Wednesday, 28 August 2024

पहले पूतिन, फिर ज़ेलेंस्की से भी गले मिले PM मोदी, दो-गले से बात क्यों कर रहे वामपंथी?

पहले पूतिन, फिर ज़ेलेंस्की से भी गले मिले PM मोदी, दो-गले से बात क्यों कर रहे वामपंथी?

बहुत लंबे समय से किसी विषय पर चर्चा नहीं कर पाया। कई परिचितों के मैसेज आए कि कुछ लिख नहीं रहे, दरअसल एक, कुछ तो समय का अभाव था और दूसरा कोई ऐसा विषय नहीं मिल रहा था कि कुछ विमर्श किया जाए। हालांकि आज जिस विषय पर चर्चा करने वाला हूं, वह विषय तो सामान्य है, लेकिन कुछ बौद्धिकतावादी लोगों ने विषय को विशिष्ट बना दिया है। बीते दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट देखी। यह पोस्ट थी, मेरे प्रथम पूर्णकालिक संपादक रहे नीरेन्द्र नागर जी की। उन्होंने लिखा था-


मोदी पूतिन के बाद अब ज़ेलेंस्की से भी गले मिल लिए। यानी बता दिया कि भारत आक्रांता के साथ भी हैं और आक्रांत के साथ भी। थप्पड़ मारने वाले के साथ भी और थप्पड़ खाने वाले के साथ भी।

अंग्रेज़ी में इसे कहते हैं - Running with the hare and hunting with the hounds. हिंदी में शालीन भाषा में कहें तो गंगा गए गंगाराम, जमुना गए जमुनादास। अशालीन भाषा में एक शब्द है जिसका मैं प्रयोग नहीं करना चाहता। आप ख़ुद ही समझ जाएँ।

वैसे मोदी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि भाषणों में नारी सुरक्षा की दुहाई देना और ज़मीन पर आततायियों का साथ देना चाहे वह राम रहीम हो या गुजरात के संस्कारी।

मेरे पिता कहा करते थे कि कोई क्या 'कहता' है, यह उसकी असल पहचान नहीं होती। असल पहचान इससे होती है कि वह क्या 'करता' है।

और मोदी क्या 'करते' हैं, यह हम सब जानते हैं। भक्त भी।


एक तरफ वसुधैव कुटुंबकम् का जाप, दूसरी तरफ़ मेरे देश, मेरे लोगों का हित। अजीब दोगलापन है। इसी को मैं स्वार्थप्रेरित कायरता कहता हूँ।

राम-रावण युद्ध में भी दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क थे। तो क्यों राम का समर्थन करते हो? महाभारत युद्ध में भी कौरवों का अपना पक्ष था। फिर क्यों पांडवों का पक्ष लेते हो?


इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं खुद को रोक नहीं पाया। दरअसल बात सिर्फ नीरेन्द्र नागर जी की नहीं है, कई अन्य लोग भी, विशेषकर वामपंथी, सोशल मीडिया पर ऐसी ही बातें कर रहे हैं, इसलिए विषय की गहराई में जाना बहुत जरूरी है। नरेन्द्र मोदी का विरोध अपनी जगह है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों का वैचारिक विरोध होता रहना चाहिए, लेकिन किसी भी व्यवस्था में यदि आप मुल्क को, मनुष्यता को किसी भी अन्य चीज से ऊपर रखते हैं तो मेरी इसपर आपत्ति है। रूस और यूक्रेन का क्या मामला है, कौन सही है, कौन गलत है, इस प्रश्न पर दोनों पक्षों की अपनी राय है औऱ यह दोनों देशों के बीच का मामला है, इसमें किसी तीसरे का हस्तक्षेप तब तक नहीं होना चाहिए, जबतक वह मामला आपको या आपके मुल्क के एक भी व्यक्ति को प्रभावित ना कर रहा हो। 


किसी एक पक्ष को आक्रांता कहना और किसी दूसरे पक्ष को आक्रांत कहना, निश्चित तौर पर दो देशों के बीच की निजता में हस्तक्षेप है। एक तीसरे मुल्क के नागरिक के तौर पर मेरे लिए तो गर्व का विषय यही है कि उन दो देशों के युद्ध के बीच जब भारत के बेटे-बेटियों को यूक्रेन से बाहर आना था तो मेरे देश के बच्चे जब तिरंगा लेकर निकले तो दोनों देशों की सेनाओं ने अपने हथियार नीचे किए और उन्हें रास्ता दिया। और सिर्फ इतना ही नहीं, मेरे मुल्क के बच्चों के साथ उस मुल्क के बच्चे भी तिरंगे की छत्रछाया में बाहर आ गए, जो हमारा सामाजिक दुश्मन किंतु पड़ोसी था। मेरे लिए तो यही गर्व का विषय है कि मेरे मुल्क की मनुष्यता ने मेरे सामाजिक दुश्मन देश के बच्चों को भी जिंदगी दी।


