एक कोशिश, आपको समझने की। एक कोशिश, खुद को समझाने की। एक कोशिश, आपसे जुड़ने की। एक कोशिश, आपकी आवाज बनने की। एक कोशिश, खुद के नाम को सार्थक करने की।
Saturday 13 September 2014
एक अधूरी कहानी
Monday 8 September 2014
प्रेम क्या है
मुझे “प्रेम” पर लिखना ना आया ,
क्योंकि “प्रेम” मुझमे कहीं ना समाया ,
मैंने जब भी “प्रेम” को गले लगाया ,
उसे अधूरा ही अपने अंदर सा पाया ।
मुझे “प्रेम” पर लिखना ना आया ,
क्योंकि “प्रेम” अक्सर मैंने अपने सवालों में पाया ,
मैंने जब भी “प्रेम” को गले लगाया ,
उसे पिघलता सा अपने अंदर कहीं पाया ।
मैंने अब “प्रेम” पर लिखने का मन बनाया ,
और हर प्रेमी युगल को अपनी कलम में कहीं समाया ,तब मेरी कलम में भी इतना “प्रेम” समाया ,
कि हर पढ़ने वाले के मन में भी “प्रेम” का अक्स था छाया ।
“प्रेम” एक एहसास है मन का ,
“प्रेम” एक तृष्णा है तन की ,
“प्रेम” कुछ ख्यालों की माया ,
जिसमे है पूरा विश्वास समाया ।
“प्रेम” एक गहरा सा सागर ,
“प्रेम” ही नदिया , “प्रेम” ही बादल ,
“प्रेम” है जीवन का सारांश ,“प्रेम” ना हो तो हर शब्द लगे कटाक्ष ।
“प्रेम” से जो रहे अछूता ,
उसको न मनु योनि में कोई गिनता ,“प्रेम” से ही जाँचे जाते पशु और मनुष्य ,
तभी तो “प्रेमी” का मन रहे सदा शुद्ध ।
“प्रेम” होता है दो आत्माओं का एक मिलन ,
“प्रेम” में अक्सर लगी होती है एक अगन ,“प्रेम” जितना सरल उतना ही विशाल ,
तभी तो “प्रेम” से ही होते सब मालामाल ।
मुझे “प्रेम” पर लिखना जैसे ही आया ,
हर शब्द को मेरे “प्रेम” का स्वरुप समझ आया ,
“प्रेम” अब मेरे तन-मन में इतना है छाया ,
कि कागज़ और कलम में भी मैंने “प्रेम” का सन्दर्भ है पाया ।
मुझे “प्रेम” पर लिखना अब आया ,
हर ग्रन्थ को मैंने अब “प्रेम” से सजाया ,
“प्रेम” कोई शब्द नहीं जिसे हम विशेषण से सज़ाएँ ,“प्रेम” तो “प्रेम” है ………
बस उसे समझें और आगे बढ़ते जाएँ ॥
Saturday 6 September 2014
एक बेटी का दर्द
सार भी दूंगी, ये संसार भी दूंगी,
मुसीबत के समय
देश के लिये जिंदगी वार भी दूंगी,
इसलिए मत मारो मुझे|
मैं इज्जत भी दूंगी, जन्नत भी दूंगी,
सोहरत भी दूंगी, ताकत भी दूंगी,
मोका मिला तो
हर सपना हकीकत कर दूंगी,
इसलिए मत मारो मुझे|
पढूंगी, लिखूंगी अफसर बन जाऊँगी,
पर तुम्हारे सामने सदा शीश झुकाऊँगी
और समय आने पर
घर को स्वर्ग बनाउंगी,
इसलिए मत मारो मुझे|
अगर किसी कारणवस रह गई अनपढ़,
तो भी घर का सारा काम करवाउंगी,
गिनकर रात के तारों को,
तुमको अच्छी नींद सुलाऊँगी,
इसलिए मत मारो मुझे अपनी कोख से
Wednesday 3 September 2014
वो सात दिन---कुछ खोया और कुछ सीखा
परीक्षा देने के बाद रात में लखनऊ के लिए निकला...सुबह पहुँचने के बाद से अगले सात दिन मेरे जीवन के अब तक के सबसे बुरे दिन थे..उसकी माँ स्थिति को देखकर मेरी आखों में आंसू आ गए...मैं कभी इतना कमजोर नहीं था कि आंसू ना रोक पाऊं ...वो कैसे हुआ पता नहीं बस हो गया...उस दिन से अगले 5 दिनों तक हर एक मंदिर में बस एक ही दुआ मांगी कि कैसे भी बस दीदी का स्वास्थ्य सही हो जाए ...इन दिनों में कई बार ऐसा समय आया जब मैं भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया....मन में ईश्वर पर अटूट विश्वास भी था कि वो कुछ गलत नहीं होने देंगे....इसी बीच तीसरे दिन दीदी का स्वास्थ्य अचानक बहुत अधिक ख़राब हो गया...मेरे मित्र के पिता जी ने बताया कि अब उनको नहीं बचाया जा सकता....वो समय मेरे लिए असहनीय था ...मेरे अन्दर इतनी क्षमता नहीं थी कि मैं अपने मित्र से नजर मिला सकूँ...बस एक ही रास्ता नजर आ रहा था ....और वो रास्ता था ईश्वर ...
