Tuesday 22 November 2016

नोटबंदी का अंधसमर्थन और अंधविरोध दोनों ही संवेदनहीन

आज 14वां दिन है नोटबंदी का… वही लंबी-लंबी लाइनें… गिरता व्यापार और परेशान लोग…तो क्या नोटबंदी का फैसला गलत था? क्या 1000 और 500 रुपए के नोटों पर बैन लगाकर नरेन्द्र मोदी ने अपनी दायित्वविहीन सामाजिक अपरिपक्वता का परिचय दिया है? इस सवाल का उत्तर समझने से पहले कुछ अन्य बिंदुओं पर भी ध्यान देते हैं।

क्या नोटबंदी का विरोध करने वाला हर एक व्यक्ति वही है, जिसने ब्लैकमनी छिपा रखा है? अगर आप इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि हर एक देशभक्त आंखें बंद करके नोटबंदी का समर्थन कर रहा है या उसे कोई परेशानी नहीं हो रही है तो निश्चित ही आप ‘अन्धभक्त’ ही कहे जाएंगे। क्योंकि रिक्शा चलाने वाले से लेकर और दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाले भी इस फैसले से परेशान दिख रहे हैं और उनके पास ना ही ब्लैकमनी है और ना ही वे भ्रष्टाचारी हैं। वे परेशान नोटबंदी के फैसले से नहीं बल्कि इसके क्रियान्वयन से हैं। अगर आप किसी भी सामान्य व्यक्ति से बात करेंगे और उससे पूछेंगे कि अगर इस फैसले से भविष्य में देश का या आम आदमी का फायदा होता है तो क्या यह फैसला ठीक है? इस प्रश्न के जवाब में कोई ‘नहीं’ में जवाब नहीं देगा। हालांकि वह अपनी परेशानी बताएगा, अपने ज्ञान और विवेक के आधार पर कुछ सुधाव देगा लेकिन केन्द्र सरकार को ‘संवेदनहीन’, ‘बेवकूफ’, या ‘पागलों का झुंड’ नहीं कहेगा।

vishva gaurav
दूसरी ओर इस फैसले के क्रियान्वयन में जो नुकसान हुए हैं या हो रहे हैं, यदि उनका मजाक उड़ाया जाए या उनका अपमान किया जाए तो इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा। इस फैसले से जिनको सच में नुकसान हुआ है, उनके दर्द की आवाज को हथियार बनाकर राजनीति भी की जा रही है और की भी जाएगी क्योंकि हमारे अपने नेताओं की राजनीतिक दायित्व की शुचिता शून्य तक पहुंच गई है। हमने जिनको चुना है, हम जिनके पीछे चलते हैं, इस विश्वास के साथ कि वे सही रास्ते पर ही चलेंगे, ऐसे लोग बिना प्रमाणिकता के एक चोर को गरीब जनता का प्रतिनिधि घोषित करके उस चोर की आत्महत्या को ‘शहादत’ जैसा बताने की कोशिश करते हैं और प्रधानमंत्री को इसके लिए जिम्मेदार बताकर कटघरे में खड़ा कर देते हैं। ऐसा कोई नहीं है जिसे इस फैसले से परेशानी ना उठानी पड़ी हो। एक कट्टर मोदीभक्त से लेकर एक कट्टर मोदी विरोधी तक, सभी को परेशानी उठानी पड़ रही है, लेकिन लोग एक उम्मीद के साथ ये परेशानियां सहने को तैयार हैं। ये लोग जो लंबी-लंबी लाइनों में खड़े दिखते हैं, और नोटबंदी से हो रही परेशानियों के बारे में पूछने पर बहुत खुश होकर यह जताने की कोशिश करते हैं कि उन्हें कोई परेशानी नहीं हैं, ये लोग नोट बदलने के लिए नहीं बल्कि देश बदलने के लिए इन परेशानियों को सह रहे हैं।


नोटबंदी के फैसले के क्रियान्वयन की कमियों पर सामान्य जनमानस की परेशानियों पर सवाल जरूर उठने चाहिए लेकिन साथ ही सवाल उन लोगों पर भी उठने चाहिए जो एक समय बाबा रामदेव के साथ 1000 और 500 के नोटों पर तत्काल प्रतिबंध की मांग का समर्थन कर रहे हैं, वे आज आखिर क्यों इस फैसले पर विरोधी सुर अपनाकर ‘छोटीगंगा’ बहा रहे हैं? आज अरविंद केजरीवाल को देश की जनता को बताना चाहिए कि 2012 वाला वह अरविंद केजरीवाल असली था या आज का अरविंद केजरीवाल असली है। वर्तमान परिस्थितियों को देखकर तो यही लगता है कि केजरीवाल साहब उस समय भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का चेहरा बनकर अपना राजनीतिक करियर चमकाना चाह रहे थे, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली और आज सिर्फ विरोध की राजनीति करके अपने अस्तित्व को लोगों के मानस में बचाए रहना चाहते हैं।

इन 14 दिनों में संवेदनशीलता की एक नई परिभाषा को चरितार्थ होते हुए देखा। हमने देखा कि 4 घंटे से लाइन में लगे एक छोटे से किसान, एक मजदूर और एक महिला की परेशानी के लिए हमारे नेता सड़क पर उतरें हैं। अच्छा लगा कि वे आम आदमी के दर्द को महसूस करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन पीड़ा तब होती है जब वही लोग सवा सौ करोड़ के प्रधान की आंखों के आंसुओं को नौटंकी बताते हैं। राजनीति को नकारात्मकता के चरम तक पहुंचाने वाले ये लोग अगर ऐसा सोचते हैं कि देश उन्हें समझ नहीं रहा, तो यह उनकी भूल है क्योंकि देश सब देख रहा है। मैं नहीं जानता कि इस नोटबंदी का परिणाम क्या होगा लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूं कि देश की सत्ता के सिंहासन पर एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जो बड़े फैसले लेने की हिम्मत रखता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ समस्या यह थी कि उनमें ऐसे निर्णय लेने की इच्छाशक्ति नहीं थी। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस राजनीतिक दल से वह आते हैं, उसने उन्हें इतने अधिकार ही नहीं दिए थे।

