Wednesday 23 March 2016

किसको 'फॉलो' करते हैं मोदी? आपको क्या?



मैं एक सामान्य व्यक्ति हूं, पेशे से पत्रकार हूं, अपने काम को किसी प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता के अधीन होकर नहीं करता और मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मैंने नरेन्द्र मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट दिया था। मैं स्वयं को हिंदू मानता हूं, सनातन मूल्यों में मेरा पूर्ण विश्वास है, मानवीयता को सर्वश्रेष्ठ गुण मानता हूं, प्राकृतिक संपदाओं के दोहन का विरोध करता हूं, मनुष्य ही नहीं जीवों को भी इस धरती पर अपने बराबर का सहभागी मानता हूं और यह सब मुझे सनातन संस्कृति ने सिखाया है क्योंकि यही वह संस्कृति है जो मुझे यह सिखाती है कि चीटियों को भी आटा खिलाना है और नागों को भी दूध पिलाना है। रही बात हिंदुत्व की तो यह मेरी राष्ट्रीयता का आधार है और मुझे इस पर गर्व है, जिस प्रकार से लोग राष्ट्रीयता को भारतीय कहते हैं उसी के आधार पर मैं हिंदू को राष्ट्रीयता मानता हूं। इसका एक मात्र कारण है कि मेरा मानना है कि हिंदुत्व में सनातन संस्कारों का समावेश है। मैं नहीं मानता कि हिंदू होने के लिए मंदिर जाना जरूरी है या किसी खास पूजा पद्धति का अनुसरण करके ही आप हिंदू हो सकते हैं। लेकिन जो लोग हिंदुत्व को पूजा पद्धति से जोड़ कर स्वयं की राष्ट्रीयता को भारतीय बताते हैं, मैं उनका विरोध भी नहीं करता क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वास्तव में 'हिंदू' को रिलिजन ही समझा जाता है। जिस प्रकार से मैं विरोध नहीं करता उसी प्रकार से यह अपेक्षा भी करता हूं कि 'हिंदू' शब्द को मैं जिस रूप में लेता हूं यदि उसमें कोई गलत बात नहीं है तो उसका विरोध न किया जाए।

हिन्दुत्व को लेकर बहुत से लोगों के अपने अलग पैमाने हैं, कोई कहता है कि हिंदू वह है जो राम मंदिर की बात करें, कोई कहता है कि हिंदु वह है जो रोज गीता पढ़े, तो कोई कहता है कि मनुस्मृति को जीवन का आधार मानने वाला ही हिंदू है। मैं इन सब में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं बस इतना मानता हूं कि हिंदू 'वीर' तो हो सकता है लेकिन कभी कट्टर नहीं हो सकता, हिंदू 'परंपरा' को तो मान सकता है लेकिन अंन्धभक्ति नहीं कर सकता, हिंदू अपनी सनातन संस्कृति को सम्मान दे सकता है लेकिन नियमित मंदिर जाने की अनिवार्यता नहीं थोप सकता, हिंदू अपने संस्कारों पर गर्व तो कर सकता है लेकिन दूसरी संस्कृतियों का विरोधी नहीं हो सकता। इस देश का दुर्भाग्य है कि हिॆदुत्व के नाम पर कट्टरता का सहारा लिया जा रहा है लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है।

मैं पहले भी लिख चुका हूं कि आप किसी जमीनी स्तर पर काम करने वाले कांग्रेसी या वामपंथी से पूछेंगे कि देश टूट जाए क्या? या देश किसी का गुलाम हो जाए क्या? तो उसका जवाब नहीं ही होगा। अगर कोई कांग्रेसी या वामपंथी है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह राष्ट्रविरोधी है। बहुत सीधी सी बात है कि व्यक्ति अपने विवेक के आधार पर तय करता है कि सभी विचारधाराओं/पार्टियों में कौन सी विचारधारा/पार्टी सर्वाधिक अच्छी और परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है। इसके लिए यह अनिवार्यता नहीं कि वह व्यक्ति पूरी तरह से उस विचारधारा अथवा पार्टी से सहमत हो। वरिष्ठ पत्रकार श्री नीरेन्द्र नागर जी ने एक दिन मुझसे कहा था कि विश्व गौरव, व्यक्ति का महत्व नहीं उसके विचारों का महत्व होता है। मैं भी यही मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति एक विचार है, वह पूरी तरह किसी विचारधारा से सहमत हो ही नहीं सकता, यदि उसमें स्वयं का विवेक है तो। विचारधारा को कई लोगों के विचारों का कॉकटेल कहें तो गलत नहीं होगा। आप किसी के विचारों से सहमत हो सकते हैं और किसी के विचारों से असहमत, इसी आधार पर आप किसी मुद्दे पर किसी विचारधारा से सहमत हो सकते हैं और किसी मुद्दे पर असहमत हो सकते हैं।

मैं एक पत्रकार हूं, पूर्व में छात्र राजनीति में सक्रिय रहा हूं इसी नाते बहुत से लोग सोशल मीडिया पर जुड़े हैं, फेसबुक पर लगभग 14000 लोग जुड़े हैं, 4000-5000 ग्रुप में जुड़ा हूं, कभी किसी पेज पर अच्छा विचार दिख गया तो उसे लाइक कर दिया। अब एक सीधे सवाल का जवाब दे दीजिए, क्या 14000 लोगों में कोई कुछ लिखता है जिससे कि मैं सहमत न हूं तो क्या उसके लिए यह कहना उचित होगा कि इसकी मित्र सूची में एक पत्रकार जुड़ा है और इसका मतलब है कि वह 'कट्टर' अथवा 'अंधभक्त' है? किसी ग्रुप में कोई फर्जी पोस्ट आ जाए तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस ग्रुप में एक पत्रकार है यानि कि वह अफवाहों को बढ़ावा देता है, किसी पेज के द्वारा कुछ अपमान जनक कहा जा रहा है तो क्या यह कहा जाना उचित होगा कि इस पेज को एक पत्रकार ने लाइक कर रखा है और इस बात के लिए इस पत्रकार पर मानहानि का केस करना चाहिए। मेरी सहमति इस बात से तय होगी कि मैं कौन सी पोस्ट शेयर करता हूं।

मैं एक बहुत ही सामान्य व्यक्ति हूं, जिस ट्विटर अकाउंट पर मैं लगातार ऐक्टिव रहता हूं उस पर सिर्फ 3 अकाउंट्स फॉलो कर रखे हैं, एक मेरे छोटे भाई का है, एक उस संस्थान का है जहां मैं कार्यरत हूं और एक अकाउंट कुमार विश्वास का है। मैं कुमार विश्वास का प्रशंसक हूं, इसका मतलब यह नहीं कि उसके सभी ट्वीट्स से पूरी तरह सहमत होता हूं, उसके टू लाइनर अच्छे लगते हैं तो फॉलो करता हूं, कोई काम न होते हुए भी मैं इन तीन हैंडल्स द्वारा किए गए सारे ट्वीट्स नहीं देख पाता। मेरी सहमति उस ट्वीट से प्रदर्शित होगी जिसे मैं रीट्वीट करूंगा।

अब आता हूं मुख्य मुद्दे पर, आज एक 'विशेष रिपोर्ट' पढ़ी। उस विशेष रिपोर्ट का शीर्षक था, 'ट्विटर पर आपकी संगति कुछ ठीक नहीं लगती प्रधानमंत्री जी!'। बहुत ही शोधात्मक रिपोर्ट थी। उस रिपोर्ट को आप 'यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं।' इस रिपोर्ट में कहा गया कि ‘कट्टर हिन्दू’ लोगों को फॉलो करते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, इन कट्टरपंथियों में कोई भी ‘कट्टर मुस्लिम’, ‘कट्टर सिख’, ‘कट्टर जैनी’ या ‘कट्टर ईसाई’ नहीं है, इनमें कभी लोगों से ‘जी न्यूज़’ देखने की मांग की जाती है, तेजिंदर पाल सिंह बग्गा को नरेंद्र मोदी स्वयं भी फॉलो करते हैं। अब आप बताइए इसमें क्या कोई समस्या है, क्या इन सभी लोगों से पीएम मोदी की पूर्ण सहमति की अनिवार्यता है?

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि नरेन्द्र मोदी मायपीएम नमो, नरेंद्र मोदी पीएम, मोदी फॉर पीएम, मोदी यूनाइटेड फैन क्लब, फ़ोर्स नमो, नमो टी पार्टी, नरेंद्र मोदी आर्मी, नमो चाय पार्टी, इंडिया नीड्स मोदी, नरेंद्र मोदीज फैन, मोदीप्लोमैसी, नरेंद्र मोदी फैन, नमो लीग, नमो 2019, नमो शक्ति, माय पीएम नरेंद्र मोदी, मोदी-फाइंग इंडिया, नमो इंडिया, देश भक्त, नमो_गाथा, मोदीफाई यूपी, नमो युग, नमो माय पीएम, भाजपा पथ-नमो पथ जैसे अकाउंट फॉलो करते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आत्ममुग्धता का परिचय सिर्फ उनके ‘सेल्फी-प्रेम’ या अपने नाम वाला सूट पहनने से ही नहीं बल्कि ट्विटर अकाउंट्स से भी देखा जा सकता है. यहां मोदी दर्जनों ऐसे अकाउंट्स को फॉलो करते हैं जो उनके नाम से और उन्हें महिमामंडित करने के लिए बनाए गए हैं'। मुझे समझ नहीं आता कि आखिर इसमें बुराई क्या है? आखिर जिन लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से मोदी के चुनाव में काम किया, पूरा सोशल मीडिया मैनेज किया उनके विचारों से क्या इस देश के प्रधान को अवगत होने का अधिकार नहीं है? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि देश का प्रधान उनके दिखाए रास्ते पर ही चलेगा। एक नेता का यह अधिकार के साथ साथ कर्तव्य भी है कि उसे कुर्सी देने वालों से या उसे कुर्सी तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत करने वालों के विचारों को जाने और उसमें से जो उचित लगे उस विचार को अपनाए। साथ ही उस नेता का यह कर्तव्य भी है कि वह विपक्ष द्वारा चलाई गई उन योजनाओं को भी जारी रखे जो राष्ट्र हित में है। इन दोनों पैमानों में नरेन्द्र मोदी खरे उतरते हैं। एक वेबसाइट के द्वारा ऐसे विषयों पर विशेष रिपोर्ट्स के नाम पर तथाकथित सनसनीखेज खुलासे किए जा रहे हैं यह वास्तव में दुखद स्थिति है। मैं आज इन ट्विटर अकाउंट्स को चेक कर रहा था, वास्तव में इसमें बहुत सी ऐसी पोस्ट डाली गई हैं जो गलत हैं लेकिन क्या आप यह मानकर चल रहे हैं कि ये लोग जो भी पोस्ट डालेंगे उससे मोदी जी की सहमत होंगे।

