Saturday 5 March 2016

'भारत में आजादी' के मायने और वामपंथियों का 'खेल'

देश की संवैधानिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले को इसी व्यवस्था ने आज एक मौका और दिया कि वह 'आजादी' के अर्थ को समझ सके। हिरासत से छूटने के बाद कन्हैया का एक बदला हुआ रूप देखने को मिला। उसके भाषण को सुनकर ऐसा लगा जैसे अपनी मूल विचारधारा से कहीं भटक सा गया है। हालांकि उसके इस भटकाव से मुझे खुशी हुई लेकिन मैं फिर भी कन्हैया कुमार को लेकर कुछ लिखने की इच्छा हुई।

आज कन्हैया ने अपनी विचारधारा को स्पष्ट करते हुए कहा कि हम पेटेंट के खिलाफ हैं, अखंड भारत किसी का पेटेंट नहीं, हम कश्मीर को भारत का अंग मानते हैं। इस बात से मुझे कोई आपत्ति नहीं। मैं भी यही मानता हूं, लेकिन साथ ही मैं कन्हैया से पूछना चाहता हूं कि जब वह जेल में था उस दौरान उसके विचार परिवार के समर्थकों ने खुलेआम यह लिखना और बोलना शुरू कर दिया था कि कश्मीर में जनमत संग्रह करा देना चाहिए, कश्मीर को आजाद कर देना चाहिए। ऐसा कहने वालों में सिर्फ कन्हैया की विचारधारा के राजनीतिक समर्थक ही नहीं थे बल्कि उनके साथ-साथ देश की प्रबुद्ध माडिया के साथी भी थे। जिनका तर्क था कि आंबेडकर ने भी तो कश्मीर के विषय में 'ऐसा' कहा था।

कन्हैया ने कहा कि देश की सरकार एक पार्टी की सरकार बन गई है, एक दफ्तर की सरकार बन गई है। उनको यह याद दिलाना है कि आप देश के पीएम हैं, शिक्षा मंत्री हैं। कन्हैया ने  साफ किया कि पीएम मोदी से उसका मतभेद है, मनभेद नहीं है। यहां तक बात बहुत अच्छी थी। मतभेद बुद्दिजीवियों के बीच होते हैं, कन्हैया भी एक अच्छा बुद्धिजीवी है, एक नामी संस्थान में पढ़ रहा है, देश की राजधानी में रह रहा है और निसंदेह पढ़ाई भी की होगी। लेकिन मेरा सवाल यह है कि अगर आप मात्र मतभेद रखते हैं तो यदि देश की सरकार एक पार्टी की सरकार बन गई है और आपके मत को स्वीकार नहीं किया जा रहा है तो क्या आप देश की जनता के प्रेम और विश्वास द्वारा दिए गए पुरस्कारों को लौटाने की शुरुआत कर दोगे? यदि आप वास्तव में बुद्धिजीवी हो तो सर्वप्रथम देश की जनता के मन में विश्वास पैदा करो और अपने मत को लोकतंत्रिक मंदिर यानि संसद में प्रतिस्थापित करो।

