प्रिय रवीश जी,
नमस्ते
नमस्ते
‘खुला
खत’ के माध्यम स संवाद करने की आपकी शैली का मैं पुराना प्रशंसक हूं। आज
सोचा कि आपसे आपकी ही शैली में बात करूं… मैं यह बिलकुल नहीं कहता कि सरकार
द्वारा किसी भी मीडिया संस्थान पर प्रतिबंध लगाना उचित है। लेकिन मुझे
लगता है कि प्रतिबंध और दंडात्मक कार्रवाई के बीच के अंतर को समझने की
जरूरत है। यह पूरा मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है। मुझे पूरा विश्वास है कि
आप देश की न्यायव्यवस्था पर पूरा विश्वास रखते हैं। कोर्ट का जो भी फैसला
होगा, वह सभी को स्वीकार्य होगा। मैं इस बहस में नहीं पड़ूंगा कि एनडीटीवी
की रिपोर्टिंग गलत थी या सही। इस बात का फैसला कोर्ट करेगा। यदि वह
रिपोर्टिंग गलत थी तो निश्चित ही दंड मिलना चाहिए, लेकिन वह दंड उन सभी
मीडिया संस्थानों को मिलना चाहिए, जिन्होंने कुछ ऐसी ही रिपोर्टिंग की थी।
मेरा मुद्दा कुछ और है, आपने अपने हालिया प्राइम टाइम शो में देश की स्थिति
को आपातकाल जैसा बताया।
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vishva gaurav |
वर्तमान
स्थिति को आपातकाल जैसा बताकर आप जताना क्या चाहते हैं? चलिए आपको इंदिरा
जी के काल के समय वाले ‘आपातकाल’ की याद दिलाता हूं। वैसे तो आप मुझसे बहुत
बड़े हैं, 1975 के आपातकाल के पहले आपका जन्म भी हो चुका था तो निश्चित है
जिनसे आपने उस समय को जाना होगा, उनकी स्मृतियां उन लोगों से ज्यादा अच्छी
रही होंगी जिनसे मैंने आपातकाल को जाना है। लेकिन फिर भी जितना पढ़ा है,
और जितना सुना है उसे आपकी स्मृति में पुनर्स्थापित करके ‘आपातकाल’ शब्द का
अर्थ स्पष्ट करना चाहता हूं।
लोकतंत्र सत्याग्रही जितेंद्र अग्रवाल
इंदिरा के आपातकाल को कभी न भूलने वाली त्रासदी कहते हैं। उनके मुताबिक,
‘उसमें न कोई दलील थी और न कोई सुनवाई, सीधे जेल भेज दिया जाता था। लोगों
को घरों से पकड़ कर उनकी नसबंदी कर दी जा रही थी। लिहाजा तमाम लोग डर और
दहशत से खेतों में छुप कर दिन बिता रहे थे। जिसने भी इस काले कानून के
खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की उसे पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जा रहा था।’
आगरा शहर के पुरुषोत्तम खंडेलवाल और अशोक
कोटिया कई महीने जेल में बंद थे और उनके मुताबिक, ‘आपातकाल के दौरान जेलों
में सीवर की कोई व्यवस्था नहीं थी और मीसा में बंद कैदियों के शौचालयों में
दरवाजे नहीं होते थे। उनके गुप्तांगों में पेट्रोल डाल दिया जाता था,
पेचकस और प्लास द्वारा नाखूनों को उखड़ा जाता था।’
महाराष्ट्र से विधायक एवं समाज सेवी मिडाल
गोरे को अकोला जेल में चूहों से भरे सेल में रखा गया था। उड़ीसा के पूर्व
मुख्यमंत्री की पत्नी मालती चौधरी को गिरफ्तार कर मानसिक रूप से विक्षिप्त
लोगों के साथ वाली सेल में रखा गया। अरे साहब! कल्पना करिए उस आपातकाल की
जब बेंगलुरु में एक गर्भवती महिला कार्यकर्ता श्रीमती नर्सम्या गरुयप्पा को
जंजीरों में बांधकर रखा गया था।
आपातकाल
वह था जिसमें सरकार की तानाशाही नीतियों के कारण महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई
थी। आप तो बड़े आराम से तथाकथित आपातकाल में सरकार पर ‘कटाक्ष’ कर ले रहे
हैं लेकिन साहब याद करिए, वह समय जब रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली
की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित
अखबारों के कार्यालयों की बिजली रात में ही काट दी गई।
उस दौर के सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र
कुमार गुजराल को हटाकर विद्या चरण शुक्ला को नई जिम्मेदारी दी गई,
जिन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने-गाने पर मजबूर
किया, ज्यादातर लोग झुक गए, लेकिन किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना। उनके
गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए-उनके घर पर इनकम टैक्स के छापे पड़े। अमृत
नाहटा की फिल्म ‘किस्सी कुर्सी का’ को सरकार विरोधी मानकर उसके सारे प्रिंट
जला दिए गए। गुलजार की आंधी पर भी पाबंदी लगाई गई। उस समय कई अखबारों ने
मीडिया पर सेंसरशिप के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की, पर उन्हें बलपूर्वक