एक बात और, ऐसा नहीं है कि नोटबंदी का फैसला, बीजेपी का फैसला है। बीजेपी के कई नेता, सरकार में बैठे कई लोग, ‘राष्ट्रवादी विचारधारा’ के होने का दावा करने वाले कई संगठन इस फैसले से घबराए हुए हैं क्योंकि भ्रष्टाचार पर कांग्रेस का ‘कॉपीराइट’ तो था नहीं। कहीं से तो शुरुआत करनी ही थी। शुरुआत हुई है, भविष्य में लिखा जाने वाला इतिहास तय करेगा कि इस फैसले से हमें और आपको कितना फायदा हुआ। लेकिन इन सबके बीच आपको एक आम नागरिक होने के नाते, एक भारतीय होने के नाते ऐसा फैसला लेने के लिए दिखाई गई इच्छाशक्ति की सराहना तो करनी ही चाहिए।

लोग कह रहे हैं कि यह जल्दबाजी में लिया गया फैसला है, सरकार ने तैयारी नहीं की, सरकार ने समय नहीं दिया, सरकार को नोट बदलने के लिए समय दिया जाना चाहिए था। परेशानी मुझे भी हो रही है लेकिन मैनेज करने की कोशिश कर रहा हूं क्योंकि मैं समझ रहा हूं कि यदि नोटबैन करने से 2 महीने या 1 महीने पहले बता दिया जाता तो जितनी देर में आप 10-20 हजार रुपये के नोट बदलते, उतनी देर में ब्लैकमनी संचित करके रखे हुए लोग हजारों करोड़ रुपये बदल लेते। रही बात जल्दबाजी और सरकार की तैयारी की तो मुझे लगता है कि सरकार द्वारा लगातार उठाए जा रहे कदम तथा नीतियों में लगातार हो रहे बदलाव इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि सरकार ने आगे की योजना का पूरा ‘ब्लू प्रिंट’ तैयार कर रखा है। ऐसे कदमों का कोई सही समय नहीं होता। जिस समय सरकार ने ऐसी इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया, वह अपने आप में बिल्कुल सही समय है।

यह बात सच है कि हमारे देश में जितना ब्लैक मनी है उससे कई गुना ज्यादा ब्लैक मनी स्विस बैंक में भरा पड़ा है। सरकार के नियंत्रण में हमारा अपना देश है, सफाई की शुरुआत अपने घर से ही की जाती है। स्विस बैंक के ब्लैक मनी को निकालने के और कई रास्ते हैं, सरकार आगे क्या कदम उठाएगी वह तो बाद में ही पता लगेगा लेकिन उन कदमों के इंतजार में घर की सफाई भी ना की जाए, यह तो पूर्ण रूप से अव्यावहारिक है।

सरकार के इस कदम से निश्चित ही मुझे मेरे जैसे सभी आम नागरिकों को परेशानी हो रही है लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि इससे नकली नोट छापने वालों को, आतंकियों को, नक्सलियों को, कश्मीर में पत्थरबाजों को पैसा देने वालों को, टैक्स चोरों को, बिस्तर और तकियों में नोट भरकर रखने वालों को बड़ा नुकसान हुआ है और उनके नुकसान का हमें भले ही तत्कालिक लाभ ना हो लेकिन दीर्घकालिक लाभ अवश्य होगा।

Tuesday 15 November 2016

प्रधानसेवक जी! आपका 'राजकुमार' कहीं खो गया है

पीएम नरेन्द्र मोदी ने जनता से पूछा कि क्या मुसलमान बहनों को समानता का अधिकार मिलना चाहिए? उन्होंने पूछा कि क्या मुसलमान माताओं-बहनों की रक्षा होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए? निश्नित ही कोई भी पीएम मोदी के सवालों पर ‘नहीं’ नहीं कह सकता। लेकिन उस रैली के 9 दिन पहले 15 अक्टूबर को एक बेटा गायब हो जाता है। कोई बड़ी बात नहीं। बहुत से लोग गुमशुदा होते हैं। हर दिन थानों में गुमशुदगी की सैकड़ों शिकायतें दर्ज की जाती हैं। लेकिन साहब, आज यानी 15 नवंबर 2016 को 1 महीना हो चुका है। किस बात का 1 महीना?

vishva gaurav
बताता हूं, लेकिन उससे पहले यह जान लीजिए कि जिस बेटे की बात हो रही है, वह कौन है। नजीब अहमद नाम है उसका, उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले का रहने वाला है, जेएनयू के माही मांडवी हॉस्टल के रूम नंबर 106 में रहता था और एमएससी बायॉटेक्नोलॉजी का छात्र था। आज 1 महीना हो चुका है नजीब की मां फातिमा नफीस को अपने बेटे की आवाज सुने। आज 1 महीना हो चुका है दिल्ली पुलिस की नाकामी का। आज 1 महीना हो चुका है उन वादों के झूठे लगने का जो 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए थे। आज 1 महीना हो चुका है उस विश्वास में पड़ रही दरार का, जिस विश्वास को आधार मानकर देश ने जनमत एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में सौंप दिया था जिसके पास उस समय तक मात्र अपने शब्दों से सम्मोहित करने की शक्ति थी। आज मेरा मन कर रहा है कि मैं अपने प्रधानसेवक को याद दिलाऊं कि आपका राजकुमार कहीं खो गया है और राजमाता पिछले 1 महीने से रो रही है। कैसे सेवक हैं आप साहब कि आपको एक मां के आंसू नहीं दिख रहे।

मैं यह सवाल इसलिए भी पूछ रहा हूं क्योंकि मैंने नरेन्द्र मोदी जी की पार्टी के शासन की वह पुलिस भी देखी है जो चंद घंटों में जेल से भागे आतंकियों (यदि इस शब्द पर आपत्ति है तो कृपया उन सभी का इतिहास पढ़ लें) को खोज कर गोली मार देती है, और आज दिल्ली की पुलिस तो उसी पार्टी की सरकार के ‘क्षेत्र’ में आती है। आखिर क्यों, 1 महीने के बाद भी आज तक पुलिस उस एक लड़के को नहीं खोज पाई। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह लड़का किस विचारधारा या राजनीतिक विचार परिवार से आता है, मुझे फर्क पड़ता है तो उस मां के आंसुओं से जिन्हें मैं पिछले 1 महीने से देख रहा हूं।

