Friday 15 April 2016

राम मंदिर की बात करने से पहले श्रीराम के चरित्र को समझें

सर्वप्रथम आपको सपरिवार श्रीराम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएं!
इस देश में वर्तमान समय में एक नई बहस छिड़ी है। लोग मोदी सरकार से उम्मीद करके बैठे हैं कि वह अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण कराएगी। सवाल है कि क्या वर्तमान भारत इस अवस्था में है कि इसकी एकात्मता के आधारभूत स्तंभ श्रीराम का मंदिर बनाया जाए? वैसे इस सवाल के मूल मायनों का उन लोगों से कोई संबंध नहीं है जो मंदिर के नाम पर मात्र एक इमारत चाहते हैं। इस सवाल का सीधा संबंध उन लोगों से है जो श्रीराम को इस देश का सांस्कृतिक आधार मानते हुए रामराज्य को पुनः प्रतिस्थापित कर आदर्श भारत निर्माण करना चाहते हैं।
श्रीराम भारत की अस्मिता के आधार हैं। राम तो वह हैं जो रावण से युद्ध करने को निकलते हैं तो एक राजकुमार होते हुए भी किसी राजा का साथ नहीं लेते बल्कि वंचितों को, वनवासियों को गले लगाते हुए उनसे एक नई सेना का निर्माण करते हैं। भारतीय मानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं बल्कि उनका महत्व इसलिए है कि उन्होंने उन तमाम मुश्किलों का सामना बहुत ही शिष्टतापूर्वक किया। अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने खुद को बेहद गरिमा पूर्ण रखा। मैंने श्रीराम को विश्व का एकमात्र पूर्ण पुरुष मानता हूं और इसका कारण यह है कि मैंने राम को किसी मूर्ति या चित्र में न देखकर एक चरित्र के रूप में देखा, एक ऐसा चरित्र जो स्वयं में पूर्ण है।
दरअसल, राम की पूजा इसलिए नहीं की जाती कि हमारी भौतिक इच्छाएं पूरी हो जाएं, मकान बन जाए, प्रमोशन हो जाए, व्यापार में लाभ हो जाए। बल्कि राम की पूजा हम उनसे यह प्रेरणा लेने के लिए करते हैं कि मुश्किल क्षणों का सामना, धैर्यपूर्वक, बिना विचलित हुए किस प्रकार से किया जाए। राम ने अपने जीवन की परिस्थितियों को सहेजने की काफी कोशिश की, लेकिन वह हमेशा ऐसा कर नहीं सके। उन्होंने कठिन परिस्थतियों में ही अपना जीवन बिताया, जिसमें चीजें लगातार उनके नियंत्रण से बाहर निकलती रहीं, लेकिन इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उन्होंने हमेशा खुद को संयमित और मर्यादित रखा। आध्यात्मिक रूप से व्यावहारिक बनने का यही तो सार है।
संत कबीर कहते हैं कि
राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप।
स्वामिपना माथे पड़ा, कोइ पुरबले पाप।।
अर्थात् राम नाम को महत्व जाने बिना उसे जपना तो न जपने जैसा ही है क्योंकि जब तक मस्तिष्क पर देहाभिमान की छाया है तब तक अपने पापों से छुटकारा नहीं मिल सकता।
Ram
इस संसार में चार राम हैं-
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा।
एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा।।
संसार में चार राम हैं ! जिनमें से तीन को हम जगत व्यवहार में जानते हैं पर चौथा अज्ञात राम ही सार है । उसका विचार करना चाहिए। एक दशरथ पुत्र राम को सभी जानते हैं और एक जो प्रत्येक जीवात्मा के घट (शरीर) में विराजमान हैं तथा एक जो समस्त (सकल) दृश्य-अदृश्य सृष्टि हैं, वह राम ही है अथवा राम में ही है । लेकिन इन सबसे परे जो चौथा (आत्मा) राम है, वही हमारा और इन सबका सार है। अतः उसी चौथे राम को जानना उत्तम है।