कुचल दिया गया। उस समय देश के 50 जाने माने पत्रकारों को नौकरी से निकलवाया
गया, तो अनगिनत पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया गया।
आपातकाल के बारे में कहने के लिए और भी
बहुत कुछ है लेकिन आपने तो आपातकाल की परिभाषा ही बदल दी। आप तो खुद ही
आपातकाल घोषित करके अपने चैनल की स्क्रीन काली
कर देते हैं। आपको सवाल पूछने से कोई नहीं रोक रहा, यदि कोई रोकता है तो
वह आप पर नहीं बल्कि पूरी मीडिया पर हमला कर रहा है। मीडिया के प्रति
अथॉरिटी की जवाबदेही होनी चाहिए लेकिन साहब मीडिया की भी आम जनता के प्रति
जवाबदेही बनती है। ‘दादरी’ पर आपके चैनल ने खूब ‘विलाप’ किया था और उसके
बाद ‘मालदा’ पर मुंह में दही जमा लिया था, तब कहां गई थी जवाबदेही? आपके
चैनल के ऑफिस में हजारों लोगों ने सवाल पूछे, सोशल मीडिया पर आपके चानल से
सवाल पूछे गए लेकिन तब तो सवाल पूछने वाले ‘गुंडे’ हो गए थे, तब तो उनसे
कहा जाता था कि हमारा चैनल है और हमारा जो मन करेगा वह दिखाएंगे।
एक मिनट, कहीं ऐसा तो नहीं था कि उस दिन
एक अरनब गोस्वामी, एक दीपक चौरसिया, एक रोहित सरदाना ने आपको अपनी टीवी की
स्क्रीन काली करने पर मजबूर कर दिया था? नीरा राडिया और बरखा दत्त, 26/11
के दौरान एनडीटीवी की रिपोर्टिंग इत्यादि ऐसे आपके एनडीटीवी से जुड़े बहुत
से ‘कांड’ हैं, जिन पर लिखने लगूंगा तो समय कम पड़ जाएगा। आज आपको और आपके
साथियों को लगता है कि मीडिया का एक तबका खुद न्यायालय बनकर किसी को भी
आरोपी से दोषी बना देता है लेकिन साहब, आप भी उनसे अलग कहां हैं, इशरत जहां
और सोहराबुद्दीन मुठभेड़ की अपने चैनल की रिपोर्टिंग और याद करिए, आपने भी
तो टीवी स्टूडियो में इशरत को मासूम, निर्दोष और शहीद करार दिया था।
खैर छोड़िए यह सब, मुझे बस इतना बता दीजिए
कि यदि एक लोकतांत्रिक देश में, जहां हजारों अखबार, चैनल और तमाम संचार
माध्यम मौजूद हों, वहां अगर एक कोई भी मीडिया संस्थान कुछ गलत करे, कुछ ऐसा
करे जो किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं अपितु पूरे देश के लिए घातक हो, तो
ऐसे में उस संस्थान के साथ क्या किया जाना चाहिए? क्या ‘अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता’ के नाम पर उसे दंड नहीं मिलना चाहिए? संभव है कि आपको ‘गलत’
शब्द की व्याख्या की आवश्यकता पड़े? सीधे शब्दों में हर वह चीज गलत है जो
राष्ट्रहित में ना हो, जनहित में ना हो?
मैं मीडिया की स्वतंत्रता के साथ हूं
लेकिन वह स्वतंत्रता किसी विशेषाधिकार के साथ नहीं होनी चाहिए। जितनी
स्वतंत्रता इस देश के अंतिम व्यक्ति को है, उतनी ही मीडिया को भी।
निश्चित ही अथॉरिटी की जवाबदेही मीडिया के
प्रति होनी चाहिए लेकिन साथ ही मीडिया की जवाबदेही भी जनता के प्रति, देश
के प्रति होनी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने पर जिस तरह से
एक आम नागरिक दंड का अधिकारी है, वैसे ही मीडिया भी। फिर चाहे वह मीडिया
संस्थान कोई भी हो।
आपका यह कहना है कि जिस अपराध के लिए NDTV
इंडिया को सज़ा दी जा रही है, वह अपराध दूसरे चैनलों ने भी किया है बल्कि
रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता तक ने वे बातें उजागर की थीं जो आतंकवादियों के
काम की हो सकती थीं। (पढ़ें यह ब्लॉग
) यदि यह सच है तो यह वाकई भेदभाव है जो कि नहीं होना चाहिए। लेकिन यह सच
है या नहीं, इसका फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया जाए। मैं अपने इस
ब्लॉग में केवल इतना कहना चाहता हूं कि यदि कोई मीडिया संस्थान – कोई भी
मीडिया संस्थान चाहे वह सरकार समर्थक हो या सरकार विरोधी – राष्ट्रीय
सुरक्षा को खतरे में डालने का अपराध करता है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए।
किसी एक मीडिया संस्थान पर सिर्फ इसलिए कार्रवाई की जाए कि वह सत्ता या
किसी खास विचारधारा का आलोचक रहा है और दूसरे को छोड़ दिया जाए कि वह
सत्ता या किसी खास विचारधारा का समर्थक है तो विश्वास मानिए देश का कोई भी
पत्रकार जो अपनी जिम्मेदारी से समझौता नहीं कर सकता, वह सत्ता के अहंकार को
तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
धन्यवाद
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