Friday, 6 June 2014

संघ और व्यक्ति पूजा

संघ और व्यक्ति पूजा



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझना आसान नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि संघ वर्तमान में प्रचलित किसी राजनीतिक पार्टी या सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में नहीं बैठता। कुछ लोगों को लगता हैं कि संघ में तानाशाही पद्घति से काम चलता हैं तो कुछ अन्य लोग यह दावा करते हैं कि संघ में नेतृत्व की पूजा होती हैं। ये दोनों भी सत्य से बिल्कुल परे हैं।

संघ के संस्थापक ने ऐसी एक कार्य शैली का आविष्कार किया है जो व्यक्ति पूजा से कोसों दूर है। संघ में किसी प्रकार से व्यक्ति केन्द्रित नहीं है। हिन्दू परंपरा के अनुसार उस में गुरु का स्थान है। यह गुरु संघ का भगवा ध्वज है। यह ध्वज त्याग, पवित्रता, और शौर्य का परिचायक है, जिसके सामने संघ के स्वयंसेवक वर्ष में एक बार अपनी सामर्थ्यानुसार गुरु दक्षिणा करते हैं। किसी व्यक्ति के स्थान का निर्धारण इस बात पर निर्भर नहीं होता कि उसने कितना समर्पण किया है। किसी व्यक्ति का गुणगान करने के लिए संघ में किसी तरह का कोई शब्द नहीं है। रोज की प्रार्थना के बाद प्रत्येक स्वयंसेवक जो जयकारा लगाता हैं वह है भारत माता की जय।

संघ के विषय में एक और मूलगामी सत्य है। यह संपूर्ण समाज का संगठन है-अंश और संपूर्ण। इस दोनों शब्दों को ध्यान से समझिए। समाज के अन्दर किसी वर्गविशेष या गुट का संगठन करने हेतु संघ की स्थापना नहीं हुई थी। समाज का एक मिश्रित रूप होता हैं। समाज जीवन की अनेक गतिविधियों के माध्यम से वह अपने आप को अभिव्यक्त करता है। राजनीति ऐसा ही एक क्षेत्र है परन्तु यही एकमात्र है, ऐसा नहीं। शिक्षा, कृषि, व्यापार, उद्योग, धमंर् और ऐसे अनेक समाज जीवन के क्षेत्र हैं जिनके माध्यम से समाज अपने आप को अभिव्यक्त करता हैं। संपूर्ण समाज का संगठन यानी समाज जीवन के इन सभी क्षेत्रों का संगठन। इसलिए स्वयंसेवकों को संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में जाने की अनुमति दी गई। प्रथम, छात्रों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् बनी। फिर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से मुलाकात की और संघ से भारतीय जनसंघ के लिए कार्यकर्ता मांगे। उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री नानाजी देशमुख, श्री सुन्दर सिंह भंडारी, श्री कुशाभाऊ ठाकरे और अन्य कार्यकर्ता साथ देने निकले जिन्होंने डॉ. मुखर्जी को भारतीय जनसंघ को बढ़ाने में सहायता की। संघ के एक और प्रमुख प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी को मजदूर क्षेत्र में कार्य करने की इच्छा हुई तो उन को मजदूर क्षेत्र में भेजा गया। धर्म के क्षेत्र में स्वयं श्री गुरूजी ने अगुआई कर विश्व हिन्दू परिषद् की, स्थापना की लेकिन वह उसके अध्यक्ष नहीं बने। कहीं सामाजिक सेवा के क्षेत्र में रुचि रखने वाले लोगों ने समाज उत्थान के प्रकल्प शुरू किये और बाद में संघ ने उन्हें कार्यकर्ता दिए वनवासी कल्याण आश्रम ऐसा ही एक प्रकल्प है।
मैं बलपूर्वक कहना चाहता हूं कि राजनीति यद्यपि समाज जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं फिर भी वही सब कुछ नहीं है। इसलिए संघ की तुलना किसी राजनैतिक पार्टी से नहीं हो सकती। संघ का हमेशा यह आग्रह रहता है कि हम एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं और स्वयंसेवकों को जिस किसी भी क्षेत्र में वे कार्य करते हैं, यह भूलना नहीं चाहिए और उनके सब प्रयास इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को शक्तिशाली और महिमामंडित करने की दिशा में ही होने चाहिए इस संस्कृति का ऐतिहासिक नाम हिन्दू हैं।

हिन्दू यह इस्लाम या ईसाइयत जैसा रिलीजन नहीं है। डाक्टर राधाकृष्णन ने भी कहा है कि हिन्दू रिलीजन नहीं है, वह तो अनेक रिलीजनों का मंडल समुच्चय है। मैं इसमें यह जोड़ना चाहता हूँ कि हिन्दू धर्म का नाम है और धर्म की व्याख्या बहुत व्यापक है। अंग्रेजी भाषा में धर्म का समान अर्थ विशद करने वाला योग्य प्रतिशब्द नहीं हैं। परन्तु हमें यह समझना चाहिए कि धर्म रिलीजन नहीं हैं। रिलीजन धर्म का एक हिस्सा हैं। हमारी भाषा के कुछ शब्द देखिये जैसे धर्मशाला-क्या धर्मशाला रिलीजियस स्कूल है? धर्मार्थ हस्पताल यानी रिलीजन का अस्पताल होता है क्या? या धर्मकांटा यह रिलीजन का वजन करने का तराजू है क्या?

अपने समाज जीवन की विविधताओं के बारे में मुझे इतना कहना है कि जिस क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवक गए वह प्रत्येक क्षेत्र स्वतंत्र और स्वायत्त है। इन क्षेत्रों की अपनी व्यवस्था हैं, आर्थिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण होने की इनकी अलग-अलग पद्घति हैं, और कार्य करने की उनकी अपनी शैली हैं। इन सबमें संघ कभी उलझता नहीं लेकिन मार्गदर्शन जरूर देता है। इन संगठनों के प्रतिनिधि संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आमंत्रित किये जाते हैं जहाँ वे चर्चा में सहभागी होते हैं और उनके संगठन के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी देते हैं।

श्री हरतोष सिंह बल ने जो विवादित प्रश्न उपस्थित किया है भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिपूजा जिस प्रकार से स्वीकारी है उसे संघ ने कैसे मान लिया? उस को मेरा उत्तर यह है कि चुनाव एक विशेष आयोजन है। मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी एक प्रतीक की आवश्यकता होती है। श्री नरेन्द्रभाई ने उसको पूरा किया है। यह प्रतीक फायदेमंद साबित हुआ है। कितने प्रतिष्ठित लोग भाजपा में शामिल हुए हैं। उनमें पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह, पत्रकार एम.जे. अकबर, और भी अनेक हैं। इसके लिए श्रेय अगर देना है तो बड़े दिल से श्री नरेन्द्र भाई को देना होगा। लेकिन यह भी हमें समझना चाहिए कि नरेन्द्र भाई को इस प्रतीकात्मक की मर्यादाओं का ध्यान है। वे संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ की संस्कृति के मूल को समझते हैं और उससे वाकिफ भी हैं। वे प्रतिभाशाली नेता हैं और शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म क्या होता है और इनमें क्या अंतर हैं यह वे जानते है।


 - मा.गो.वैद्य
(लेखक संघ के पूर्व प्रवक्ता हैं)

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