Monday 27 June 2016

गलत प्रस्तुति की वजह से 33 करोड़ हुए '33 कोटि' देवता

आज अगर देश की सबसे बड़ी समस्या को समझने की कोशिश करें तो साफ तौर वह धार्मिक अज्ञानता है। इस धार्मिक अज्ञानता के कारण वे लोग हैं जो कालांतर में विभिन्न धर्म की एकछत्र ठेकेदारी करते रहे। इसी धार्मिक अज्ञानता के कारण चंद लोगों ने जिहाद जैसे सकारात्मक शब्द को नकारात्मकता की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया तो वहीं दूसरी ओर उसी श्रेणी के कुछ लोगों ने सनातन को उसकी मूल अवधारणा से विरक्त कर दिया। जिन उद्देश्यों के साथ विभिन्न धार्मिक ग्रंथों की रचना की गई थी, वे उद्देश्य अज्ञानता और अकर्मण्यता की भेंट चढ़ गए। अपने-अपने तरीके से धर्म के ठेकेदारों ने उन विषयों को समाज के सामने रखा जो समाज को सकारात्मक दिशा देने के लिए हमारे पूर्वजों ने गहन शोध और चिंतन के बाद प्रतिस्थापित किए थे। अर्थ का अनर्थ करने के कारण ही आज स्थिति यह हो गई है कि समाज में एक वर्ग ऐसा तैयार हो गया है जो धर्म को ‘अफीम’ बताने लगा है। हम उस वर्ग से तार्किक संवाद नहीं कर पाते क्योंकि हमारे समक्ष हमारे ही धर्म (रिलिजन) को जिस रूप में प्रदर्शित किया गया है, वह रूप कई बुराइयों से या यूं कहें कि गलतफहमियों से भरा हुआ है। इसी तरह के लोगों में से कोई मुल्ला यह कहता है कि इस्लाम में कद्दू की तौहीन करना बहुत बड़ा गुनाह है और उसकी सजा कत्ल है, (पढ़ें: कद्दू न खाने पर क़त्ल का फ़रमान, भला यह कैसा इस्लाम?) तो दूसरी ओर कोई स्वरूपानंद सरस्वती यह कहने लगता है कि महिलाओं द्वारा शनिदेव की पूजा करने से रेप जैसी घटनाएं बढ़ जाएंगी।
आज सनातन धर्म (जिसे वर्तमान समय में हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है) की एक ऐसी ही गलत रूप से प्रस्तुत अवधारणा के विषय पर बात करने के लिए इस ब्लॉग को लिख रहा हूं। समाज में कहा जाता है कि सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं। सबसे पहले तो इस बात के पीछे का कारण समझने की कोशिश करते हैं। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की गणना की गई होगी। लेकिन यहां तो हर रोज एक नए देवता का मंदिर बन जाता है, ऐसे में यह संख्या स्थायी क्यों है? यह मेरी समझ से परे है। कुछ विद्वानों का मत है कि जब यह परिकल्पना दी गई होगी उस समय दुनिया की जनसंख्या 33 करोड़ रही होगी। अत: सभी को देवी-देवता मान लिया गया। यदि इस तर्क को माना जाए तो आज विश्व की जनसंख्या 7 अरब 50 करोड़ के करीब है। ऐसे में आज तो यह कहना चाहिए कि कुल मिलाकर अब 7.5 अरब देवी-देवता हैं। बात यहीं पर खत्म नहीं होती। इसमें भी एक पेंच है। पेंच यह है कि सनातन परंपरा तो प्रत्येक जीव और प्रत्येक कण-कण में ईश्वर का वास मानती है तो फिर उनकी गणना क्यों नहीं की जाती?
चलिए, अब समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर यह 33 करोड़ वाला ‘खेल’ क्या है? सत्य यह है कि किसी भी सनातन ग्रंथ में 33 करोड़ देवताओं का जिक्र नहीं हुआ है। ग्रंथों में ’33 कोटि’ शब्द का प्रयोग हुआ है। करोड़ के साथ-साथ कोटि का एक अर्थ ‘प्रकार’ भी होता है। इसे यदि आसान शब्दों में श्रेणी या कैटिगरी कहें तो गलत न होगा। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसी ‘कोटि’ को करोड़ बना दिया। शतपथ ब्राह्मण नामक ग्रंथ में देवताओं की कुल संख्या 33 बताई गई है। यह संख्या यूं ही नहीं बताई गई है बल्कि संख्या के साथ इस देवताओं के विषय में भी बताया गया है। आगे बढ़ने से पहले यह समझ लेते हैं कि देवता आखिर माना किसे गया है? निरुक्त (7-15) में कहा गया है: देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा घोतनाद्वा, घुस्थानो भवतीति व।। अर्थात अर्थात दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते है अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। दीपन कहते है प्रकाश करने को, धोतन कहते है सत्योपदेश को। यानी जो अपनी कोई भी चीज दान करता है सामान्य अर्थों में वह देवता कहलाता है।
शतपथ ब्राह्मण (11.6.3.5) में जिन 33 देवताओं की चर्चा की गई है उनमें 8 वसु हैं, 11 रुद्र है, 12 आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति शामिल हैं। उनमें से 8 वसु देवों में अग्नि , पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, घौ:, चन्द्रमा और नक्षत्र शामिल हैं। इनके नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते है और ये ही सबके निवास करने के स्थान हैं। इनमें 11 रूद्र देवों में प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, कृकल, देवदत्त, धनज्जय और अंतिम जीवात्मा शामिल हैं। ये देव (तत्व) जब इस शरीर से निकल जाते हैं तब मरण होने से सभी सम्बन्धी रोते हैं। वे निकलते हुए अन्य लोगों को रुलाते हैं , इस कारण इनका नाम रूद्र है।
इसी प्रकार आदित्य 12 महीनों को कहते है, क्योंकि वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है, इसी से इनका नाम आदित्य है। ऐसे ही इंद्र नाम बिजली का है, क्योंकि वह उत्तम ऐश्वर्य की विधा का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है  क्योंकि उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है। ये सब मिलकर अपने दिव्यगुणों से त्रिदेव कहलाते हैं। इनमें से किसी को भी उपासना के योग्य नहीं माना गया है, किन्तु व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सभी देव माने गए हैं। इसी संकल्पना से संपूर्ण जगत को बनाने वाले ब्रह्मा, सर्वत्र व्यापक होने वाले विष्णु और दुष्टों को दण्ड दे कर रुलाने वाले रूद्र कहे गए हैं।

