
मित्रों भारत में 1857 के पहले ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हुआ करता था। शब्दों पर ध्यान दीजिएगा, उस समय अंग्रेजी सरकार का सीधा शासन नहीं था बल्कि एक अंग्रेजी कंपनी हम पर साशन करती थी। सन् 1857 में एक क्रांति हुई जिसमें इस देश में मौजूद अधिकतर अंग्रेजों को भारत के लोगों ने मार डाला था। उस समय लोग इतने गुस्से में थे कि उन्हें जहाँ अंग्रेजों के होने की भनक लगती थी तो वहां पहुँच के वो उन्हें मौत की नींद सुला देते थे । हमारे देश के इतिहास की किताबों में उस क्रांति को सिपाही विद्रोह के नाम से पढ़ाया जाता है । विद्रोह और क्रान्ति में अंतर होता है लेकिन हमारे इतिहास में उस क्रांति को विद्रोह के नाम से ही पढाया गया।
मेरठ से शुरू हुई ये क्रांति जिसे सैनिकों ने शुरू किया था, आम आदमी का आन्दोलन बन गई और इसकी आग पूरे देश में फैल गई। 1 सितम्बर तक पूरा देश अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गया था । भारत अंग्रेजों और अंग्रेजी अत्याचार से पूरी तरह मुक्त हो गया था लेकिन नवम्बर 1857 में इस देश के कुछ गद्दार रजवाड़ों ने अंग्रेजों को वापस बुलाया और उन्हें इस देश में पुनर्स्थापित करने में हर तरह से योगदान दिया । धन बल, सैनिक बल, खुफिया जानकारी, जो भी सुविधा हो सकती थी उन्होंने दिया और उन्हें इस देश में पुनर्स्थापित किया । इस देश का दुर्भाग्य देखिए कि वो रजवाड़े आज भी भारत की राजनीति में सक्रिय हैं। यदि आप चाहेंगे तो उनके खानदान का पूरा कच्चा चिठ्ठा खोल कर रख दूंगा।
अंग्रेज जब वापस आये तो उन्होंने क्रांति के उद्गम स्थल बिठूर (जो कानपुर के नजदीक है) पहुँच कर लगभग 24000 लोगों का मार दिया। इस क्रांति की सारी योजना बनाने वाले बिठूर के नाना जी पेशवा से बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने ऐसा किया। उसके बाद उन्होंने अपनी सत्ता को भारत में पुनर्स्थापित किया और जैसे एक सरकार के लिए जरूरी होता है वैसे ही उन्होंने कानून बनाना शुरू किए। अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए कानून तो 1840 से ही बनाना शुरू कर दिए थे लेकिन 1857 से उन्होंने भारत के लिए ऐसे-ऐसे कानून बनाए जो एक सरकार के शासन करने के लिए जरूरी होते हैं । आप देखेंगे कि हमारे यहाँ जितने कानून हैं वो सब के सब 1857 से लेकर 1946 तक के ही हैं ।
1840 तक का भारत जो था उसका विश्व व्यापार में हिस्सा 33% था, दुनिया के कुल उत्पादन का 43% भारत में पैदा होता था और दुनिया की कुल कमाई में भारत का 27% हिस्सा था। भारत की संमृद्धता को देखकर अंग्रेजों ने अपनी संसद में बहस की। उस बहस में ये तय हुआ कि भारत में होने वाले उत्पादन पर टैक्स लगा दिया जाए क्योंकि सारी दुनिया में सबसे ज्यादा उत्पादन यहीं होता है और ऐसा हम करते हैं तो हमें टैक्स के रूप में बहुत पैसा मिलेगा।
अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अंग्रेजों ने सबसे पहला कानून बनाया। उस कानून को नाम दिया सेन्ट्रल एक्साइज ड्यूटी ऐक्ट और उस पर टैक्स तय किया गया 350 प्रतिशत। अर्थात यदि आप 100 रुपए का उत्पादन करते हैं तो आपके 350 रुपए ऐक्साइज टैक्स के नाम पर अंग्रेजी सरकार को देना होगा। उसके बाद अंग्रेजों ने दूसरा टैक्स लगाया सेल्स टैक्स। अंग्रेजों ने सेल्स टैक्स की दर 120 प्रतिशत रखी मतलब यदि आप 100 रुपए का सामान बेचोगे तो 120 रुपए सेल्स टैक्स के रूप में देना होगा।
