Tuesday, 29 April 2025

पूर्णकालिक प्रेयसी बने रहने का संकल्प लेने वाली प्राणवल्लभा के नाम पत्र

प्रिये,

पारिवारिक, सामाजिक और संवैधानिक रूप से एकत्व के 8 साल हो गए लेकिन आत्मिकता के आधार पर देखें तो 14 साल 2 महीने और 15 दिन बीत गए हैं। इस छोटे से समयकाल में तुम्हारी सिर्फ एक शिकायत रही है। शायद मेरी कमी है कि मैं तुम्हारी उस शिकायत को दूर नहीं कर पाया। आज कोशिश कर रहा हूं। 


पता है! मैं हमेशा सोचता हूं कि क्या सच में कोई इस धरती पर हुआ होगा, जिसने प्रेम किया हो और उसकी प्रेमिका/प्रेमी को अपने साथी से कोई शिकायत ना रही हो? प्रेम की शाश्वत परिभाषाओं के मानक व्यक्तित्व क्या सच में प्रेम में बिना झगड़े के जिये होंगे? शायद नहीं! मेरा ईश्वर भी जब इस धरती पर मनुष्य रूप में आया तो वह रोया, उसने विरह झेला, उसने अभूतपूर्व प्रेम किया, फिर क्या उनकी प्रेयसी ने उनसे प्रश्न नहीं पूछा होगा? क्या राजा जनक को विदेह होने के बाद पुत्री रूप में प्राप्त हुईं वैदेही ने अपने प्रेमी से यह नहीं पूछा होगा कि पिता के वचन का पालन करने की सौगंध लेने के बाद भी आप अपनी पत्नी, अपनी प्रेमिका को चंद पलों में रावण की कैद से मुक्ति दिला सकते थे, फिर आपने क्यों नहीं दिलाई? क्या अपराजिता किशोरी जी ने मुरलीधर से सुदर्शनधारी केशव बने आदिदेव अपराजित धर्माध्यक्ष द्वारिकाधीश से यह नहीं पूछा होगा कि उन्होंने दुनिया से लड़कर उन्हें अपनी पत्नी होने का अधिकार क्यों नहीं दिया? जरूर पूछा होगा, और उन्हें उत्तर भी मिला होगा। लेकिन मैं, उनके सिखाए, उनके दिखाए प्रेम-मार्ग पर चलने को आतुर प्रेम की पाठशाला का एक नव-विद्यार्थी तुम्हारे उस एकमात्र प्रश्न का उत्तर आजतक नहीं दे पाया, ऐसा उन सभी लोगों को लगता होगा, जो तुमसे या मुझसे हमारे बहाने इस प्रश्न का उत्तर जानने की कोशिश करते हैं।

तुम हमेशा पूछती थी ना, कि तुमने जिससे पहली बार प्रेम किया, उसे इतने पत्र लिखे कि एक किताब बन गई, दो-तीन वर्षों में प्रेम में इतना कुछ लिख डाला, फिर हमारे इतने सालों के प्रेम में तुमने एक पत्र तक नहीं लिखा, हमारे प्रति प्रेम में कमी थी क्या?
नहीं! तुम्हारे प्रति प्रेम में कमी नहीं थी, दरअसल आवश्यकता ही नहीं पड़ी। संबंध जब कागजों की सीमाओं में बंधे होते हैं, तो वे अनुबंध होते हैं लेकिन प्रेम जब हर तरह की सीमाओं को पार कर जाता है, तभी वह देवत्व का गुण आत्मसात करता है। पता है! जब मन जुड़ जाता है ना, तो शब्दों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। पता नहीं क्यों और कैसे, तुम्हारे सामने बैठूं, या तुमसे सैकड़ों किलोमीटर दूर रहूं, मेरे बिना बोले सबकुछ समझ लेने की जो योग्यता तुम में है, उसके बाद लिखने को कुछ बचता ही कहां है?
मुझे पता है कि मैं आज जो तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं, वह तुम पहले से ही समझती हो, लेकिन यह पत्र असल में तुम्हें नहीं, उन सबको बताने के लिए है कि प्रेम आपको अच्छे से बेहतर और फिर बेहतर से बेहतरीन कैसे बनाता है।

पता है! हम दोनों इतने सारे ‘परफेक्ट’ कपल्स से मिलते हैं, लगता है कि अरे ये लोग झगड़ा नहीं करते होंगे, तभी तो इतने खुश हैं ना! मतलब मुझे तो ऐसा लगता है। लेकिन सच में, उसी के साथ एक बात और भी मन में आती है कि ये झगड़ा नहीं करते होंगे, तो प्रेम भी करते हैं क्या?

पता नहीं! लेकिन झगड़ा ना होना, एक-दूसरे से नाराज ना होना, गुस्से में एक-दूसरे की बात को चुपचाप बर्दाश्त कर लेना, यह प्रेम का मानक नहीं है, हो ही नहीं सकता। प्रेम तो वह है कि जब आप घनघोर क्रोध में अपने मन की बात अपने साथी से कहें और उस वक्त वह भी अपने मन की बात खुलकर कहे, लेकिन आप दोनों के क्रोध की सीमा क्या हो, यह समझना प्रेम है।

मैं ऐसा नहीं था, मैं अपने क्रोध की सीमा नहीं जानता था, दरअसल मैं जानना ही नहीं चाहता था कि दूसरे को मेरी बातें कैसी लग रही होंगी, तुमने मुझे यह सिखाया कि मैं अब किसी के भी सामने अपने व्यवहार की सीमा समझने लगा हूं। तुम कैसी हो यार! लालच के पाश की परिधि से दूर, संतुष्टि के सागर में ध्यान लगाकर बैठी विदुषी सी लगती हो।
कई बार मन में प्रश्न उठता है कि तुम्हारी निजी इच्छाएं, आकांक्षाएं क्यों समाप्त सी हो गई हैं? क्यों संबंधों के प्रति तुम इतना समर्पित हो जाती हो कि मेरी इच्छाओं और विचारों का भी सम्मान रखने से इनकार कर देती हो, क्यों तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम जो कर रही हो, वही सही है! लेकिन पता है, फिर खुद-ब-खुद इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। तुम्हारे निर्णय मुझे सर्वदा स्वीकार करने पड़ते हैं (ना चाहते हुए भी), क्योंकि तुम्हारे आचार, व्यवहार और विचार ने मुझे यह स्वीकार करा दिया है कि तुम्हारे फैसले भले ही तात्कालिक हित में ना हों, लेकिन दूरगामी परिणाम स्वरूप में किसी ना किसी रूप में लोकहितकारी अवश्य होंगे। 


मैंने प्रेम किया था, उस प्रेम ने मुझे स्वयं से मिलाया, मुझे बताया कि मैं क्या हूं, लेकिन तुमने मुझे मुझ में बसे ईश्वरत्व से साक्षात्कार कराया। तुमने बताया, तुमने सिखाया कि स्वयं से पहले दूसरों के बारे में, दूसरों के हित के बारे में विचार आना ही ईश्वरत्व है। कोशिश करूंगा कि तुमने जिस व्यक्तित्व से मेरी  पहचान कराई है, उसे बचाकर, बनाकर रखूं। 


वैवाहिक वर्षगांठ की अशेष मंगलकामनाओं के साथ

सिर्फ तुम्हारा,

-विश्व गौरव

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