मैं बहुत से विषयों पर पीएम मोदी का विरोध करता हूं। पहले भी करता था, एक समय था जब मोदी जी गुजरात के सीएम हुआ करते थे। उस दौरान उन्होंने मेरे नाम से मेरे संस्थान के लिए एक शुभकामना संदेश भेजा था। क्या इस शुभकामना संदेश के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि मेरे संस्थान की हर खबर के प्रत्येक पक्ष से वह सहमत थे। नहीं, बिलकुल नहीं। उनको कुछ लेख पसंद आए होंगे तो उन्होंने शुभकामनाएं भेजीं, हर दिन तो वह उस समाचारपत्र को पढ़ते भी नहीं होंगे। ठीक उसी प्रकार ट्विटर पर किसी का ट्वीट पसंद आया तो उसे फॉलो कर लिया, अब अगर इसे मुद्दा बनाकर पेश किया जाएगा तो शायद उचित नहीं होगा।

देश में हजारों विषयों के होते हुए ऐसे विषयों को उठाया जा रहा है। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि यदि आप किसी विचारधारा का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप अपनी विपक्षी विचारधारा में कुछ अच्छा देखने की कोशिश ही नहीं करेंगे। मेरी एक साथी स्वाति मिश्रा ने आज फेसबुक पर लिखा, 'UPA सरकार के दूसरे कार्यकाल की बात है। मनमोहन सिंह की सरकार के लिए बहुत कुछ कहा जा रहा था। भ्रष्टाचार के साथ-साथ और भी तमाम मुद्दे थे। ऐसे में भी उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। मीडिया के सवालों का लाइव जवाब दिया। स्थानीय भाषा की मीडिया से भी कई बार बात की। भारत में भी जब कहीं दौरे पर गए, तो ज़्यादातर बार मीडिया के सवालों का जवाब दिया। इधर अपने मोदी को देखिए। ना चुनाव से पहले बोले, ना अब बोलते हैं। कभी बोले भी, तो अपने लोग छांट के उनसे ही बोले। कभी कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं, मीडिया के सवाल नहीं। लोग बोलते रहें, लेकिन उनकी सेहत को असर नहीं पड़ता। ऐसा नहीं कि बोलते नहीं, बोलते खूब हैं पर बस अपने मन का।
सोचिए कि मोहल्ले में कोई एक बड़ा लाउडस्पीकर लगाए और जब चाहे उसपर आड़ा-तिरछा चिल्लाए। आप परेशान होते रहें, लेकिन कभी उस लाउडस्पीकर से हैप्पी बर्थडे का गाना आए और कभी खाली-पीली का दर्शन। मोदी इस देश में वही लाउडस्पीकर हैं। बजते हैं, पर किसी काम का नहीं।'
बहुत अच्छी बात है कि स्वाति जी ने अपने मन की बात कह दी। मन की बात कहने का अधिकार हर एक को है, देश के प्रधान को अधिकार है कि अपने मन की बात पूरे देश से करे और यही अधिकार इस लोकतंत्र में एक सामान्य व्यक्ति को भी मिला है। लेकिन स्वाति जी के द्वारा उठाए गए विषय का एक दूसरा पक्ष भी है। इस देश का प्रधानमंत्री यूके जाता है और वहां पर प्रेस वार्ता में एएनआई के पत्रकार को यह सोचकर प्रश्न पूछने के लिए कहता है कि यह मेरे देश का पत्रकार है, यह इस समय मेरे लिए देश की आवाज है और देश के लिए मेरी आवाज, तो यह जो भी पूछेगा देश के हित में पूछेगा लेकिन हमारे पत्रकार साहब मोदी जी के समक्ष असहिष्णुता का मुद्दा उठाते हैं। जिस स्थान पर पूरे विश्व का मीडिया हो वहां पर देश की आतंरिक स्थिति पर देश के प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर देना उन पत्रकार महोदय का कैसा दायित्व है। जितना मोदी ने असहिष्णुता के मुद्दे पर वहां बोला कि मेरे लिए हर एक घटना महत्व रखती है उतनी बात अगर यहाँ बोल देते तो शायद आधी समस्याओं का समाधान हो जाता। पत्रकार का काम देश में और देश के बाहर जनता और सत्ता के बीच सकारात्मक सोच के साथ सेतु का काम करना है। एएनआई के पत्रकार यदि भारत में मोदी जी की एक बाइट लेकर चला देते तो शायद आज तथाकथित 'असहिष्णुता' कोई मुद्दा ही ना होता। अब यह मत कहिएगा कि पीएम साहब देश में रहते कब हैं?

यह विषय मात्र पत्रकारों तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक सामान्य व्यक्ति को इस देश के विषय में सोचना होगा, प्रत्येक उस विषय का समर्थन करना होगा जिसमें देश का कल्याण निहित हो। अभी कुछ दिन पहले कानपुर से वापस आते हुए ट्रेन में यात्रा के दौरान सुबह 7 बजे मेरे 2 सहयात्रियों ने नाश्ते में चाय और बिस्किट लिए। वे मेरे परिचित नहीं थे, लगभग 20 और 30 साल की उम्र वाले उन दोनों सहयात्रियों ने बिस्किट का खाली पैकेट वहीं सीट के नीचे फेंक दिया। मैं थोड़ा 'मुंहफट' किस्म का व्यक्ति हूं तो मैंने बड़े भाई से कहा कि भाईसाहब क्या करते हैं? तो वह बोले कि बस काम-धंधा चलता है अपना। मैंने नीचे पड़े बिस्किट के खाली पैकेट उठाकर पास लगी डस्टबिन में फेंकते हुए कहा कि अगर आप यह काम और कर देते तो मुझे बहुत खुशी होती। मैं यह 'हरकत' इसलिए करता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि शायद इससे किसी को शर्म आ जाए और वह आगे से गंदगी करने से पहले एक बार सोचे। लेकिन आप एक सामान्य व्यक्ति की सोच समझिए, उसने अपनी चाय खत्म करते हुए कप उसी तरह नीचे डालते हुए बोला कि भाई ट्रेन साफ करने के पैसे दिए जाते हैं, अगर गंदगी नहीं होगी तो सफाई करने वाले के पास हराम के पैसे जाएंगे। मैं उस पढ़े-लिखे से दिखने वाले आदमी की सोच पर निःशब्द था। क्या सोच थी उसकी। उसके छोटे भाई ने तुरंत नीचे फेंका हुआ अपने भाई का कप उठाया और अपने कप के साथ उसे डस्टबिन में फेंक कर आया।

दोस्तो, यह वह समय है जब इस देश के प्रत्येक वर्ग को एक होना होगा, अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए। मोदी हों या केजरीवाल, दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, सभी की अच्छी और समाज के लिए उपयुक्त परंपराओं को एक साथ आना होगा। जब तक 'फर्जी' विषयों से बाहर निकल कर, एकरूपता के प्रभाव को स्थापित करने का प्रयास छोड़कर एकता के लिए प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक इस देश को विश्व शक्ति नहीं बनाया जा सकता।

