जनवरी 2016 में एक
मुस्लिम महिला को स्पीड पोस्ट से एक लेटर मिलता है, जिसमें उसके पति ने
कथित तौर पर इस्लामी कानून का प्रयोग करके तलाक दे दिया होता है। जयपुर की
रहने वाली आफरीन नामक उस महिला के दर्द को क्या आप महसूस कर सकते हैं? क्या
आप कल्पना कर सकते हैं कि निकाह से पहले आफरीन ने अपनी जिंदगी को लेकर
कैसे-कैसे सपने देखे होंगे? उत्तराखंड की निवासी शायरा बानो ‘तलाक’ से सताई
हुईं एक अन्य महिला हैं। शायरा का कहना है कि उनका पति उनके साथ मारपीट
करता था और बाद में उसने शायरा को तलाक दे दिया। शायरा के दो बच्चे हैं
लेकिन वे उसके पति के साथ रहते हैं और शायरा का पति बच्चों से उनकी मां को
बात तक नहीं करने देता। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक मां, अपने बच्चों
से दूरी कैसे बर्दाश्त करती होगी।
विश्व गौरव |
देश में इस समय ट्रिपल तलाक को लेकर बहस
छिड़ी है। इस बहस में एक पक्ष ऐसा भी है जो कहता है कि अगर कोई मर्द तीन
बार तलाक यानी ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कह दे तो उसकी उस महिला के प्रति सारी
जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है जो अपने परिवार को छोड़कर अपनी पूरी जिंदगी
उस मर्द के साथ बिताने का सपना देखकर आई है। यह सही है या गलत इस बहस में
पड़ने से पहले उन परंपराओं पर बात कर लेते हैं जो कई सौ सालों से उस मजहब
का आधार बनी हुई हैं जो महिलाओं को सर्वाधिक अधिकार देने का दावा करता है।
निकाह- इस्लाम में निकाल को एक तरह का ‘अग्रीमेंट’ जैसा माना गया है। निकाल के दौरान मेहर की एक रकम तय की जाती है,
जिसे किसी परिस्थिति में विवाह विच्छेद यानी तलाक के बाद पुरुष द्वारा
महिला को अदा करना होता है। लेकिन सवाल यह है कि एक लड़की जो अपने परिवार,
संबंध, रिश्ते, सपने और अपने भविष्य को छोड़कर अपनी जिंदगी को जिस इंसान के
हवाले कर देती है, तलाक के बाद उसे कितना भी पैसा मिल जाए, क्या वह उस
पैसे से खुश रह सकती है? क्या भावनाओं और अधूरे सपनों की एक ‘रकम’ तय कर
देना न्यायसंगत है? तर्क चाहे कुछ भी हों लेकिन इस अग्रीमेंट जैसी परंपरा
को सही नहीं ठहराया जा सकता।
तीन तलाक- अगर
पत्नी-पत्नी के रिश्ते सामान्य नहीं हैं तो एक खास तरीके से तीन बार में एक
निश्चित समय अंतराल पर पति, अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। लेकिन आज जो
परंपरा चल रही है वह वास्तविक इस्लामिक कानून से एकदम भिन्न है।
आज तीन बार एक ही समय पर तलाक कहकर निकाह को खत्म कर दिया जाता है। इस तरह
के तलाक में खास बात यह है कि कुछ मुल्ले-मौलवी आज 21वीं सदी में भी इसे
जायज ठहरा रहे हैं। उनका तर्क है कि इस्लाम में इस तरह से दिया गया तलाक
गलत जरूर माना गया है लेकिन ‘तलाक-तलाक-तलाक’ बोल दिया तो तलाक माना तो
जाएगा ही। यानी अगर किसी को अपनी पत्नी पर गुस्सा आ जाए तो वह दो गवाहों के
सामने अपनी पत्नी को तीन बार ‘तलाक’ बोलकर रिश्ते को तत्काल प्रभाव से
समाप्त कर सकता है। सवाल यह है कि जब निकाह के वक्त शौहर और बीवी दोनों की
रजामंदी की जरूरत होती है तो फिर तलाक के वक्त क्यों नहीं?