मोदी जी ने कहा था कि मुस्लिम महिलाओं के साथ न्याय करना सरकार का फर्ज है। अगर वह सच में इसे फर्ज मानते थे तो उसे निभाया क्यों नहीं? सवाल तो उठता है और उठना भी चाहिए कि आखिर क्यों अपने घर से 500 किलोमीटर दूर साहब, फर्ज और अधिकारों की बातें करते हैं लेकिन अपने घर से चंद किलोमीटर दूर रोती मां की आवाज उनके कानों में क्यों नहीं पड़ती? यही दिल्ली पुलिस आम आदमी पार्टी के विधायकों को तो एक छोटी सी शिकायत पर भी खोज लाती है लेकिन उस नजीब को क्यों नहीं खोज पा रही? इस सवाल के दो ही जवाब हो सकते हैं।

पहला- या तो दिल्ली पुलिस नजीब को खोजना नहीं चाहती।
दूसरा- या फिर दिल्ली पुलिस को नजीब को खोजने नहीं दिया जा रहा।

इन दोनों में सच क्या है, इसे पता करना सरकार का काम है क्योंकि हमने हमारी सुरक्षा के लिए, हमारा ध्यान रखने के लिए उसे चुना है। आखिर ऐसी कौन सी जगह है जहां नजीब को छिपाकर रखा गया है। आखिर ऐसी कौन सी जगह है जहां पुलिस की पहुंच तक नहीं है। वैसे एक जगह है जहां अब तक पुलिस नहीं गई है और वह है जेएनयू। संभव है कि एबीवीपी के जिन कार्यकर्ताओं से नजीब की गायब होने से एक दिन पहले मारपीट हुई थी, उन लोगों ने नजीब को जेएनयू के ही किसी हॉस्टल में छिपाया हो। नजीब के साथ जो भी हुआ है, वह देश के सामने आना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह देश, वर्तमान सरकार को कभी माफ नहीं करेगा।

Tuesday 8 November 2016

क्यों वामपंथियो! बगिया में बहार है?

4 दिन पहले केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक न्यूज चैनल (एनडीटीवी इंडिया) पर देश की सुरक्षा के साथ समझौता करने के आरोप में 24 घंटे का बैन लगाया। साथ ही मंत्रालय ने चैनल को एक शो कॉज नोटिस भेजा। नोटिस के जवाब में चैनल की ओर से प्रणव राय ने कल मंत्रालय के सामने अपना पक्ष रखा। चैनल का पक्ष सुनने के बाद मंत्रालय ने अपने ही फैसले पर रोक लगा दी। मंत्रालय के फैसले पर उसी के द्वारा रोक लगाए जाने के बाद सोशल मीडिया की बगिया में एक ‘बहार’ देखने को मिली। किसी ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट से डरकर सरकार ने अपने ही फैसले को होल्ड पर डाला’ तो किसी ने कहा, ‘सोशल मीडिया की ताकत की वजह से सरकार को अपना फैसला बदलने पर मजबूर होने लगा।’ लेकिन इन सबके बीच एक विशेष बात जिसने मुझे सबसे ज्यादा सम्मोहित किया, वह यह थी कि जो लोग अफजल के मुद्दे पर कोर्ट को घेरने से, न्यायिक व्यवस्था को घेरने से नहीं चूक रहे थे, उनमें एक ‘गजब’ तरह का परिवर्तन दिखा।

4 दिन पहले एक सुप्रसिद्ध चैनल के प्राइम टाइम ऐंकर द्वारा उनके इंट्रो में हमने बालक नचिकेता की कहानी सुनी। निश्चित ही अथॉरिटी का अर्थ जवाबदेही ही होता है लेकिन वह जवाबदेही किसके प्रति होती है? अपने देश और उसके नागरिकों के प्रति या फिर दुश्मन मुल्क के प्रति? मेरा स्पष्ट मत है कि सवाल पूछने की आजादी और अपनी बात रखने की आजादी यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर एक व्यक्ति का अधिकार है। उस मौलिक अधिकार को छीनना, उसका हनन करना अनैतिक भी है और गैर संवैधानिक भी। लेकिन क्या संविधान के अनुच्छेद 19 में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के विषय में पढ़ने वालों ने अनुच्छेद 51 के ‘अ’ खंड में बताए गए मौलिक कर्तव्यों के बारे में नहीं पढ़ा?

चलिए, अगर बात इतिहास की हो रही है तो आपको एक किस्से का छोटा सा हिस्सा बताता हूं। विभीषण, रावण के राज्य में रहने वाले एक ऐसा व्यक्ति थे, जिनके सहयोग के बिना श्रीराम को माता सीता वापस नहीं मिलतीं, जिनके सहयोग के बिना लक्ष्मण जी जीवित नहीं बचते, जिनके सहयोग के बिना रावण के राज्य की गोपनीय बातें हनुमान-श्रीराम को पता नहीं लगतीं। एक लाइन में कहें तो ‘सत्य और न्याय के लिए रिश्ते तक न्योछावर करने वाले एक व्यक्ति’, लेकिन… इतना कुछ होते हुए भी, आज उस घटना के हजारों सालों के बाद भी किसी पिता ने अपने बेटे का नाम ‘विभीषण’ नहीं रखा। जानते हैं क्यों? क्योंकि इस संस्कृति में आप राम भक्ति करें या ना करें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर राष्ट्रभक्ति नहीं की तो कभी माफ नहीं किए जाएंगे।

राष्ट्र के प्रति हर एक नागरिक की अपनी विशिष्ट जिम्मेदारी है और यदि कोई भी व्यक्ति या संस्था उस जिम्मेदारी से बचने की, उस जिम्मेदारी को बोझ समझने की या उस जिम्मेदारी का विरोध करने की कोशिश करे और इस पर सरकार कुछ करे या ना करे, अन्य जिम्मेदार लोग उसे सबक जरूर सिखा देंगे।

कुछ मीडिया संस्थानों ने पत्रकारिता के पेशे को देश से भी ऊपर रख लिया और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भुला दिया। इन मीडिया संस्थानों ने निष्पक्षता के नाम पर अजेंडा चलाने का काम शुरू कर दिया। कुछ साल पहले तक मीडिया खबरें परोसता था, साधन ना होने के कारण आम जनता सवाल नहीं कर पाती थी लेकिन सोशल मीडिया ने इनकी पकड़ कमजोर कर दी। कुछ संस्थानों ने समय और टेक्नॉलजी में हुए इस परिवर्तन को स्वीकार किया लेकिन कुछ अपने पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे। उन्हीं तटस्थ संस्थानों को बर्दाश्त ही नहीं हुआ कि जनता इनके द्वारा परोसी गयी खबर पर सवाल करे। वास्तविकता यह थी कि इन्होंने खुद में सवाल का जवाब देने की आदत ही नहीं पनपने दी। यही वजह है कि अचानक से इन्हें देश में असहिष्णुता नजर आने लगी थी।