Tuesday 21 June 2016

...अब किसी घायल को अनदेखा करके नहीं जाऊंगा

मेरी फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में रोहित पांडे नामक एक पत्रकार मित्र जुड़े हुए हैं। मेरा और रोहित का परिचय पिछले तीन सालों से है। रोहित से मेरी सामान्य मित्रता थी, 4-5 महीनों में बात हो जाया करती थी, कभी अगर मेरा लखनऊ जाना हुआ या उनका दिल्ली आना हुआ तो मिलना हो जाता था। हमारे बीच सामान्य तौर पर राजनीतिक चर्चाएं हुआ करती थीं। उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में मैं बहुत अधिक नहीं जानता था लेकिन फादर्स डे (19 जून) के मौके पर विभिन्न समाचार पत्रों तथा वेबसाइट्स के माध्यम से उनके बारे में जो कुछ पता चला उसने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं उन पर गर्व करूं। चलिए तो अब आपको बताता हूं रोहित की कहानी…
कल शाम रोहित से इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा, ‘विश्व गौरव भाई, इस जीवन में बस एक ही लक्ष्य है कि लोगों को जीवन का महत्व समझ में आ जाए। मैंने अपने पिता के बिना अब तक का जीवन जिस पीड़ा के साथ जिया है, मैं नहीं चाहता कि कोई और उस पीड़ा को झेले। अपने स्तर पर जितना कर सकता हूं कर रहा हूं। शायद मेरे काम से किसी के घर की खुशियां बची रहें।’ फादर्स डे पर रोहित ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर कुछ लिखा था। उनकी भावनाओं को उन्हीं के शब्दों में आप सभी से शेयर कर रहा हूं-उत्तर प्रदेश स्थित बलरामपुर के रहने वाले रोहित पांडे के पिता जी का देहांत 28 नवंबर 2002 को एक सड़क दुर्घटना में हो गया था। उस वक्त रोहित की उम्र मात्र 12 वर्ष थी। 2009 में रोहित का जाना उस स्थान पर हुआ जहां उनके पिता की मृत्यु हुई थी। वहां पर रोहित को पता लगा कि ऐक्सिडेंट के बाद उनके पिता 45 मिनट तक सड़क पर ही पड़े रहे लेकिन किसी ने भी उन्हें अस्पताल तक नहीं पहुंचाया। समय रहते इलाज न मिल पाने के कारण उनके पिता ने दम तोड़ दिया। ऐसे हादसे के बाद जब कोई भी सामान्य व्यक्ति पूरी तरह से टूट जाता है, रोहित ने एक संकल्प लिया कि वह सड़क हादसे में घायल हुए लोगों के जीवन को बचाने का हरसंभव प्रयास करेंगे। 2009 से आज तक रोहित अपने उस संकल्प के साथ ही जीवन यापन कर रहे हैं। रिपोर्टिंग के दौरान यदि कहीं पर कोई भी व्यक्ति उन्हें घायल अवस्था में मिल जाता है तो वह तत्काल उसे हॉस्पिटल ले जाते हैं। अब तक रोहित 35 से अधिक लोगों का जीवन बचा चुके हैं। कई बार तो वह अपने घर के काम के लिए दिए गए पैसे को भी घायलों के इलाज में लगा चुके हैं।
