महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ब्राह्मण थे?
एक शब्द में इसका जवाब है- हां। इसपर ना किसी तरह का विवाद है, ना ही होना चाहिए। असल मुद्दा यह है कि क्या उनके ब्राह्मण होने के पीछे उनका किसी व्यक्ति विशेष के यहां जन्म लेना कारण है? जवाब है- नहीं। आज वैदिक तर्कों के साथ इसी पर बात करेंगे। जन्मजाति के अंहकार में डूबे कुछ लोगों को मेरा यह लेख पसंद नहीं आएगा। उसका कारण भी स्पष्ट है कि लोगों ने धर्म की, परंपराओं की, व्यवस्थाओं की, अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्या कर ली है और उसे व्यावहारिक बना लिया है।
दरअसल एक बालक ने सुप्रसिद्ध कवि और वक्ता डॉ. कुमार विश्वास जी के वक्तव्य को शेयर करते हुए कुछ लिखा, मेरी पत्नी को आपत्ति हुई तो उसने जवाब दिया। इसके बाद उस बालक ने मेरी पत्नी से कहा- ‘आप मुझे नहीं जानतीं भाभी जी, गौरव भैया से मेरे बारे में पूछिएगा।’ मेरी पत्नी ने जिज्ञासावश मुझसे पूछा तो मेरे ध्यान में नहीं आया कि वह कौन है। मेरी पत्नी ने नंबर पता करके दिया तो मैंने फोन किया। बातचीत में पता लगा कि कभी किसी विषय को लेकर बात हुई होगी तो वह मुझे जानता होगा। लेकिन जब उसने बताया कि उसने लिखा क्या था तो सामान्य तौर पर मैंने पूछा कि ’वेदव्यास’ तो उपाधि है, उनका असली नाम क्या था? जवाब था- नहीं पता। मैंने पूछा कि उनके पिता का नाम क्या था? जवाब था- मुझे यह सब नहीं पता लेकिन हमारे सप्तऋषि ब्राह्मण ही थे। मुझे बेहद दुःख हुआ कि सोशल मीडिया पर ब्राह्मणों की आवाज बुलंद करने वाला एक 25-26 साल का लड़का अपने खुद के इतिहास के बारे में शून्य है। उसे यह तक नहीं पता कि महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास सप्तऋषियों में तो सम्मिलित ही नहीं हैं। खैर, मुझे लगा कि संक्षेप में इस विषय पर बात करना बेहद जरूरी है।
पहले बात करते हैं महर्षि वाल्मीकि पर। महर्षि वाल्मीकि के जन्म को लेकर दो मान्यतायें प्रचलित हैं। एक वर्ग स्कन्द पुराण के आधार पर कहता है कि महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है, इसलिये इन्हें प्राचेतस् नाम से उल्लेखित किया जाता है। उपनिषद के विवरण के अनुसार ये भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए इनके शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से, जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।
अब यदि स्कंद पुराण के आधार पर महर्षि वाल्मीकि के जन्म को प्रमाणिक मानें तो उसी पुराण में एक बात और भी कही गई है-
'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते ॥' (स्कन्द 6.239.31)
अब आते हैं महर्षि वाल्मीकि के जन्म को लेकर प्रचलित दूसरी मान्यता पर। उसके मुताबिक वाल्मीकि पहले ‘रत्नाकर’ नामक डाकू हुआ करते थे। यहां एक बात और बता दूं कि कुछ जगह पर जिक्र मिलता है कि वह डाकू बनने से पहले एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे, लेकिन बाद में एक शिकारी जोड़े के साथ रहने लगे। कुछ जगहों पर यह भी जिक्र आता है कि वह एक भील राजा थे। हालांकि हम इस विवाद में ना जाते हुए मूल विषय पर ही रहेंगे। रत्नाकर नामक डाकू लोगों पर हमला करके जबरन उनसे उनकी संपत्ति छीनने का काम करता था। ऐसा करते काफी समय हो गया, इसी बीच एक दिन अचानक नारद मुनि उसके सामने आए। रत्नाकर ने उन्हें डराने की कोशिश की लेकिन नारदजी बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए। नारदजी ने उससे एक प्रश्न किया कि तुम यह दूसरों को लूटने का जो काम करते हो, वह किसके लिए करते हो। रत्नाकर ने जवाब दिया- अपने परिवार को सुविधाएं देने और उनका भरण पोषण करने के लिए। नारदजी का अगला सवाल था- 'तुम अपने परिवार को लोगों से धन लूटकर दे रहे हो, क्या जब इस कर्म का परिणाम आने पर भी वो परिवार तुम्हारा साथ देगा। क्या इस डकैती के कर्म में तुम्हारा परिवार तुम्हारा सहभागी है?'