मैं जब पढ़ता था तो रवीश की रिपोर्ट को जरूर देखता था। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि रवीश की पत्रकारिता से यदि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को निकाल दिया जाए तो आजादी के बाद की विशुद्ध पत्रकारिता को नए आयाम देने वाले चुनिंदा लोगों में वह सबसे ऊपर ही दिखेंगे। लेकिन समस्या मात्र अजेंडा बेस्ड पत्रकारिता से है। कैसा अजेंडा? जब देश रोष में था, आम आदमी सड़कों पर उतरकर कसाब की फांसी की मांग कर रहा था, जब देश कह रहा था कि हम एक आतंकी को अपनी मेहनत की कमाई से ‘अय्याशी’ नहीं करने देंगे, तब उस आतंकी के मानवाधिकार की बात करने वाले कुछ चुनिंदा संस्थान ही थे। और ये मीडिया संस्थान किस विचारधारा से ‘प्रतिबद्ध’ थे, यह भी किसी से छिपा नहीं है। मानवीयताविहीन और संवेदना शून्य लोगों के लिए ना ही मैं किसी मानवाधिकार की आवश्यकता समझता हूं और ना ही किसी धार्मिक अधिकार की। ज्यादा पुरानी बात हो गई क्या? चलिए कुछ हालिया घटनाएं बताता हूं।

जब दादरी हुआ तो हर एक संवेदनशील व्यक्ति दोषी को सजा दिए जाने की मांग कर रहा था, तब इन ‘मानवतावादी’ चैनलों ने भी अच्छी रिपोर्टिंग की, 16-16 घंटे एक ही मसाला चलाया, सरकार को भी खूब सुनाया लेकिन तब जवाबदेही आरएसएस और केन्द्र सरकार की नहीं बल्कि प्रदेश सरकार की बनती थी। खैर, कोई बात नहीं, पूछ लो केन्द्र सरकार से भी सवाल लेकिन जब दिल्ली में डॉ. नारंग की हत्या हो जाती है तो उसे महज रोडरेज क्यों बताया जाता है? आखिर क्यों, पश्चिम बंगाल में एक समुदाय विशेष के कुछ उत्पाती लोगों के द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचार की खबर को उन ‘प्रतिबद्ध’ चैनलों द्वारा मात्र खानापूर्ति के लिए दिखाया जाता है?

जेएनयू में जब कुछ लफंगे भारत तोड़ने के नारे लगाते हैं, तो उसे अभिव्यक्ति की आजादी बताकर यदि सबसे पहले किसी ने देश की आवाज को बांटने की कोशिश की, तो वे यही ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थान थे। क्या स्वतंत्रता और स्वछंदता में कोई अंतर नहीं रह गया?

जब भारत के इतिहास में पहली बार कोई सरकार घाटी में पनप रहे घरेलू आतंकवाद का विनाश करने के लिए कठोर कदम उठाती है, तो इन ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थानों को पैलेट गन्स के छर्रे तो दिखते हैं लेकिन हमारे-आपके लिए पत्थर खाकर भी राशन पहुंचाने वाले सैनिकों का दर्द नहीं दिखता? संवेदनशीनता में यह दोहरापन क्यों?

उड़ी में जब भारत माता ने अपने 19 बेटे खोए तो पूरा देश गुस्से में आंखे लाल किए रो रहा था तो यही ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थान वाले अपने ‘ट्रोलर्स’ के सहारे इतिहास के आइने से मोदी को कोस रहे थे। और जब सेना ने राजनीतिक इच्छाशक्ति के बलबूते पर पीओके में घुसकर मारा, सर्जिकल स्ट्राइक की तो पूरा देश भारतीय जवानों के शौर्य पर जश्न मना रहा था लेकिन ये लोग सेना से सबूत मांगने का काम कर रहे थे। अरे साहब! जवाबदेही में यह दोहरा चरित्र क्यों? देश तुमसे पूछे कि तुमने दादरी पर तो ‘भयंकर’ रिपोर्टिंग की लेकिन ‘मालदा’ पर क्यूं चुप हो तो तुम कहोगे कि हमारा चैनल है, जो चाहेंगे दिखाएंगे? ऐसे तो नहीं चलता है साहब।

मेरे एक पत्रकार मित्र ने कुछ दिनों पहले फेसबुक पर लिखा, ‘अब तो खबर लिखने की अदा भी बताने लगी है कि खबर लिखने वाला वामपंथी है या संघी…’ बात सुनने में सच्ची तो लगती है लेकिन अच्छी नहीं लगती। सवाल यह है कि एक पत्रकार के लिए पहले पत्रकारिता धर्म है या पहले राष्ट्रधर्म… यह सवाल आज इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि कश्मीर के बारामूला में जब कुछ आतंकी हमला करते हैं तो हमारी रक्षा के लिए अपनी शहादत देने वाले नितिन के लिए देश के कुछ नामी चैनल्स और वेबसाइट्स ‘killed’ जैसे शब्द का प्रयोग करते हैं। क्या यह मान लिया जाए कि उन्हें ‘killed’ और ‘martyred’ में अंतर नहीं पता? या फिर यह मान लिया जाए कि उन मीडिया संस्थानों के लिए किसी के मारे जाने और किसी सैनिक की शहादत में कोई अंतर है ही नहीं? संभव है कि यह मात्र एक गलती हो लेकिन अगर यह मात्र एक गलती है तो देश को एक पत्रकार से ऐसी ‘गलतियां’ अपेक्षित नहीं हैं।