प्रणाम पिता जी, वैसे तो यार हर दिन तुम्हारी याद आती है, अमा तुम थे भी वैसे कि याद आओ। पान खाते, मुस्कुराते, राजदूत से फड़फड़ाते हुए, वैसे कुछ दिन पहले बॉक्सर भी तो ले ली थी, है आज भी। मिलना यार पापा, लेकिन जाना मत कुछ काम लेना है तुमसे। और सुनो मैं भी सबसे मुस्कुराते हुए ही मिलता हूं, तुमसे ही सीखा था।
पापा कब आओगे?
जाने कब से ढूंढ रहा हूं
अपनों में और सपनों में ,
इन पलकों की छांव तले
क्या एक झलक ना दिखलाओगे ?
सच बोलो ना पापा मुझसे,
पापा कब आओगे ?
आपको याद करके मां 
हर दिन है रोया करतीं,
आपकी यादों में वह 
हर पल है खोया करतीं ,
यादों के इन झरोखों से बाहर
क्या आप कभी ना आओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे ,
पापा कब आओगे?
आपके बिना सूना है घर-आंगन ,
आपके बिना सूना है यह जीवन ,
क्या अपनी आवाज इस घर-आंगन में
फिर से नहीं सुनाओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे,
पापा कब आओगे?
क्या रूठे हो पापा मुझसे
या खुशियां हमसे रूठ गई हैं,
इन रूठी खुशियों को क्या
फिर से नहीं मनाओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे,
पापा कब आओगे ?
जानता हूं जीवन की इस सच्चाई को
कि आप कभी ना आओगे,
फिर भी आंखों में छिपे इस इंतज़ार को
क्या कभी ना ख़त्म करवाओगे?
सच बोलो ना पापा मुझसे ,
पापा कब आओगे?
भले ही आपको रोहित की कहानी कुछ खास न लगी हो लेकिन मैंने तय कर लिया है कि मैं भी उनकी तरह ही सड़क पर घायल पड़े किसी भी व्यक्ति को अनदेखा करके नहीं जाऊंगा। क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपकी छोटी सी मदद से किसी परिवार की खुशियां बची रहें? सोचिएगा जरूर और अगर उचित लगे तो कुछ ऐसा ही करिएगा भी।

Thursday 16 June 2016

क्या सच में 'भगवान' नहीं है? जवाब है यहां

कल फेसबुक पर एक पोस्ट देखी। इस ब्लॉग को पढ़ने से पहले यदि आप यहां क्लिक करके उस पोस्ट को पढ़ लेंगे तो इस ब्लॉग को लिखने का उद्देश्य समझ में आ जाएगा। वैसे उस फेसबुक पोस्ट को लिखने वाले महाशय का सार यह था कि 'भगवान' जैसी कोई शक्ति इस सृष्टि में नहीं है। अपने इस विषय को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने कुछ प्रश्न भी उठाए थे। तो मैंने सोचा कि उनकी जिज्ञासाओं का समाधान ब्लॉग के माध्यम से करूं। एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूं कि मेरे 'भगवान' कोई क्षीर सागर में शेषनाग पर लेटे हुए पुरुष नहीं हैं बल्कि मेरे लिए भगवान का अर्थ है सकारात्मक ऊर्जा का एक अथाह सागर। चलिए, अब अपने विषय पर आते हैं।