मैं विदेश नीति का पंडित नहीं हूं, लेकिन यदि दो दुश्मन देशों से हमारे अपने संबंध अच्छे हैं और हम उसके निजी मामलों में ‘मनुष्यता’ के नाम पर किसी एक का समर्थन ना करते हुए हिंसक कार्यपद्धति का सहारा न लेते हुए पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कह सकते हैं कि रास्ता शांति से ही निकलेगा, बातचीत से ही निकलेगा और दोनों में एक भी देश हमारी बात पर प्रतिउत्तर नहीं करता है तो हमें इसे अपनी विदेश नीति की विजय क्यों नहीं मानना चाहिए?

बाकी राजनीति हो या असल जीवन, कोई क्या 'कहता' है, यह उसकी असल पहचान नहीं होती। असल पहचान इससे होती है कि वह क्या 'करता' है। शून्यता के गर्त में पहुंच चुकी वैचारिकी को जीवित रखने के लिए ‘कुछ भी’ लिख देना और कह देना तो बहुत आसान होता है, लेकिन करना बहुत मुश्किल। किसी वाममार्गी से मिलिए, उसके लिए बहुत आसान होता है यह कहना कि ब्राह्मणों ने दलितों का खूब शोषण किया, उनकी जमीनें छीन लीं, मेरे दादा-परदादा ने भी ली थीं, लेकिन इस प्रश्न पर मौन हो जाते हैं कि जब आपको पता है कि आपके दादा-परदादा ने किसी दलित-शोषित की जमीन पर कब्जा किया था, छल से उसकी जमीन ले ली थी, तो आपको जानकारी मिलने के बाद आपने वापस क्यों नहीं की? तब आप कह देते हैं कि मुझे क्या पता कि 70-80 साल पहले वो जमीन किसकी थी। अरे नहीं पता है तो उस जमीन को किसी दलित-शोषित को दान कर दीजिए, लेकिन वो नहीं कर पाएंगे।
इस पूरी वाममार्गी वैचारिकी के लिए अशालीन भाषा में एक शब्द है जिसका मैं प्रयोग नहीं करना चाहता। पाठक ख़ुद ही समझ जाएँगे।

यह विषय कूटनीति का है, उसमें संस्कार और संस्कृति को लाने की आवश्यकता ही क्या है। लेकिन मेरे लिए प्रसन्नता का विषय यह है कि कम से कम अपना विषय तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए नीरेन्द्र नागर जी ने उन पात्रों का उदाहरण दिया, जो उनकी वैचारिकी के ऐतिहासिक कोश में अस्तित्वहीन थे। देने को तो वह शक्तिमान और तमराज किलविष का उदाहरण भी दे सकते थे, लेकिन नहीं, उन्होंने राम-रावण और पांडव-कौरवों का जिक्र किया। नीरेन्द्र नागर जी के प्रश्नों का उत्तर देने में मुझे बहुत खुशी होगी, क्योंकि श्रीराम मेरा प्रिय विषय हैं, लेकिन उससे पहले एक अन्य विषय को समझना भी बहुत जरूरी है। मैं मनोविज्ञान का विद्यार्थी हूं। मनोविज्ञान की दृष्टि से बताता हूं कि नीरेन्द्र नागर जी ने शक्तिमान-तमराज की जगह श्रीराम-श्रीकृष्ण का उदाहरण क्यों दिया। दरअसल 2014 की भाजपा की 282 सीटें, 2019 की 303 सीटें जीतना और फिर 2024 में 240 सीटों पर आना उनकी पराजय नहीं है, उनकी विजय तो इसी बात में है कि उन्होंने वामपंथ की Anti Theist वैचारिकी को 10-15 सालों में Anti Modi बना दिया है। यह बात आपको सामान्य लग सकती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक नजरिये से देखेंगे तो पता लगेगा कि जिस वैचारिकी की स्वीकार्यता लंबे समय तक पूरी दुनिया में रही, उसे BJP ने खत्म नहीं किया, बल्कि उसे बदल दिया, और यह बहुत बड़ी बात है।