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि लोग तथाकथित निष्पक्षता के लिए अपने दायित्व को भी भूल गए हैं। उनका वह दायित्व जो उनकी मातृभूमि के प्रति है, देश की जनता के प्रति है। पिछले कई सालों से सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि एनडीटीवी चैनल देशद्रोही है, पाकिस्तान परस्त है, वामपंथी है। वामपंथी होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन क्या वामपंथ को शहादत का अर्थ नहीं पता? क्या वामपंथ के लिए एक सैनिक की शहादत और आतंकी की मौत में कोई अंतर नहीं लगता। केन्द्र सरकार द्वारा एनडीटीवी बैन पर जो फैसला लिया गया है, वह स्वागत योग्य है। वह फैसला इस बात को प्रमाणित करता है कि सरकार अपनी जवाबदेही से बच नहीं रही है। सोशल मीडिया के रुख को देखकर और चैनल के जवाब से, सरकार ने अपने फैसला का रिव्यू उचित समझा। सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा सरकार को भी है लेकिन पीड़ा तब होती है जब उसी सोशल मीडिया के यूजर्स किसी मीडिया संस्थान की ‘प्रतिबद्धता’ पर सवाल उठाते हैं तो उन्हें भक्त करार दिया जाता है। साहब! जवाबदेही तो बनती है। सरकार की भी और मीडिया की भी।

बात बस इतनी सी है कि अब ‘प्रतिबद्ध’ मीडिया संस्थानों की बगिया की बहार जाने लगी है। मेरा स्पष्ट मत है कि स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंदता नहीं चलने दी जानी चाहिए। पेशे को कभी देश, देश के नागरिक और देश की सुरक्षा से ऊपर नहीं रखने दिया जाना चाहिए। और हां, ब्लॉग के शीर्षक में ‘बगिया’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया है क्योंकि ये ‘प्रतिबद्ध’  मीडिया संस्थान तो ‘नारीवाद यानी फेमनिस्ट’ विचारधारा के अग्रदूत हैं, अब अगर ‘बाग’ लिखते तो उनको बुरा लगता। तभी तो हम लिख डाले बगिया…

Monday 7 November 2016

रवीश जी! आपातकाल की बगिया में 'बहार' देखे थे?

प्रिय रवीश जी,
नमस्ते

‘खुला खत’ के माध्यम स संवाद करने की आपकी शैली का मैं पुराना प्रशंसक हूं। आज सोचा कि आपसे आपकी ही शैली में बात करूं… मैं यह बिलकुल नहीं कहता कि सरकार द्वारा किसी भी मीडिया संस्थान पर प्रतिबंध लगाना उचित है। लेकिन मुझे लगता है कि प्रतिबंध और दंडात्मक कार्रवाई के बीच के अंतर को समझने की जरूरत है। यह पूरा मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है। मुझे पूरा विश्वास है कि आप देश की न्यायव्यवस्था पर पूरा विश्वास रखते हैं। कोर्ट का जो भी फैसला होगा, वह सभी को स्वीकार्य होगा। मैं इस बहस में नहीं पड़ूंगा कि एनडीटीवी की रिपोर्टिंग गलत थी या सही। इस बात का फैसला कोर्ट करेगा। यदि वह रिपोर्टिंग गलत थी तो निश्चित ही दंड मिलना चाहिए, लेकिन वह दंड उन सभी मीडिया संस्थानों को मिलना चाहिए, जिन्होंने कुछ ऐसी ही रिपोर्टिंग की थी। मेरा मुद्दा कुछ और है, आपने अपने हालिया प्राइम टाइम शो में देश की स्थिति को आपातकाल जैसा बताया।

vishva gaurav
वर्तमान स्थिति को आपातकाल जैसा बताकर आप जताना क्या चाहते हैं? चलिए आपको इंदिरा जी के काल के समय वाले ‘आपातकाल’ की याद दिलाता हूं। वैसे तो आप मुझसे बहुत बड़े हैं, 1975 के आपातकाल के पहले आपका जन्म भी हो चुका था तो निश्चित है जिनसे आपने उस समय को जाना होगा, उनकी स्मृतियां उन लोगों से ज्यादा अच्छी रही होंगी जिनसे मैंने आपातकाल को जाना है। लेकिन फिर भी जितना पढ़ा है, और जितना सुना है उसे आपकी स्मृति में पुनर्स्थापित करके ‘आपातकाल’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करना चाहता हूं।

लोकतंत्र सत्याग्रही जितेंद्र अग्रवाल इंदिरा के आपातकाल को कभी न भूलने वाली त्रासदी कहते हैं। उनके मुताबिक, ‘उसमें न कोई दलील थी और न कोई सुनवाई, सीधे जेल भेज दिया जाता था। लोगों को घरों से पकड़ कर उनकी नसबंदी कर दी जा रही थी। लिहाजा तमाम लोग डर और दहशत से खेतों में छुप कर दिन बिता रहे थे। जिसने भी इस काले कानून के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की उसे पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जा रहा था।’

आगरा शहर के पुरुषोत्तम खंडेलवाल और अशोक कोटिया कई महीने जेल में बंद थे और उनके मुताबिक, ‘आपातकाल के दौरान जेलों में सीवर की कोई व्यवस्था नहीं थी और मीसा में बंद कैदियों के शौचालयों में दरवाजे नहीं होते थे। उनके गुप्तांगों में पेट्रोल डाल दिया जाता था, पेचकस और प्लास द्वारा नाखूनों को उखड़ा जाता था।’

महाराष्ट्र से विधायक एवं समाज सेवी मिडाल गोरे को अकोला जेल में चूहों से भरे सेल में रखा गया था। उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री की पत्नी मालती चौधरी को गिरफ्तार कर मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के साथ वाली सेल में रखा गया। अरे साहब! कल्पना करिए उस आपातकाल की जब बेंगलुरु में एक गर्भवती महिला कार्यकर्ता श्रीमती नर्सम्या गरुयप्पा को जंजीरों में बांधकर रखा गया था।

आपातकाल वह था जिसमें सरकार की तानाशाही नीतियों के कारण महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी। आप तो बड़े आराम से तथाकथित आपातकाल में सरकार पर ‘कटाक्ष’ कर ले रहे हैं लेकिन साहब याद करिए, वह समय जब रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के कार्यालयों की बिजली रात में ही काट दी गई।

उस दौर के सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को हटाकर विद्या चरण शुक्ला को नई जिम्मेदारी दी गई, जिन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने-गाने पर मजबूर किया, ज्यादातर लोग झुक गए, लेकिन किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना। उनके गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए-उनके घर पर इनकम टैक्स के छापे पड़े। अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सी कुर्सी का’ को सरकार विरोधी मानकर उसके सारे प्रिंट जला दिए गए। गुलजार की आंधी पर भी पाबंदी लगाई गई। उस समय कई अखबारों ने मीडिया पर सेंसरशिप के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की, पर उन्हें बलपूर्वक कुचल दिया गया। उस समय देश के 50 जाने माने पत्रकारों को नौकरी से निकलवाया गया, तो अनगिनत पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया गया।