अगले दिन सुबह उठकर माँ चन्द्रिका देवी के दर्शन के लिए गया...वापस आते ही पता लगा की दीदी के स्वास्थ्य में अद्वतीय सुधर हुआ है....मेरे विश्वास एक बार फिर अटूट हो गया ...आँखों में आंसू तो थे लेकिन ख़ुशी के ...दो दिन सब कुछ सामान्य रहा लेकिन तीसरे दिन सुबह पता लगा कि फिर से स्वास्थ्य बिगड़ गया ....लेकिन मैं पूर्ण रूप से निश्चिंत था क्यों कि मुझे ऐसा लग रहा था की कुछ भी हो जाए लेकिन मेरे राम मेरे साथ कुछ गलत नहीं कर सकते....शायद विधि का विधान कुछ और ही था शाम 5:58 पर दीदी का स्वर्गवास हो गया....जब मित्र के पिता जी ने ये बात मुझे बताई तो ऐसा लगा की मेरे जीवन का समापन हो गया....उस सत्ता पर से भी विश्वास उठ गया जिसके भरोसे मैं सब कुछ करता था....अगले 2 दिन लखनऊ में मेरे लिए बोझ लग रहे थे....ये सब कुछ कैसे हुआ कुछ नहीं पता लेकिन इन सात दिनों में बहुत कुछ पता लगा ...अपने विषय में भी और अन्य लोगों के विषय में भी ....जिस संगठन का कार्य करते हुए मुझे अवसरवादी और कट्टरवादी संज्ञाएँ दी जाती थी उस संगठन के पूर्णकालिकों एवं उनके तथाकथित राष्ट्रवाद का वास्तविक चेहरा भी सामने आया और यह भी पता लगा कि जितना खुदगर्ज मैं स्वयं को समझता था उतना नहीं हूँ ....मुझे कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते ....मैं हमेशा से वही करता था जो मुझे सही लगता था .....मैं वही करता था जिसमें मुझे ख़ुशी मिलती थी....मैं आज भी नहीं जानता कि जिस इन्सान से मुझे इतना लगाव है वो मेरे बारे में क्या सोचता है और मुझे इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ता....बस इन सात दिनों में उस सत्ता पर से विश्वास उठ गया ...ऐसा नहीं है कि मेरे मुहं से अब श्री राम का नाम निकलना बंद हो गया है लेकिन मन की भावना पर आघात अवश्य हुआ है...
(इस लेख में मैंने किसी भी प्रकार की अलंकारिक भाषा या शब्द का प्रयोग नहीं किया है ...ये मात्र मेरे वो विचार हैं जो मैं किसी से नहीं कह सकता ....मुझे नहीं पता कि मैं अब कभी ईश्वर पर विश्वास कर पाऊंगा या नहीं लेकिन अब यदि विश्वास हुआ भी तो उस ईश्वर पूर्व की भांति कभी कोई अपेक्षा नहीं रखूँगा ....क्यूँ कि खुद को हारते हुए नहीं देख सकता )
इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा
मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है
9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...