Tuesday 9 August 2016

'ढोल, गंवार, शूद्र...' वाली चौपाई का सच जानते हैं आप?

भारत की सबसे बड़ी समस्या है, यहां के आम जनमानस में व्याप्त विभिन्न प्रकार के 'भेद'। जाति भेद और लिंग भेद जैसे कई तरह के 'भेद' भारत की एकता, अखंडता एवं एकात्मता को नुकसान पहुंचाने में किसी तरह की कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इस तरह के भेदों को देखने पर मन में एक सवाल उठता है कि आखिर इन सबके लिए जिम्मेदार कौन है? कुछ दिन पहले 'भारतीय साहित्य व परंपराओं को गलत पेश न करें' शीर्षक से एक ब्लॉग लिखा था। उस ब्लॉग को लिखने का उद्देश्य भारतीय परंपराओं एवं साहित्य को गलत तरह से प्रस्तुत करने का जो षड्यंत्र भारत में चल रहा है, उसे उजागर करना था।

हमारे देश में तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग है जिसे भारतीय साहित्य एवं परंपराओं में सिर्फ कमियां दिखती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे लोग अपने तरह से कमियों का 'निर्माण' कर देते हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि सभी धर्मों की किताबों में स्त्रियों और एक खास तबके के लिए आपत्तिजनक बातें कही गई हैं। जबकि मेरा मानना है कि यदि कहीं कुछ 'आपत्तिजनक' है तो उसे इग्नोर करके अच्छी बातों का अनुसरण किया जाए। लेकिन समस्या यह है कि हमारे यहां कुछ ऐसे लोग जिनका अध्ययन तो बहुत है परंतु उनकी चेतना शून्य के स्तर से भी नीचे पहुंच गई है। ऐसे लोग अच्छी बातों की भी गलत तरह से प्रस्तुति करके स्वयं को 'बुद्धिजीवी' प्रमाणित करने के प्रयास में लगे रहते हैं।

मेरी एक महिला मित्र ने कुछ दिन पहले राम चरित मानस की एक चौपाई का उदाहरण देते हुए कहा कि देखो तुम्हारे सनातन साहित्य में कैसी अनुचित बातें लिखी हैं। वह चौपाई थी,
ढोल, गंवार, पशु, शूद्र अरु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी।।

जब इस चौपाई को पहली बार पढ़ा था तो इसे पढ़कर मेरे मन में भी प्रश्न उठा था कि आखिर गोस्वामी तुलसीदास जैसा व्यक्ति, जिसने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी है, वह ऐसी बात कैसे लिख सकता है? अपनी शंका का समाधान करने के लिए मैंने देवभूमि नैमिषारण्य में रहने वाले श्रीराम कथा वाचक श्री अतुल मिश्रा जी से बात की। उन्होंने जो बात बताई वह चौंकाने वाली थी। इस चौपाई का वास्तविक अर्थ समझने से पहले एक अन्य बात समझना जरूरी है।

मेरे वामपंथी मित्र दावा करते हैं कि यह चौपाई गंवार, पशु, दलित और महिला विरोधी है। लेकिन क्या आपके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि जब गोस्वामी तुलसीदास के मन में जितनी आस्था और श्रद्धा श्रीराम के प्रति थी उतनी ही आस्था और श्रद्धा माता सीता के प्रति थी, जो व्यक्ति रावण राज में रहने वाली मंदोदरी और त्रिजटा को सकारात्मक रूप से चित्रित करता है एवं जो व्यक्ति उर्मिला के विरह और त्याग को लक्ष्मण से भी बड़ा बताता है, वह संपूर्ण नारी जाति के विषय में यह कैसे कह सकता है कि वह 'प्रताड़ना' की अधिकारी है।

जो व्यक्ति अपने साहित्य में एक गिलहरी जैसे छोटे से जीव और जटायु तथा संपाती के समर्पण को नमन करना नहीं भूलता और जो व्यक्ति यह लिखता है कि उनके आराध्य श्रीराम जटायु के प्रति पितृ-स्नेह और शबरी के प्रति मातृ-स्नेह रखते हैं, वही व्यक्ति एक जाति विशेष या 'पशु' को प्रताड़ित करने की बात कैसे कर सकता है? दूसरे शब्दों में समझें तो क्या हमारे माननीय बुद्धिजीवी यह कहना चाहते हैं कि तुलसीदास जी ने यह लिखा कि उस जाति के लोगों को प्रताड़ित किया जाए जिसके प्रति उनके आराध्य, माता-पिता जैसा स्नेह रखते हैं।

चलिए तो अब बात करते हैं उस चौपाई की, दरअसल ताड़ना एक अवधी शब्द है, जिसका अर्थ होता है पहचानना अथवा परखना। गोस्वामी तुलसीदास जी के कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी। अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है ।
इसी तरह गंवार का अर्थ अज्ञानी होता है और यदि एक अज्ञानी की प्रकृति या व्यवहार को सही तरह से नहीं जाना जाएगा तो स्वाभाविक सी बात है कि उसके साथ समय बिताना निरर्थक ही होगा। इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष्य में, जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते, उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता। इसका एक प्रमाण आपको रामायण से ही देता हूं। एक नारी, जिन्हें मैं मां कहकर संबोधित करता हूं, माता सीता जब वन में थीं तो उन्हें सोने का हिरण चाहिए था और जब वह सोने की लंका में थीं तो श्रीराम-श्रीराम जप रही थीं। किसी सामान्य व्यक्ति के मूल स्वभाव को समझना भी नामुमकिन सा ही लगता है लेकिन इन चारों को सामान्य से अधिक महत्वपूर्म यानी 'विशिष्ट' बताया गया है।

उपरोक्त चौपाई का सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु  और नारी के व्यवहार को ठीक प्रकार से समझना चाहिए और मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई बुराई है। यह चौपाई यदि ठीक तरह से समझें तो इसका उच्चारण समुद्र ने एक विशेष समय के दौरान श्रीराम के समक्ष किया है। सुन्दर कांड की पूरी चौपाई कुछ इस तरह है:
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु , नारी ।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

भावार्थ: (समुद्र देव कहते हैं कि) प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी और सही रास्ता दिखाया किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है क्योंकि  ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा तथा सही ज्ञान के अधिकारी हैं। इस चौपाई में शूद्र शब्द के प्रयोग पर भी प्रश्नचिन्ह लग सकता है। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि शूद्र शब्द एक कर्म आधारित जाति व्यवस्था से आया है। जो व्यक्ति सिर्फ सेवा कार्य करता हो, संभव है कि वह आपके सामने अपने मन के विचारों को व्यक्त न कर पाए इसलिए आवश्यक है कि उसे पहचाना जाए और उसके मन के वास्तविक विचारों को समझा जाए।

दोस्तो, यह इस चौपाई का वास्तविक अर्थ है, यह वह है जिस विचार के साथ गोस्वामी तुलसीदास ने लेखन किया। अब आगे आपको तय करना है कि आप नकारात्मकता की नींव पर निर्मित उस 'झूठे' वामपंथी साहित्य पर विश्वास करेंगे या सकारात्मकता आधारित मूल विचारों पर.... मुझे गर्व है कि मैं उस संस्कृति से आता हूं जहां के साहित्य में रामायण, महाभारत और उपनिषद शामिल हैं... फिर भी कहता हूं कि यदि कहीं लेखन में किसी से कोई कमी रह गई है तो उसे अनदेखा करके सकारात्मक विषयों का अनुसरण करें।

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