सकता है।
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥2॥
अर्थात: शूर्पणखा नामक रावण की एक बहन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गई।
किसी के द्वारा लिखे गए साहित्य को यदि हमें समझना है तो उसे उसी लेखक/ कवि के दृष्टिकोण से ही समझना पड़ता है अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हम किसी के साहित्य को तब तक नहीं समझ सकते जब तक हम उस समय की मूल परिस्थितियों की अनुभूति न करें। लेकिन आज के दौर में तो भारतीयता को गाली देना फैशन बन गया है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे बीच में ऐसे भी लोग हैं जो शूर्पणखा जैसे चरित्र को भी जस्टिफ़ाइ करने लगते हैं। श्रीराम की बात आती है तो उन लोगों को सिर्फ बुराइयां दिखती हैं और रावण अथवा शूर्पणखा की बात आने पर उन लोगों के मन में ‘मानवाधिकार’ जाग जाता है। वैसे तो वे राम, लक्ष्मण, दुर्गा सहित प्रत्येक सद्चरित्र के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं लेकिन रावण, महिषासुर और शूर्पणखा जैसों का नाम आते ही वे उसके दुष्कर्मों को जस्टिफाइ करने लगते हैं। वे लोग यहां तक कहने लगते हैं कि देखो, रावण एक महिला को उठाकर लाया लेकिन उसे छुआ तक नहीं, वे कहने लगते हैं कि रावण ने तो सीता अपहरण अपनी बहन के लिए किया। इतना ही नहीं वे लोग महिषासुर को दलितों का पूर्वज बताकर, वहां भी दलित-सवर्ण मामला खोज लेते हैं। इन खास ‘प्रजाति’ के लोगों को दुनिया के एकमात्र पूर्ण पुरुष श्रीकृष्ण में कोई अच्छाई नहीं दिखती लेकिन इनको यह दिख जाता है कि द्रौपदी ने दुर्योधन का मजाक उड़ाया था। इनको द्रौपदी की वह हंसी तो दिख जाती है लेकिन अभिमन्यु के साथ जो अन्याय हुआ वह नहीं दिखता।
इनको भारतीय सनातन इतिहास में कोई वीर नहीं दिखता लेकिन ये अकबर को, घास की रोटियां खाकर भी एक हमलावर के सामने न झुकने वाले महाराणा प्रताप से महान बताने लगते हैं। ये एकलव्य में एक दलित खोज लेते हैं लेकिन इनको श्रीराम का शबरी और निषादराज के प्रति प्रेम नहीं दिखता। मुझे पता है कि इस ब्लॉग के बाद कुछ बुद्धिजीवी राम चरित मानस, मनुस्मृति या किसी और ग्रंथ से कुछ सूक्तिवाक्य ले आएंगे। तो चलिए कुछ दिनों तक ऐसे ही श्लोकों की खोज और उनका अध्ययन शुरू करता हूं। अगले ब्लॉग में कुछ ऐसी जानकारियों के साथ मिलूंगा जिनको आज ये तथाकथित बुद्धिजीवी अपने ढंग से पेश करते हैं और गौरवशाली भारतीय साहित्य एवं परंपराओं को भी गलत प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं।
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इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...