इसके बाद एक और टैक्स आया इनकम टैक्स और उसकी दर थी 97%। यदि आप 100 रुपए कमाते हैं तो 97 रुपए अंग्रेजों को दे दो। ऐसे ही रोड टैक्स, टोल टैक्स, मुंशिपल कार्पोरेशन टैक्स, ऑक्टरॉय टैक्स, हाउस टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स और कई नामों से 23 प्रकार के टैक्स लगाए। रिकार्ड के मुताबिक अंग्रेजों 1840 से लेकर 1947 तक टैक्स लगाकर भारत से करीब 300 लाख करोड़ रुपए लूटा। इन्हीं कानूनों के कारण ही विश्व व्यापार में जो हमारी हिस्सेदारी 33% से घटकर 5% रह गई। हमारे कारखाने बंद हो गए, लोगों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया, हमारे मजदूर बेरोजगार हो गए। गरीबी-बेरोजगारी से भुखमरी पैदा हुई और आपने पढ़ा भी होगा कि हमारे देश में उस समय कई अकाल पड़े, ये अकाल प्राकृतिक नहीं थे बल्कि अंग्रेजों के ख़राब कानून से पैदा हुए अकाल थे, और इन कानूनों की वजह से 1840 से लेकर 1947 तक इस देश में साढ़े चार करोड़ लोग भूख से मरे। हमारी गरीबी का कारण ऐतिहासिक है कोई प्राकृतिक,अध्यात्मिक या सामाजिक कारण नहीं है। हमारे देश पर शासन करने के लिए अंग्रेजों ने 34735 कानून बनाए, सब का जिक्र करना तो मुश्किल है लेकिन कुछ मुख्य कानूनों के बारे में मैं संक्षेप में लिख रहा हूँ ।
इंडियन ऐजुकेशन ऐक्ट- यह कानून 1858 में बनाया गया। इसकी ड्राफ्टिंग टी.बी. मैकोले ने की थी। इस कानून की ड्राफ्टिंग करने से पहले उसके पहले उसने भारत की शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक अधिकारी था जी. डब्ल्यू. लिटनर और दूसरा था थॉमस मुनरो। इन दोनों ने अलग अलग क्षेत्रों का अलग-अलग समय पर सर्वेक्षण किया था। सन् 1823 के आसपास उत्तर भारत का सर्वेक्षण करने वाले लिटनर ने लिखा है कि भारत में 97% साक्षरता है। दक्षिण भारत का सर्वेक्षण करने वाले मुनरो ने लिखा है कि भारत में 100 प्रतिशत साक्षरता है। मैकोले का स्पष्ट कहना था कि भारत को यदि हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षाव्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी। ऐसा करने से ही इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब वो इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे। मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल करता था कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।
अपने उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो समाज के तरफ से उनको मिलने वाली सहायता भी स्वतः गैरकानूनी हो गई। 1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे। इन सभी गुरुकुलों में 18 विषय पढाए जाते थे। इन गुरुकुलों की सबसे खास बात ये थी कि ये गुरुकुल राजा, महाराजा नहीं चलाते थे अपितु इन्हें समाज के लोग मिल कर चलाते थे। इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी।
इन्हें गैरकानूनी घोषित करके सारे गुरुकुलों को ख़त्म कर दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को कानूनी घोषित करके कोलकाता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था। इसी कानून के तहत भारत में कोलकाता यूनिवर्सिटी बनाई गई, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गई।
मैकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा था जिसका कुछ अंश निम्न है:
'इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे तो इस देश से अंग्रेज भले ही चले जाएँ लेकिन अंग्रेजियत नहीं जाएगी।'
इस पत्र का सच आज हमारी आंखों के सामने है। उस ऐक्ट की महिमा देखिए कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, हम अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा। लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है। शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं बल्कि दरिद्र भाषा है । इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और और तो और ईशा मसीह भी अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारी बंग्ला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी । संयुक्त राष्ट्र संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है अपितु वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है। जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है बह कभी उन्नति नहीं कर सकता और यही मैकोले की रणनीति थी।
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