आपातकाल के बारे में कहने के लिए और भी बहुत कुछ है लेकिन आपने तो आपातकाल की परिभाषा ही बदल दी। आप तो खुद ही आपातकाल घोषित करके अपने चैनल की स्क्रीन काली कर देते हैं। आपको सवाल पूछने से कोई नहीं रोक रहा, यदि कोई रोकता है तो वह आप पर नहीं बल्कि पूरी मीडिया पर हमला कर रहा है। मीडिया के प्रति अथॉरिटी की जवाबदेही होनी चाहिए लेकिन साहब मीडिया की भी आम जनता के प्रति जवाबदेही बनती है। ‘दादरी’ पर आपके चैनल ने खूब ‘विलाप’ किया था और उसके बाद ‘मालदा’ पर मुंह में दही जमा लिया था, तब कहां गई थी जवाबदेही? आपके चैनल के ऑफिस में हजारों लोगों ने सवाल पूछे, सोशल मीडिया पर आपके चानल से सवाल पूछे गए लेकिन तब तो सवाल पूछने वाले ‘गुंडे’ हो गए थे, तब तो उनसे कहा जाता था कि हमारा चैनल है और हमारा जो मन करेगा वह दिखाएंगे।

एक मिनट, कहीं ऐसा तो नहीं था कि उस दिन एक अरनब गोस्वामी, एक दीपक चौरसिया, एक रोहित सरदाना ने आपको अपनी टीवी की स्क्रीन काली करने पर मजबूर कर दिया था?  नीरा राडिया और बरखा दत्त, 26/11 के दौरान एनडीटीवी की रिपोर्टिंग इत्यादि ऐसे आपके एनडीटीवी से जुड़े बहुत से ‘कांड’ हैं, जिन पर लिखने लगूंगा तो समय कम पड़ जाएगा। आज आपको और आपके साथियों को लगता है कि मीडिया का एक तबका खुद न्यायालय बनकर किसी को भी आरोपी से दोषी बना देता है लेकिन साहब, आप भी उनसे अलग कहां हैं, इशरत जहां और सोहराबुद्दीन मुठभेड़ की अपने चैनल की रिपोर्टिंग और याद करिए, आपने भी तो टीवी स्टूडियो में इशरत को मासूम, निर्दोष और शहीद करार दिया था।

खैर छोड़िए यह सब, मुझे बस इतना बता दीजिए कि यदि एक लोकतांत्रिक देश में, जहां हजारों अखबार, चैनल और तमाम संचार माध्यम मौजूद हों, वहां अगर एक कोई भी मीडिया संस्थान कुछ गलत करे, कुछ ऐसा करे जो किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं अपितु पूरे देश के लिए घातक हो, तो ऐसे में उस संस्थान के साथ क्या किया जाना चाहिए? क्या ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर उसे दंड नहीं मिलना चाहिए? संभव है कि आपको ‘गलत’ शब्द की व्याख्या की आवश्यकता पड़े? सीधे शब्दों में हर वह चीज गलत है जो राष्ट्रहित में ना हो, जनहित में ना हो?

मैं मीडिया की स्वतंत्रता के साथ हूं लेकिन वह स्वतंत्रता किसी विशेषाधिकार के साथ नहीं होनी चाहिए। जितनी स्वतंत्रता इस देश के अंतिम व्यक्ति को है, उतनी ही मीडिया को भी।

निश्चित ही अथॉरिटी की जवाबदेही मीडिया के प्रति होनी चाहिए लेकिन साथ ही मीडिया की जवाबदेही भी जनता के प्रति, देश के प्रति होनी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने पर जिस तरह से एक आम नागरिक दंड का अधिकारी है, वैसे ही मीडिया भी। फिर चाहे वह मीडिया संस्थान कोई भी हो।

आपका यह कहना है कि जिस अपराध के लिए NDTV इंडिया को सज़ा दी जा रही है, वह अपराध दूसरे चैनलों ने भी किया है बल्कि रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता तक ने वे बातें उजागर की थीं जो आतंकवादियों के काम की हो सकती थीं। (पढ़ें यह ब्लॉग ) यदि यह सच है तो यह वाकई भेदभाव है जो कि नहीं होना चाहिए। लेकिन यह सच है या नहीं, इसका फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया जाए। मैं अपने इस ब्लॉग में केवल इतना कहना चाहता हूं कि यदि कोई मीडिया संस्थान – कोई भी मीडिया संस्थान चाहे वह सरकार समर्थक हो या सरकार विरोधी –  राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने का अपराध करता है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। किसी एक मीडिया संस्थान पर सिर्फ इसलिए कार्रवाई की जाए कि वह सत्ता या किसी खास विचारधारा का आलोचक रहा है  और दूसरे को छोड़ दिया जाए कि वह सत्ता या किसी खास विचारधारा का समर्थक है तो विश्वास मानिए देश का कोई भी पत्रकार जो अपनी जिम्मेदारी से समझौता नहीं कर सकता, वह सत्ता के अहंकार को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
धन्यवाद

Saturday 5 November 2016

'कायर' की मौत पर राजनीति करनेवालों की संवेदनहीनता

28 अक्टूबर 2016, दिवाली के 2 दिन पहले…

मनदीप सिंह, भारतीय सेना का एक जवान, पाकिस्तान ने मनदीप का शव क्षत-विक्षत कर दिया। शहादत से पहले मनदीप को दिवाली पर घर जाने की छुट्टी मिली थी लेकिन सीमा पर चल रहे तनाव के कारण बाद में छुट्टी रद्द हो गई। मनदीप ने एक नया मकान बनवाया था और उनकी इच्छा थी कि दिवाली पर इस घर में गृह प्रवेश किया जाए लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। जिस घर में वह गृहप्रवेश का सपना देश रहे थे, उसी में उनका शव रखा गया। मनदीप हरियाणा के कुरुक्षेत्र के रहने वाले थे।

