Saturday, 25 January 2025

जनेऊ परपंरा नहीं, संस्कार है साहब! तब पहनिए, जब उसका मान रख सकें

आज जिस विषय पर लिखने जा रहा हूं, इसपर लिखने के लिए कई बार सोचा लेकिन यह विषय इतना बोझिल लगता था कि हर बार विचार को मस्तिष्क तक ही सीमित रहने दिया। लेकिन आज किसी ने आग्रह किया कि इसपर आपका मत क्या है, वह जरूर बताइए। पहले थोड़ी भूमिका- साल 2017 में मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। मैं इसे करने के पक्ष में नहीं था लेकिन फिर मुझे बताया गया कि कोई भी शुभ कर्म बिना इसके फलित नहीं होता। अब चूंकि विवाह करना था और उसे फलित भी करना था तो लगभग मजबूरी में कुछ घंटों में ‘यज्ञोपवीत’ हो गया। मैं इसके पक्ष में क्यों नहीं था, इसपर चर्चा बाद में करेंगे, पहले यह बताना जरूरी है कि मैं नियमित तौर पर यज्ञोपवीत धारण नहीं करता। विवाहोपरांत जब इसे धारण करना बंद किया तो मेरे बाबाजी बहुत नाराज हुए। बीते लगभग 15 वर्षों में मेरे बाबाजी ने यदि मेरे किसी फैसले पर आपत्ति की है तो वह यही है कि मैं यज्ञोपवीत धारण नहीं करता। वह मुझे वामपंथी, अंग्रेज… और भी ना जाने क्या-क्या कहते हैं। मेरे मन में भी कई बार आता है कि 6 धागों का एक समूह ही तो धारण करना है, उनकी खुशी के लिए कर लेते हैं, लेकिन उसके तुरंत बाद मन में एक प्रश्न यह भी उठता है कि किसी अपने की खुशी के लिए क्या हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित नितांत वैज्ञानिक परंपराओं को सिर्फ दिखावे के लिए स्वीकार करना क्या उनका ’अपमान’ नहीं होगा?


मैं यज्ञोपवीत कराने के पक्ष में क्यों नहीं था?

शास्त्रवचन है- 'जन्मना जायते शूद्रः संस्कारवान् द्विज उच्यते ॥' (स्कन्द 6.239.31)

स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम् उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को बताया गया है। जन्म से (प्रत्येक) मनुष्य शूद्र, संस्कार से द्विज बनता है। माना जाता है कि उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है। उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’ किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। वेदाध्ययन के लिए जब बालक गुरु के सन्निकट जाता है, तब वह पूर्ण रूप से परिवार का मोह त्यागकर सिर्फ शिक्षा के लिए, ज्ञान के लिए ‘जनेऊ’ धारण करता है। यह जनेऊ उसे उसके संकल्प को स्मरण रखने में मदद करता है। यह संकल्प क्या होता है? यज्ञोपवीत (जनेऊ) की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का एक संकल्प चाहिए। 

-चार वेद

-चार उपवेद

-छह अंग

-छह दर्शन

-तीन सूत्रग्रंथ

-नौ अरण्यक सहित कुल 32 विद्याएँ होती है।

इसके अलावा वास्तु निर्माण, युजन कला, साहित्य, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, किन, बुनाई, आभूषण निर्माण, ऋषि ज्ञान आदि मिलाकर कुल 64 कलाएं होती हैं। यानी कुल 32+64= 96।
इनके अध्ययन के संकल्प का प्रतीक ही यज्ञोपवीत है। लेकिन क्या आज उपनयन संस्कार इसी व्यवस्था के तहत कराया या किया जाता है? 64 कलाएं छोड़ दीजिए। 4 वेद और 4 उपवेद तक का अध्ययन तक छोड़ दीजिए, उनके नाम तक पता नहीं होते हैं, और धारण करके यज्ञोपवीत खुद को बड़ा ‘सनातनी’ साबित करने में लगे हैं। मतलब हद है! 


