Thursday 26 November 2015

खड़गे जी, कुछ पढ़कर आओ..

अभी अभी कांग्रेस के एक बड़े नेता तथा लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राजग के सांसदों से कहा, 'तुम, आर्य तो बाहर से आए थे, हम इस देश के हैं...' मुझे समझ नहीं आता ऐसे अज्ञानी लोग क्यों इस देश में रह रहे हैं। जिन्हें इस देश की संस्कृति, इस देश के इतिहास का ज्ञान नहीं वह क्यों लोकसभा में पहुंच जाते हैं? और इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि देश के नागरिक ऐसे कुत्सित विचारों वाले लोगों को अपना नेता चुन लेते हैं।

दोस्तों, आर्य शब्द वेदों मे वर्णित हैं यह संस्कृत का शब्द हैं, जिसका अर्थ होता हैं “श्रेष्ठ” या “नेक”। सृष्टि की आदि से वेदों के आदेशो का पालन करने वाले मनुष्य आर्य कहलाते आये हैं। अंग्रेजी और वामपंथी इतिहास में देश को तोड़ने की बड़ी साजिशें की गईं। इस देश में दो प्रकार के संप्रदाय बहुत ही पुराने समय से चल रहे हैं एक वैष्णव तथा दूसरा शैव। वैष्णव, भगवान विष्णु के पूजकों को तथा शैव, भगवान शिव के पूजकों को कहा जाता है। आर्य का अर्थ स्पष्ट रूप से वैष्णव और द्रविड़ का अर्थ शैव है। अंग्रेजों के समय मैकॉले और मैक्समूलर जैसे लोगों ने षणयंत्र रचकर यह प्रचारित किया कि आर्य बाहर से आये थे। उनका उद्देश्य था कि इस तरीके से भारत मे फूट डालो राज करो की निति के आधार पर शासन किया जाए।

ऋग्वेद में एक वेद मंत्र आता है,
अहं भूमिददामार्यायाहं वृष्टिं दाशुषे मर्त्याम् ।
अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केतामायन् ॥
ऋग्वेद  4/26/2
अर्थात् (ईश्वर कहते हैं) मैं आर्य के लिए भूमि देता हूँ । मैं दानशील मनुष्य के लिए धन की वर्षा करता हूँ । मैं घनघोर शब्द करनेवाले बादलों को धरती पर वर्षाता हूँ । विद्वानलोग मेरे ज्ञान (उपदेश)के अनुसार चलते हैं ।
इस वेद मन्त्र में बतलाया गया है कि ईश्वर आर्य के लिए ही अर्थत अच्छे उत्तम मनुष्यों के लिए ही भूमि और धन देता है। वर्षा करता है और ज्ञान देता है।
इस पंक्ति को सामान्य तौर पर ना लें। इसका स्पष्ट अर्थ है कि ईश्वर ने यह भूमि श्रेष्ठ लोगों को दी है। खुद ही सोचिए अपनी बनाई चीज किसको दी जाती है?

'कृण्वन्तो विश्वार्यम' तो आप सबने पढ़ा ही होगा। यह ऋग्वेद के एक मंत्र का एक हिस्सा है। ऋग्वेद में कहा गया है -
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।
अपघ्नन्तो अराव्ण: ॥
ऋग्वेद 9/63/5