हलाला- तलाक के बाद अगर
पूर्व पति को अपनी गलती का अहसास हो और वह अपनी पत्नी से दोबारा निकाह करना
चाहे तो उसकी पत्नी को पहले किसी और मर्द से निकाह करना होगा, उस मर्द के
साथ शारीरिक संबन्ध बनाने होंगे, क्योंकि बिना शारीरिक संबंध के तो निकाह
पूरा ही नहीं माना जाता। और फिर उस नए शौहर से तलाक लेकर या उसकी मौत हो
जाने पर वह महिला पुराने शौहर से निकाह कर सकती है। हालांकि कुछ मौलवियों
का तर्क है कि ये सब ‘सुनियोजित’ नहीं होना चाहिए और ‘हलाला’ कानून बनाकर
इस्लाम, मर्दों को एक तरह से सजा देता है। यानी कि अगर मर्द ने कोई गलती
की, उसे कुछ समय के बाद अपनी गलती का एहसास हो गया, उसकी पूर्व पत्नी गलती
की माफी देकर फिर से उसके साथ रहना भी चाहे तो उसे पहले अपने शरीर को किसी
और मर्द के हवाले करना पड़ेगा और यह पूर्व पति के लिए सजा होगी। एक महिला
को किसी और के साथ बिना मर्जी के मजबूरी में शारीरिक संबंध बनाए और इसे
मर्द को दी गई सजा माना जाए, कैसे? एक बार तलाक हो गया और फिर मियां-बीवी
चाहें तो भी उनके पास एक प्रताड़ना भरी प्रक्रिया से गुजरने के अलावा कोई
विकल्प नहीं है।
मुताह- यह एक तरह का
निकाह होता है जिसमें पहले से ही समय तय कर लिया जाता है कि मियां-बीबी
कितने समय तक साथ रहेंगे। इसके लिए बाकायदा औरत को पैसा दिया जाता है। इस
पूरी प्रक्रिया को यदि इस्लामी कानून आधारित वेश्यावृत्ति कहा जाए तो गलत
नहीं होगा। हाल ही में कई ऐसे मामले सामने आए हैं कि खाड़ी देशों से
महीने-दो महीने के लिए मर्द वापस जब आते हैं तो वक्त बिताने के लिए, अपने
शरीर की भूख मिटाने के लिए उन्हें कोई औरत चाहिए होती है और वे जिम्मेदारी
भी नहीं निभाना चाहते। इसलिए वे मुताह निकाह करते हैं। जितने दिन का करार
तय हो जाता है, उतने दिन के बाद सब कुछ खुद-ब-खुद खत्म हो जाता है।
खुला- यह भी एक तरह का तलाक होता है जो औरत की ओर से मर्द को दिया जाता है लेकिन यह ‘तीन तलाक’ के जैसा नहीं होता।
औरत अगर मर्द से खुला मांगती है तो अंतत: देता मर्द ही है। अगर वह नहीं
चाहे तो उसे मनाना पड़ता है। किसी काजी, किसी बुजुर्ग या दोस्त से दबाव
डलवाना पड़ता है या कुछ संपत्ति वगैरा देकर मनाना पड़ता है। औरत को बच्चों
से मिलने का अधिकार छोड़ना पड़ता है या मेहर की रकम छोड़नी पड़ती है। इस
तरह कुछ चीजें छोड़कर महिला को तलाक मिलता है। इतना सब होने के बावजूद
अंतिम घोषणा पुरुष को ही करनी पड़ती है। महिला सब कुछ दे दे, तब भी
‘तलाक-तलाक-तलाक’ की घोषणा पुरुष ही करता है। गजब की समानता है यार।
हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां विविध
पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। जहां अंतिम नागरिक तक को
अपने धर्म के मुताबिक जीवन जीने का अधिकार है लेकिन क्या मानवता से बड़ा
कोई धर्म है, क्या इंसानियत से बड़ा कोई धर्म है? जो अधिकार हिंदू औरत को
मिलें वह मुसलमान औरत को क्यों नहीं? जो अधिकार एक पुरुष को मिलें वह एक
औरत को क्यों नहीं? आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस इस्लाम की दुहाई देकर
‘तीन तलाक’ के नियम में परिवर्तन न करने की बात कही जा रही है, उसी इस्लाम
को मानने वाले कई इस्लामिक देशों में इस तरह के कानूनों में बदलाव किया जा
चुका है।
पाकिस्तान में 1961 के अध्यादेश के अनुसार, आर्बिट्रेशन काउंसिल की अनुमति के बिना कोई भी पुरुष दूसरा निकाह नहीं कर सकता। अफगानिस्तान में एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक लेना गैरकानूनी है। मोरक्को में पहली पत्नी की रज़ामंदी और जज की इजाजत लिए बिना दूसरा निकाह नहीं हो सकता। ट्यूनीशिया में तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। तुर्की में एक से अधिक निकाह करने पर 2 साल की सज़ा दी जाती है। इंडोनेशिया में दूसरे निकाह और तलाक के लिए धार्मिक अदालत से इजाज़त लेनी होती है और अल्जीरिया में पुरुष द्वारा तलाक देने के एकतरफा अधिकार को खत्म किया जा चुका है। वहां तलाक के मामले कोर्ट के ज़रिए ही निपटाए जाते हैं। पाकिस्तान में 1961 से, बांग्लादेश में 1971 से, मिस्र में 1929 से, सूडान में 1935 से और सीरिया में 1953 से तीन तलाक को बैन किया जा चुका है।
तलाक एक ऐसा शब्द है जो ना सिर्फ
हंसते-मुस्कुराते परिवार को तोड़ देता है बल्कि रिश्तों के सौन्दर्य को भी
समाप्त कर देता है। भारत में रुढ़िवादी मुसलमानों के एक वर्ग की ‘जिद’ के
कारण तीन तलाक का जहर पीकर भी खामोश रहने वाली हजारों महिलाएं पड़ी हैं।
कोई व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो, उसके संवैधानिक अधिकार बराबर हैं। एक
महिला के सम्मान और उसकी गरिमा के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया
जाना चाहिए। हमारे और आपके जन्म के साथ-साथ इस सृष्टि के संचालन में
सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान यदि किसी का है तो वह औरत का है। हमारी
जिम्मेदारी है कि हम उसके अधिकारों के लिए आवाज उठाएं।
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