कन्हैया ने कहा कि देश की न्याय प्रक्रिया में जेएनयू को भरोसा है। कन्हैया ने कहा, 'संविधान विडियो नहीं है, जिसे बदल दोगे। संविधान एक दस्तावेज है। इसे देश की महिलाओं, दलित, किसानों, मजदूरों ने आजादी के आंदोलन के अनुभवों से सींच कर बनाया है। संविधान की प्रस्तावना दुनिया का एक बेहतरीन दस्तावेज है। जो संविधान के साथ खिलवाड़ कर रहा है उन्हें नकारना है। समानता, भाईचारा, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद इन आदर्शों के लिए लड़ना है।' कोई समस्या नहीं है मुझे कन्हैया के इस स्टैंड के साथ। बहुत अच्छी बात है। लेकिन कन्हैया साहब मैंनें भी थोड़ा बहुत भगत सिंह को पढ़ा है लेकिन साथ ही समझने की भी कोशिश की है। भगत सिंह का इशारा उस व्यवस्था की ओर था जो अंग्रेज चला रहे थे। और मुझे इस बात को मानने में कोई संकोच नहीं है कि इस देश की वर्तमान व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा उसी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। मैं भी मानता हूं कि व्यवस्था में परिवर्तन चाहिए। जब तक व्यवस्था ही नहीं बदलेगी तब तक समानता, सद्भाव जैसे विषय समाज में स्थापित हो ही नहीं सकते। जातिवाद से आजादी मुझे भी चाहिए यद्यपि इस देश को जातिवाद से आजादी चाहिए और इस आजादी को पाने के लिए हमें संविधान में परिवर्तन करना ही होगा लेकिन उससे पहले हमें अपने विचारों में परिवर्तन करना होगा, आपको अपने विचारों में परिवर्तन करना होगा। आपको यह तय करना होगा कि देश में यदि कोई छात्र व्यवस्था से परेशान होकर आत्महत्या करता है तो कुर्तकों के सहारे उसे जातिवादी जंजीरों में जकड़ कर 'दलित' न बनाएं बल्कि एक मेधावी छात्र ने ऐसा कदम क्यों उठाया उस पर चिंतन करें और यदि आवश्यक हो तो व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन करें। हम आपके साथ हैं लेकिन यह तब तक नहीं हो सकता जब तक आप अपना दोहरा चरित्र ना छोड़ दें।

कन्हैया ने कहा, 'जेएनयू वर्तमान में लड़ रहा है भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए। देश को बताना चाहते हैं कि आप जब टैक्स देते हैं उसकी सब्सिडी से हम यहां पढ़ते हैं। आपको आश्वस्त करना चाहते हैं कि यहां के स्टूडेंट्स देशद्रोही नहीं हो सकते।' मुझे भी यही अपेक्षा है लेकिन जब देखता हूं कि उसी जेएनयू में उमर खालिद जैसे लोग भी पढ़ते हैं, जब देखता हूं कि उस विश्वविद्यालय में ऐसे लोग भी पढ़ते हैं जो एक आतंकी अफजल की सजा को न्यायिक हत्या बताते हैं तो मुझे लगता कि हमारा पैसा किसी गलत जगह पर जा रहा है। और कन्हैया साहब, आप कितना भी कह लें कि आप संविधान भक्त हो गए लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आप अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए ऐसा कर रहे हो। इसमें भी कोई बुराई नहीं है, राजनीति करो लेकिन देश के साथ, देश के विरोध में जाकर करोगे तो उसे देश स्वीकार नहीं करेगा। मुझे खुशी है कि एक रंग वाले झंडे की 'लाल गुलामी' को तोड़कर आज तुम्हारे साथी तिरंगे को भी साथ लेकर खड़े थे।  

कन्हैया ने कहा, 'इतना भी फर्क नहीं समझे कि आरोपी और आरोप सिद्ध में क्या फर्क है। सीधे आतंकवादी बना दिया। हम भी आप जैसे किसी मां-बाप के बच्चे हैं। कोई आतंकवादी नहीं हैं। इसलिए हमें गलत मत समझिए। हक की लड़ाई लड़ते हैं यही अपराध है। अगर आप गलत मानेंगे तो लड़ाई बंद कर देंगे। सरकार गलत कहेगी तो और लड़ेंगे।' बहुत अच्छी बात है। सत्ता को निरंकुश नहीं होने देना चाहिए, आलोचना होनी चाहिए लेकिन कन्हैया यदि विरोध और आलोचना के अंतर को समझने की कोशिश करोगे साथ ही अगर सकारात्मकता और नकारात्मकता के विचारों से बाहर निकलोगे तब जानोगे हक की लड़ाई क्या होती है। जल-जंगल-जमीन के नाम पर किसी सीआरपीएफ जवान की हत्या कर देना अगर हक की लड़ाई है तो मैं ऐसी लड़ाई लड़ने वालों को आतंकवादी से कम नहीं मानता। आतंकवादियों को मारने समय शायद सैनिक न सोचता हो लेकिन एक नक्सली को मारते समय जरूर सोचता होगा। कन्हैया तुमको क्या लगता है कि जब सैनिक की किसी नक्सली के साथ मुठभेड़ होती होगी तो क्या वह निर्ममता से तत्काल उस नक्सली को मारने के लिए तैयार हो जाता होगा। नहीं, उसके हाथ एक बार जरूर कांपते हैं, एक बार उसके मन में तो यह जरूर आता है कि ये लोग यह सब छोड़कर शांति के साथ मिल-जुल कर क्यों नहीं रहते लेकिन नक्सली, पूरी तरह से आतंकवादी कृत्यों से सुसज्जित बस उद्देश्य का अंतर रहता है।

