Wednesday 23 March 2016

किसको 'फॉलो' करते हैं मोदी? आपको क्या?



मैं एक सामान्य व्यक्ति हूं, पेशे से पत्रकार हूं, अपने काम को किसी प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता के अधीन होकर नहीं करता और मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मैंने नरेन्द्र मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट दिया था। मैं स्वयं को हिंदू मानता हूं, सनातन मूल्यों में मेरा पूर्ण विश्वास है, मानवीयता को सर्वश्रेष्ठ गुण मानता हूं, प्राकृतिक संपदाओं के दोहन का विरोध करता हूं, मनुष्य ही नहीं जीवों को भी इस धरती पर अपने बराबर का सहभागी मानता हूं और यह सब मुझे सनातन संस्कृति ने सिखाया है क्योंकि यही वह संस्कृति है जो मुझे यह सिखाती है कि चीटियों को भी आटा खिलाना है और नागों को भी दूध पिलाना है। रही बात हिंदुत्व की तो यह मेरी राष्ट्रीयता का आधार है और मुझे इस पर गर्व है, जिस प्रकार से लोग राष्ट्रीयता को भारतीय कहते हैं उसी के आधार पर मैं हिंदू को राष्ट्रीयता मानता हूं। इसका एक मात्र कारण है कि मेरा मानना है कि हिंदुत्व में सनातन संस्कारों का समावेश है। मैं नहीं मानता कि हिंदू होने के लिए मंदिर जाना जरूरी है या किसी खास पूजा पद्धति का अनुसरण करके ही आप हिंदू हो सकते हैं। लेकिन जो लोग हिंदुत्व को पूजा पद्धति से जोड़ कर स्वयं की राष्ट्रीयता को भारतीय बताते हैं, मैं उनका विरोध भी नहीं करता क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वास्तव में 'हिंदू' को रिलिजन ही समझा जाता है। जिस प्रकार से मैं विरोध नहीं करता उसी प्रकार से यह अपेक्षा भी करता हूं कि 'हिंदू' शब्द को मैं जिस रूप में लेता हूं यदि उसमें कोई गलत बात नहीं है तो उसका विरोध न किया जाए।

हिन्दुत्व को लेकर बहुत से लोगों के अपने अलग पैमाने हैं, कोई कहता है कि हिंदू वह है जो राम मंदिर की बात करें, कोई कहता है कि हिंदु वह है जो रोज गीता पढ़े, तो कोई कहता है कि मनुस्मृति को जीवन का आधार मानने वाला ही हिंदू है। मैं इन सब में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं बस इतना मानता हूं कि हिंदू 'वीर' तो हो सकता है लेकिन कभी कट्टर नहीं हो सकता, हिंदू 'परंपरा' को तो मान सकता है लेकिन अंन्धभक्ति नहीं कर सकता, हिंदू अपनी सनातन संस्कृति को सम्मान दे सकता है लेकिन नियमित मंदिर जाने की अनिवार्यता नहीं थोप सकता, हिंदू अपने संस्कारों पर गर्व तो कर सकता है लेकिन दूसरी संस्कृतियों का विरोधी नहीं हो सकता। इस देश का दुर्भाग्य है कि हिॆदुत्व के नाम पर कट्टरता का सहारा लिया जा रहा है लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है।

मैं पहले भी लिख चुका हूं कि आप किसी जमीनी स्तर पर काम करने वाले कांग्रेसी या वामपंथी से पूछेंगे कि देश टूट जाए क्या? या देश किसी का गुलाम हो जाए क्या? तो उसका जवाब नहीं ही होगा। अगर कोई कांग्रेसी या वामपंथी है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह राष्ट्रविरोधी है। बहुत सीधी सी बात है कि व्यक्ति अपने विवेक के आधार पर तय करता है कि सभी विचारधाराओं/पार्टियों में कौन सी विचारधारा/पार्टी सर्वाधिक अच्छी और परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है। इसके लिए यह अनिवार्यता नहीं कि वह व्यक्ति पूरी तरह से उस विचारधारा अथवा पार्टी से सहमत हो। वरिष्ठ पत्रकार श्री नीरेन्द्र नागर जी ने एक दिन मुझसे कहा था कि विश्व गौरव, व्यक्ति का महत्व नहीं उसके विचारों का महत्व होता है। मैं भी यही मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति एक विचार है, वह पूरी तरह किसी विचारधारा से सहमत हो ही नहीं सकता, यदि उसमें स्वयं का विवेक है तो। विचारधारा को कई लोगों के विचारों का कॉकटेल कहें तो गलत नहीं होगा। आप किसी के विचारों से सहमत हो सकते हैं और किसी के विचारों से असहमत, इसी आधार पर आप किसी मुद्दे पर किसी विचारधारा से सहमत हो सकते हैं और किसी मुद्दे पर असहमत हो सकते हैं।