वंदे भारती

Monday 21 March 2016

जनरल टिकट के साथ स्लीपर कोच की रात

आज पिता जी की इच्छानुसार पीसीएस की परीक्षा देने कानपुर आना हुआ। कल शाम की ट्रेन से दिल्ली से कानपुर आया। परीक्षा के चलते ट्रेन में काफी भीड़ थी। मेरा रिजर्वेशन था और सीट कंफर्म थी। लेकिन कुछ छात्र मेरी सीट पर आकर बैठ गए। मानवीयता के नाते मैंने उनसे सीट खाली करने को नहीं कहा, उनके साथ मैं भी बैठा रहा। इस दौरान टिकट पर्यवेक्षक जो कि एक महिला थीं, वह आईं और जनरल ‘टिकट’ वालों से प्रति व्यक्ति 200 रुपए लेने लगीं। मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि मेरी नजरों के सामने भ्रष्टाचार हो रहा था। मैंने इस विषय को लेकर रेल मंत्री महोदय और रेल मंत्रालय को ट्वीट्स किए। मुझे उम्मीद थी कि शायद कोई कार्यवाही हो, लेकिन कुछ नहीं हुआ। टिकट पर्यवेक्षक महोदया अपनी जेब गरम करके चली गईं।
खैर, बैठे-बैठे ही पूरी यात्रा हो गई। सुबह कानपुर पहुंचकर स्टेशन के पास ही एक होटल लिया और फ्रेश होकर परीक्षा देने चला गया। प्रथम पाली की परीक्षा तो हो गई लेकिन उसके बाद 3 घंटे का गैप था। परीक्षा केंद्र से होटल लगभग 10 किमी दूर था। इस नाते वापस जाना संभव नहीं था। पिछली 3 रातों से जाग रहा था इसलिए नींद भी आ रही थी। कड़ी धूप में किसी तरह 3 घंटे का समय बिताकर दूसरी पाली की परीक्षा दी। नींद मुझ पर हावी होने का भरसक प्रयास कर रही थी। ऑटो से 10 किमी का सफर तय करने में मुझे 2 घंटे से भी ज्यादा लग गए।
शाम 7 बजे होटल पहुंचकर सोचा कि थोड़ा आराम कर लूं, लेकिन रात 9:15 पर मेरी ट्रेन थी इसलिए मन में डर भी था कि कहीं ट्रेन छूट न जाए। घर में बात करने के पश्चात लेटा ही था कि निद्रा देवी ने मुझ पर पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया। मैं सो चुका था और जब आंख खुली तो रात के 12:50 बज रहे थे। मैं अपना एटीएम दिल्ली में ही भूल आया था। मेरे पास सिर्फ 600 रुपये ही बचे थे। थोड़ा समय पहले तक कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि अपने पास कंफर्म टिकट जो था। लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी थीं, ट्रेन जा चुकी थी। मैं तुरंत होटल से निकला और स्टेशन पहुंचा, मुझे उम्मीद थी शायद ट्रेन लेट हो और मुझे सीट मिल जाए लेकिन हर बार आपकी इच्छानुसार सब कुछ नहीं होता, शायद इसलिए क्योंकि आपकी सकारात्मकता से अन्य लोगों की सकारात्मकता ज्यादा प्रभावशाली होती है।
ट्रेन जा चुकी थी, बस से जाने भर का किराया नहीं था। अंत में तात्कालिक निर्णय के आधार पर तय किया कि जनरल टिकट से यात्रा करूंगा। 145 रुपए का जनरल टिकट लेकर ट्रेन पता की और प्लैटफॉर्म पर आ गया। पानी तथा कुछ खाने का हल्का-फुल्का सामान लेकर बैग में रखा और ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगा। ट्रेन आने के बाद जब जनरल बोगी की भीड़ देखी तो उसमें बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अगले पल मैं ट्रेन के स्लीपर कोच में था।
ट्रेन चलने के बाद मैं टिकट पर्यवेक्षक से मिला और उनको अपनी स्थिति से अवगत कराया। ‘या तो पैसा दो या फिर जनरल बोगी में जाओ’ कहकर वह आगे चले गए। अपना काम निपटाकर वह वापस मेरे पास आए और बोले कि क्या करना है?
मैंने उनको फिर से अपनी स्थिति बताई कि किस तरह से मेरी ट्रेन छूट गई थी, साथ ही जनरल बोगी की भीड़ के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘इसमें बैठना है तो पैसा लगेगा।’
मेरा अगला प्रश्न था- ‘कितना?’
वह बोले, ‘जो देना है दे दो।’ मेरे सामने धर्मसंकट की स्थिति थी कि क्या करूं? मेरे हाथ स्वतः ही जेब में गए और मैंने उनको 100 रुपए निकालकर दे दिए।
रुपए लेकर वह आगे चले गए लेकिन मेरी चिंताओं को बढ़ा गए। ज़िन्दगी में पहली बार मैं एक भ्रष्टाचार में सहभागी था। आज से पहले मैं बहुत गर्व से कहता था कि मैं कभी किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का हिस्सा नहीं बना लेकिन अब कभी ऐसा नहीं कह पाऊंगा। मेरे पास सिर्फ 300 रुपए बचे थे। अंत में मैंने तय किया कि मैं पेनल्टी सहित टिकट बनवाऊंगा। मैं तत्काल प्रभाव से टीटीई के पास गया और उनसे कहा कि मुझे पेनल्टी के साथ टिकट बनवाना है। उसने हंसते हुए गणित लगाई और बोला 365 रुपए लगेंगे, आप 100 रुपए दे चुके हो, 265 और दे दो। मैंने शेष बचे 100-100 के तीनों नोट उनकी तरफ बढ़ा दिए और कहा कि अगर टिकट नहीं बनवाया तो जीवनभर खुद को माफ़ नहीं कर पाऊंगा।
वह हतप्रभ थे, शायद उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति ना मिला हो जिसका काम 100 रुपए में हो रहा हो लेकिन वह साढ़े तीन गुना पैसा देने खुद आया हो। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या करते हो?
मैंने कहा कि सर, आप टिकट बना दो और मैं जाऊं। मैं ऐसे स्थानों पर सामान्य रूप से अपना परिचय देने से बचता हूं। उन्होंने फिर कहा, ‘मैं तुम्हारे पिता की उम्र का हूं और तुमको अपना काम बताने में भी दिक्कत हो रही है।’ फिर मैंने उनसे कहा कि मैं दिल्ली में पत्रकार हूं। वह खड़े हुए और बोले कि तुम्हारा नाम क्या है? मैंने कहा, विश्व गौरव। उन्होंने कहा, आगे? मैंने कहा, बस इतना ही। फिर वह और खुले तथा बोले, जाति? उनका यह प्रश्न मुझे अचंभित करने वाला था। मैंने उनसे कहा, ‘जन्म तो एक ब्राह्मण कुल में लिया है लेकिन कर्म से पूर्ण ब्राह्मण नहीं हूं।’ उन्होंने पहले लिए गए 100 रुपए सहित पूरे 400 रुपए मुझे वापस कर दिए और कहा, ‘तुमसे मैं पैसे नहीं ले सकता, तुम ट्रेन में बैठे रहो और इसे मेरी मदद समझो। रोज बहुत से लोग मिलते हैं जो पत्रकारिता के नाम पर भ्रष्टाचार करते हैं। और हां, अब कभी किसी से यह मत कहना कि तुम्हारे कर्म ब्राह्मण जैसे नहीं हैं।’ उन्होंने मुझसे कहा कि तुम मेरे बेटे की उम्र के हो, आज मैं तुमसे वादा करता हूं कि कभी गलत तरह से पैसा नहीं लूंगा। मैं धन्यवाद बोलकर चला आया।
अभी ट्रेन में ही हूं, मोबाइल पर ब्लॉग लिख रहा हूं, आंखों में आंसू हैं और हृदय में ईश्वर पर विश्वास। अगर मन साफ है तो आपके साथ कुछ बुरा नहीं हो सकता। मैं आगे भी यह कह पाऊंगा कि मैं कभी किसी भ्रष्टाचार में सहभागी नहीं बना। मेरे ‘गौरव’ को बनाए रखने में सहयोग के लिए ईश्वर का धन्यवाद।
(समय- 03:28 AM)

Thursday 17 March 2016

स्वतंत्रता और स्वछंदता में अंतर समझे मीडिया

मीडिया के बिना वर्तमान समय में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती लेकिन हाल ही में दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए विवादित कार्यक्रम के बाद भारतीय मीडिया दे धड़ों में बटा नजर आ रहा है। जेएनयू में भारत तेरी बर्बादी तक जंग रहेगी...जंग रहेगी...जैसे नारों को मीडिया का एक वर्ग अभिव्यक्ति और असहमति की स्वतंत्रता बता रहा है तो दूसरा वर्ग इसे राष्ट्रद्रोह की संज्ञा दे रहा है। इस विषय पर एक निष्पक्ष स्थायित्व लेने के लिए सर्वप्रथम हमें पत्रकारिता को समझना होगा। क्या पत्रकारिता का अर्थ यह होता है कि आप सही और गलत में कोई फर्क न करते हुए दोनों पक्षों का समर्थन करें अथवा पत्रकारिता का अर्थ यह होता है कि आप सही और गलत में फर्क करते हुए सही का समर्थन करें और गलत को पूर्ण दृढ़ता के साथ गलत कहें। मेरा मानना है कि दूसरा विकल्प ही पत्रकारिता का विशुद्ध रूप है। आप जब पत्रकारिता व्यवसाय होती जा रही है तो इसे एक मिशन के रूप में लेना संभव नहीं लेकिन क्या एक पत्रकार 'भारतीय' व्यवसायी नहीं हो सकता? क्या एक पत्रकार भारतीय पत्रकार नहीं हो सकता? क्या एक पत्रकार अपने व्यवसाय से पहले देश को नहीं मान सकता? क्या एक पत्रकार अपने व्यवसाय के मिशन के रूप में नहीं ले सकता? क्या एक पत्रकार किसी अन्य देश में जाएगा तो वह भारतीय से पहले पत्रकार होगा? ऐसे कई सवाल हैं जो आज हमारे सामने खड़े हैं।

मीडिया से इतर अगर राजनीतिक वर्गों की बात करें तो एक वर्ग कहता है कि देश के मजदूरों एक हो जाओ तो वह साथ में यह भी कहने लगता है कि आपको एक होने के लिए ‘राम’ को मानना बंद करना होगा। अगर कोई यह कहता है कि इस देश के सनातनियों एक हो जाओ तो साथ में अप्रत्यक्ष शर्त लगा दी जाती है कि इसके लिए आपको मुसलमानों का विरोध करना होगा। इसको अगर एक सामान्य पंक्ति में कहें तो हम आज ‘एकता’ नहीं अपितु ‘एकरूपता’ चाहते हैं। इस एकरूपता की विचारधारा का प्रभाव सभी तरह की विचारधाराओं पर है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम जैसे हैं उसी तरह रहकर मात्र भारतीयता के नाम पर एक हो जाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि इस देश में कुछ लोगों को इस बात पर शर्म आती है कि हमारे लोकतांत्रिक मंदिर, यानी संसद पर हमला करके इस देश की एकात्मता पर प्रहार करने वाले अफजल गुरु नाम के आतंकी को फांसी पर लटका दिया जाता है। और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी बंट चुका है।

स्वतंत्रता किसी भी तरह के निरपेक्ष स्वच्छंदता का पर्याय नहीं हो सकती है। यदि ऐसा होता तो वह आत्महंता कहलायेगा, जैसा कि अनेको देशों में हुआ है कि वहां पर प्रजातंत्र आया जरुर लेकिन वह अधिक दिनों तक ठहर नहीं सका। सही अर्थो में स्वतंत्रता मिलने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति के साथ दायित्व एवं कर्तव्य जुड़ जाते हैं। आत्मनियंत्रण एवं लगातार चौकसी के अभाव में स्वतंत्रता की परिकल्पना अधूरी रह जाती है। हम अपने- आपको आज स्वतंत्र्योत्तार युग के वासी मानते हैं। ऐसा लगता है, कि स्वतंत्रता अपने कालक्रम में एक बिंदु था, न कि कोई सतत अनुभव। ऐसा लगता है कि मानो पश्चिमीकरण की स्वाभाविक नियति की दिशा में हम लगातार अग्रसर होते जा रहे हैं हमारी इस यात्रा में राजनीतिक स्वतंत्रता एक महज पड़ाव था। यदि हम वर्तमान समय में भाषा, व्यवहार और वैचारिक दायरे मे रह कर सोचे तो स्वतंत्रता, स्वाधीनता आज लगभग बाहर ढकेल दी गई है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि स्वायत्ताता, आत्मगौरव और आत्मबोध की जगह हम अंग्रेजी राज के मात्र उत्ताराधिकारी बनकर रह गए हैं। वैश्वीकरण के दबाव में हम यह मान बैठे हैं कि पश्चिमी सभ्यता अकाट्य एवं अपरिवर्तनीय भविष्य है। राजनीतिक रूप से स्वाधीन होकर भी हम आज तक आत्म संशय से पूर्णतः ग्रस्त हैं, भारतीयता के बारे में हम अस्पष्ट, ज्ञान-विज्ञान के आयातक बन कर अपनी ही जड़ों से कटते चले जा रहें हैं। वर्तमान समय में गांधीजी का हिंद स्वराज हमारी रीति-नीति से हाशिये पर जा चुका है।

