Tuesday 1 September 2015

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.2

आरक्षण की कहानी मेरी जुबानी- भाग.1 से आगे

सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है। परन्तु वास्तविकता ये है कि जातिगत आरक्षण का सारा लाभ तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हे आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं है। पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं। कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं, फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित है?

कुछ हिन्दू जो मुस्लिम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं, अर्थात् सामान्य वर्ग में आ चुके हैं, फिर भी वे आरक्षण नीति के अन्तर्गत अनुचित रूप से विभिन्न सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। इतिहास में तो बहुत कुछ हुआ है उसका रोना लेकर अगर हम आज भी रोते रहे तो देश कैसे आगे बढ़ेगा? वर्तमान में तो युवा देश उन सब बातों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ रहा है परन्तु ये आरक्षण भोगी लोग सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते जातियों के नाम पर देश को तोड़ने की बात करते है। इतिहास में ये हुआ और ये हुआ इस तरह की काल्पनिक बातों का हवाला देकर देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे है।

धीरे धीरे जातिवाद खत्म हो रहा है। परन्तु ये नेता उसे खत्म नहीं होने देंगे क्यूँकि ये लोग जानते है कि अगर शोर ना मचाया तो कुछ पीढ़ियों के बाद आने वाली सन्तति भूल जायेगी कि जाति क्या होती है। परन्तु इन लोगों को डर है कि ये होने के बाद कही आरक्षण कि मलाई हाथ से ना निकाल जाए और जाति के नाम पर चलने वाले वोट बैंक बंद ना हो जाए। ऐसे लोग अपने ख़द के उद्धार के लिए जातिवाद को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं । इन्हें बिना परिश्रम के जाति प्रमाण पत्र के सहारे पद चाहिये। भले ही अपने दायित्वों का निर्वाह नही कर पाये क्युंकि योग्यता तो होती नही। फिर देश का नाश हो या सत्यानाश इन्हे कोई फर्क नही पड़ता ।

जातिवाद देश को तोड़ने का काम करता है जोड़ने का नहीं। ये बात इन लोगों की समझ में नही आएगी क्यूँकि समझने लायक क्षमता ही नही है। वैसे भी जब किसी को बिना किए सब कुछ मिलने लगता है तो मेहनत करने से हर कोई जी चुराने लगता है और वह आधार तलाश करने लगता है जिसके सहारे उसे वो सब ऐसे ही मिलता रहे। यही आधार आज के आरक्षण भोगी तलाश रहे है। कोई मनु को गाली दे रहा है तो कोई ब्राह्मणों को ! कोई हिंदू धर्म को ! तो कोई पुराणों को ! कुछ लोग वेदों को तो कुछ लोग भगवान को भी ! परन्तु ख़ुद के अन्दर झाँकने का ना तो सामर्थ्य है और ना ही इच्छाशक्ति ! आज स्थिति यह है कि यदि आप केवल इतना ही पूछ लें कि आरक्षण कब खत्म होगा, तो तुरंत आपको दलित-विरोधी की उपाधि से लाद दिया जाएगा।

कब तक इस प्रकार हम लगातार निम्न से निम्तर स्तर पर गिरते जाएँगे। सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है, जिसका असर पूरे देश के साथ-साथ इन पिछड़े वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। सार्वजनिक बहस का स्तर और पैमाना भी गिरता चला जा रहा है। शिक्षण संस्थानों और सिविल सेवाओं की कुशलता एवं गुणवत्ता का स्तर क्या हो गया है ये वहाँ जाने से ही पता लग जाता है। अंबेडकर एक बुद्धिमान व्यक्ति थे। वो जानते थे कि ये आरक्षण बाद में नासूर बन सकता है इसलिए उन्होंने इसे कुछ वर्षो के लिए लागू किया था जिससे कुछ पिछड़े हुए लोग समान धारा में आ सके। अंबेडकर ने ही इसे संविधान में हमेशा के लिए लागू क्यूँ नहीं किया? सत्य तो यह है कि जिस तरह से शराबी को शराब कि लत लग जाती है इसी तरह आरक्षण भोगियों को इसकी लत लग गयीं है अब ये इसे चाह कर भी नही छोड़ सकते । क्यूँकि बिना योग्यता के सब कुछ जो मिल जाता है तो पढ़ने कि जरूरत ही कहाँ है। हर किसी को बहाना चाहिए होता है। अगर पिछड़ी जाति का होने की वजह से नौकरी नही मिलती तो अंबेडकर इतने बड़े पद पर नही पहुँच पाते।


नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था का और चाहे जो हाल हुआ हो, पर इसका एक स्पष्ट असर यह पड़ा कि इसके चलते समाज के समान रूप से विकास का मकसद खत्म हो गया। और तो और अब तो रिजर्व सीटों के लिए योग्य उमीदवार तक नहीं मिलते हैं। रिजर्व सीटें सालों-साल से खाली रहती चली आई हैं। इससे न केवल सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों का नुकसान हुआ है, बल्कि सरकारी क्षेत्रों में काम की भी हानि हुई है। 1993 में आईआईटी, मद्रास के निदेशक पी. वी. इंदिरेशन और आईआईटी, दिल्ली के निदेशक एन. सी. निगम ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि अनुसूचित जाति और जनजाति की पचास फीसदी सीटें आईआईटी में खाली रह जाती हैं। आज भी आरक्षण के पश्‍चात् यू.पी.एस.सी, पी.एस.सी एवं अन्य पदों पर न्यूनतम योग्यता वाले अभ्यार्थी नहीं मिल रहे हैं और कई पद रिक्त रखना पड़ रहा है|



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