Friday 22 June 2018

पर्दाफाश: देखें, नैशनल चैनल पर बैठकर कैसे झूठ फैलाते हैं रवीश कुमार

रवीश कुमार, अगर आप न्यूज देखते होंगे या सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते होंगे तो आपने यह नाम जरूर सुना होगा। रवीश की एक खास बात है जिसकी वजह से लोग इन्हें या हो बेहद पसंद करते हैं या फिर बुरी तरह से नफरत करते हैं। लेकिन मैं इन्हें ना ही पसंद करता हूं और ना ही नफरत करता हूं। दरअसल में इनकी कथित पत्रकारिता का स्तर मेरे और मूल पत्रकारिता के स्तर से कहीं ऊपर है इसलिए मैं इन्हें इग्नोर करता हूं। शुरुआत में इनकी पत्रकारिता को देखकर लगता था कि यह तो बहुत क्रांतिकारी किस्म के पत्रकार हैं लेकिन जब इन्हें विवेक के साथ समझा तो समझ आया कि यह पत्रकार नहीं बल्कि वामपंथी और कांग्रेसी कॉकटेल के अजेंडे को पत्रकारिता की आड़ में चलाने वाले मात्र एक स्वघोषित बुद्धिजीवी हैं। कभी विक्टिम कार्ड खेलकर तो कभी सोशल मीडिया के कुछ मूर्ख अंधभक्तों की मूर्खता के चलते आरएसएस, बीजेपी सहित पूरी राष्ट्रवादी विचारधारा को कटघरे में खड़ा कर देने वाले रवीश कुमार के मुताबिक देश में कुछ भी हो तो उसके लिए केन्द्र सरकार, पीएम मोदी और आरएसएस जिम्मेदार है। हालांकि कांग्रेस सरकार के दौरान की अगर आप इनकी पत्ररकारिता देखेंगे तो सारी जिम्मेदारी सरकार से हटकर व्यवस्था पर आती जाएगी।

खैर, आप सोच रहे होंगे कि जब मैं रवीश कुमार को इग्नोर करने का दावा करता हूं तो फिर आज उन्हें इतना स्पेस क्यों दे रहा हूं। दरअसल आज मैं आपको उनमें मन में भरी 'कुंठा' को प्रमाणों के साथ आपके सामने रखूंगा कि किस तरह से वह न सिर्फ पत्रकारिता को बदनाम कर रहे हैं बल्कि देश में अराजकता और अविश्वास फैलाने की भी कोशिश कर रहे हैं। 2 दिन पहले एक पत्रकार साथी जो कि पूर्व में फैजाबाद के अवध विश्वविद्यालय के छात्र भी रहे हैं, ने रवीश कुमार का एक विडियो भेजा। सबसे पहले यह विडियो देखिए


शुरुआती खबर के मुताबिक यूपी के फैजाबाद स्थित डॉ. राम मनोहर लोहिया विश्वविद्यालय में 80 प्रतिशत छात्र फेल हो गए हैं। आज इस लेख के द्वारा मैं इस खबर का पूरा सच और रवीश के झूठ का पर्दाफाश करूंगा। साथ ही मैं आपको यह भी बताऊंगा कि आखिर रिजल्ट के नाम पर इन्होंने इतना बड़ा फर्जी हंगामा क्यों किया। क्या वास्तव में सिर्फ जानकारी के अभाव में इन्होंने अवध यूनिवर्सिटी के रिजल्ट पर एक एपिसोड किया या इसके पीछे भी आरएसएस विरोधी कोई हिडन अजेंडा था? रवीश के हर एक वाक्य के पीछे के असल सच के साथ मेरे कुछ सवाल