पिछले कुछ दिनों में औसतन हर दूसरे-तीसरे दिन में कोई ना कोई भारतीय जवान शहीद हो रहा है। किसके लिए? मेरे और आपके लिए, उन संवेदनहीन नेताओं के लिए जो लाशों पर भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से परहेज नहीं करते। मनदीप की शहादत के 2 दिन बाद दिवाली थी। दिवाली के एक दिन पहले महाराष्ट्र के निवासी नितिन सुभाष भी पाकिस्तान की फायरिंग में शहीद हो गए। ये तो सिर्फ 2 नाम हैं। पिछले कई दिनों में भारत ने कई बेटे खोए।

vishva gaurav
इस दिवाली पर भी मैं हर बार की तरह मैं अपने घर से दूर एक नई जगह पर था। मुझे दिवाली का बेहद बेसब्री से इंतजार रहता है। कुछ अनजाने और अपरिचित बच्चों के साथ खुशियां बांटने के उद्देश्य से इस बार दिवाली पर मैं जयपुर पहुंच गया। सुबह जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर से कुछ सकारात्मक ऊर्जा लेकर बच्चों के बीच पहुंचा। लेकिन मंदिर में अचानक मेरे मन में एक बात आई। सुबह का 4 बजकर 5 मिनट, भगवान की मूर्ति के सामने हजारों झुके हुए सिर, कोई बच्चों के लिए कुछ कामना लेकर आया होगा, तो कोई परिवार के लिए। किसी की कामना आर्थिक होगी तो किसी की सामाजिक….उन हजारों सिरों में कुछ सिर उनके भी तो रहे होंगे जिनके बच्चे, भाई, बेटे इत्यादि रिश्तेदार हमारे लिए, हमारी रक्षा के लिए, हमारी शांति के लिए उस सुबह सीमा पर तैनात होंगे। मन में यह ख्याल आते ही मैं बस उन सैनिकों की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करके मंदिर से बाहर आ गया।

पता नहीं क्यों, लेकिन इस दिवाली पर बहुत सूनापन लग रहा था। उस रात पटाखों के शोर के बीच होठों पर मुस्कराहट नहीं बल्कि आंखों में उस बेटी का चेहरा था, जिसके पिता का शव दिवाली से 1 दिन पहले तिरंगे में लिपटकर घर आया था। रोशनी में जगमगाते उस गुलाबी शहर में हजारों दीपों के प्रकाश के बीच उन घरों का ख्याल अनायास ही दस्तक दे रहा था, जिनके घर पर चंद रोज पहले ही अमावस की काली घटा छा चुकी थी…
मैं अकेला छत पर बैठकर सोच रहा था कि क्या दिवाली की रात वह मां दीपक से काजल बना पाई होगी, जिसकी आंखें एक दिन पहले ही अपने बेटे के शव को देखकर पथरा चुकी हैं? क्या वह बहन दिवाली के 2 दिन बाद आने वाले भाई दूज के त्योहार के बारे में नहीं सोचकर नहीं रोई होगी, जिसके भाई ने रक्षाबंधन सूनी कलाई को देखते हुए फोन पर अपनी बहन से वादा किया था कि वह भाईदूज पर घर जरूर आएगा, लेकिन उससे पहले उसका शव आ गया? क्या उस रात वह पिता ‘लक्ष्मी’ की कामना कर पाया होगा, जिसका बेटा सेना में जाने के लिए रोज सुबह उठकर मैदान में दौड़ने जाता है? क्या उस दिन वह भाई उन खुशियों में शामिल हो पाया होगा, जिसके भाई ने होली पर वादा किया था कि वह इस बार जमघट पर उसके साथ पतंग जरूर उड़ाएगा।

ऐसे बहुत सारे सवाल थे लेकिन इन सवालों के बीच सड़क पर पटाखे जला रहे लोगों को देखकर एक सवाल यह भी था कि लाखों रुपये पटाखों पर बर्बाद करने वाले क्या इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि उन परिवारों को अकेला छोड़ दें जिनके घर का चिराग इसलिए शहीद हो गया ताकि ये लोग खुशियां मना सकें। नेता से लेकर अभिनेता तक, सभी दिवाली के जश्न में व्यस्त थे, किसी को उनकी परवाह नहीं थी। शायद रही भी हो, शायद उन्होंने भी ईश्वर से उन सैनिकों की सलामती के लिए दुआएं मांगी हों लेकिन पिछले 3 दिनों में ‘शहीद’ की जो व्याख्या की जा रही है, नेता जिस तरह से एक ‘कायर’ के शव के पास, उसके घर पर जमघट लगाए हुए हैं, उससे मन में एक सवाल तो जरूर उठता है कि क्या एक पूर्व सैनिक की आत्महत्या, सीमा पर दुश्मन की गोली से मारे गए सैनिक से बड़ी है?

5 दिन पहले ही मनदीप का अंतिम संस्कार हुआ। दिल्ली से जितनी दूरी भिवानी की थी, उतनी है कुरुक्षेत्र की भी। लेकिन केजरीवाल से लेकर राहुल गांधी तक, किसी को भी मनदीप के अंतिम संस्कार में शामिल होने की फुर्सत नहीं मिली। उस शहीद के घर कोई नहीं गया, क्या इसलिए क्योंकि उससे इनके वोटबैंक को कोई लाभ नहीं होने वाला था?

वैसे इन लोगों से मुझे ऐसे किसी ‘सत्कर्म’ की अपेक्षा भी नहीं थी। क्योंकि इनकी अग्रज पीढ़ियों ने तो बाटला हाउस में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हुए मोहन चंद शर्मा को शहीद तक नहीं माना था। इनकी माता जी तो आतंकियों के लिए रात भर अपने पल्लू भिगोती रही थीं। आज इनको एक कायरतापूर्ण कदम को शहादत बताने में कोई हिचक नहीं हो रही है लेकिन ये लोग मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित होने वाले 3 सितंबर 2015 में शहीद हुए लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी की विधवा से किए सारे वादे भूल गए। आज भी उत्तराखंड में कांग्रेस की ही सरकार है लेकिन शहीद मोहन नाथ की पत्नी को ना ही नौकरी मिली और ना ही अन्य वादे पूरे किए गए। क्या इन नेताओं की संवेदनशीलता सिर्फ वोट तक ही सीमित है?