अर्थात् - आत्मा को बढ़ाते हुए दिव्य गुणों से अलंकृत करते हुए तत्परता के साथ कार्य करते हुए अदानशीलता को , ईर्ष्या , द्वेष , द्रोह की भावनाओं को , शत्रुओं को परे हटते हुए सम्पूर्ण विश्व को , समस्त संसार को आर्य बनाएं। आर्य कोई धर्म या संप्रदाय नहीं है जिसे आप यह कह दें कि वेद, धर्म परिवर्तन या जाति परिवर्तन के लिए कहा  जा रहा है। कितनी सुंदर बात है कि संपूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाएं, सम्पूर्ण विश्व को नेक बनाएं। हमें गर्व होना चाहिए कि हम ऐसी संस्कृति के संवाहक हैं जो नेक बनाने पर जोर देती है। हमारी संस्कृति यह नहीं कहती कि दुनिया को मूर्ति पूजक बनाओ, बल्कि श्रेष्ठ बनने और बनाने को कहती है। आर्य यदि जाति होती तो लोग कहते मैं आर्य हूं लेकिन इतिहास में किसी ने यह नहीं कहा कि मैं आर्य हूं। रामायण महाभारत मे भी आर्य का सम्बोधन आया है। मगर क्या यह संबोधन क्या किसी भी व्यक्ति विशेष के लिए था? या उस समय के लोग खुद को आर्य (श्रेष्ठ) कहते थे? बिल्कुल नहीं उस समय भी दूसरों के द्वारा भी “आर्यपुत्र” “आर्यमाता” “आर्यपत्नी” का संबोधन मिलता है। एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जिसमें किसी ने खुद को आर्य कहा हो।

श्रीमद्भगवद्गीता में आर्य शब्द का प्रयोग
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन से कहा है -
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकिर्तिकरमर्जुन ।।
श्री मद्भग्वद गीता 2/2

अर्थात - हे अर्जुन ! तुम को विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ है , क्यों कि यह न तो आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों का प्रिय व उन द्बारा अपनाया गया है ।न स्वर्ग देनेवाला है और न कीर्ति को करनेवाला है ।
यह सभी जानते हैं की अर्जुन मोह में पड़कर अपना कर्तव्य - कर्म भूल चुके थे और भिक्षा का अन्न खाने के लिए तैयार था । अपने धर्म को छोड़कर निन्दित कर्म करने के लिए तैयार था। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने उसे अनार्य कहा है। और आर्यों के गुण अपनाने के लिए ही उसे पूरे गीता का उपदेश दिया है। श्री कृष्ण आर्य थे - अर्जुन आर्य था। जब अर्जुन आर्य के कर्तव्य कर्म को छोड़कर उसके विपरीत कर्मों को अपनाने लगा तो श्री कृष्ण ने अर्जुन को धिक्कारा और आर्य अर्थात श्रेष्ठ बने रहने के लिए उपदेश दिया।

रामायण में भी आर्य शब्द का प्रयोग
 
वाल्मीकि रामायण में आर्य शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है ।
भगवान राम के गुणों का वर्णन करने के पश्चात वाल्मीकि मुनि से नारद जी कहते हैं -
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रिय दर्शनः ॥ 1/16
वे आर्य एवं सब में समान भाव रखनेवाले हैं । उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है ।
एक मनुष्य में जितने अच्छे गुण होने चाहिए उन गुणों का वर्णन भगवान श्री राम में करने के पश्चात नारद जी उन्हें आर्य कहते हैं ।

आधुनिक विद्वान आर्य शब्द का प्रयोग इन्हीं अर्थों में करते हैं । भारत के मूल निवासी जितने भी हैं वे आर्य हैं ।
महाकवि मैथिलिशरण गुप्त ने भारत - भारती में लिखा है -
जग जान ले कि न आर्य केवल नाम के ही आर्य हैं ।
वे नाम के अनुरूप ही करते सदा शुभ कार्य हैं ॥

दयानन्द सरस्वती जी ने आर्य शब्द की व्याख्या (meaning of arya) में कहा है कि “जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्य-विद्या आदि गुणयुक्त और आर्यावर्त (aryavart) देश में सब दिन से रहने वाले हैं उनको आर्य कहते है।”
इतने प्रमाणों के बाद भी कुछ लोग इस देश की एकात्मता को तोड़ने का लगातार प्रयास कर रहे हैं। कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि हम इस प्रकार के कुत्सित प्रयासों में फंसते जा रहे हैं। मैं मात्र इतना कहना चाहता हूं कि इस भारत माता की गोद में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य अर्थात श्रेष्ठ है क्यों कि उसने इस पतित पावनी भारत भूमि पर जन्म लिया है।

वन्दे भारती


No comments:

इसे नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा

मैं भी कहता हूं, भारत में असहिष्णुता है

9 फरवरी 2016, याद है क्या हुआ था उस दिन? देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भारत की बर्बादी और अफजल के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने ज...