रवीश कुमार: जिंदगी बर्बाद करने का कारखाना आपने देखा है? भारत में महानगरों से लेकर जिलों में जिंदगी बर्बाद करने का कारखाना चल रहा है, इसे अंग्रेजी में यूनिवर्सिटी और हिंदी में विश्वविद्यालय कहते हैं। उत्तर प्रदेश के डॉ. राम मनोहर लोहिया यूनिवर्सिटी में इस साल बीए, बीकॉम, बीएससी, एमए तमाम फलाना-ढिमका जितना भी सब्जेक्ट होता है, इसके 80% छात्र फेल हो गए हैं। जिस यूनिवर्सिटी में 400000 से अधिक छात्र फिर हो जाएं, वह दुनिया की सबसे बड़ी खबर होनी चाहिए। 

आगे की बात करने से पहले सबसे पहले तो मुझे रवीश की इस बात से घोर आपत्ति है कि भारत के विश्वविद्यालय जिंदगी बर्बाद करने का कारखाना हैं। और मुझे लगता है कि आप में से कोई भी विवेकपूर्ण व्यक्ति इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मैं मानता हूं कि बहुत से विश्वविद्यालयों की व्यवस्था, या वहां की फैकल्टी बहुत अच्छी नहीं है, इसके लिए सरकार को कटघरे में खड़ा भी करना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है 'भारत के सारे विश्वविद्यालय जिंदगी बर्बाद करते हैं' जैसा घटिया स्टेटमेंट एक नैशनल टेलिविजन पर बैठकर दे दिया जाए। अब बात करते हैं आंकड़ों की। रवीश ने कहा कि विश्वविद्यालय के सभी कोर्सों के 80 प्रतिशत छात्र फेल हो गए हैं। जिस दिन रवीश ने यह एपिसोड किया था, उस दिन तक विश्वविद्यालय ने सिर्फ 3 लाख 31 हजार छात्रों का रिजल्ट जारी किया था तो फिर रवीश ने 4 लाख छात्रों के फेल होने की बात कैसे कह दी? 

पत्रकारिता की पढ़ाई के शुरुआती दौर से ही हमें सिखाया जाने लगता है कि पत्रकारिता के दौरान अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को काम के बीच में नहीं आने देना है और तथ्यों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करनी है। साथ ही हमें यह भी सिखाया जाता है कि जब तक अपनी आंख और अपने कान का उपयोग ना हो, तब तक किसी भी सोर्स पर पूरा यकीन न करें। लेकिन यहां पर रवीश ने न सिर्फ तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की बल्कि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते पत्रकारिता को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। इस मामले में वैचारिक प्रतिबद्धता वाला ऐंगल कहां है, वह मैं बाद में बताऊंगा, पहले देखिए असल आंकड़े क्या कहते हैं:

ये हैं असली आंकड़े

100 नंबर लाने का मतलब यह नहीं होता कि पढ़ाई अच्छी हुई
रवीश के मुताबिक, इस रिजल्ट के बाद विश्वविद्यालय इस बात का जश्न मना रहा है कि उसने विडियो कैमरे लगाकर नकल रोक दी। उनके मुतबिक, यह मूर्खता कि हद है कि विश्वविद्यालय इतने छात्रों के फेल होने के बाद इस बात पर खुशी मना रहा है। रवीश जी! विश्वविद्यालय के स्नातक के रिजल्ट की बात करें तो बीए में 72 प्रतिशत, बीकॉम में लगभग 81 प्रतिशत और बीएससी में लगभग 40 प्रतिशत छात्र पास हुए हैं। कुल मिलाकर अगर रिजल्ट की बात करें तो यह रिजल्ट 60 प्रतिशत से ऊपर है, यानी फर्स्ट डिविजन। साइंस का रिजल्ट खराब रहा है  लेकिन उसके लिए विश्वविद्यालय ने ऑपशन्स दे रखे हैं, उनके बारे में आगे बात करेंगे लेकिन रवीश के मुताबिक अगर यह रिजल्ट 100 प्रतिशत होता तो वह मान लेते कि विश्वविद्यालय में बहुत अच्छी पढ़ाई होती है। जैसे इन्होंने यह मान लिया था कि बिहार आर्ट्स (12वीं) की टॉपर रूबी राय, जिसे ना तो तुलसीदास के बारे में पता था और ना ही संज्ञा की परिभाषा पता था, जिसने 12वीं में 'प्रोडिकल सायंस'नामक विषय पढ़ा था, को बिहार बोर्ड ने बहुत बढ़िया शिक्षा दी है।