आज, बौद्धिक चर्चाओं में जिस अमूर्तीकृत भारतीय जीवन शैली पर विश्लेषण हो रहा है, वह साम्राज्यवादी आधार पर भी अप्रासंगिक है और केवल आरोपित दृष्टि को प्रोत्साहित कर रहा है। वह न ज्ञान से जुड़ा रहा, और न ही समाज से ऐसी अवस्था में कोई वैकल्पिक दिशा या राह ढूंढ़ा नही जा रहा है। स्वदेशी या देशज विचार उपयोगी हो सकते हैं लेकिन  इसके लिए जो संकल्प और इच्छाशक्ति की आवश्यकता है वह कहीं विरल होती जा रही है और जो भी प्रयास हो रहे हैं वे अधकचरे और बेमन से हो रहे हैं। वस्तुत: स्वतंत्रता अमूल्य है, इस धरती पर केवल मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसके लिए उसका शारीरिक और भौतिक जीवन अपर्याप्त है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के बल पर इसके पार झांकने की चेष्टा करता है और जीवन मे मूल्यों एवं आदर्शो का सृजन करता है। मानव जीवन मूल्यों और संभावनाओं का जगत है इसका प्रयोजन मनुष्य को राह दिखाना और  उसका मार्ग प्रशस्त करना है। मनुष्य आहार, भोजन, निद्रा, भय और मैथुन की पशुवृत्तिायों तक अपने को संकुचित न रखकर मूल्यों को ढूंढता है, उन मूल्यों को जिन पर जीवन को न्योछावर किया जा सके। मानव जीवन कुछ ऐसे ही स्पृहणीय लक्ष्यों एवं चाहतों के अधीन संचालित होता हैजिन पर किसी प्रकार की बंदिश नहीं होती है, सिवाय खुद अपने द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के। यदि प्रतिबंध न हों तो इस प्रकार की ईच्छाए मनुष्य को गलत राह पर ले जा सकती हैं। इस विवेक के न होन पर हम पशुवत आचरण करने लगते हैं और तात्कालिक भौतिक सुख पाने तक ही अपने आप को सीमित कर लेते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय यानी चोरी न करना, अपरिग्रह यानी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना, शुचिता, इंद्रियनिग्रह, धैर्य और क्षमा जैसे गुणों को धर्म के प्राणिमात्र के लिए उपयुक्त या ठीक तरह से व्यवहार के अंतर्गत इसे शामिल कर मनुष्य को एक बड़ी जिम्मेदारी दी गयी है। धर्म व्यक्ति को अपने बारे में कम और दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करें या सामाजिक जीवन कैसे जिएं इसके बारे में अधिक बताता है। स्वतंत्रता कभी निरपेक्ष नहीं होती पर इसका गलत अर्थ लगा कर हम स्वच्छंद होते जा रहे हैं जिसके परिणामस्वरुप लूट-मार, हत्या, घोटालों, व्यभिचार, त्रासदियों, अत्याचारों, एवं हिंसा की असंख्य घटनाओं के रूप में हमारे सामने आए-दिन उपस्थित होते रहते हैं।

निश्चित ही विचारों को व्यक्त करने की आजादी संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है, लेकिन संविधान के ही तहत इस आजादी पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का राज्य को अधिकार भी दिया गया है। ऐसे में अदालत ने भी यह माना कि देश में शिक्षा और चेतना के मौजूदा स्तर को देखते हुए स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में तब्दील होने की छूट नहीं दी जा सकती है। इसलिए संसद को कानून बनाकर इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी होगी। खासकर देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, सामाजिक चेतना जैसे संवेदनशील पहलुओं को देखते हुए तकनीकी प्रसार को रोकने के बजाय इसे बेकाबू होने से रोकने के उपाय करना वक्त की मांग है।

प्रत्येक समाज का, राष्ट्र का एक तंत्र होता है जो धीरे-धीरे विकसित होता है और वही उसके शासन तंत्र का आधार बनता है। हमारे पास व्यवस्था का एक लंबा इतिहास है। उसी को समयानुसार आवश्यक  परिवर्तन करके सुधारना चाहिए। आज भी मानवीय संबंधों, प्रकृति के साथ सामंजस्य के सूत्रों, मितव्ययिता और संयम की जीवन शैली ही हमारे तंत्र का आधार हो सकती है। आज की गैर जिम्मेदार उपभोक्ता संस्कृति और अंधे कानून हमारे मार्गदर्शक नहीं हो सकते। हमारी जीवन शैली ही हमारी हो सकती है। वही हमें  गति प्रदान कर सकती है और वही हमारा धर्म हो सकती है।

अंग्रेजो के जाने के बाद स्वतंत्र बनते समय हमने इस नींव को भुला दिया।  स्वाधीनता का अर्थ है कि हम अपने नियंता और मालिक बनें। कानून के डंडे से संचालित जीवन की अपेक्षा स्वप्रेरित जीवन जिएं। यहीं आकर संस्कारों का महत्त्व पता चलता है। संस्कार हममें एक ऐसी आदत का निर्माण कर देते हैं कि स्वतः ही एक समरसता का जीवन जीने लगते हैं। लेकिन इस देश का मीडिया संस्कारों को तो व्यर्थ मानता है। आधुनिकता के नाम पर पाश्चायत्य सभ्यता के दुष्चक्र में मीडिया कुछ इस कदर फंसता जा रहा है कि यदि कोई भारतीय संस्कार और संस्कृति की बात करे तो वह उसे पिछड़ा और देश के विकास की गति में बाधक मान लेता है।

स्वतंत्रता आज स्वच्छंदता में बदल गई है। हमे पड़ताल करनी होगी कि जो देश कभी विश्व गुरु के नाम से पह्चाना जाता था, आज अनुकरण या स्पष्ट शब्दों में कहें तो अंधानुकरण करने वाला कैसे बन गया। हर संस्कृति की अपनी विशिष्टता होती है, साथ ही उसमें खामियां भी होती हैं, हमारी जिम्मेदारी है कि अगर हमें अनुकरण करना ही है तो विशिष्टता का करें ना कि खामियों को भी अपना मान लें। आज सिर्फ अन्धानुकरण हो रहा है और उसे नाम दिया जा रहा है आधुनिकता का, इससे अधिक दुर्भाग्य इस देश का हो ही नहीं सकता। किसी भी संस्कृति की विशिष्टाता होती है उसकी शिक्षा व्यवस्था, क्या हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को ऐसा ढाला है की यह अनुकरणीय बने और हम अग्रज?
आज समय आ गया है कि आजादी के 69 साल के बाद हम थोड़ा सा पीछे मुड़ कर देखें और अपनी खामियों को चिन्हित कर उन्हें मिटाने का प्रयास करें। आज जरुरत है वैल्यु की जो आज कल प्राइस में परिवर्तित होती जा रही है। ये सब किसी के करने से नहीं होने वाला बल्कि हमें खुद अपने निजी और सामजिक स्तर पर ये सब करना होगा तभी उम्मीद जग सकती है।

आज स्वच्छंदता हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था में व्याप्त है चाहे वह नौकरशाह हों या मिडिया ,चाहे न्यायपालिका हो या समाज आदि। आज कोई भी किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करना चाहता है चाहे वह कानून का हो या राज व्यवस्था का। राजनीति तो पहले ही दागदार हो चुकी है, वे दिन चले गए जब राजनीतिज्ञों को देख कर स्वतः ही मन में सम्मान का भाव उत्पन्न हो जाया करता था कि अमुख नेता इतना पढ़ा-लिखा है ,अमुख इतना बड़ा समाज सुधारक है आदि, पर आज तो ऐसी छवि वाला कोई नेता दिखता ही नहीं, सभी एक दूसरे पर लांछन लगाने में व्यस्त दिखते हैं और ये दिखने की कोशिश करते हैं की उनका विरोधी देखो कितना नीचे गिर गया है। इस व्यवस्था को बनाने में और पोषित करने में कहां आ गए हम? जिस देश का इतिहास इतना गौरवशाली था ,जहां का भूगोल आज भी सोना उगलने की स्थति में है फिर नागरिक शास्त्र में कैसे चुक गए कि ऐसी व्यवस्था खड़ी हो गयी? जिसकी भाषा (संस्कृत) को सभी भाषाओं की जननी कहा जाता था, आज उसके विषय में बात करने पर भगवाकरण का आरोप लगने लगता है।

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता को अक्सर एक मानने की भूल कर दी जाती है और इसी का परिणाम है कि स्वतंत्रता के नाम पर कई बार अतार्किक मांग उठायी जाती है। स्वतंत्रता का पक्षधर उदारवाद व्यक्ति को विवेकशील प्राणी मानता है और उसे अपने बारे में स्वयं निर्णय करने तथा विकास-मार्ग स्वयं चुनने का अधिकार देने की बात करता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि व्यक्ति विवेकशील प्राणी है परन्तु उसकी विवेकशीलता की सीमा है अर्थात् व्यक्ति पूर्ण विवेकशील नहीं है। इसी कारण व्यक्ति-व्यक्ति की सोच और मान्यता में अंतर नजर आता है, जो कि कई बार एक-दूसरे के विपरीत भी हो जाता है। अतः स्वतंत्रता की मात्रा का सीमांकन जरुरी हो जाता है। स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध जरुरी है ताकि किसी एक व्यक्ति की स्वतंत्रता अन्य की स्वतंत्रता में बाधक न हो जाय। वहीं स्वच्छन्दता में प्रतिबंधों का कोई स्थान नहीं होता, अतः स्वच्छन्दता निरंकुश रूप धारण किए हुए है। वहीं स्वतंत्रता मानवता के हित में कुछ प्रतिबंधों को आरोपित करती है, जिससे कि एक व्यक्ति की स्वतंत्रता का अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता से कोई संघर्ष न हो

हाल ही में हुए जेएनयू प्रकरण में एक बात तो साफ हो गई है कि राजनीतिक विचार परिवारों की तरह मीडिया भी विचारों में स्थायित्व नहीं ला पा रहा है। कोई चैनल वैचारिक प्रतिबद्धता से इस कदर ग्रसित है कि वह फर्जी विडियो को बिना जांच किए टीवी पर चला देता है तो कोई चैनल देश की संसद पर हमला करने वाले आतंकी के समर्थन में लगने वाले नारों को अभिव्यक्ति की आजादी कहता है। इस देश की संसद में कोई व्यक्ति नहीं बैठता बल्कि इस देश की संसद में जनमत बैठता है। वह जनमत जिसे मैं और आप चुनते हैं, आपने जिसको अपना वोट दिया हो भले ही वह व्यक्ति उस संसद में ना पहुंचा हो लेकिन किसी अन्य की पसंद तो वहां बैठती है। क्या पत्रकारिता का यह दायित्व नहीं है कि वह देश के जनमत का सम्मान करे और देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ एक साथ खड़ी हो? क्या इस प्रकार की पत्रकारिता कहीं न कहीं राष्ट्रविरोधी तत्वों को संरक्षण देने का काम नहीं कर रही है? क्या फर्जी विडियो चला कर टीआरपी बटोरने वाले चैनल पत्रकारिता की विश्वस्नीयता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहे?

देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में जब छात्रों के वर्ग ने कहा कि ‘अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा है…’ मुझे समझ नहीं आया कि यहां कातिल कौन है? देश का उच्चतम न्यायालय, देश का राष्ट्रपति, अफजल की फांसी के लिए अपने शहीद पति को मरणोपरांत दिए गए शौर्यता के प्रमाण पत्रों को लौटाने की बात करने वाली वे वीरांगनाएं, वे पुलिस वाले जिन्होंने अफजल को पकड़ा अथवा देश का हर एक वह नागरिक जो सड़क से लेकर संसद तक अफजल के कुकृत्य के लिए फांसी की मांग कर रहा था? ऐसे में जब कोई मीडिया संस्थान इस प्रकार के नारे लगाने वालों का अभिव्यक्ति और असहमति की स्वतंत्रता के नाम पर समर्थन करता है तो क्या उस संस्थान का कृत्य राष्ट्रविरोध की श्रेणी में नहीं आता।

देश के कुछ मीडिया संस्थानों का कहना है कि बिना प्रमाण के भारत की बर्बादी के नारे लगाने के मामले में एक निर्दोष को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका मानना है कि यह मानवता विरोधी कदम था। गिरफ्तार किए गए लोगों तथा उनकी विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों का स्पष्ट तौर पर कहना है कि अफजल गुरू की फांसी 'न्यायिक हत्या' थी। यह कैसी मानवता है कि आप एक कलबुर्गी की हत्या पर अवार्ड वापसी का दौर शुरू कर देते हैं लेकिन देश के दिल, दिल्ली में खड़ी देश की संसद पर हमला करके दिल्ली पुलिस के पांच जवानों, सीआरपीएफ की एक महिला कर्मी और 2 सुरक्षा गार्डों के हत्यारे के समर्थन में नारे लगाते हैं। क्या अफजल का कृत्य मानवता विरोधी नहीं था?

एक ऐतिहासिक प्रसंग के माध्यम से इस विषय को स्पष्ट करना चाहूंगा। विभीषण रावण के राज्य में रहने वाला एक ऐसा व्यक्ति था जिसके सहयोग के बिना श्रीराम को सीता नहीं मिलतीं, जिनके सहयोग के बिना लक्ष्मण जीवित नहीं बचते, जिसके सहयोग के बिना रावण के राज्य की गोपनीय बातें हनुमान-श्रीराम को पता नहीं लगतीं। एक लाइन में कहें तो ‘श्रीराम का आदर्श भक्त’… इतना कुछ होते हुए भी आज उस घटना के हजारों सालों के बाद भी किसी पिता ने अपने बेटे का नाम ‘विभीषण’ नहीं रखा। जानते हैं क्यों?
क्योंकि इस संस्कृति में आप राम भक्ति करें या ना करें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अगर राष्ट्रभक्ति नहीं की तो कभी माफ नहीं किए जाएंगे। आज एक सामान्य व्यक्ति से अधिक आवश्यक मीडिया के लिए है कि वह अधिकारों के साथ-साथ दायित्व को भी समझे। आज आवश्यक है कि मीडिया समाज, राष्ट्र और मानवीयता के प्रति अपनी जिम्मेदारी स्वयं सुनिश्चित करे। आज आवश्यक है कि मीडिया समाज को स्वतंत्रता और स्वछंदता के बीच के अंतर के विषय में जानकारी दे।

Tuesday 15 March 2016

काश! ये 'फर्जी राष्ट्रवादी' संघ को समझ पाते

कल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह भैया जी जोशी ने कहा कि इस समय संघ अपनी सर्वोच्च स्थिति में है। निश्चित ही संघ अपनी सर्वोच्च स्थिति में है लेकिन देश की राजनीति अपने निम्नतम स्तर पर है। एक ओर जहां संघ पर कांग्रेस और वामपंथियों के द्वारा लगातार आघात होते रहते हैं तो वहीं दूसरी ओर राष्ट्रवाद को एक रंग विशेष और एक विशेष पूजा पद्धति से जोड़कर देखने वाले फर्जी राष्ट्रवादी देशभक्ति के प्रमाण पत्र बांटते रहते हैं। लोकतंत्र में आलोचना का विशिष्ट स्थान होता है लेकिन आलोचना जब अंधविरोध का रूप ले लेती है तो समाज पर एक नकारात्मक प्रभाव जाता है। कभी कोई संघ की तुलना आईएसआईएस से कर देता है तो कभी कोई भगवा आतंकवाद का राग अलापने लगता है। एक 1993 का दौर था और जब तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इसी संगठन के एक स्वयंसेवक को एवं उस दौर के विपक्षी नेता अटल बिहारी बाजपेई को जेनेवा में आयोजित यूएन सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का प्रमुख बनाकर भेजा था।

मुझे एक अन्य प्रसंग भी याद आता है। अभी कुछ समय पहले मैं संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक से चर्चा कर रहा था। चर्चा के दौरान मैंने उनसे पूछा कि भाईसाहब, आपकी दृष्टि से इस देश के तीन सबसे अच्छे प्रधानमंत्री कौन हुए? उन्होंने बिना कुछ सोचे उत्तर दिया, ‘लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा जी और अटल जी’। मुझे थोड़ी-सी हैरानी हुई क्योंकि मुझे अपेक्षा थी कि पहला नाम अटल जी का और कम से कम अंतिम नाम नरेन्द्र मोदी का अवश्य होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने उनसे इस उत्तर का विस्तृत कारण पूछा तो उन्होंने कहा, ‘छोटे कद और बड़ी इच्छाशक्ति वाले लाल बहादुर शास्त्री जी ने जिस तरह से पाकिस्तान को जवाब दिया था, वह अतुलनीय था। इंदिरा जी ने बांग्लादेश को स्वतंत्र कराने के लिए जिस प्रकार की इच्छाशक्ति का परिचय दिया था वह किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं थी और अटल जी ने समय को आपने स्वयं ही देखा होगा?’ उन्होंने आगे कहा, ‘कौन किस स्तर का राजनेता है यह समय तय करता है। इंदिरा जी ने आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने का प्रयास किया था लेकिन क्या मात्र इसके लिए हम उनके अन्य कार्यों को भूल जाएं?’ प्रचारक महोदय की सकारात्मकता देखकर मैं आश्चर्यचकित था। उस चर्चा के बाद मैंने बहुत सोचा कि क्या इस देश के वामपंथियों और कांग्रेसियों को संघ में कोई सकारात्मकता नहीं दिखती है? इस देश की राजनीति का दुर्भाग्य है कि कोई भगवा (केसरिया) रंग को आतंकवाद से जोड़ता है तो कोई हरे रंग को आतंकवादी बता देता है। कोई कहता है हरा तिलक लगाओ तो कोई किसी इस्लामिक इबादत पद्धति में विश्वास रखने वाले व्यक्ति को जबरदस्ती भगवा ध्वज पकड़ा कर देशभक्त होने का प्रमाण देता है।

मुस्लिम ASI को पीटा, भगवा झंडा हाथ में देकर कराई परेड, ‘जय भवानी’ के नारे भी लगवाए (खबर यहां पढ़ें) इस देश में देशभक्ति के पैमाने रंगों से तय होने लगे हैं। व्यक्तिगत तौर पर लाख बुराइयां होंगी संघ के स्वयंसेवकों में लेकिन क्या उन लोगों की आलोचनाओं के साथ अच्छे कामों की तारीफ नहीं होनी चाहिए?

क्या इस देश के वामपंथी और कांग्रेसी इस बात से इनकार कर सकते हैं कि आजादी के बाद जब पाकिस्तान से शरणार्थी भारत आ रहे थे तो संघ ने 3000 से ज्यादा राहत शिविर लगाए थे?

क्या कांग्रेसी 1962 का युद्ध भूल गए जब सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक सीमा पर पहुंचे थे और पूरे उत्साह से सेना की मदद की थी? क्या यह भी झूठ है कि स्वयंसेवकों के कार्य से प्रभावित होकर जवाहर लाल नेहरू ने 1963 में 26 जनवरी की परेड में संघ को शामिल होने का निमंत्रण दिया था? निमंत्रण दिए जाने की आलोचना होने पर क्या नेहरू ने नहीं कहा था, ‘संघ को निमंत्रण यह दर्शाने के लिए दिया गया है कि केवल लाठी के बल पर भी सफलतापूर्वक बम और चीनी सशस्त्र बलों से लड़ा सकता है’?

1965 के पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में क्या घायल जवानों के लिए सबसे पहले रक्तदान करने वाले और युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाईपट्टियों से बर्फ हटाने का काम करने वाले संघ के स्वयंसेवक नहीं थे? क्या उस दौरान कानून व्यवस्था की स्थिति संभालने में मदद करने वाले और दिल्ली का यातायात नियंत्रण करने में मदद करने वाले संघ के स्वयंसेवक नहीं थे?

आज संघ पर आरोप लगता है कि वह अपने कार्यालय पर तिरंगा नहीं फहराता लेकिन क्या संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह दादरा एवं नगर हवेली की राजधानी सिलवासा में पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा नहीं फहराया था? क्या नेहरू द्वारा गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से इनकार करने के बावजूद जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू नहीं किया था?

क्या संघ के स्वयंसेवक भैरों सिंह शेखावत के विषय में सीपीएम ने यह नहीं कहा था कि राजस्थान में शेखावत प्रगतिशील शक्तियों के नेता हैं? क्या शिक्षा भारती, एकल विद्यालय, स्वदेशी जागरण मंच, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसे संघ के समवैचारिक संगठन कोई अच्छा काम नहीं करते?

क्या 1971 में ओडिशा में आए भयंकर चक्रवात में, भोपाल की गैस त्रासदी में, 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में, गुजरात के भूकंप में, सुनामी में, उत्तराखंड की बाढ़ में और करगिल युद्ध में संघ ने राहत और बचाव का कोई काम नहीं किया था? क्या संघ के समवैचारिक संगठन सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर के आतंकवाद से अनाथ हुए 57 बच्चों को (38 मुस्लिम और 19 हिंदू) गोद नहीं लिया है? आज जल, जंगल और जमीन की लड़ाई का दावा करने वाले लोग बताएं कि क्या संघ का समवैचारिक संगठन भारतीय मजदूर संघ बिना मजदूरों के समर्थन के विश्व का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन गया?