यदि मैं यह मानता हूं कि इस दुनिया में अच्छाई है तो मुझे यह भी मानना होगा कि इस दुनिया में बुराई का भी अस्तित्व है। बहुत सीधा और सामान्य सा अन्तर है कि अच्छाई का प्रतिनिधित्व 'भगवान' और बुराई का प्रतिनिधित्व 'दानव' करते हैं। ये मात्र दो शक्तियां हैं। आगे बढ़ने से पहले एक छोटी सी कहानी है, उसे पढ़ लीजिए।

एक गांव में बहुत पुराना मंदिर हुआ करता था। उस मंदिर में एक वृद्ध पुजारी अपने परिवार के साथ रहता था। वह पुजारी सपरिवार पूरे दिन ईश्वर भक्ति में लीन रहता था। आस-पास के गरीब लोगों को दान में मिले अन्न से भरपेट भोजन कराने के पश्चात बचा हुआ भोजन अपने परिवार के साथ करता था। भगवान पर उसका अटूट विश्वास और श्रद्धा थी। स्वयं के कर्मों से वह संतुष्ट भी था।  एक बार गांव के समीप की नदी में बाढ़ आ गई। गांव के लोग गांव छोड़कर भागने लगे। जब नदी का पानी अपने विकराल रूप को धारण करने लगा तो पुजारी के परिवार के सदस्यों ने पुजारी से कहा कि आप भी हमारे साथ चलिए। लेकिन पुजारी ने यह कहकर मना कर दिया कि मुझे भगवान बचाने आएंगे। एक दिन और बीता। गांव में पानी बढ़ता ही जा रहा था लेकिन पुजारी, मंदिर छोड़ने को तैयार नहीं था। फिर उसी शाम एक गरीब आदमी जिसको वह पुजारी नियमित रूप से भोजन कराता था, पुजारी के पास आया और बोला कि पुजारी जी, हमारे साथ चलिए नहीं तो आज आपकी मृत्यु सुनिश्चित है, क्योंकि आज रात तक पूरा गांव डूब जाएगा। लेकिन पुजारी ने उसे भी यह कहकर मना कर दिया कि तुम जाओ, मुझे मेरे भगवान बचाने आएंगे। पुजारी के जवाब को सुनकर वह आदमी भी वहां से चला गया। रात हुई और पुजारी की मृत्यु हो गई। जब वह पुजारी स्वर्ग में पहुंचा तो उसने भगवान से कहा, 'मैंने तो आजीवन आपकी सेवा की, गरीबों की सेवा की, कभी किसी के साथ गलत नहीं किया तो फिर आप मुझे बचाने क्यों नहीं आए?' पुजारी के इस प्रश्न पर भगवान ने जवाब दिया कि वह व्यक्ति जो मृत्यु से पहले वाली शाम को तुम्हारे पास आया था, वह मैं ही तो था।

वैसे तो यह एक कहानी है लेकिन मेरा एक छोटा सा सवाल है कि इस पूरे घटनाक्रम को आप क्या कहेंगे? आप कुछ भी कहें, मैं तो इसे अन्धभक्ति कहूंगा। यजुर्वेद का सार है 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात् मैं ब्रह्म हूं या आत्मा ही ब्रह्म है यानी जीव ही ब्रह्म (जिसे आप भगवान कह रहे हैं) है। साथ ही सामवेद का कथन है 'तत्वमसि' अर्थात वह तुम हो। ब्रह्म यानी भगवान मैं और आप ही तो हैं। मेरे कुछ वामपंथी परिचित कहते हैं कि राम हुए होंगे लेकिन वह भगवान नहीं मात्र एक चरित्र थे। मुझे इस बात से कोई आपत्ति नहीं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक चरित्र होता है, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विचार होता है। रही बात भगवान की तो भगवान जिसे मैं ईश्वर कहता हूं, उसका सीधी सा अर्थ है सद्चरित्र और दानव का अर्थ है दुश्चरित्र, इस सामान्य सी व्याख्या को समझने में क्या समस्या आती है यह मेरी समझ से परे है।

