Monday 21 March 2016

जनरल टिकट के साथ स्लीपर कोच की रात

आज पिता जी की इच्छानुसार पीसीएस की परीक्षा देने कानपुर आना हुआ। कल शाम की ट्रेन से दिल्ली से कानपुर आया। परीक्षा के चलते ट्रेन में काफी भीड़ थी। मेरा रिजर्वेशन था और सीट कंफर्म थी। लेकिन कुछ छात्र मेरी सीट पर आकर बैठ गए। मानवीयता के नाते मैंने उनसे सीट खाली करने को नहीं कहा, उनके साथ मैं भी बैठा रहा। इस दौरान टिकट पर्यवेक्षक जो कि एक महिला थीं, वह आईं और जनरल ‘टिकट’ वालों से प्रति व्यक्ति 200 रुपए लेने लगीं। मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि मेरी नजरों के सामने भ्रष्टाचार हो रहा था। मैंने इस विषय को लेकर रेल मंत्री महोदय और रेल मंत्रालय को ट्वीट्स किए। मुझे उम्मीद थी कि शायद कोई कार्यवाही हो, लेकिन कुछ नहीं हुआ। टिकट पर्यवेक्षक महोदया अपनी जेब गरम करके चली गईं।
खैर, बैठे-बैठे ही पूरी यात्रा हो गई। सुबह कानपुर पहुंचकर स्टेशन के पास ही एक होटल लिया और फ्रेश होकर परीक्षा देने चला गया। प्रथम पाली की परीक्षा तो हो गई लेकिन उसके बाद 3 घंटे का गैप था। परीक्षा केंद्र से होटल लगभग 10 किमी दूर था। इस नाते वापस जाना संभव नहीं था। पिछली 3 रातों से जाग रहा था इसलिए नींद भी आ रही थी। कड़ी धूप में किसी तरह 3 घंटे का समय बिताकर दूसरी पाली की परीक्षा दी। नींद मुझ पर हावी होने का भरसक प्रयास कर रही थी। ऑटो से 10 किमी का सफर तय करने में मुझे 2 घंटे से भी ज्यादा लग गए।
शाम 7 बजे होटल पहुंचकर सोचा कि थोड़ा आराम कर लूं, लेकिन रात 9:15 पर मेरी ट्रेन थी इसलिए मन में डर भी था कि कहीं ट्रेन छूट न जाए। घर में बात करने के पश्चात लेटा ही था कि निद्रा देवी ने मुझ पर पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया। मैं सो चुका था और जब आंख खुली तो रात के 12:50 बज रहे थे। मैं अपना एटीएम दिल्ली में ही भूल आया था। मेरे पास सिर्फ 600 रुपये ही बचे थे। थोड़ा समय पहले तक कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि अपने पास कंफर्म टिकट जो था। लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी थीं, ट्रेन जा चुकी थी। मैं तुरंत होटल से निकला और स्टेशन पहुंचा, मुझे उम्मीद थी शायद ट्रेन लेट हो और मुझे सीट मिल जाए लेकिन हर बार आपकी इच्छानुसार सब कुछ नहीं होता, शायद इसलिए क्योंकि आपकी सकारात्मकता से अन्य लोगों की सकारात्मकता ज्यादा प्रभावशाली होती है।
ट्रेन जा चुकी थी, बस से जाने भर का किराया नहीं था। अंत में तात्कालिक निर्णय के आधार पर तय किया कि जनरल टिकट से यात्रा करूंगा। 145 रुपए का जनरल टिकट लेकर ट्रेन पता की और प्लैटफॉर्म पर आ गया। पानी तथा कुछ खाने का हल्का-फुल्का सामान लेकर बैग में रखा और ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगा। ट्रेन आने के बाद जब जनरल बोगी की भीड़ देखी तो उसमें बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अगले पल मैं ट्रेन के स्लीपर कोच में था।
ट्रेन चलने के बाद मैं टिकट पर्यवेक्षक से मिला और उनको अपनी स्थिति से अवगत कराया। ‘या तो पैसा दो या फिर जनरल बोगी में जाओ’ कहकर वह आगे चले गए। अपना काम निपटाकर वह वापस मेरे पास आए और बोले कि क्या करना है?