जिस देश में लोग भूख से मर रहे हों, जिस देश में लोग अशिक्षित हों, जिस देश में महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता हो और जिस देश में अपने बुजुर्ग माता-पिता को लोग वृद्धाश्रम में छोड़ आते हों वहां एक मंदिर बनाकर क्या हासिल होने वाला है, यह मेरी समझ से परे है। अन्य मंदिरों की तरह से तथाकथित ब्राह्मणों के लिए धनार्जन का एक साधन और बन जाएगा। देश की मूल समस्याओं का समाधान क्या राम मंदिर से संभव होगा? मेरा मत यह है कि यदि वास्तव में हम अपने आराध्य का मंदिर बनाना चाहते हैं तो उसके लिए उनके चरित्र को अपने चरित्र में उतारना होगा। श्रीराम के काल में जैसी समानता, निस्वार्थ राष्ट्रप्रेम, पितृभक्ति, राजनीति और धर्मनिष्ठा थी, उसे जीवन का आधार बनाइए। जब इतना कर लें तो बनाइए एक भव्य श्रीराम मंदिर और पूरे विश्व को संदेश दीजिए कि अपने ईष्ट को हमने अपने जीवन का आधार बनाया है। मात्र एक इमारत और खड़ी कर देने से कुछ भी नहीं होने वाला है।
राम मंदिर के भव्य निर्माण की बात करने से पहले हमें यह समझना होगा कि राम कौन हैं, राम कोई और नहीं हम स्वयं हैं। जब हमारी आंखों के सामने कुछ गलत हो रहा हो और हम उसके खिलाफ संघर्ष करें तो समझ लेना चाहिए कि राम आ गए और जब हम स्वयं कुछ गलत करें अथवा गलत का विरोध न करें तो समझ लेना हम पर रावण हावी हो रहा है।
जब हमारे परिवारों में किसी बच्चे का जन्म होता है तो घर की महिलाएं कुछ गीत गाती हैं। उस गीत में यही कहा जाता है कि राम को कौशल्या ने जन्म दिया है न कि यह कहा जाता है विश्व गौरव या फलाने ने जन्म लिया है। राम किसी उपन्यास के पात्र नहीं हैं, यदि वह किसी उपन्यास के पात्र होते तो यह नाम कब का मिट गया होता। राम तो राष्ट्र की संस्कृति के आधार हैं और इसीलिए जब भारत में किसी का विवाह होता है तो महिलाएं जो गीत गाती हैं उसमें भी यही कहती हैं कि राम और सीता का विवाह हो रहा है।
दोस्तो, आज हम उस देश में रह रहे हैं जहां एक बेटी/बहन के बलात्कारी को नाबालिग करार देते हुए छोड़ दिया जाता है। क्या से क्या हो गए हैं हम? जिस देश में नारी को पूजा समझा जाता था और जिस देश में नारी के सम्मान की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने समुद्र पर पुल बना दिया था उस देश में नारी के साथ ऐसा व्यवहार… बातें राम मंदिर की हो रही हैं…कैसा राम मंदिर, जब आप अपने सम्मान की रक्षा नहीं कर पा रहे तो क्या राम आएंगे….नहीं, हमें ही राम बनना होगा…बदलनी होगी यह व्यवस्था… इस देश की परंपरा को आगे ले जाने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाकर राम के चरित्र को अपनाना होगा और अगर हम इस व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम किसी श्रीराम मंदिर की बात करें…इस भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि देवताओं का वास तो वहां होता है, जहां महिलाओं का सम्मान होता है। यदि हम नारी का सम्मान नहीं कर सकते तो ईंट पत्थर की इमारत तो खड़ी कर सकते हैं लेकिन उसे मंदिर नहीं कह सकते।
श्रीराम सिर्फ सनातनियों की आस्था के कारण ही पूर्ण पुरुष नहीं कहे जाते हैं बल्कि वह अपने कर्मों की वजह से पूज्य माने जाते हैं और पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आइए कुछ विषयों पर आप भी विचार करिए।
भगवान राम द्वारा सीता को यह वचन दिया जाना कि मैं अपने जीवन में सिर्फ एक ही विवाह करूंगा और तुम मेरी एकमात्र पत्नी रहोगी, यह दर्शाता है कि वह बहुविवाह के विरोधी थे जो कि उस समय बहुत ही आम बात थी (श्रीराम से पूर्व की पीढ़ियों का इतिहास इस बात का साक्षी है)।
क्या आज हम प्रेम के उस स्वरूप को मानते हैं?
जंगल में निषादराज से गले मिलकर भगवान राम ने ऊंच-नीच की भावना पर कुठाराघात किया और हमें यह सन्देश दिया कि जाति अथवा धन आधारित विभेद नहीं होना चाहिए। शबरी जो कि एक अछूत जाति से मानी जाती है, उसके हाथों के जूठे बेर खा कर उन्होंने जाति या वर्ण व्यवस्था को कर्म आधारित प्रमाणित कर दिया और हमें यह सन्देश दिया कि मोल व्यक्तियों और उसकी भावनाओं का होता है ना कि उसके कुल या जाति का।
क्या आज हम उस प्रकार का भेदभाव रहित आचरण करते हैं?