यह सिर्फ एक पहलू है। इस देश के कुछ फर्जी राष्ट्रवादियों को सारे मुसलमान एक आतंकवादी दिखते हैं। क्या ऐसे तथाकथित हिंदू रक्षकों को शर्म नहीं आते जब वे इस देश को परमाणु संपन्न बनाने वाले एपीजे अब्दुल कलाम की कौम को आतंकवाद से जोड़ देते हैं?

क्या यह झूठ है कि 85 साल का एक बूढ़ा शेर, बहादुर शाह ज़फर जब अंग्रेजों की जेल (रंगून) में कैद था और अंग्रेजों ने उसके लिए दो पंक्तियां लिखवाकर भेजी थीं कि…
दमदमे में दम नहीं है, खैर मांगो जान की।
अब ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।।

और क्या इसके जवाब में बहादुर शाह जफर ने वहीं जेल की दीवारों पर जवाब में नहीं लिखा था कि…
गाज़ियों में में बू रहेगी, जब तलक ईमान की।
तख्त-ए- लंदन तक चलेगी, तेग हिंदुस्तान की।

क्या भारत की स्वतंत्रता में 95 वर्ष के जीवन में से 45 वर्ष केवल जेल में बिताने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी)  का कोई योगदान नहीं था? क्या मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हाकिम अजमल खान और रफी अहमद किदवई जैसे राष्ट्रवादियों ने भारत के लिए संघर्ष नहीं किया था? भारत के बाहर जाकर आजाद हिंद फौज के बारे में तो देश के फर्जी राष्ट्रवादी चीख-चीखकर कहते हैं कि उनके लिए कुछ किया जाए लेकिन फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम करने वाले ग़दर पार्टी के सैयद शाह रहमत जिन्हें 1915 में फांसी दी गई, उनका देश में कोई योगदान नहीं था। क्या जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ बर्मा में भारत की आजादी की योजना बनाने वाले अली अहमद सिद्दीकी का कोई योगदान नहीं? क्या यह झूठ है कि इन दोनों को 1917 में फांसी पर लटका दिया गया था?

कितनी घटिया स्तर की राजनीति हो गई है इस देश की जिसमें सिर्फ नकारात्मकता है, जिसमें आलोचना नहीं सिर्फ विरोध है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस देश की एकता, अखंडता और एकात्मता के संरक्षण के लिए सभी विचारधाराएं एक हो जाएं? राष्ट्रवाद और आतंकवाद की कोई पूजा पद्धति नहीं होती। किसी भी पूजा पद्धति को मानने वाला या पूजा पद्धति में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति राष्ट्रवादी हो सकता है बशर्ते वह राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास रखते हुए राष्ट्रीय एकता के लिए कार्य करता हो। वह राष्ट्रवादी नहीं हो सकता जो देश में रंगों के आधार बनाकर एकरूपता चाहता हो। ठीक इसी प्रकार से हर वह व्यक्ति जो मानवता में विश्वास न रखता हो, निर्दोषों की हत्या करता हो वह आतंकवादी है।

इस देश में आज सबसे अधिक आवश्यकता है कि देश का प्रत्येक नागरिक अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझे और ऐसे राजनेताओं को सत्ता से दूर रखे जो देश तोड़ने वाली राजनीति करते हों, जो देश को रंगों में बांटते हों। कोई तथाकथित साध्वी जो इस देश के 69 प्रतिशत लोगों को अप्रत्यक्ष तौर पर गाली देती हो या शाही मस्जिद के इमाम से शाही इमाम बन जाने वाला कोई ऐसा व्यक्ति जिसे राष्ट्र की वंदना करना इस्लाम विरोधी लगता हो राष्ट्रवादी अथवा मुसलमान कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।

Monday 14 March 2016

वामपंथियों के नाम एक 'खुला' पत्र

मेरे वामपंथी भाइयों, 

जिस संविधान के अनुच्छेद 19(ए) के तहत आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं. उसी संविधान के अनुच्छेद 51(ए) में 11 मौलिक दायित्व भी दिए हैं। वे निम्न हैं-

प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
1. संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे।
2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।
3. भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे।
4. देश की रक्षा करे।
5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे।
6. हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका निर्माण करे।
7. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करे।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करे।
9. सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे।
10. व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे।
11. माता-पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों हेतु प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना (86वां संशोधन)।

अब आप स्वयं तय करिए कि आप इनमें से कितने दायित्वों का पालन करते हैं।
संविधान और संवैधानिक व्यवस्था में आपका यकीन नहीं। आप एकरूपता के पक्षधर हो । क्यों कि अगर आप समानता चाहते तो “संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम” - “हम सब एक साथ चलें,
एक साथ बोलें, हमारे मन एक हों।”
का विचार रखने वाली संस्कृति का विरोध ना करते।

इस देश के उच्च आदर्श आपको कल्पना लगते हैं अथवा उनमें बुराइयां दिखने लगती हैं या फिर उनको देखने के लिए आपमें ग्लोबल दृष्टि आ जाती है और आप कहने लगते हैं कि वे 'अंग्रेजों की दृष्टि में तो आतंकवादी ही थे।' आप इसमें अपनी वैश्विकता दिखाकर विदेशियों को महान बनाने लगते हैं। एक तरफ तो आप समानता की बात करते हैं दूसरी ओर दलित राजनीति करते हैं। रही बात प्रभुता, एकता और अखंडता की तो आप खुले तौर देश को खंडित करने की बात करते हो। कभी आप कश्मीर में जनमत संग्रह कराने लगते हो तो कभी भारत की संस्कृति को 'फालतू' बताकर उनका अनुसरण करने लगते हो जिनको बिना सिले कपड़े पहनना नहीं आया। (बिना सिले कपड़े पहनना सबसे आसान है क्योंकि उन्हें पहनने के लिए कपड़े के सिवा किसी कृत्रिम चीज की आवश्यकता नहीं होती, मैं मानता हूं कि कपड़े सिलना भी एक बड़ी कला है लेकिन बिना सिले एक ही कपड़े को कई तरह से पहन लेना भी किसी कला से कम तो नहीं है। )

देश की रक्षा करने वाले सैनिक आपको बलात्कारी लगते हैं। (किसी व्यक्ति विशेष का उदाहरण न दें क्योंकि इस कुतर्क के साथ आप उनके द्वारा किए गए सेवा एवं संघर्ष कार्यों को नकार नहीं सकते।) समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना में आपका विश्वास है नहीं क्योंकि अगर ऐसा होता हो तो आप 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। यह धरती हमारी माता है, हम सब इसकी सन्तान हैं।' पर तो कम से कम हमारे साथ होते। क्यों कि इससे ज्यादा आप भ्रातृत्व क्या लेंगे कि एक मां के सब बेटे हैं, पूरी धरती मां। कोई सीमा ही नहीं।

इस पंक्ति को लिखने से पहले मां शारदे से क्षमा मांगता हूं। सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझने और उसका निर्माण करने का तो प्रश्न ही नहीं क्यों कि आपको औरंगजेब महान और दुर्गा जी 'वेश्या' लगती हैं। सार्वजनिक संपत्ति को तो अपने बाप का समझकर तुम इसी संविधान के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम लेकर देश को तोड़ने वाले नारे लगाते हो।
अरे यार क्या लिखूं तुम्हारे बारे में.... बस निवेदन करता हूं कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को समझो और कम से कम इन दायित्वों का तो निर्वहन करो।

Tuesday 8 March 2016

एक गुजारिश है, आधुनिकता अपनाएं लेकिन नग्नता नहीं

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के बाद सृष्टि सृजन में यदि किसी का सर्वाधिक योगदान है तो वह नारी का है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की संस्कृति में विश्वास रखने वाला देश आज अपनी ही परंपराओं से मुंह चुराता हुआ दिख रहा है। आधुनिकता की दौड़ में हम इतने आगे निकल गए कि समाज में व्याप्त कुरीतियों को ही शाश्वत सत्य मान बैठे। इसमें मूल गलती उन वामपंथियों की है जिन्हें भारतीय संस्कृति और संस्कारों का विरोध करके आधुनिकता के नाम पर नग्नता को अपनाने में ज्यादा आनंद आता है। बिना मनुस्मृति को पढ़े उसका विरोध करने वाले लोगों की नकारात्मक सोच ही आज हमें इस स्थिति में ले आई है। ऐसा नहीं है कि मैंने सभी भारतीय संस्कृति के आधारभूत ग्रंथों का पूर्ण अध्ययन कर लिया है लेकिन थोड़ा बहुत अध्ययन निरंतर चलता रहता है।

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति नु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा।। (मनु स्मृति 3-57)


मनुस्मृति की इस सूक्ति का अर्थ है कि जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। किन्तु जहां उन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता ही रहता है।

नारी के प्रति ऐसा सम्मान रखने वाली संस्कृति की वर्तमान स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि इस देश का प्रगतिशील और आधुनिक नागरिक फुटपाथ पर पड़ी नग्न भिखारिन का तन ढकने के लिए तो एक कपड़े का टुकड़ा तक नहीं दे सकता पर किसी बिस्तर पर स्त्री को निर्वस्त्र करने के लिए हजारों रुपए लुटा देता है। मैं हमेशा से कहता आया हूं कि किसी भी व्यक्ति, विचार अथवा ग्रंथ की अंधानुभक्ति उचित नहीं, लेकिन यदि कहीं कुछ अच्छा है तो उसे स्वीकार करने में क्या समस्या है? जो बुरा है उसे अस्वीकार करिए और जो अच्छा है उसे तो स्वीकार करिए। मैं मानता हूं कि आज इस देश में बहुत से स्थान ऐसे हैं जहां पर स्त्रियों को पुरुषों के समतुल्य नहीं माना जाता, बहुत से स्थान ऐसे हैं जहां स्त्रियों को शिक्षा नहीं लेने दी जाती, बहुत से स्थान ऐसे हैं जहां स्त्रियों को जींस पहनने तक से रोका जाता है लेकिन यह इस देश की संस्कृति का मूल चरित्र नहीं है और ना ही इन सबसे छुटकारा पाने का वैकल्पिक रास्ता यह है कि आप पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करते हुए स्त्रियों की स्वतंत्रता के नाम पर नग्नता के हिमायती बन जाएं। हमारे वामपंथी मित्र इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं होते कि इस संस्कृति में महिलाओं को कभी बराबरी का स्थान दिया गया।