मतलब मूर्खता की हद तो आपका इस तरह की बातें करना है। मैं आपको बता दूं कि अवध विश्वविद्यालय ने इस बार नकल रोकने के लिए सभी कॉलजों में कैमरे लगवाए थे। इन कैमरों की मदद से विश्वविद्यालय में बैठकर परीक्षा केन्द्रों का न सिर्फ विडियो देखा जा सकता था बल्कि वहां होने वाली हर तरह की आवाज भी सुनी जा सकती थी। इन परीक्षा केन्द्रों पर नजर रखने के लिए बाकायदा एक वॉर रूम बनाया गया था, जहां शिफ्ट के अनुसार काम होता था। इस वॉर रूम में एक समय पर 28 लोग रहते थे, जो परीक्षा केन्द्रों की मॉनिटरिंग का काम करते थे। अवध विश्वविद्यालय यूपी का एक जाना-माना विश्वविद्यालय है, जो एक साल पहले तक नकल के लिए बदनाम था। जिसको कभी क्लास न करनी हो, रेग्युलर मार्कशीट चाहिए और उसमें नंबर भी अच्छे चाहिए तो बस अवध विश्वविद्यालय के कुछ चुनिंदा कॉलेजों में एडमिशन ले लो, इसके लिए बस एक ही शर्त होती थी कि आपको गाइड से छापना आना चाहिए।

रवीश के मुताबिक परीक्षा प्रणाली को ऑप्शनल बनाने के कारण भी रिजल्ट खराब हुआ है। साहब का कहना है कि गणित, भूगोल, फिजिक्स और जीव विज्ञान का छात्र बिना रेखाचित्र बनाए चरण-दर-चरण सवाल का उत्तर कैसे समझा पाएगा पाएगा। वैसे रवीश सर अपनी इस रिपोर्ट में यह तो खुद ही मान चुके हैं कि उनकी गणित कमजोर है लेकिन इस बात से यह भी साबित हो गया कि बाकी विषयों का हाल भी गणित जैसा ही है। एक उदाहरण से समझिए:

थिअरिटिकल रूप में भूगोल का कोई प्रश्न आएगा तो वह कुछ ऐसा होगा: भूमि के विकास को नियंत्रित करने वाले कारकों के बारे में बताएं।

वहीं अगर वैकल्पिक रूप में ऐसा ही कोई प्रश्न आएगा तो वह कुछ ऐसा होगा:

इनमें से कौन सा कारक भूमि के विकास को नियंत्रित नहीं करता है:
a) मृदा
b) वायु
c) भूमि के नीचे उपलब्ध जल
d) आप के पास उपलब्ध धन
और ऐसे ही प्रश्न अन्य विषयों में भी आते हैं। दोनों ही तरह के प्रश्नों का कॉन्सेप्ट बिलकुल अलग होता है, इस बात को समझने की जरूरत है। 

यह एक अच्छा प्रयोग था कि थिअरिटिकल प्रश्नों के साथ में ऑप्शनल प्रश्न भी दिए जाएं। प्रतियोगी परीक्षाओं में भी प्रश्नपत्र का यही फॉर्मेट रहता है। और ऐसा भी नहीं था कि परीक्षाओं के 2-4 दिन पहले यह योजना बनी थी। सत्र के प्रारंभ होते ही इस पर योजना बन गई थी और कुछ समय के भीतर ही महाविद्यालयों को इसकी जानकारी उपलब्ध करा दी गई थी। 