मेरी समझ के अनुरूप भगवान शब्द की व्याख्या कुछ इस प्रकार है-
भ = भूमि
अ = अग्नि
ग = गगन
वा = वायु
न = नीर

शाब्दिक आधार पर भगवान यानी पंच तत्वों से बना हुआ। हमारा अथवा किसी भी जीव का शरीर भी तो इन्हीं पंच तत्वों से निर्मित है। हम अपने कर्मों के आधार पर सकारात्मता अथवा नकारात्मकता की ओर जाते हैं। यदि सकारात्मकता को आधार बनाया तो कहा जा सकता है कि हम ईश्ववरीय गुणों की ओर जा रहे हैं और अगर नकारात्मकता को आधार बनाया तो उसे दानवी प्रवृत्ति वाली श्रेणी में माना जा सकता है। कर्म ही तो भारतीय संस्कृति का आधार रहा है। और इस कर्म के सिद्धान्त का सबसे बड़ा उदाहरण मेरे आराध्य श्रीराम हैं। जब तक वह अयोध्या में थे तब तक मात्र राजकुमार राम थे और जब वह वनवास से वापस आए तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहलाए। 14 वर्षों के कर्मों के आधार पर ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम बने। अब बात करते हैं उस पोस्ट की जो उस सकारात्मक शक्ति पर  प्रश्नचिन्ह लगाने का प्रयास कर रही है।

उस पोस्ट में लिखा गया कि अगर कण-कण में भगवान हैं तो कण-कण में भ्रष्टाचार क्यों है?
इस सवाल का जवाब यदि वह महाशय खुद से पूछ लेते तो शायद ज्यादा संतुष्टि मिलती। भ्रष्टाचार हम और आप करते हैं और जब तक हम यह करते रहेंगे या इसे स्वीकार करते रहेंगे तब तक नहीं कहा जा सकता कि कण-कण में भगवान हैं। भ्रष्टाचार तो एक नकारात्मक प्रवृत्ति है यानि जिस तथाकथित कण में भ्रष्टाचार है, वहां भगवान नहीं दानव वास करते हैं।

उन्होंने लिखा, 'लोग कहते हैं कि बगैर भगवान की मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता, तो क्या भगवान चोरी भी करवाता है? जब सब कुछ भगवान की मर्जी से होता है तो भगवान बलात्कार भी करवाता होगा ? डकैती भी डलवाता होगा? अगर यह सब भगवान ही करवाता है तो कितना निर्दयी है भगवान!'
बिलकुल सही लिखा है उन्होंने। ऐसे दुष्कर्म करने वाला निश्चित ही घोर निर्दयी है। लेकिन क्या ये कर्म भगवान के हैं। कुतर्क चाहे कुछ भी हो लेकिन जवाब नहीं ही है। क्योंकि इन नकारात्मक कर्मों को कोई सकारात्मक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति आधार कैसे बना सकता है। जो ऐसे कर्म करे वह निश्चित ही दानवी प्रवृत्ति से प्रेरित है।

उन्होंने आगे लिखा, 'लोग कहते हैं कि भगवान गरीबों, मजलूमों, असहायों की रक्षा करता है। तो हिन्दुस्तान की आधे से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने के लिए मजबूर क्यों है? भगवान क्यों नहीं इन्हें अमीर बना देता? दुनिया में हर कहीं असहाय, मजलूम ही प्रताड़ित हो रहा है , भगवान क्यों नहीं इनकी मदद करता?' इसके अलावा भी उन्होंने कई सारे बेतुके प्रश्न उठाए हैं। इन प्रश्नों को पढ़कर ही पता लगता है कि उन्होंने भारतीय साहित्य को पढ़ने की और समझने की जरा सी भी कोशिश नहीं की। भगवान किसी को गरीब या अमीर नहीं बनाता। हमारे कर्म और हमारी व्यवस्था लोगों को अमीर-गरीब बनाती है। एसी कमरे में बैठकर मजलूमों के अधिकार की बातें अपने ऐपल आईफोन से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लिखने से गरीबी नहीं जाएगी। और ना ही इस गरीबी को दूर करने के लिए कोई अवतरित होगा। हमें अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन लाना होगा। सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ कुछ अच्छा करने का प्रयास करना होगा। इसके बाद जिसके साथ अच्छा करें, उससे पूछिएगा कि 'भगवान' जैसी कोई चीज है क्या? तो भले ही वह नास्तिक हो लेकिन उसका जवाब यही होगा, 'मेरे लिए तो भगवान आप ही हो।'