जंगल में ही अहिल्या को शापमुक्त कर उन्होंने यह सन्देश दिया कि अनजाने में हुए गलती, गलती नहीं कहलाती है और बेहतर भविष्य के लिए उसे माफ कर देना ही उचित है। बाली वध का सार यह है कि अगर आपका मित्र सही है तो किसी भी हालत में आपको आपके मित्र की सहायता करनी चाहिए साथ ही येन-केन-प्रकारेण पृथ्वी पर से दुष्टों का संहार जरूरी है ताकि सज्जन चैन से जी सकें।
क्या हमने कभी किसी की गलती पर इतना बड़ा दिल दिखाया?
सीता जी के अपहरण के पश्चात् पहले समुद्र से विनय पूर्वक रास्ता मांगना फिर उस पर ब्रह्मास्त्र से प्रहार को उत्तेजित होना यह दर्शाता है कि शक्तिसंपन्न होने के बाद भी लोगों को अपनी मर्यादा नहीं भुलानी चाहिए, समुद्र को मात्र एक बाण से सुखा देने कि क्षमता होने के बावजूद भी समुद्र पर राम सेतु का बनाना हमें यह सिखाता है कि अगर काम बन जाए तो बिना वजह शक्ति प्रदर्शन अनुचित है। अपने लिए तथा मानव जाति के लिए भी यदि कुछ किया जा रहा है तो अन्य जीवों के विषय में न सोचना अनुचित होगा।
क्या हमने अपनी शक्ति और अपने दायित्व में सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया?
रावण वध के पश्चात् लक्ष्मण को उसके पास शिक्षा ग्रहण करने को भेजना हमें सिखाता है कि ज्ञान जिस से भी मिले जरूर ग्रहण करना चाहिए और मनुष्य को कभी भी यह नहीं समझना चाहिए कि वह स्वयं में सम्पूर्ण है।
क्या हम अपने विरोधियों अथवा शत्रुओं से कुछ सीखने की क्षमता रखते हैं?
सीता की अग्नि परीक्षा पर श्रीराम कहते हैं कि आज यह सीता की अग्नि परीक्षा, अंतिम अग्नि परीक्षा है और दुनिया में फिर किसी नारी को ऐसी प्रताड़ना नहीं दी जाएगी, मनुष्य को अपनी अर्धांगिनी पर विश्वास करना चाहिए क्योंकि माता सीता उतने वर्ष रावण जैसे व्यक्ति के पास रह कर भी पवित्र ही थीं। ठीक उसी प्रकार आधुनिक नारी को भी घर में अथवा बाहर अकेला छोड़ देने के बाद उसकी बातों और उसकी पवित्रता पर अविश्वास प्रकट नहीं करना चाहिए क्योंकि नारी वह शक्ति है जो रावण जैसे नराधम के पार अकेली रह कर भी अपनी लाज की रक्षा करने में सक्षम है। यदि अग्नि परीक्षा नहीं हुई होती तो नारी की सच्चाई संदिग्ध हो जाती परन्तु अग्नि परीक्षा ने यह साबित कर दिया कि नारी के प्रति अविश्वास रखने का कोई कारण नहीं है।
क्या आज हम नारी पर इतना विश्वास करते हैं?
एक धोबी के कहने पर श्रीराम द्वारा माता सीता का परित्याग, उनका राजधर्म था। जहां उन्होंने माता सीता का परित्याग कर यह सन्देश दिया कि राजा की अपनी कोई खुशी अथवा गम नहीं होना चाहिए। अगर राज्य का एक भी व्यक्ति, भले ही वह एक धोबी जैसा निर्धन, निर्बल ही क्यों ना हो, उसका मत और उसकी राय भी महत्वपूर्ण है। कोई भी काम सर्वसम्मति के साथ करना चाहिए और सर्वसम्मति बनाने के लिए अगर राजा को अपनी व्यक्तिगत खुशी का बलिदान भी करना पड़े तो राजा को कर देना चाहिए क्योंकि राजा बनने के बाद व्यक्ति खुद का या परिवार का नहीं रह जाता है बल्कि वह राज्य का हो जाता है। प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी होनी चाहिए और प्रजा के दुख में ही राजा का भी दुख निहित होना चाहिए।
क्या आज के राजनेता ऐसी राजनीति और ऐसा राजधर्म निभाने की क्षमता रखते हैं?
इसलिए मैं तब तक श्रीराम का मंदिर नहीं चाहता हूं जब तक हम राम राज्य स्थापित करने में सक्षम न हो जाएं। जब इस देश का प्रत्येक ‘भारतीय’ यह कहेगा कि मंदिर बने तब मंदिर बनना चाहिए। शब्द पर ध्यान दीजिएगा मात्र प्रत्येक ‘भारतीय’।

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