मैंने उनको फिर से अपनी स्थिति बताई कि किस तरह से मेरी ट्रेन छूट गई थी, साथ ही जनरल बोगी की भीड़ के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘इसमें बैठना है तो पैसा लगेगा।’
मेरा अगला प्रश्न था- ‘कितना?’
वह बोले, ‘जो देना है दे दो।’ मेरे सामने धर्मसंकट की स्थिति थी कि क्या करूं? मेरे हाथ स्वतः ही जेब में गए और मैंने उनको 100 रुपए निकालकर दे दिए।
रुपए लेकर वह आगे चले गए लेकिन मेरी चिंताओं को बढ़ा गए। ज़िन्दगी में पहली बार मैं एक भ्रष्टाचार में सहभागी था। आज से पहले मैं बहुत गर्व से कहता था कि मैं कभी किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का हिस्सा नहीं बना लेकिन अब कभी ऐसा नहीं कह पाऊंगा। मेरे पास सिर्फ 300 रुपए बचे थे। अंत में मैंने तय किया कि मैं पेनल्टी सहित टिकट बनवाऊंगा। मैं तत्काल प्रभाव से टीटीई के पास गया और उनसे कहा कि मुझे पेनल्टी के साथ टिकट बनवाना है। उसने हंसते हुए गणित लगाई और बोला 365 रुपए लगेंगे, आप 100 रुपए दे चुके हो, 265 और दे दो। मैंने शेष बचे 100-100 के तीनों नोट उनकी तरफ बढ़ा दिए और कहा कि अगर टिकट नहीं बनवाया तो जीवनभर खुद को माफ़ नहीं कर पाऊंगा।
वह हतप्रभ थे, शायद उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति ना मिला हो जिसका काम 100 रुपए में हो रहा हो लेकिन वह साढ़े तीन गुना पैसा देने खुद आया हो। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या करते हो?
मैंने कहा कि सर, आप टिकट बना दो और मैं जाऊं। मैं ऐसे स्थानों पर सामान्य रूप से अपना परिचय देने से बचता हूं। उन्होंने फिर कहा, ‘मैं तुम्हारे पिता की उम्र का हूं और तुमको अपना काम बताने में भी दिक्कत हो रही है।’ फिर मैंने उनसे कहा कि मैं दिल्ली में पत्रकार हूं। वह खड़े हुए और बोले कि तुम्हारा नाम क्या है? मैंने कहा, विश्व गौरव। उन्होंने कहा, आगे? मैंने कहा, बस इतना ही। फिर वह और खुले तथा बोले, जाति? उनका यह प्रश्न मुझे अचंभित करने वाला था। मैंने उनसे कहा, ‘जन्म तो एक ब्राह्मण कुल में लिया है लेकिन कर्म से पूर्ण ब्राह्मण नहीं हूं।’ उन्होंने पहले लिए गए 100 रुपए सहित पूरे 400 रुपए मुझे वापस कर दिए और कहा, ‘तुमसे मैं पैसे नहीं ले सकता, तुम ट्रेन में बैठे रहो और इसे मेरी मदद समझो। रोज बहुत से लोग मिलते हैं जो पत्रकारिता के नाम पर भ्रष्टाचार करते हैं। और हां, अब कभी किसी से यह मत कहना कि तुम्हारे कर्म ब्राह्मण जैसे नहीं हैं।’ उन्होंने मुझसे कहा कि तुम मेरे बेटे की उम्र के हो, आज मैं तुमसे वादा करता हूं कि कभी गलत तरह से पैसा नहीं लूंगा। मैं धन्यवाद बोलकर चला आया।
अभी ट्रेन में ही हूं, मोबाइल पर ब्लॉग लिख रहा हूं, आंखों में आंसू हैं और हृदय में ईश्वर पर विश्वास। अगर मन साफ है तो आपके साथ कुछ बुरा नहीं हो सकता। मैं आगे भी यह कह पाऊंगा कि मैं कभी किसी भ्रष्टाचार में सहभागी नहीं बना। मेरे ‘गौरव’ को बनाए रखने में सहयोग के लिए ईश्वर का धन्यवाद।
(समय- 03:28 AM)

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