बस स्वयं में भगवान की मूल परिकल्पना को आत्मसात करने का प्रयास करिए, देखिएगा सच में अच्छा लगेगा। आपको भी और जिसके साथ अच्छा करेंगे उसको भी। मुझे लगता है कि 'भगवान' के इस रूप की स्वीकार्यता से किसी तथाकथित वामपंथी को आपत्ति नहीं होगी। और यदि अभी भी आपत्ति है तो विश्वास मानिए आप तर्कशीलता के निम्नतम स्तर पर पहुंच कर कुतर्क को ही तर्क समझने लगे हैं।

Tuesday 14 June 2016

बीजेपी वाले मोदी को 'जुमलेबाज' साबित करके मानेंगे

कुछ दिन पहले काशी (वाराणसी) जाने की योजना बनी। मन काफी उत्साहित था कि अपने देश के प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में जाने का अवसर मिल रहा है। उम्मीद थी कि बनारस की तस्वीर पहले से काफी बेहतर हो गई होगी। मेरे साथ मेरे दो अन्य मित्र भी थे। जब लखनऊ में रहा करता था तो हर 4-5 महीने में बनारस जाना होता था। वहां पर मेरे कुछ रिश्तेदार भी रहते हैं तो इस नाते रुकना भी उनके घर पर ही होता था। लेकिन 3 साल पहले दिल्ली आने के बाद से बनारस जाना नहीं हुआ।
लोकसभा चुनाव के दौरान जब यह पता लगा कि बीजेपी के पीएम प्रत्याशी बनारस से चुनाव लड़ने वाले हैं तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अब बनारस की तस्वीर बदल जाएगी। बनारस और बनारस की संस्कृति को नजदीक से समझने के लिए हमने तय किया कि इस बार किसी रिश्तेदार के घर पर न रुक कर किसी गेस्ट हाऊस में रुकेंगे ताकि किसी तरह की बंदिशें न रहें। रेलवे स्टेशन पर उतरकर ऑटो से ऑनलाइन बुक किए गए गेस्ट हाऊस की ओर जैसे ही मैंने बढ़ना शुरू किया, मेरी उम्मीदें भी टूटने लगीं। मैं जो कुछ भी देख रहा था वह हैरान कर देने वाला था।  स्टेशन से कुछ ही दूरी पर नगर निगम का एक कूड़ाघर था, लेकिन कूड़ा उसके बाहर पड़ा हुआ था। एक गाय उस कूड़े में पड़ी पॉलीथीन खा रही थी लेकिन उसे रोकने वाला कोई नहीं था।
cow
प्रतीकात्मक तस्वीर।
यूपी में वैसे तो इस तरह के दृश्य सामान्य हैं लेकिन जिस पार्टी ने अपने चुनाव में गौ रक्षा को मुद्दा बनाया हो, जो पार्टी गौमांस निषेध के लिए कानून की मांग करती हो और जो पार्टी गाय को मां कहती हो, उस पार्टी के बैनर पर प्रधानमंत्री के सिंहासन पर काबिज हुए व्यक्ति के निर्वाचन क्षेत्र में मैं ऐसे दृश्यों की अपेक्षा नहीं करता था। हालांकि मैं यह नहीं मानता कि इस तरह के दृश्यों के लिए सीधे प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहरा देना ठीक होगा, लेकिन यदि उस क्षेत्र में पार्षद से लेकर मेयर तक सभी उस तथाकथित गौभक्त राजनीतिक दल के हों तो पार्टी की मूल विचारधारा तथा कार्यपद्धति में प्रदर्शित होने वाले अंतर पर एक सवाल तो बनता ही है। गाय को खाने की बात करने वालों को तो यह गौ भक्त पार्टी भारतीय संस्कृति का विरोधी करार देती है लेकिन जहां गाय की मौत को रोक सकती है वहां मूक दर्शक बनकर बैठी है।