सोशल मीडिया पर कई बार मैंने देखा कि अलग-अलग ग्रंथों का संदर्भ देते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि ‘जनेऊ’ ना धारण किया तो हिंदू कैसे हुए, ब्राह्मण कैसे हुए, धर्म का ज्ञान कैसे देने लगे? ऐसे अन्य कई अनर्गल प्रलाप लगातार चलते रहते हैं। तो आइए, आज ग्रंथों के संदर्भ के साथ ही बात करते हैं।


उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता, किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। इन ग्रंथों के मुताबिक, अधिकतम 12 वर्ष तक यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए, यानि अधिकतम् 12 वर्ष की आयु तक आते-आते वेदाध्ययन प्रारंभ हो जाना चाहिए, सिर्फ धागों के एक समूह को जनेऊ समझने वाले बताएं कि उनका यज्ञोपवीत किस आयु में और किस उद्देश्य के साथ हुआ था!


पद्म पुराण के कौशल खण्ड में आया है:

कोटि जन्मार्जितं पापं ज्ञानाज्ञान कृतं च यत् ।

यज्ञोपवीत मात्रेण पलायन्ते न संशयः ।।

अब इसकी व्याख्या कुछ ऐसे की जाती है- करोड़ों जन्म के ज्ञान-अज्ञान में किये हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं, इसमें किसी तरह का संशय नहीं है।

जबकि इसका वास्तविक अर्थ है कि यदि कोई वेदाध्ययन करे, ज्ञान अर्जित करे तो  करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। 

अब सवाल उठेगा कि वेदाध्ययन करने से पाप कैसे नष्ट होंगे? अरे भाई पुरानी परंपरा में ज्ञान का मतलब शिक्षा नहीं होता था, उसे अपने जीवन में उतारना, उस ज्ञान को विस्तार देना भी बड़ी जिम्मेदारी होती थी। जो अध्ययन कर रहा है, वह करता ही इसीलिए था कि समाजहित में उस ज्ञान का उपयोग कर सके। इसका प्रतीकशास्त्र ना समझे तो मत समझो, सिर्फ शब्दों में फंसे रहोगे तो मूढ़ ही कहलाओगे।

देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तर्षयस्तपसे ये निषेदुः ।

भीमा जग्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धा दधाति परमे व्योयम् ।।

(ऋग्वेद 10।109।4)


ग्वेद में उल्लेखित इस सूक्ति के मुताबिक, प्राचीन तपस्वी सप्त ऋषि तथा देवगण ऐसा कहते हैं कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की महान् शक्ति है। यह शक्ति अत्यन्त शुद्ध चरित्रता और कठिन कर्तव्यपरायणता प्रदान करने वाली है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से नीच जन भी परमपद् को पहुंच जाते हैं।
अब कोई मूढ़ यह समझ ले कि धागों का एक समूह धारण कर लेने से कोई नीचकर्म वाला परमपद को प्राप्त कर लेगा तो मान लीजिए कि उसकी मति ज्ञान की परिधि से बाहर जा चुकी है। इसका सीधा सा अर्थ है- यज्ञोपवीत ब्राह्मण की महान् शक्ति है। अर्थात ब्राह्मण यानी जो ज्ञान के विस्तार के दायित्वबोध के बंधन में है, उसके लिए यज्ञोपवीत रूपी संकल्प एक महान शक्ति है। और इसी दायित्वबोध को यदि कोई नीचकर्म वाला भी समझ ले तो वह परमपद को प्राप्त कर ही लेगा।


आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के अनुसार, उपनयन संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सानिध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्-पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे।


ये तो हो गए कुछ शास्त्रीय तर्क। अब आइए कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर बात कर लेते हैं। मैं बिना किसी शंका के यह मानता हूं कि भारतीय सनातन व्यवस्था में जितने भी संस्कार हैं, जितनी भी परंपराएं हैं, उनके पीछे नैतिक, सामाजिक, बौद्धिक कारण के साथ वैज्ञानिक कारण भी जरूर रहता है। हमारे ऋषियों ने ये परंपराएं और ये संस्कार बहुत सोच-समझकर बनाए थे। उस विज्ञान को किसी कथा-कहानी से जोड़ दिया गया, ताकि उसके अनुपालन में आसानी रहे। लेकिन इनका अनुसरण करते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके अनुपालन के लिए जो रीति-नीति बनाई गई है, उसे ना छोड़ें, नहीं तो उसका दुष्परिणाम भी हो सकता है।

एक आसान उदाहरण से समझाता हूँ। प्राणायाम करना सेेहत के लिए बहुत लाभदायक होता है, लेकिन यदि भोजन के तुरंत बाद प्राणायाम करेंगे तो पेट दर्द, गैस, और एसिडिटी जैसी समस्याएं होने लगेंगी। यही चीज भारतीय परंपराओं के साथ भी है। वैसे सभी परंपराओं की बात करेंगे तो विषय बहुत लंबा हो जाएगा। सीधे-सीधे यज्ञोपवीत पर बात करते हैं और एक बहुत सामान्य से उदाहरण से समझते हैं।


चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है, पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।

अब इस बात पर तो शोध हुआ है कि मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से लाभ होता है। और शोध तो आज हुआ है, हमारे मुनियों ने तो यह व्यवस्था बहुत पहले बना दी थी लेकिन यहां एक बात जो समझने वाली है कि यह लाभ तभी होता है, जब आप बैठकर लघुशंका करें। अब आप बताइए कि कितने लोग आज के समय में बैठकर लघुशंका करते हैं। ऐसे में क्या इस बात की संभावना नहीं है कि खड़े होकर दाएं कान पर जनेऊ लपेटकर लघुशंका करने से नुकसान नहीं होगा? बिलकुल वैसे ही, जैसे प्राणायाम की किसी क्रिया को ठीक प्रकार से ना करने पर उसका दुष्प्रभाव हो सकता है।

अंत में एक बात और, हर संस्कार के लिए एक समय सुनिश्चित है। गर्भाधान संस्कार जन्म के 10 वर्ष बाद नहीं हो सकता। विवाह संस्कार 70 वर्ष की आयु में नहीं हो सकता। अंतिम संस्कार व्यक्ति के जीवित रहते नहीं हो सकता। फिर उपनयन संस्कार कभी भी, किसी भी आयु में क्यों करना चाहिए? क्या यह उस संस्कार विशेष का अपमान नहीं है? 


Saturday, 4 January 2025

मनुष्यता के हत्यारे संग इतनी सहानुभूति! ‘तैमूर’ प्रशंसकों की मति ‘लंग’ है

जाते साल के साथ देश के जाने माने कवि डॉ. कुमार विश्वास ने एक कवि सम्मेलन के दौरान एक ऐसा सवाल उठाया, जिससे सोशल मीडिया पर भूचाल आ गया। कुमार विश्वास के परिवार को, उनकी बेटियों को, उन्हें, उनकी विचारधारा को, सबको टारगेट किया जाने लगा। मीम्स बनने लगे, गंदी और भद्दी बातें होने लगीं लेकिन इन सबके बीच असल मुद्दा तो कहीं दूर ही रह गया। असल मुद्दा वह था जो डॉ. कुमार विश्वास ने उठाया था।

क्या गलत कहा था कुमार विश्वास ने? यही तो कहा था- मायानगरी में बैठने वाले लोगों को समझना पड़ेगा कि देश क्या चाहता है। अब ये चलेगा नहीं कि लोकप्रियता हमसे लोगे, पैसा हम देंगे, टिकट हम खरीदेंगे, हीरो-हीरोइन हम बनाएंगे। फिर तुम्हारी तीसरी शादी से औलाद होगी तो उसका नाम तुम बाहर से आने वाले किसी आक्रमणकारी पर रखोगे। ये चलेगा नहीं, इतने नाम पड़े हैं यार, कुछ भी रख लेते तुम. रिजवान रख लेते, उस्मान रख लेते, यूनुस रख लेते, हुजूर के नाम पर कोई नाम रख लेते. तुम्हें एक ही नाम मिला। जिस बदतमीज, लंगड़े आदमी ने हिंदुस्तान में आकर हमारी मां-बहनों का रेप किया, आप लोगों को अपने बेटे का नाम रखने के लिए वो लफंगा ही मिला. अब अगर इसे हीरो बनाओगे तो इसे खलनायक तक नहीं बनने देंगे, ये याद रखना। ये नया भारत है।

क्या गलत था इसमें? क्यों इस बयान को ऐसे प्रस्तुत किया गया जैसे डॉ. कुमार विश्वास कट्टर हो गए हैं? क्यों इसे ऐसे पेश किया गया जैसे डॉ. कुमार विश्वास मुस्लिम विरोध की बात कर रहे हैं? क्या कुमार विश्वास ने यह कहा था कि उस बच्चे का नाम ‘राम स्वरूप’ या ‘शिवकुमार’ होना चाहिए था? उन्होंने तो यही कहा था कि भई, हुजूर के नाम पर रख लेते, उस्मान, यूनुस, रिजवान कुछ भी रख लेते। लेकिन उस बात पर बात ही नहीं की गई। 30 सेकेंड का वीडियो काटकर फिर से एक राष्ट्रवादी को मुस्लिम विरोधी दिखाने की कोशिश की गई। मजेदार बात यह है कि अपने खुद के इतिहास और अस्तित्व की हत्या करके बाहर से आई एक अवैज्ञानिक, असामाजिक, अनैतिक वैचारिकी के पोषक अपने बिलों से बाहर निकले और लग गए मानवता के एक हत्यारे के महिमामंडन में।  