रवीश ने अपने प्रोग्राम के दौरान एक बात और कही कि अगर परीक्षा में किसी तरह का गड़बड़ी नहीं हुई थी तो परीक्षा नियंत्रक को क्यों हटाया गया? जबकि असलियत यह है अवध विश्वविद्यालय में परीक्षा नियंत्रक कोई है ही नहीं। डेप्युटी रजिस्टार की रैंक का अधिकारी परीक्षा से संबंधित कार्य देखता है और इस साल इस व्यवस्था में एक अन्य व्यक्ति को सहयोगी के तौर पर लगाया गया था।

क्या अवध विश्वविद्यालय को छात्रों की कोई परवाह नहीं
वैसे तो जितने प्रतिशत छात्र फेल हुए हैं, वह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन फिर भी मुट्ठीभर छात्रों के प्रदर्शन के बाद कुलपति ने विश्वविद्यालय के अधिकारियों के साथ एक बैठक की और यह फैसला लिया कि मूल्यांकन व्यवस्था की विश्वसनीयता स्थापित करने के उददेश्य से मूल्यांकन के संदर्भ में छात्रों के स्तर से प्राप्त होने वाले प्रार्थना पत्रों में से सैंपलिंग के आधार पर प्रत्येक विषय की 100-100 उत्तर पुस्तिकाओं को बाहर के विश्वविद्यालयों में भेजकर पुनर्मूल्यांकित कराया जाएगा। इसके बाद आने वाले परीक्षा परिणाम को घोषित किया जाएगा। यानी जिन छात्रों को यह लगता है कि उनकी कॉपी ठीक तरीके से नहीं जांची गई है, वे विश्वविद्यालय में ऐप्लीकेशन दें और फिर उनमें से किन्हीं 100 लोगों की कॉपी को दूसरे विश्वविद्यालय से चेक कराया जाएगा। इसका मतलब समझते हैं आप? कल को पुनर्मूल्यांकन के बाद अगर कोई यह कह दे कि विश्वविद्यालय अपनी बदनामी से बचने के लिए सिर्फ दिखावा कर रहा है तो जाहिर है कि शंका होगी इसलिए विश्वविद्यालय ने तय किया कि इन कॉपियों को दूसरे विश्वविद्यालय में जंचवाया जाएगा। इससे ज्यादा कोई विश्वविद्यालय क्या कर सकता है। छात्रों की मांग के मुताबिक, लगभग चार लाख छात्रों की कॉपियां फिर से चेक कराने का मतलब समझते हैं आप? अगर नहीं समझते तो गणित में कमजोर होने का रोना बंद करके जाइए और विश्वविद्यालय की व्यवस्था से जुड़े किसी व्यक्ति से पता करिए।

गलत कॉपी चेक होने के विश्वास पर क्या करे छात्र?
अवध विश्वविद्यालय के कुछ छात्र कह रहे हैं कि उनकी कॉपियां गलत तरीके से जांची गई हैं। इसके लिए विश्वविद्यालय द्वारा मूल्यांकन व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से 'चैलेन्ज इवैल्यूवेशन' व्यवस्था 06 महीने पहले से ही लागू है। इस सुविधा के तहत विश्वविद्यालय की वेबसाइट के माध्यम से सिर्फ 300 रुपए ऑनलाइन जमा करते हुए छात्र अपनी कॉपी की स्कैन्ड प्रति प्राप्त कर सकते हैं। इसके बाद वह खुद, अपने किसी परिचित टीचर से, अपने सीनियर्स से, जा जिसे भी वे ज्ञानी समझते हों, अपनी कॉपी की जांच कराकर आश्वस्त हो जाएं कि उनके नंबर सही हैं या नहीं। और यदि उनको लगता है कि उन्हें कम नंबर मिले हैं तो फिर से विश्वविद्यालय की वेबसाइट के माध्यम से 3000 रुपए जमा करके मूल्यांकन को चुनौती दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में छात्र की उत्तर पुस्तिका को 03 अलग-अलग परीक्षकों से मूल्यांकित कराया जाएगा और फिर तीनों मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा दिए गए नंबरों के औसत अंक छात्र को दिए जाएंगे। चुनौती की इस प्रक्रिया में यदि छात्र की चुनौती सही सिद्व होती है तो छात्र द्वारा जमा कराई गई धनराशि वापस करते हुए संबंधित शिक्षक को कारण बताओ नोटिस जारी करने के साथ-साथ भविष्य में मूल्यांकन से वंचित भी किया जा सकता है। यानी अगर छात्र को भरोसा है कि उसकी कॉपी गलत चेक हुई है तो उसका सिर्फ 300 रुपए खर्च होगा, बाकी पैसा तो वापस ही हो जाएगा। 