खैर, यह एकमात्र विषय नहीं था जिससे काशी में मेरा मन दुखी हुआ। इसके अलावा भी काशी में कुछ ऐसा दिखा जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। मेरा गेस्ट हाउस मणकर्णिका घाट के पास था। जो लोग वहां गए होंगे उनको पता होगा कि उस घाट पर जाने के किए एक पतली सी गली से लगभग 2 किमी पैदल जाना होता है। यह एक ऐसा घाट है जहां पर अंतिम संस्कार की अग्नि कभी ठंडी नहीं होती, पूरे देश से इस घाट पर अपने परिजनों के अंतिम संस्कार के लिए आते हैं।काशी लेकिन इस घाट पर जाने के लिए जो रास्ता है वह इतना बुरा है कि यदि बारिश हो जाए तो वहां से निकलना मुश्किल हो जाएगा। गंगा नदी में आज भी उसी तरह से शव (लाशें) बहकर आती हैं जैसे पहले आती थीं, अगर उनको रोकना संभव नहीं है तो गंगा संरक्षण मंत्रालय जैसी खानापूर्ती करने की क्या आवश्यकता है? दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट जैसे घाटों पर अच्छा काम हुआ है लेकिन क्या बनारस को उसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आधार से दूर ले जाकर मात्र पर्यटन स्थल बनाना है।
काशी की आत्मा गलियों में बसती है, हर रोज कड़ी धूप में महामूरगंज रोड पर 2 किलोमीटर की दूरी तय करने में कम से कम 1 घंटा लगता है। क्या इस समस्या से समाधान की आवश्यकता नहीं है? जब पीएम मोदी जी जन-धन योजना लेकर आए तो मुझे व्यक्तिगत रूप से लगा कि अब हर एक व्यक्ति की पहुंच बैंक तक होगी। जब कोई नकारात्मक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति मुझसे कहता था कि मोदी सरकार ने अब तक कुछ भी अच्छा किया है क्या? तो सबसे पहले मैं स्वच्छ भारत अभियान और जन-धन योजना का ही नाम लेता था क्योंकि मुझे लगता था कि इन दोनों का सीधा फायदा एक गांव में रहने वाले व्यक्ति को होगा। लेकिन आज अपनी काशी यात्रा के बाद मैं यह कह सकता हूं कि यह मेरा भ्रम था। आप कल्पना कर सकते हैं कि काशी, जहां मिनी पीएमओ बना हुआ है वहां पर 13 में से 12 एटीएम कैशलेस पड़े हुए हैं। ऐसे में एक सीधा सा और सामान्य सा सवाल है कि एक गरीब आदमी आखिर क्यों बैंक में अपना अकाउंट खुलवाए।
एक गरीब आदमी हर महीने किसी तरह से 500 रुपए बचाकर अकाउंट में जमा करता है कि अब तो एटीएम कार्ड है, कभी भी निकाल लूंगा, लेकिन जब उसका बेटा बीमार होता है तो उसे अपने 500 रुपए बनारस की सड़कों पर घूमते हुए एटीएम मशीन में कैश चेक करने में खर्च करने पड़ते है। वह सिर्फ 500 रुपए खर्च नहीं कर रहा होता है बल्कि अपने एक महीने की पूरी बचत खर्च कर रहा होता है। यह बात मैं किसी स्वकल्पित उदाहरण स्वरूप नहीं लिख रहा अपितु यह काशी के एक चाय वाले का अनुभव है। शायद मैं उसकी इस बात पर इतनी आसानी से विश्वास नहीं करता लेकिन मैंने खुद ऐसा ही कुछ झेला है तो ऐसे में संभव है कि लोगों के साथ इससे भी अधिक बुरा होता हो।
काशी को मोक्ष की नगरी माना जाता है। मैं यह भी मानता हूं कि देश के प्रधान के पास इतना समय नहीं होता कि वह मात्र अपने निर्वाचन क्षेत्र की चिंता करता रहे लेकिन क्या सांसद प्रतिनिधि, मिनी पीएमओ में काम करने वाले लोगों, मेयर, विधायकों और पार्षदों को इस बात का भान नहीं है कि पूरे विश्व से लोग इस जगह पर घूमने के लिए आते हैं। क्या यहां की व्यवस्था को देखकर उन देशी-विदेशी पर्यटकों के माध्यम से विश्व स्तर पर भारत के पीएम की इच्छा शक्ति के विषय में नकारात्मक संदेश नहीं जाता होगा? मुझे लगता है कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों को इस सवाल पर चिंतन की आवश्यकता है। कहीं उनकी कामचोरी से हमारे पीएम सच में ‘जुमलेबाज’ न साबित हो जाएं।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...