आज अपने इस लेख के माध्यम से मैं उन तथाकथित आधुनिकतावादी शक्तियों को प्रमाण के साथ यह बताऊंगा कि इस संस्कृति में महिलाओं को पुरुषों के समतुल्य नहीं अपितु पुरुषों से ऊपर माना गया है।

सर्वप्रथम बात करते हैं स्त्री शिक्षा की। पाश्चात्य संस्कृति से आयातित फर्जी आधुनिकतावादी शक्तियों का तर्क रहता है कि इस देश में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी जबकि सत्य यह है कि वैदिक काल में स्त्री शिक्षा का पर्याप्त प्रचार था। गार्गी, मैत्रेयी आदि स्त्रियों ने शास्त्रार्थ में पुरुषों को पराजित किया था, इससे स्पष्ट है कि महिलाओं को अध्ययन हेतु उदारतापूर्वक प्रोत्साहित किया जाता था। अध्ययन कार्य में महिलाएं, पुरुषों के समान ही दक्षता प्राप्त करती थीं। काव्य, संगीत, नृत्य तथा अभिनय आदि ललित कलाओं में वे बढ़-चढ़कर ज्ञानार्जन करती थीं।

इतना ही नहीं, महिलाएं अपने पति के साथ युद्ध में भी जाती थीं तथा उनके रथों का संचालन करती थीं। पति के साथ युद्ध में जाने वाली विश्चला, नमुचि की महिला सेना, श्रीराम की मां कैकेयी द्वारा दशरथ के रथ का संचालन करना और अपने बच्चे को अपने शरीर से बांधकर अंग्रेजों से युद्ध करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को कैसे नकारा जा सकता है यह मेरी समझ से परे है। इतने उदाहरण होने के बावजूद भी जब कोई कहता है कि इस देश में महिलाओं को कभी अधिकार नहीं प्राप्त थे तो उसकी अज्ञानता पर मुस्कराने के अतरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं दिखाई देता।

वहीं जिस पाश्चात्य संस्कृति को स्त्रियों के लिए वरदान के रूप में प्रदर्शित करने का प्रयास किया जा रहा है उसके बारे में थोड़ा सा जान लेते हैं। पहली बार महिला दिवस अमेरिका में 28 फरवरी 1909 को एक सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर मनाया गया था। आपको जानकार हैरानी होगी कि इसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलवाना था क्योंकि उस समय अधिकतर देशों में महिलाएं वोट के अधिकार से वंचित थीं। लगभग दो सौ वर्ष पहले जब पश्चिम में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई तो अधिक उत्पादन हेतु महिलाओं को जबरदस्ती घरों से निकाल कर फैक्ट्रियों में काम पर लगा दिया गया। शिक्षा के अभाव में महिलाएं यह अत्याचार चुपचाप सहने को मजबूर थीं। पुरुषों के समान मेहनत करने के बावजूद उन्हें पुरुषों के मुकाबले आधा वेतन ही दिया जाता था।

आज के दौर में भौतिक रूप से सबसे ताकतवर देश अमेरिका 1776 में आजाद हुआ और आपको जानकर हैरानी होगी कि वहां की महिलाओं को लगभग 150 साल बाद 1920 में मतदान करने का अधिकार मिला। ब्रिटेन की बात करें तो जिस दौर में (1928) उस देश ने महिलाओं को मतदान करने के लायक समझा उससे कई साल पहले रानी दुर्गावती, रानी चेन्नम्मा, रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हज़रत महल जैसी वीरांगनाएं जो शौर्य गढ़ रही थीं उसके सामने पूरे यूरोप की तथाकथित आधुनिकता पानी भरती नजर आती है।

ऐसा नहीं था कि यूरोप की महिलाएं मात्र वोटिंग से ही वंचित थीं अपितु यदि वहां की वास्तविक स्थिति के बारे में आप सुनेंगे तो हैरान हो जाएंगे। यूरोप के देशों में महिलाओं को बैंक अकाउंट खोलने का अधिकार नहीं था, वहां की महिलाओं की अदालत में गवाही नहीं मानी जाती थी हालांकि कुछ समय के बाद अदालतों में तीन महिलाओं की गवाही एक पुरुष के बराबर मानी जाने लगी। अब एक बार जरा धरती के दूसरे हिस्से यानी सउदी अरब की बात कर लें। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सउदी अरब में आज भी पति की इजाजत के बिना महिलाएं बैंक अकाउंट नहीं खुलवा सकतीं और अविवाहित महिलाएं तो अकाउंट खोल ही नहीं सकतीं। इस बारे में उस देश का सांस्कृतिक तर्क है कि अकेली महिला के पास पैसा होगा तो वह गुनाह के रास्ते पर निकल जाएगी। भारत में महिलाएं कहती हैं कि हम लड़कों की तरह किसी भी समय कहीं भी क्यों नहीं जा सकते? लेकिन साउदी में महिला यदि घर से बाहर निकल रही है, तो उसके साथ किसी पुरुष रिश्तेदार का होना अनिवार्य है। अकेले निकलने पर उसे हिरासत में ले लिया जाता है। कट्टरपंथियों और धार्मिक रिवाजों के अनुसार अगर महिला अकेले कहीं जाती है तो उसके बदचलन होने की संभावना रहती है। कुछ समय पहले की ही बात है, सउदी में एक युवती के साथ गैंगरेप हुआ लेकिन वह उस समय अपने पुरुष रिश्तेदार के साथ नहीं थी इसलिए सजा भी उसे ही मिली। उसे रेप करने वालों से ज्यादा कोड़े पड़े। ऐसे सैकड़ों कानून आज भी सउदी अरब के हिस्से में आते हैं।

पश्चिम में महिलाओं की स्थिति का कारण वहां की संस्कृति है। प्लैटो (जिसके बारे में कहा जाता है कि the whole european culture is the footnote of plato) ने महिलाओं को मेज और कुर्सी की तरह निर्जीव वस्तु माना था और हमारी इस भव्य संस्कृति में अर्धनारीश्वर स्वरूप को पूर्ण माना गया है। समानता का भाव ऐसा कि आज भी बहुत से मंदिरों में तब तक घुसने नहीं दिया जाता जब तक कि आपकी पत्नी आपके साथ ना हो।

दोस्तो, हमें अमेरिका या सउदी नहीं बनना, हमें भारत बनना है। यदि हमने एक बार सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सोचा तो विश्वास करिए भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होने से कोई नहीं रोक पाएगा। हमारे समाज में जो भी कुरीतियां हैं उन्हें दूर करने के लिए अपना तरीका निकालेंगे। अपनी कुरीतियों को दूर करने के लिए यदि हम दूसरों का अंधानुकरण करेंगे तो तय है कि दिग्भ्रमित होकर फंस जाएंगे। हमें महिलाओं को अपने मन से सम्मान देना होगा। हमें यह समझना होगा कि आखिर इस संस्कृति में क्यों सीता-राम, राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण, गौरी-गणेश कहा जाता है। यदि हमारा समाज पुरुष प्रधान होता तो क्या सीता से पहले श्रीराम का नाम नहीं आता? हममें बुराइयां थी नहीं, आई हैं और यह हमारा दायित्व है कि इन्हें दूर करने के लिए अपने हृदय से स्त्रियों का सम्मान करें। आधुनिकता के नाम पर नग्नता का अनुसरण ना करें। पाश्चात्य तकनीक अपनाएं, संस्कृति नहीं। महिलाओं को अपने बराबर नहीं अपने से ऊपर मानें क्योंकि अगर वे नहीं होंगी तो….

पुरुष भाइयों से निवेदन है कि विश्व महिला दिवस पर किसी लड़की अथवा महिला को तब तक शुभकामनाएं ना दीजिएगा जब तक अपने मन में स्त्रियों के लिए सम्मान तथा श्रृद्धाभाव न जागृत हो जाए। कहीं ऐसा ना हो कि किसी महिला को आप एक ओर तो विश करें लेकिन मन में उसके चरित्र को लेकर शंकाएं हों। महिला दिवस की बधाई और शुभकामनाएं तब दीजिएगा जब आपके मन में अपने बेटे और बेटी में वैचारिक स्तर पर कोई अन्तर ना हो, जब अपनी बहन को भी वे सभी अधिकार देने में सक्षम होना जो आपको मिले हैं, जब अपनी फीमेल कॉलीग को सम्मान की नजरों से देखना सीख जाएं, जब लड़कियों को एक ‘ऑप्शन’ के रूप में लेना बंद कर दीजिएगा। वहीं बहनों से निवेदन है कि आधुनिकता का पैमाना नग्नता को न मानें, स्वतंत्रता का पैमाना अश्लीलता को न मानें और पश्चिम का अंधानुकरण न करें। वैचारिक स्वतंत्रता आपका अधिकार है लेकिन यदि आपने सदाचार, त्याग और संयम वाली इस संस्कृति की भव्यता को नकारा तो इस देश की पूज्या नारी, भोग्या का रूप ले लेगी।

Saturday 5 March 2016

'भारत में आजादी' के मायने और वामपंथियों का 'खेल'

देश की संवैधानिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले को इसी व्यवस्था ने आज एक मौका और दिया कि वह 'आजादी' के अर्थ को समझ सके। हिरासत से छूटने के बाद कन्हैया का एक बदला हुआ रूप देखने को मिला। उसके भाषण को सुनकर ऐसा लगा जैसे अपनी मूल विचारधारा से कहीं भटक सा गया है। हालांकि उसके इस भटकाव से मुझे खुशी हुई लेकिन मैं फिर भी कन्हैया कुमार को लेकर कुछ लिखने की इच्छा हुई।

आज कन्हैया ने अपनी विचारधारा को स्पष्ट करते हुए कहा कि हम पेटेंट के खिलाफ हैं, अखंड भारत किसी का पेटेंट नहीं, हम कश्मीर को भारत का अंग मानते हैं। इस बात से मुझे कोई आपत्ति नहीं। मैं भी यही मानता हूं, लेकिन साथ ही मैं कन्हैया से पूछना चाहता हूं कि जब वह जेल में था उस दौरान उसके विचार परिवार के समर्थकों ने खुलेआम यह लिखना और बोलना शुरू कर दिया था कि कश्मीर में जनमत संग्रह करा देना चाहिए, कश्मीर को आजाद कर देना चाहिए। ऐसा कहने वालों में सिर्फ कन्हैया की विचारधारा के राजनीतिक समर्थक ही नहीं थे बल्कि उनके साथ-साथ देश की प्रबुद्ध माडिया के साथी भी थे। जिनका तर्क था कि आंबेडकर ने भी तो कश्मीर के विषय में 'ऐसा' कहा था।

