Thursday 6 August 2015

अच्छा तो मैं भी नक्सली हूं.... लेकिन ऐसा नक्सली होने पर गर्व है...

कुछ दिन पहले अपने एक छोटे भाई प्रीतम दुबे के साथ राष्ट्रीय एकात्मता के विषय पर चर्चा हो रही थी, तो उसने किसी विषय पर बोला कि हमारे संविधान में ऐसा लिखा है...तो मेरे मुंह से अचानक निकला कि मैं संविधान को नहीं मानता। मेरे मुंह से संविधान के विषय में ऐसा पहली बार निकला था। उस रात मेरे लिए चिंतन का विषय यही था कि मेरे मुंह से संविधान को लेकर ऐसी बात क्यों निकली। इसका मतलब यह नहीं कि मैं हमेशा से संविधान का पूर्ण रूप से समर्थन करता था। मैं पहले भी संविधान का विरोध करता रहा हूं लेकिन वो विरोध इस लिए होता था क्यों कि मैनें संविधान की बहुत सी धाराओं  तथा कानूनों के विषय में विस्तार पूर्वक अध्ययन किया था। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए उन कानूनों के पीछे के मूल उद्देश्यों को मैं समझता था इस नाते मैं संविधान का विरोध करता था लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि संविधान को पूर्ण रूप से नकारना उचित होगा।

उस दिन प्रीतम से बात करते हुए जब मेरे मुंह से निकला कि मैं संविधान को नहीं मानता तो मेरे स्वयं के वाक्य ने मुझे चिंतन की स्थिति में ले जाकर खड़ा कर दिया और ऐसा इस लिए हुआ क्यों कि ये विचार मेरे मूल विचार नहीं थे। ऐसा लगा कि किसी और के विचार मुझ पर हावी हो रहे हैं। फिर जब इस विषय पर सकारात्मक चिंतन किया तो समझ आया कि मैं इतना कमजोर नहीं कि किसी और के विचार मुझ पर हावी हो जाएं। ये वाक्य जो मेरे मुंह से निकला था उसे यह मानकर सत्य मान लिया कि ये ईश्वर की सोच है और मुझे चलाने वाले, मुझे जन्म देने वाले परमपिता परमेश्वर ने मेरे मन में ये विचार डाला।

आज ऑफिस में बैठे समय कुछ लिख रहा था तभी अचानक मेरी नजर बाबा सत्यनारायण मौर्य की एक कविता पर पड़ी। कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं...

भारत माँ के सब बेटे हैं, सबको माँ का प्यार मिले।
एक रहे कानून व्यवस्था, सबको सम अधिकार मिले॥
जाति भाषा पंथ भेद तो, रूप रंग खुशबू भाई
इन बातों को लेकर ना, इस धरती पर हथियार चले॥
समरस भावों से भारत माँ, पुत्रों तुम्हें निहारती।
वन्दे मातरम् गाकर लो, भारत माँ की आरती॥ 

इन पंक्तियों को पढ़कर मुझे समझ आया कि सांस्कृतिक आधार पर हमें संविधान की नहीं अपितु सम विधान की आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था जो सभी के लिए समान हो अर्थात भेदभाव रहित व्यवस्था।

इस विषय पर एक अन्य मित्र से चर्चा हुई तो उन्होंने कहा कि नक्सली भी संविधान नहीं मानते तो तुममें और उनमें क्या अंतर है? यदि नक्सली इस विषय को लेकर नक्सली कहे जाते हैं तो मुझे भी नक्सली कहलाने में गर्व होगा।

मित्रों एक बार सोच कर देखिए कि जब ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया तो उसने ऐसा नहीं किया कि अमुख पेड़ से प्राप्त ऑक्सीजन का प्रयोग केवल महिलाएं करेंगी तथा अमुख पेड़ से पुरुष.... इस नदी से प्राप्त जल का प्रयोग केवल 14 वर्ष तक के बच्चे कर सकते हैं।लिखने को ऐसे बहुत से विषय हैं लेकिन इसे संकेत समझ कर एक बार आप भी चिंतन करें कि क्या हम स्वयं को भगवान से भी ऊपर समझने लगे हैं? जब ईश्वर ने कोई भेदभाव नहीं किया तो हम क्यों कर रहे हैं?

आज इसी प्रश्न के साथ......

वन्दे भारती

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