रत्नाकर के मन में भी जिज्ञासा उठी और वह नारदजी को एक पेड़ से बांधकर अपने परिवार से सवाल करने गया। तब उसके परिजनों यानी पत्नी और पिता दोनों ने साफ इनकार कर दिया कि वह भले ही लूट के धन से सुख-सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं लेकिन डकैती के कर्म का फल रत्नाकर को अकेले ही भोगना होगा, वह इस काम में उसके सहभागी नहीं हो सकते। परिवार के जवाब से हताश-निराश रत्नाकर नारद के पास वापस लौटा। उसको अहसास हुआ कि वह व्यर्थ के कामों में जीवन नष्ट कर रहा है, और जिनके लिए कर रहा है वह भी उसके साथी नहीं। उसके अंदर बदलाव की चाह जगी और तब नारद मुनि ने डाकू रत्नाकर को ‘राम’ नाम के विषय में बताया। और फिर रत्नाकर ‘राम नाम’ में इतना रमे कि वाल्मीकि बन गए।
अब यहां प्रश्न यह है कि अगर वाल्मीकि का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में भी हुआ होता, तो भी क्या आप उन्हें पूजते? नहीं। आप उन्हें इसलिए ही पूजते हैं क्योंकि उन्होंने राम को समझा, उन्होंने ब्रह्म को समझा और हमें रामायण दी। यानी यहां भी कर्म ही प्रधान है।
अब बात करते हैं महर्षि वेद व्यास की। हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि प्रत्येक युग में स्वयं ईश्वर अवतार ग्रहण कर वेदों का युगानुरूप विस्तार करते हैं। एक गणना के अनुसार अब तक 28 व्यास हो चुके हैं। जिस मनवंतर में हम हैं, उसमें द्वापर युग में यह गौरव श्रीकृष्ण द्वैपायन को मिला। पुराणों के अनुसार वह व्यास ऋषि पराशर और सत्यवती के पुत्र थे। सत्यवती एक मछुवारे की पुत्री थीं। अब एक ब्राह्मण और मछुआरिन के बेटे को जन्म के आधार पर तो वर्णसंकर माना जाएगा, फिर उन्हें महर्षि क्यों कहा गया, वेदव्यास की उपाधि क्यों दी गई? अब आप कहेंगे कि वो तो पिता के आधार पर तय होता है। अच्छा? अगर ऐसा है तो फिर तो वर्णसंकर की अवधारणा को भी स्वीकार करते हुए उन्हें स्वीकृति ही नहीं मिलनी चाहिए। वैदिक परंपरा में तो वर्णसंकर की व्यवस्था तो स्वीकार ही नहीं थी। तो असल धारणा मैं आपको बताता हूं।
दरअसल सनातन परंपरा में प्रत्येक व्यवस्था बेहद वैज्ञानिक और व्यवहारिक है। वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर तय होती थी। अपने वर्ण में विवाह की परंपरा को सही और दूसरे वर्ण में इसलिए उचित माना गया था, ताकि पति-पत्नी का कर्म एक ही रहे, जिससे परिवार में समन्वय बना रहे। यह तो हम आज भी महसूस करते हैं ना! पति और पत्नी एक ही पेशे में होते हैं तो व्यवस्था ठीक बनी रहती है।
श्रीकृष्ण द्वैपायन ने वेद का प्रतिभाग करके श्रौतयज्ञ की आवश्यकता के अनुसार चार वेदों में सम्पादित किया, इसलिए वे ‘वेदव्यास’ कहलाते हैं। पुराणों के द्वारा वेद का उपबृंहण या व्याख्यात्मक विस्तार करने का कारण उन्हें व्यास कहा गया। वे 18 पुराणों और श्रीमद्भगवद्गीता के सहित महाभारत, ब्रह्मसूत्र (जो भारतीय दर्शन की वेदान्त धारा के सीमान्त प्रस्थानों का शाश्वत स्रोत है) और पतंजलि कृत सूत्रों पर व्यासभाष्य के भी प्रणेता माने जाते है। वेदों के परमार्थ को, जो उपनिषदों में प्रतिष्ठित है, सूत्रबद्ध कर ‘ब्रह्मसूत्र’ की रचना करके उन्होंने भारतीय दार्शनिक चिन्तन का आधार प्रस्तुत कर दिया, जिसकी शताब्दियों तक विभिन्न दार्शनिक प्रस्थान अपनी-अपनी तरह से व्याख्या करते रहे। ‘व्यास-स्मृति’ के प्रणेता के रूप में वे स्मृतिकार हैं। हमारे लिए वह पूज्यनीय हैं।
महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ब्राह्मण हैं, लेकिन इसका उनके जन्म से कोई लेना-देना नहीं है। ढेर सारे ऋषि-महर्षि हैं, जिनके जन्म पर बात ही नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए लेकिन हम उनके ज्ञान के कारण उन्हें पूजते हैं। एक और तर्क है। वर्तमान मनवंतर के सप्तऋषियों में प्रथम कश्यप ऋषि को समस्त देवताओं एवं मानवों का पूर्वज माना गया है। वह तो ऋषि यानी ब्राह्मण हैं, ऐसे में तो समस्त मानव जन्म से तो ब्राह्मण ही हुए। इसके आधार पर भी यह प्रमाणित होता है कि समस्त मनुष्य ब्राह्मण ही हुए। उन्हीं सप्तऋषियों में से एक महर्षि विश्वामित्र का जन्म तो क्षत्रिय कुल में हुआ था। जन्म के आधार पर यदि ब्राह्मण ही ऋषि अथवा महर्षि हो सकता तो विश्वामित्र महर्षि कैसे हुए? सोचिएगा।
ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वालों से अंत में एक ही बात कहूंगा। आपके पूर्वज ज्ञान परंपरा के आधार रहे हैं। आज के समय में हो सकता है कि आप कर्मकांड और अध्यापन ना कर पा रहे हों लेकिन कम से कम अध्ययन तो कर ही सकते हैं। पढ़ेंगे तभी मन में जिज्ञासा उठेगी, और फिर उस जिज्ञासा के समाधान के लिए और पढ़ेंगे। जन्म से मिले ‘ब्राह्मणत्व’ की रक्षा सोशल मीडिया पर कुतर्क करके नहीं होगी, ज्ञान से होगी। सोशल मीडिया के चक्कर में पड़ेंगे तो ब्राह्मणवंशी रावण को पूजना पड़ेगा और रावण को पूजने वाला रामभक्त हो ही नहीं सकता।