मैं एक पत्रकार हूं, पूर्व में छात्र राजनीति में सक्रिय रहा हूं इसी नाते बहुत से लोग सोशल मीडिया पर जुड़े हैं, फेसबुक पर लगभग 14000 लोग जुड़े हैं, 4000-5000 ग्रुप में जुड़ा हूं, कभी किसी पेज पर अच्छा विचार दिख गया तो उसे लाइक कर दिया। अब एक सीधे सवाल का जवाब दे दीजिए, क्या 14000 लोगों में कोई कुछ लिखता है जिससे कि मैं सहमत न हूं तो क्या उसके लिए यह कहना उचित होगा कि इसकी मित्र सूची में एक पत्रकार जुड़ा है और इसका मतलब है कि वह 'कट्टर' अथवा 'अंधभक्त' है? किसी ग्रुप में कोई फर्जी पोस्ट आ जाए तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस ग्रुप में एक पत्रकार है यानि कि वह अफवाहों को बढ़ावा देता है, किसी पेज के द्वारा कुछ अपमान जनक कहा जा रहा है तो क्या यह कहा जाना उचित होगा कि इस पेज को एक पत्रकार ने लाइक कर रखा है और इस बात के लिए इस पत्रकार पर मानहानि का केस करना चाहिए। मेरी सहमति इस बात से तय होगी कि मैं कौन सी पोस्ट शेयर करता हूं।

मैं एक बहुत ही सामान्य व्यक्ति हूं, जिस ट्विटर अकाउंट पर मैं लगातार ऐक्टिव रहता हूं उस पर सिर्फ 3 अकाउंट्स फॉलो कर रखे हैं, एक मेरे छोटे भाई का है, एक उस संस्थान का है जहां मैं कार्यरत हूं और एक अकाउंट कुमार विश्वास का है। मैं कुमार विश्वास का प्रशंसक हूं, इसका मतलब यह नहीं कि उसके सभी ट्वीट्स से पूरी तरह सहमत होता हूं, उसके टू लाइनर अच्छे लगते हैं तो फॉलो करता हूं, कोई काम न होते हुए भी मैं इन तीन हैंडल्स द्वारा किए गए सारे ट्वीट्स नहीं देख पाता। मेरी सहमति उस ट्वीट से प्रदर्शित होगी जिसे मैं रीट्वीट करूंगा।

अब आता हूं मुख्य मुद्दे पर, आज एक 'विशेष रिपोर्ट' पढ़ी। उस विशेष रिपोर्ट का शीर्षक था, 'ट्विटर पर आपकी संगति कुछ ठीक नहीं लगती प्रधानमंत्री जी!'। बहुत ही शोधात्मक रिपोर्ट थी। उस रिपोर्ट को आप 'यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं।' इस रिपोर्ट में कहा गया कि ‘कट्टर हिन्दू’ लोगों को फॉलो करते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, इन कट्टरपंथियों में कोई भी ‘कट्टर मुस्लिम’, ‘कट्टर सिख’, ‘कट्टर जैनी’ या ‘कट्टर ईसाई’ नहीं है, इनमें कभी लोगों से ‘जी न्यूज़’ देखने की मांग की जाती है, तेजिंदर पाल सिंह बग्गा को नरेंद्र मोदी स्वयं भी फॉलो करते हैं। अब आप बताइए इसमें क्या कोई समस्या है, क्या इन सभी लोगों से पीएम मोदी की पूर्ण सहमति की अनिवार्यता है?