हालांकि विश्वविद्यालय की वेबसाइट के मुताबिक, 'यदि मूल मूल्यांकनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए अंकों तथा चैलेंज मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा दिए गए अंकों के औसत का अंतर प्रश्नपत्र के अधिकतम प्राप्तांकों के 15% तक पाया जाएगा तो मूल मूल्यांकनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए अंको में परिवर्तन नहीं किया जाएगा तथा छात्र द्वारा जमा धनराशि जब्त कर ली जाएगी।' ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था में यह माना जाता है कि मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा किसी विषय की मूल्यांकन पद्धति में 10 से 15 प्रतिशत का अंतर स्वाभाविक है। कोई भी दो शिक्षक बिल्कुल एक जैसा मूल्यांकन नहीं करते। (यह बात वैकल्पिक प्रश्नों में लागू नहीं होती है।) ऐसे में अगर नए औसत अंकों के हिसाब से पुराने अंकों को बदल दिया जाएगा तो मान लीजिए किसी छात्र को 30 में से 12 अंक मिले हैं और उसने 'चैलेन्ज इवैल्यूवेशन' की व्यवस्था का प्रयोग किया लेकिन अब उसके औसत अंक 10 हो गए तो उस छात्र का तो पूरा साल बर्बाद हो जाएगा। इसलिए 15 प्रतिशत की व्यवस्था रखी गई है।

वेबसाइट के मुताबिक, 'यदि मूल मूल्यांकनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए अंकों तथा चैलेंज मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा दिए गए अंकों के औसत का अन्तर प्रश्नपत्र के अधिकतम प्राप्तांकों के 15% से 25% के बीच पाया जाएगा तो मूल मूल्यांकनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए अंकों को दोनों चैलेंज मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा दिए गए अंकों से बदल दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में छात्र द्वारा जमा शुल्क में से 500 रुपए की कटौती कर शेष राशि उसे वापस कर दी जाएगी तथा मूल्यांकनकर्ता के खिलाफ विश्वविद्यालय द्वारा चेतावनी दी जा सकती है। वहीं यदि मूल मूल्यांकनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए अंकों तथा दोनों चैलेंज मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा दिए गए अंकों के औसत का अन्तर प्रश्नपत्र के अधिकतम प्राप्तांकों के 25% से अधिक पाया जाएगा तो ऐसी उत्तर पुस्तिका को माननीय कुलपति जी द्वारा नामित तीसरे चैलेंज मूल्यांकनकर्ता से मूल्यांकित कराया जाएगा। मूल मूल्यांकनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए अंकों को तीनों चैलेंज मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा दिए गए अंकों के औसत से बदल दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में छात्र द्वारा जमा शुल्क से 500/- रुपए की कटौती कर शेष धनराशि उसे वापस कर दी जाएगी तथा मूल मूल्यांकनकर्ता के खिलाफ विश्वविद्यालय द्वारा कठोर कार्यवाही की जा सकती है।' इस विषय पर यह कहा जा सकता है कि अगर अधिकतम प्राप्तांकों के 15% से अधिक अंक किसी छात्र के बढ़ते हैं तो विश्वविद्यालय उसके द्वारा जमा किए गए कुल 3300 रुपए वापस करे, क्योंकि यहां कमी विश्वविद्यालय की है। लेकिन इस तरह की मांग को छोड़कर सभी कॉपियों के पुनर्मूल्यांकन की मांग करने मूर्खतापूर्ण लगता है। 