शहादत की एक विशेष परिभाषा गढ़कर हमारे-आपके द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे को लुटाकर राजनीति करने वाले लोगों की आत्मज्योति, संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को पार चुकी है। इन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि एक ‘कायर’ के परिवार को करोड़ों रुपए देकर ‘आत्महत्या’ जैसे घृणित कार्य को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं, हमने ही तो इन्हें सत्ता के सिंहासन पर बैठाया है, हमने ही तो इन्हें मौका दिया है कि ये हमारी भावनाओं के साथ खेल सकें, हमने ही तो इन्हें ‘संवेदनहीन’ बनाया है।

Friday 4 November 2016

तुम जिसे 'शहीद' मान बैठे, वह तो 'कायर' था

‘शहीद’ शब्द से आप क्या समझते हैं? मेरे मुताबिक, अपने व्यक्तिगत लाभ तथा स्वार्थ को छोड़कर जो व्यक्ति समाज हित में अपने प्राण न्यौछावर कर दे वह शहीद होता है। मेरी इस परिभाषा के मुताबिक स्व. रामकिशन ने भी ‘वन रैंक वन पेंशन’ के मुद्दे पर अपनी जान दे दी। अपने अंतिम समय में कहे गए शब्दों में रामकिशन ने साफ कहा कि वह देश और सैनिकों के लिए यह कदम उठा रहा है। यानी कि उसकी जान समाज के लिए गई और इस आधार पर उसे शहीद मान लिया जाना चाहिए। लेकिन…

vishwa gaurav
मैं हमेशा कहता हूं कि इस ‘लेकिन’ का दायरा बहुत बड़ा होता है। क्या सच में रामकिशन को शहीद कहना उचित होगा? बिल्कुल नहीं क्योंकि रामकिशन ने आत्महत्या करके एक कायरतापूर्ण कदम उठाया है और एक कायर को शहीद का दर्जा देना कहीं से भी उचित नहीं है। रामकिशन के सहयोगियों और रिश्तेदारों का दावा है कि रामकिशन को जो पेंशन मिल रही थी वह 5000 रुपए कम थी। रामकिशन को डीएससी से रिटायर होने के बाद हर महीने 24,999 रुपये मिल रहे थे। जबकि ओआरओपी के तहत उन्हें 30 हजार रुपये मिलने चाहिए थे। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, बैंक की गड़बड़ी के कारण रामकिशन को 5 हजार रुपये कम मिल रहे थे। अब सवाल यह उठता है कि क्या एक सैनिक की इच्छा शक्ति इतनी कमजोर हो सकती है कि वह मात्र 5000 रुपए के लिए आत्महत्या कर ले? अगर एक सैनिक की इच्छाशक्ति इतनी कमजोर हो सकती है तो मुझे लगता है कि हमें सेना में भर्ती किए जाने की प्रक्रिया पर चिंतन करने की जरूरत है। आत्महत्या जैसा कदम, चाहे किसी भी कारण से उठाया गया हो, ऐसा कदम उठाने वाले को मैं कायर मानता हूं, शहीद नहीं।

आज सुबह नाइट शिफ्ट के बाद जब ऑफिस से निकला तो एक महिला सहकर्मी से इस विषय पर कुछ देर चर्चा हुई। उन्होंने कहा, ‘अगर आत्महत्या करने के लिए रामकिशन जैसा कारण होना चाहिए तो हर दिन मेरे जीवन में इस तरह के 5 नए कारणों का ‘निर्माण’ हो जाता है लेकिन मैं तो आत्महत्या नहीं करती।’ क्या सच में सिर्फ 5000 रुपये कम मिलने की वजह से कोई व्यक्ति अपने भरे पूरे परिवार को छोड़कर आत्महत्या कर सकता है? अगर मैं अपने विवेक के आधार पर जवाब दूं तो जवाब ‘नहीं’ में ही मिलेगा।

रामकिशन कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और कांग्रेस के समर्थन से चुनाव भी लड़ चुके थे। सभी का अपना विशिष्ट मत और विचार होता है, हम उसका सम्मान करते हैं और करना भी चाहिए लेकिन सवाल यह है कि 10 सालों तक जब कांग्रेस की सरकार रही तब ओआरओपी पर वह सामने क्यों नहीं आए? मोदी सरकार द्वारा ओआरओपी को लेकर उठाए गए एक सकारात्मक कदम के बावजूद एक पूर्व सैनिक का आत्महत्या कर लेना, क्या यह किसी बड़ी राजनीतिक साजिश की ओर इशारा नहीं करता?

नियमों के मुताबिक, किसी वर्तमान या पूर्व सैनिक के द्वारा आत्महत्या करने पर उसे शहीद का दर्जा नहीं दिया जाता है। और ना ही इस परिस्थिति में किसी तरह के अलाउंसेज का प्रावधान है। लेकिन लाशों पर राजनीति करने वाले लोग जबरन एक कायर को शहीद साबित करने में लगे हैं। मुझे दुख है कि एक पूर्व सैनिक को अपनी जान देनी पड़ी लेकिन साथ ही मेरे मन में जिज्ञासा भी है कि ऐसे कायरतापूर्ण कदम के पीछे मूल कारण क्या था, जिसकी वजह से रामकिशन ने इतना बड़ा कदम उठाया?

कुछ ऐसे सवाल, जिनके जवाब देश का आम नागरिक जानना चाहता है-
कहीं रामकिशन की आत्महत्या के पीछे कोई राजनीतिक चाल तो नहीं?
कहीं रामकिशन ने ‘सैनिक अधिकार’ के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के लिए कोई खेल तो नहीं खेला?
कहीं रामकिशन को आत्महत्या के लिए उकसाया तो नहीं गया?
कहीं यह पूरा ‘खेल’ सिर्फ केन्द्र सरकार को बदनाम करने की साजिश तो नहीं?

मुझे नहीं पता कि देश कभी इन सवालों के जवाब जान पाएगा या नहीं। लेकिन एक बात तो साफ है कि एक सैनिक को आगे करके यदि भारत के नेता राजनीति करेंगे तो उससे सिर्फ देश का ही नुकसान होगा। हो सकता है कि मुआवजे के नाम पर आम जनता के करोड़ों रुपए लुटाकर अरविंद केजरीवाल जैसे लोग अपना वोट बैंक मजबूत कर लें लेकिन यह मुआवजा इस तरह के कायरतापूर्ण कदमों को उठाने के लिए प्रोत्साहित करने में उत्प्रेरक का काम करेगा।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...