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि नरेन्द्र मोदी मायपीएम नमो, नरेंद्र मोदी पीएम, मोदी फॉर पीएम, मोदी यूनाइटेड फैन क्लब, फ़ोर्स नमो, नमो टी पार्टी, नरेंद्र मोदी आर्मी, नमो चाय पार्टी, इंडिया नीड्स मोदी, नरेंद्र मोदीज फैन, मोदीप्लोमैसी, नरेंद्र मोदी फैन, नमो लीग, नमो 2019, नमो शक्ति, माय पीएम नरेंद्र मोदी, मोदी-फाइंग इंडिया, नमो इंडिया, देश भक्त, नमो_गाथा, मोदीफाई यूपी, नमो युग, नमो माय पीएम, भाजपा पथ-नमो पथ जैसे अकाउंट फॉलो करते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आत्ममुग्धता का परिचय सिर्फ उनके ‘सेल्फी-प्रेम’ या अपने नाम वाला सूट पहनने से ही नहीं बल्कि ट्विटर अकाउंट्स से भी देखा जा सकता है. यहां मोदी दर्जनों ऐसे अकाउंट्स को फॉलो करते हैं जो उनके नाम से और उन्हें महिमामंडित करने के लिए बनाए गए हैं'। मुझे समझ नहीं आता कि आखिर इसमें बुराई क्या है? आखिर जिन लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से मोदी के चुनाव में काम किया, पूरा सोशल मीडिया मैनेज किया उनके विचारों से क्या इस देश के प्रधान को अवगत होने का अधिकार नहीं है? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि देश का प्रधान उनके दिखाए रास्ते पर ही चलेगा। एक नेता का यह अधिकार के साथ साथ कर्तव्य भी है कि उसे कुर्सी देने वालों से या उसे कुर्सी तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत करने वालों के विचारों को जाने और उसमें से जो उचित लगे उस विचार को अपनाए। साथ ही उस नेता का यह कर्तव्य भी है कि वह विपक्ष द्वारा चलाई गई उन योजनाओं को भी जारी रखे जो राष्ट्र हित में है। इन दोनों पैमानों में नरेन्द्र मोदी खरे उतरते हैं। एक वेबसाइट के द्वारा ऐसे विषयों पर विशेष रिपोर्ट्स के नाम पर तथाकथित सनसनीखेज खुलासे किए जा रहे हैं यह वास्तव में दुखद स्थिति है। मैं आज इन ट्विटर अकाउंट्स को चेक कर रहा था, वास्तव में इसमें बहुत सी ऐसी पोस्ट डाली गई हैं जो गलत हैं लेकिन क्या आप यह मानकर चल रहे हैं कि ये लोग जो भी पोस्ट डालेंगे उससे मोदी जी की सहमत होंगे।

मैं बहुत से विषयों पर पीएम मोदी का विरोध करता हूं। पहले भी करता था, एक समय था जब मोदी जी गुजरात के सीएम हुआ करते थे। उस दौरान उन्होंने मेरे नाम से मेरे संस्थान के लिए एक शुभकामना संदेश भेजा था। क्या इस शुभकामना संदेश के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि मेरे संस्थान की हर खबर के प्रत्येक पक्ष से वह सहमत थे। नहीं, बिलकुल नहीं। उनको कुछ लेख पसंद आए होंगे तो उन्होंने शुभकामनाएं भेजीं, हर दिन तो वह उस समाचारपत्र को पढ़ते भी नहीं होंगे। ठीक उसी प्रकार ट्विटर पर किसी का ट्वीट पसंद आया तो उसे फॉलो कर लिया, अब अगर इसे मुद्दा बनाकर पेश किया जाएगा तो शायद उचित नहीं होगा।