आखिर रवीश कुमार की असल समस्या क्या है?
दरअसल में अवध विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति मनोज दीक्षित राष्ट्रवादी विचारधारा रखने वाले व्यक्ति हैं। भले ही किसी में दूसरे विचारों को स्वीकार करने की कितनी भी क्षमता हो लेकिन रवीश कुमार उसे सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर पाते क्योंकि वह राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित होता है। इसका एक और उदाहरण आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में  हुए प्रदर्शनों के दौरान की रवीश की 'स्टूडियो रिपोर्टिंग' में देख सकते हैं। रवीश ने उस समय तो 'संघी वीसी' को अपराधी घोषित कर ही दिया था लेकिन वह तो भला हो जांच कमिटी का, जिसने जांच में बताया कि BHU हिंसा मामले में कुलपति नहीं बल्कि जिला प्रशासन की कमी थी। (पढ़ें पूरी खबर: BHU हिंसा मामले में कुलपति को दी गई क्लीन चिट, जांच समिति ने जिला प्रशासन को माना दोषी) खैर अब आप सोचते रहिए कि असल में रवीश कुमार किस 'कुंठा' से ग्रसित हैं, आखिर वह कौन सी कुंठा है जो किसी को भी सिर्फ इसलिए अपराधी बना देती है क्योंकि वह 'राष्ट्रवादी' होता है, लेकिन जाते-जाते रवीश कुमार को एक शिक्षक का जवाब भी देखते जाइए...

Wednesday 13 June 2018

रमजान में बेटी की 'कुर्बानी', इस मूर्खता के लिए जिम्मेदार कौन?


राजस्थान के जोधपुर जिले के पीपाड़ कस्बे में नवाब अली नामक शख्स ने अपनी चार साल की बेटी की हत्या (मजहबी लोग 'कुर्बानी' पढ़ें) कर दी। अली ने रमजान के पाक महीने में अल्लाह को खुश करने के लिए, उनकी रहमत पाने के लिए ऐसा किया। 'कुर्बानी' देने से पहले अली अपनी बेटी रिजवाना को मार्केट ले गया, उसे मिठाई दिलाई और फिर कुरान की आयतें पढ़ने के बाद धारदार हथियार से गला रेत दिया। पुलिस ने अली को गिरफ्तार कर लिया है। सोशल मीडिया पर बहुत से लोग अली को हत्यारा और भी न जाने क्या-क्या कह रहे हैं। लेकिन जरा सोचिए, आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? 

इस्लाम के मुताबिक, अल्लाह ने हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेने के उद्देश्य से अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देने का हुक्म दिया। हजरत इब्राहिम ने जब गहराई से सोचा तो पाया कि उन्हें सबसे प्रिय तो उनका बेटा है इसलिए उन्होंने अपने बेटे की कुर्बानी देने का फैसला लिया। हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े आ सकती हैं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली, जब अपना काम पूरा करने के बाद पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने बेटे को अपने सामने जिन्‍दा खड़ा हुआ देखा, बेदी पर कटा हुआ दुम्बा (साउदी में पाया जाने वाला भेंड़ जैसा जानवर) पड़ा हुआ था, तभी से इस मौके पर कुर्बानी देने की प्रथा है। लेकिन कुर्बानी अब अपनी सबसे प्यारी चीज की नहीं दी जाती है बल्कि किसी जानवर की दी जाती है, किसी बेजुबान जानवर की, उस जानवर की जिसकी कोई गलती नहीं। 