कन्हैया ने कहा कि देश की सरकार एक पार्टी की सरकार बन गई है, एक दफ्तर की सरकार बन गई है। उनको यह याद दिलाना है कि आप देश के पीएम हैं, शिक्षा मंत्री हैं। कन्हैया ने  साफ किया कि पीएम मोदी से उसका मतभेद है, मनभेद नहीं है। यहां तक बात बहुत अच्छी थी। मतभेद बुद्दिजीवियों के बीच होते हैं, कन्हैया भी एक अच्छा बुद्धिजीवी है, एक नामी संस्थान में पढ़ रहा है, देश की राजधानी में रह रहा है और निसंदेह पढ़ाई भी की होगी। लेकिन मेरा सवाल यह है कि अगर आप मात्र मतभेद रखते हैं तो यदि देश की सरकार एक पार्टी की सरकार बन गई है और आपके मत को स्वीकार नहीं किया जा रहा है तो क्या आप देश की जनता के प्रेम और विश्वास द्वारा दिए गए पुरस्कारों को लौटाने की शुरुआत कर दोगे? यदि आप वास्तव में बुद्धिजीवी हो तो सर्वप्रथम देश की जनता के मन में विश्वास पैदा करो और अपने मत को लोकतंत्रिक मंदिर यानि संसद में प्रतिस्थापित करो।

कन्हैया ने कहा कि देश की न्याय प्रक्रिया में जेएनयू को भरोसा है। कन्हैया ने कहा, 'संविधान विडियो नहीं है, जिसे बदल दोगे। संविधान एक दस्तावेज है। इसे देश की महिलाओं, दलित, किसानों, मजदूरों ने आजादी के आंदोलन के अनुभवों से सींच कर बनाया है। संविधान की प्रस्तावना दुनिया का एक बेहतरीन दस्तावेज है। जो संविधान के साथ खिलवाड़ कर रहा है उन्हें नकारना है। समानता, भाईचारा, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद इन आदर्शों के लिए लड़ना है।' कोई समस्या नहीं है मुझे कन्हैया के इस स्टैंड के साथ। बहुत अच्छी बात है। लेकिन कन्हैया साहब मैंनें भी थोड़ा बहुत भगत सिंह को पढ़ा है लेकिन साथ ही समझने की भी कोशिश की है। भगत सिंह का इशारा उस व्यवस्था की ओर था जो अंग्रेज चला रहे थे। और मुझे इस बात को मानने में कोई संकोच नहीं है कि इस देश की वर्तमान व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा उसी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। मैं भी मानता हूं कि व्यवस्था में परिवर्तन चाहिए। जब तक व्यवस्था ही नहीं बदलेगी तब तक समानता, सद्भाव जैसे विषय समाज में स्थापित हो ही नहीं सकते। जातिवाद से आजादी मुझे भी चाहिए यद्यपि इस देश को जातिवाद से आजादी चाहिए और इस आजादी को पाने के लिए हमें संविधान में परिवर्तन करना ही होगा लेकिन उससे पहले हमें अपने विचारों में परिवर्तन करना होगा, आपको अपने विचारों में परिवर्तन करना होगा। आपको यह तय करना होगा कि देश में यदि कोई छात्र व्यवस्था से परेशान होकर आत्महत्या करता है तो कुर्तकों के सहारे उसे जातिवादी जंजीरों में जकड़ कर 'दलित' न बनाएं बल्कि एक मेधावी छात्र ने ऐसा कदम क्यों उठाया उस पर चिंतन करें और यदि आवश्यक हो तो व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन करें। हम आपके साथ हैं लेकिन यह तब तक नहीं हो सकता जब तक आप अपना दोहरा चरित्र ना छोड़ दें।

कन्हैया ने कहा, 'जेएनयू वर्तमान में लड़ रहा है भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए। देश को बताना चाहते हैं कि आप जब टैक्स देते हैं उसकी सब्सिडी से हम यहां पढ़ते हैं। आपको आश्वस्त करना चाहते हैं कि यहां के स्टूडेंट्स देशद्रोही नहीं हो सकते।' मुझे भी यही अपेक्षा है लेकिन जब देखता हूं कि उसी जेएनयू में उमर खालिद जैसे लोग भी पढ़ते हैं, जब देखता हूं कि उस विश्वविद्यालय में ऐसे लोग भी पढ़ते हैं जो एक आतंकी अफजल की सजा को न्यायिक हत्या बताते हैं तो मुझे लगता कि हमारा पैसा किसी गलत जगह पर जा रहा है। और कन्हैया साहब, आप कितना भी कह लें कि आप संविधान भक्त हो गए लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आप अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए ऐसा कर रहे हो। इसमें भी कोई बुराई नहीं है, राजनीति करो लेकिन देश के साथ, देश के विरोध में जाकर करोगे तो उसे देश स्वीकार नहीं करेगा। मुझे खुशी है कि एक रंग वाले झंडे की 'लाल गुलामी' को तोड़कर आज तुम्हारे साथी तिरंगे को भी साथ लेकर खड़े थे।  

कन्हैया ने कहा, 'इतना भी फर्क नहीं समझे कि आरोपी और आरोप सिद्ध में क्या फर्क है। सीधे आतंकवादी बना दिया। हम भी आप जैसे किसी मां-बाप के बच्चे हैं। कोई आतंकवादी नहीं हैं। इसलिए हमें गलत मत समझिए। हक की लड़ाई लड़ते हैं यही अपराध है। अगर आप गलत मानेंगे तो लड़ाई बंद कर देंगे। सरकार गलत कहेगी तो और लड़ेंगे।' बहुत अच्छी बात है। सत्ता को निरंकुश नहीं होने देना चाहिए, आलोचना होनी चाहिए लेकिन कन्हैया यदि विरोध और आलोचना के अंतर को समझने की कोशिश करोगे साथ ही अगर सकारात्मकता और नकारात्मकता के विचारों से बाहर निकलोगे तब जानोगे हक की लड़ाई क्या होती है। जल-जंगल-जमीन के नाम पर किसी सीआरपीएफ जवान की हत्या कर देना अगर हक की लड़ाई है तो मैं ऐसी लड़ाई लड़ने वालों को आतंकवादी से कम नहीं मानता। आतंकवादियों को मारने समय शायद सैनिक न सोचता हो लेकिन एक नक्सली को मारते समय जरूर सोचता होगा। कन्हैया तुमको क्या लगता है कि जब सैनिक की किसी नक्सली के साथ मुठभेड़ होती होगी तो क्या वह निर्ममता से तत्काल उस नक्सली को मारने के लिए तैयार हो जाता होगा। नहीं, उसके हाथ एक बार जरूर कांपते हैं, एक बार उसके मन में तो यह जरूर आता है कि ये लोग यह सब छोड़कर शांति के साथ मिल-जुल कर क्यों नहीं रहते लेकिन नक्सली, पूरी तरह से आतंकवादी कृत्यों से सुसज्जित बस उद्देश्य का अंतर रहता है।

कन्हैया ने कहा, 'मेरा आदर्श अफजल गुरु नहीं, आज मेरा आदर्श रोहित वेमुला है।' अच्छी बात है कि आपका आदर्श रोहित है लेकिन रोहित से पहले आपका आदर्श कौन था? क्या आपके समर्थकों ने कभी अफजल का समर्थन नहीं किया। आज आप कहने लगे कि हर घर से रोहित निकलेगा, बिलकुल निकलना चाहिए लेकिन क्या आप कुछ समय पहले हर घर से अफजल को नहीं निकाल रहे थे।

कन्हैया ने कहा, 'हम अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा जानते हैं। हम आजादी का मतलब जानते हैं। इसीलिए देश से नहीं बल्कि देश में आजादी चाहते हैं।' कन्हैया जी इस देश में आपको कौन सी आजादी नहीं मिली है? आप शायद स्वच्छंदता को स्वतंत्रता मान बैठे हैं। आपको कोई संघ का स्वयंसेवक बनाने नहीं आ रहा, आपको कोई जबरदस्ती बीजेपी के पक्ष में मतदान करने को नहीं कह रहा, आपको कोई जबरदस्ती मनुवादी नहीं बना रहा, सामंतवाद, साम्राज्यवाद यहां है नहीं, कर्म आधारित व्यवस्था है, जो जितनी मेहनत करेगा उसे उतना ही मिलेगा हालांकि इस व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए परंतु फिर भी आवश्यकता के अनुरूप आजादी मिली हुई है। हमें पता है देश में बहुत सी कुरीतियां हैं लेकिन उनको समाप्त ना ही तुम अकेले कर सकते हो और ना ही मैं। एक साथ मिलकर उन्हें दूर करने की कोशिश करो लेकिन अगर समाज बनाने की ही ठानी है तो फिर अपने उद्देश्य में राजनीति मत करो। अगर तुम भारत में ऐसी आजादी चाहते हो कि तुम एक आतंकी की सजा के विरोध में सभाएं करो, तुम नक्सलियों द्वारा मारे गए शहीदों की चिताग्नि ठंडी होने से पहले उनकी हत्या का जश्न मनाना शुरू कर दो, तुम इस देश का अलग इतिहास बनाकर लोगों को बताओ और अगर कोई सही इतिहास बताने की कोशिश करे तो उसे भगवाकरण का नाम दे दो तो यह नहीं चलेगा। अगर तुम भारत में ऐसी आजादी चाहते हो तो बेहतर होगा कि तुम भारत से ही आजादी ले लो। इस देश के शौर्यपूर्ण इतिहास और संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। इस देश को रंगों से ढकने की जरूरत नहीं है। भगवा भी इस देश का है और लाल-हरा भी, उसे पूजा पद्धतियों से जोड़कर, उसे राजनीतिक विचारधाराओं से जोड़कर, उसे संप्रदायों से जोड़कर समाज के सामने प्रदर्शित करने से मात्र देश के टुकड़े होंगे और उन टुकड़ों में कहीं तुम्हारे अपने ही दूर ना हो जाएं इस बारे में भी सोच लो और अगर इस दर्द को व्यवहारिक रूप से समझना है तो कभी जाकर उनके पास बैठो जिनको कश्मीर से भगा दिया गया था या फिर उनके पास जिनको लाहौर से भगा दिया गया था।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...