अब आते हैं नीरेन्द्र नागर जी के प्रश्न पर। हम कहते हैं वसुधैव कुटुंबकम्। इसे स्वीकार भी करते हैं लेकिन अगर समय/काल/परिस्थिति के अनुसार कोई अपने व्यवहार में बदलाव को लेकर उचित निर्णय नहीं लेगा तो वह समाप्त हो जाएगा। उदाहरण से समझिए- उपनिवेशवाद के विरोध के नाम पर खड़ी हुई वामपंथी वैचारिकी इसीलिए समाप्त हो गई क्योंकि उन्होंने समयानुरूप सामाजिक परिवेश के अनुसार आवश्यकता को स्वीकार नहीं किया। और जिन वामपंथियों ने स्वीकार किया, उन्होंने अलग-अलग संस्थानों में नौकरी की, वहां अपनी वैचारिकी को स्थापित करने का प्रयास किया, अब इसे आप ‘दोगलापन’ कहिए या स्वार्थप्रेरित वैचारिक आत्महत्या, आपकी समझ है। मेरे हिसाब से तो यह उचित था। कोई वामपंथी अगर किसी कॉर्पोरेट मीडिया संस्थान में संपादक बन जाए, उसका कार्यालय जंगलों को काटकर बसाई गई किसी फिल्म सिटी में हो और उस संस्थान में उपनिवेशवाद के समर्थन वाले विज्ञापन चलते रहें, और उसी से उसका वेतन आए तो इसे आपके तर्क के हिसाब से तो गलत कहा जाएगा। फिर तो आप भी समझ सकते हैं कि कौन कितना गलत है।


वसुधैव कुटुंबकम् की वैचारिकी हमारे अपने मन और शरीर से शुरू होती है, फिर वह ब्रह्मांड तक जाती है। पहले यह वैचारिकी हमें अपने शरीर रूपी कुटुंब में स्थापित करनी होगी कि शरीर का प्रत्येक अंग बराबर है, प्रत्येक का अपना विशेष महत्व है। फिर इसे अपने परिवार, मोहल्ले, समाज और देश में स्थापित करना होगा। अभी हम अपने शरीर और मन में तो स्थापित कर नहीं पाए, बात करेंगे दुनिया की। गालियां इस बात पर देते हैं कि वर्ण व्यवस्था के एक वर्ग को पैरों से निकला हुआ क्यों दिखाया, अरे जब सारे अंग बराबर हैं तो पैर कौन सी खराब चीज हो गए?


राम-रावण युद्ध हो या कौरव-पांडव युद्ध, समय और परिस्थिति के हिसाब से हमारे इतिहास में फैसले लिए गए हैं। त्रेतायुग में बड़ा भाई दुनिया के सबसे बड़े सिंहासन को ठोकर मारकर एक वल्कल पहनकर 14 वर्षों के लिए वन को चला जाता है, तो उसका सौतेला भाई बड़े भाई की खड़ाऊं को सिंहासन पर रखकर राज्य का संचालन करता है। राम और रावण का इतिहास स्वीकार कर रहे हैं और उसका उदाहरण दे रहे हैं तो इसे भी स्वीकार करिए कि वह इतिहास था और भविष्य में इतिहास का मूल्यांकन होता है। उस काल में दोनों पक्षों के अपने तर्क थे, लोगों ने अपनी समझ के अनुसार एक पक्ष चुना, एक पक्ष हारा और दूसरा जीता। हजारों सालों के बाद जब इतिहास का मूल्यांकन हुआ तो श्रीराम और पांडवों का पक्ष न्यायोचित लगा तो हम उस पक्ष के समर्थन में रहते हैं। जिसे रावण या कौरव का पक्ष न्यायोचित लगता है, वह उसके समर्थन में रहते हैं। इसमें कौन सी गलत बात है?

त्रेतायुग में परिस्थितियां अलग थीं, इसलिए वहां कूटनीति भी कम थी। द्वापर में परिस्थितियां बदलीं, युद्ध की नीतियां बदलीं तो कूटनीति भी बदल गई। आज कलियुग में परिस्थितियां और अलग हैं तो कूटनीति भी अलग स्तर की होनी चाहिए, जो कि है भी।

पड़ोसी मुल्क पूर्वी पाकिस्तान में जब उसके अपने ही लोग अत्याचार कर रहे थे, और वहां से जब शरणार्थी बंगाल में आने लगे और उससे हमारे मुल्क का हित प्रभावित होने लगा तो भारत की शेेरनी इंदिरा गांधी ने उनकी औकात दिखा दी थी, आज चाहे यूक्रेन हो या इजरायल, अगर कोई मदद मांगे और दूसरा प्रेम से बात समझने को तैयार ना हो तो निश्चित ही सत्ताधीशों को वही करना चाहिए जो मैडम इंदिरा ने किया था। लेकिन, उस परिस्थिति में भी तो वामपंथी यही कहेंगे कि युद्ध गलत है? है ना?


इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

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