एक पत्रकार के तौर पर, एक भारतीय पत्रकार के तौर पर मेरी मुखरतम आवाज इस विषय पर उठनी चाहिए कि एक शख्स जो दिल्ली को लूटने की नीयत से समरकंद से हिंदुकुश की पहाड़ियों के रास्ते देश में दाखिल हुआ, जिसने करीब एक लाख हिंदुओं को कटवा दिया, हमारे देश के नागरिकों को कटवा दिया, इंसानों को कटवा दिया, उस मनुष्यता के हत्यारे शख्स के नाम पर इस देश में छोड़िए, दुनिया में किसी भी चीज का नाम क्यों होना चाहिए?

दिल्ली में दाखिल होते ही जिसने अपने सैनिकों को खुली छूट दे दी कि जाओ और धन से लेकर महिलाओं की इज्जत तक की लूट करो, वह हमारा हीरो बनेगा? मोहम्मद क़ासिम फ़ेरिश्ता अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ द राइज़ ऑफ़ मोहमडन पावर इन इंडिया में' तैमूर के सैनिकों के आतंक के बारे में लिखते हैं, "हिंदुओं ने जब देखा कि उनकी महिलाओं की बेइज़्ज़ती की जा रही है और उनके धन को लूटा जा रहा है तो उन्होंने दरवाज़ा बंद कर अपने ही घरों में आग लगा दी। यही नहीं वो अपनी पत्नियों और बच्चों की हत्या कर तैमूर के सैनिकों पर टूट पड़े।"

आपको शर्म नहीं आती कि किसी ने अपने बच्चे का नाम उस क्रूर आक्रांता के नाम पर रख लिया और आप खामोश बैठे रहे! तुम मुसलमान हो? तैमूर के सैनिकों ने एक मस्जिद पर हमला करके वहां पर शरण लिए एक-एक शख्स को मौत के घाट उतार दिया था। तैमूर के सैनिकों ने काटे हुए सिरों की मीनार खड़ी कर दी और कटे हुए शरीर के टुकडों को चील और कौवों को खाने के लिए छोड़ दिया। यह कत्लेआम लगातार तीन दिनों तक चला था। जिस शख्स ने तुम्हारे इबादतगाह तक की मर्यादा की हत्या कर दी, उसकी पवित्रता की हत्या कर दी, तुम उसका महिमामंडन करने में लगे हो!

सोचकर देखो, एक शख्स ने 15 दिन में इतनी तबाही मचा दी थी कि उससे उबरने में दिल्ली को 100 साल लग गए थे, और आप उस शख्स को लेकर यह कह रहे हैं कि वह दुनिया का सबसे ताकतवर शासक था! 

कुछ लोग हैं, जो कह रहे हैं कि नाम में क्या रखा है? अजब-गजब से तर्क दे रहे हैं कि किसी रमेश नामक शख्स ने किसी रमेश नामक शख्स का बलात्कार कर दिया हो तो क्या लोगों को ‘रमेश’ नाम से नफरत करनी चाहिए। अरे भई! इतनी समझदारी भरी बातें कर रहे हो तो हिंदू होकर रख लो अपने बेटे का नाम रावण, बेटी का नाम शूर्पणखा और मुस्लिम होकर रख लो अपने बेटे का नाम इब्लीस। नहीं रख पाओगे! क्योंकि तुम भी जानते हो कि नाम से बहुत कुछ होता है, तुम्हें बस एक अजेंडा सेट करना है। अजेंडा- जिसमें सनातन को, राष्ट्रवाद को पीछे खड़ा किया जा सके। लेकिन इस अजेंडे के साथ काम करने वाले नेता, अभिनेता, पत्रकार, एक्टिविस्ट याद रखें कि अब यह नहीं चलेगा। दरअसल इसे चलने नहीं दिया जाएगा। बात हिंदू-मुसलमान की ना कभी थी और ना कभी होगी, बात सिर्फ देश की है, बात इतिहास की है, बात सही और गलत के नजरिये की है।

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...