देश में हजारों विषयों के होते हुए ऐसे विषयों को उठाया जा रहा है। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि यदि आप किसी विचारधारा का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप अपनी विपक्षी विचारधारा में कुछ अच्छा देखने की कोशिश ही नहीं करेंगे। मेरी एक साथी स्वाति मिश्रा ने आज फेसबुक पर लिखा, 'UPA सरकार के दूसरे कार्यकाल की बात है। मनमोहन सिंह की सरकार के लिए बहुत कुछ कहा जा रहा था। भ्रष्टाचार के साथ-साथ और भी तमाम मुद्दे थे। ऐसे में भी उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। मीडिया के सवालों का लाइव जवाब दिया। स्थानीय भाषा की मीडिया से भी कई बार बात की। भारत में भी जब कहीं दौरे पर गए, तो ज़्यादातर बार मीडिया के सवालों का जवाब दिया। इधर अपने मोदी को देखिए। ना चुनाव से पहले बोले, ना अब बोलते हैं। कभी बोले भी, तो अपने लोग छांट के उनसे ही बोले। कभी कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं, मीडिया के सवाल नहीं। लोग बोलते रहें, लेकिन उनकी सेहत को असर नहीं पड़ता। ऐसा नहीं कि बोलते नहीं, बोलते खूब हैं पर बस अपने मन का।
सोचिए कि मोहल्ले में कोई एक बड़ा लाउडस्पीकर लगाए और जब चाहे उसपर आड़ा-तिरछा चिल्लाए। आप परेशान होते रहें, लेकिन कभी उस लाउडस्पीकर से हैप्पी बर्थडे का गाना आए और कभी खाली-पीली का दर्शन। मोदी इस देश में वही लाउडस्पीकर हैं। बजते हैं, पर किसी काम का नहीं।'
बहुत अच्छी बात है कि स्वाति जी ने अपने मन की बात कह दी। मन की बात कहने का अधिकार हर एक को है, देश के प्रधान को अधिकार है कि अपने मन की बात पूरे देश से करे और यही अधिकार इस लोकतंत्र में एक सामान्य व्यक्ति को भी मिला है। लेकिन स्वाति जी के द्वारा उठाए गए विषय का एक दूसरा पक्ष भी है। इस देश का प्रधानमंत्री यूके जाता है और वहां पर प्रेस वार्ता में एएनआई के पत्रकार को यह सोचकर प्रश्न पूछने के लिए कहता है कि यह मेरे देश का पत्रकार है, यह इस समय मेरे लिए देश की आवाज है और देश के लिए मेरी आवाज, तो यह जो भी पूछेगा देश के हित में पूछेगा लेकिन हमारे पत्रकार साहब मोदी जी के समक्ष असहिष्णुता का मुद्दा उठाते हैं। जिस स्थान पर पूरे विश्व का मीडिया हो वहां पर देश की आतंरिक स्थिति पर देश के प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर देना उन पत्रकार महोदय का कैसा दायित्व है। जितना मोदी ने असहिष्णुता के मुद्दे पर वहां बोला कि मेरे लिए हर एक घटना महत्व रखती है उतनी बात अगर यहाँ बोल देते तो शायद आधी समस्याओं का समाधान हो जाता। पत्रकार का काम देश में और देश के बाहर जनता और सत्ता के बीच सकारात्मक सोच के साथ सेतु का काम करना है। एएनआई के पत्रकार यदि भारत में मोदी जी की एक बाइट लेकर चला देते तो शायद आज तथाकथित 'असहिष्णुता' कोई मुद्दा ही ना होता। अब यह मत कहिएगा कि पीएम साहब देश में रहते कब हैं?

यह विषय मात्र पत्रकारों तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक सामान्य व्यक्ति को इस देश के विषय में सोचना होगा, प्रत्येक उस विषय का समर्थन करना होगा जिसमें देश का कल्याण निहित हो। अभी कुछ दिन पहले कानपुर से वापस आते हुए ट्रेन में यात्रा के दौरान सुबह 7 बजे मेरे 2 सहयात्रियों ने नाश्ते में चाय और बिस्किट लिए। वे मेरे परिचित नहीं थे, लगभग 20 और 30 साल की उम्र वाले उन दोनों सहयात्रियों ने बिस्किट का खाली पैकेट वहीं सीट के नीचे फेंक दिया। मैं थोड़ा 'मुंहफट' किस्म का व्यक्ति हूं तो मैंने बड़े भाई से कहा कि भाईसाहब क्या करते हैं? तो वह बोले कि बस काम-धंधा चलता है अपना। मैंने नीचे पड़े बिस्किट के खाली पैकेट उठाकर पास लगी डस्टबिन में फेंकते हुए कहा कि अगर आप यह काम और कर देते तो मुझे बहुत खुशी होती। मैं यह 'हरकत' इसलिए करता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि शायद इससे किसी को शर्म आ जाए और वह आगे से गंदगी करने से पहले एक बार सोचे। लेकिन आप एक सामान्य व्यक्ति की सोच समझिए, उसने अपनी चाय खत्म करते हुए कप उसी तरह नीचे डालते हुए बोला कि भाई ट्रेन साफ करने के पैसे दिए जाते हैं, अगर गंदगी नहीं होगी तो सफाई करने वाले के पास हराम के पैसे जाएंगे। मैं उस पढ़े-लिखे से दिखने वाले आदमी की सोच पर निःशब्द था। क्या सोच थी उसकी। उसके छोटे भाई ने तुरंत नीचे फेंका हुआ अपने भाई का कप उठाया और अपने कप के साथ उसे डस्टबिन में फेंक कर आया।

दोस्तो, यह वह समय है जब इस देश के प्रत्येक वर्ग को एक होना होगा, अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए। मोदी हों या केजरीवाल, दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, सभी की अच्छी और समाज के लिए उपयुक्त परंपराओं को एक साथ आना होगा। जब तक 'फर्जी' विषयों से बाहर निकल कर, एकरूपता के प्रभाव को स्थापित करने का प्रयास छोड़कर एकता के लिए प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक इस देश को विश्व शक्ति नहीं बनाया जा सकता।

वंदे भारती

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