शायद ऐसा ही कुछ सोचकर अली ने अपनी 'सबसे प्यारी चीज' को कुर्बान कर दिया। लेकिन क्या हजरत इब्राहिम से जुड़ी घटना का उद्देश्य यही संदेश देना था? किसी भी बात को समझने के तरीके होते हैं। हजरत इब्राहीम की उस कुर्बानी में जो संदेश छिपा है, उसे समझने की जरूरत है। संदेश यह है कि इंसान पर अगर कभी ऐसी परीक्षा आ जाए, तो उसे हर कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए, उस समय उसके कदम लड़खड़ाएं नहीं। कुर्बानी की यह परीक्षा ईश्वर आपसे कहीं भी ले सकता है, चाहे वह परिवार के लिए हो, समाज के लिए हो, अपने देश के लिए हो या फिर किसी गैर के लिए ही क्यों न हो। और वैसे भी कुर्बानी का असल मतलब तो यही है ना कि दूसरों के लिए अपने सुखों का त्याग। लेकिन यहां तो जानवरों के परिवार को बर्बाद कर दिया जाता है, क्या उन्हें दुख नहीं होता, क्या उन्हें दर्द नहीं होता?

गोश्त, खून जैसी चीजें अल्लाह तक नहीं पहुंचतीं और ना ही उनसे किसी का फायदा होता है। हां, जानवरों को तकलीफ जरूर होती है। कुर्बानी के बाद गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। इनमें एक हिस्सा गरीबों का भी होता है। क्या सारे गरीब मांसाहारी होते हैं? क्या उनका पेट किसी और चीज से नहीं भर सकता? परंपरा के नाम पर किसी जानवर की जान ले लेना किसी भी कुतर्क के साथ जायज नहीं ठहराया जा सकता। हजरत इब्राहिम से जुड़ी घटना से सीखने की जरूरत है, उस घटना में जो मेसेज छिपा है, उसे समझने की जरूरत है। 

राजस्थान के अली ने अपनी प्यारी बेटी की हत्या कर दी लेकिन क्या हजरत इब्राहीम के बेटे की तरह रिजवाना को उसका परिवार जिंदा देख पाएगा? मुसलमान ही क्यों, हिंदुओं में भी अगर वैदिककालीन किसी घटना को आधार बनाकर वैसा ही किया जाए तो क्या उसे सही मान लिया जाएगा? मान लीजिए, एक व्यक्ति बात सुनकर एक पति के रूप में श्रीराम ने माता सीता का परित्याग कर दिया। ऐसे ही अगर किसी के कह देने भर से, कोई निराधार आरोप लगा देने भर से कोई पति अपनी पत्नी को छोड़ दे तो क्या उसे सही ठहराएंगे? ऐसा करने पर क्या वह व्यक्ति 'राम' के समतुल्य हो जाएगा। इन कथानकों के पीछे छिपे रहस्य और तत्कालीन कर्मों का आज के लिए क्या संदेश देने का उद्देश्य था, उसे समझना होगा। 

अली ने उस मासूम के साथ जो किया, उसमें जितनी गलती उसकी है, उससे कहीं ज्यादा गलती उन लोगों की है जो इस्लाम के ठेकेदार बनते हैं। अली से ज्यादा गलती उन मुल्ला, मौलवी और इमामों की है जिनपर आम लोगों को 'इस्लाम' समझाने की जिम्मेदारी है। इस घृणित और मानवताविहीन कुकृत्य के लिए जितना बड़ा अपराधी अली है, उतना ही बड़ा अपराध इस्लाम के ठेकेदारों का भी है और उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

वह समय दूसरा था, आज का समय अलग है। अगर कुर्बानी देनी है तो अपने उस सर्वाधिक प्रिय दुर्गुण की दीजिए जिससे दूसरों को समस्या होती है, परेशानी होती है। अपना अहंकार छोड़िए, महिलाओं को पैर की जूती समझना बंद करिए, लोगों को उनके हिसाब से जीने दीजिए, अपने फैसले को दूसरों पर थोपना बंद करिए, अपनी जीभ के स्वाद के लिए दूसरों की जान लेना बंद करिए, और तब कहिए कि कुर्बानी दी है...

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...