कन्हैया ने कहा, 'मेरा आदर्श अफजल गुरु नहीं, आज मेरा आदर्श रोहित वेमुला है।' अच्छी बात है कि आपका आदर्श रोहित है लेकिन रोहित से पहले आपका आदर्श कौन था? क्या आपके समर्थकों ने कभी अफजल का समर्थन नहीं किया। आज आप कहने लगे कि हर घर से रोहित निकलेगा, बिलकुल निकलना चाहिए लेकिन क्या आप कुछ समय पहले हर घर से अफजल को नहीं निकाल रहे थे।

कन्हैया ने कहा, 'हम अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा जानते हैं। हम आजादी का मतलब जानते हैं। इसीलिए देश से नहीं बल्कि देश में आजादी चाहते हैं।' कन्हैया जी इस देश में आपको कौन सी आजादी नहीं मिली है? आप शायद स्वच्छंदता को स्वतंत्रता मान बैठे हैं। आपको कोई संघ का स्वयंसेवक बनाने नहीं आ रहा, आपको कोई जबरदस्ती बीजेपी के पक्ष में मतदान करने को नहीं कह रहा, आपको कोई जबरदस्ती मनुवादी नहीं बना रहा, सामंतवाद, साम्राज्यवाद यहां है नहीं, कर्म आधारित व्यवस्था है, जो जितनी मेहनत करेगा उसे उतना ही मिलेगा हालांकि इस व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए परंतु फिर भी आवश्यकता के अनुरूप आजादी मिली हुई है। हमें पता है देश में बहुत सी कुरीतियां हैं लेकिन उनको समाप्त ना ही तुम अकेले कर सकते हो और ना ही मैं। एक साथ मिलकर उन्हें दूर करने की कोशिश करो लेकिन अगर समाज बनाने की ही ठानी है तो फिर अपने उद्देश्य में राजनीति मत करो। अगर तुम भारत में ऐसी आजादी चाहते हो कि तुम एक आतंकी की सजा के विरोध में सभाएं करो, तुम नक्सलियों द्वारा मारे गए शहीदों की चिताग्नि ठंडी होने से पहले उनकी हत्या का जश्न मनाना शुरू कर दो, तुम इस देश का अलग इतिहास बनाकर लोगों को बताओ और अगर कोई सही इतिहास बताने की कोशिश करे तो उसे भगवाकरण का नाम दे दो तो यह नहीं चलेगा। अगर तुम भारत में ऐसी आजादी चाहते हो तो बेहतर होगा कि तुम भारत से ही आजादी ले लो। इस देश के शौर्यपूर्ण इतिहास और संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। इस देश को रंगों से ढकने की जरूरत नहीं है। भगवा भी इस देश का है और लाल-हरा भी, उसे पूजा पद्धतियों से जोड़कर, उसे राजनीतिक विचारधाराओं से जोड़कर, उसे संप्रदायों से जोड़कर समाज के सामने प्रदर्शित करने से मात्र देश के टुकड़े होंगे और उन टुकड़ों में कहीं तुम्हारे अपने ही दूर ना हो जाएं इस बारे में भी सोच लो और अगर इस दर्द को व्यवहारिक रूप से समझना है तो कभी जाकर उनके पास बैठो जिनको कश्मीर से भगा दिया गया था या फिर उनके पास जिनको लाहौर से भगा दिया गया था।

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