Thursday 14 April 2016

सोच बदलिए स्वरूपानंद जी, तब बचेगा सनातन

मैं पिछले कई सालों से सपरिवार शनि शिंगणापुर जाता रहा हूं। मेरी मां और छोटी बहन भी मेरे साथ जाती हैं। आज तक कभी भी उसने यह विषय नहीं उठाया कि शिला के पास महिलाएं क्यों नहीं जाती हैं अपितु मुझे अथवा उसे तो जानकारी भी नहीं थी कि ऐसा कुछ होता है क्योंकि वहां जाकर सामान्य परंपराओं का निर्वहन करते हुए शनि मंदिर से वापस आ जाते थे। कल शाम, इस विषय पर मैंने अपनी बहन के विचार जानने के लिए फोन लगाया तो उसने कहा कि किसी को सिर्फ इसलिए रोकना क्योंकि वह महिला है, गलत ही कहा जाएगा। उसे पहले इस बारे में ना ही कोई जानकारी थी और ना ही कोई फर्क पड़ता था लेकिन तृप्ति देसाई और उनके सहयोगियों द्वारा चलाए गए आंदोलन से माहौल कुछ ऐसा बन गया है, जैसे भारतीय परंपराओं में ‘नारी’ को समान अधिकार नहीं दिए गए। नारी की इस देश में स्थिति क्या थी, उसे जानने के लिए वैदिक काल पढ़ना चाहिए। उसके बाद बुराइयां (संभव है कि तत्कालीन समय के अनुसार वे उचित रही हों) आती गईं और हम बदलते गए। उन्हीं बुराइयों के आधार पर आज कहा जाता है कि भारत में तो महिलाओं का शोषण होता रहा है, उन्हें अधिकार नहीं प्राप्त थे और भी न जाने क्या-क्या। भारतीय संस्कृति पर लगने वाले इस प्रकार के आरोपों का जवाब देने का सबसे अच्छा तरीका है स्वपरिवर्तन।
हो सकता है कि कुछ महिलाओं के हृदय में शनि शिला पूजन की इच्छा जागृत हुई हो और फिर उन्होंने आंदोलन शुरू किया हो। जो कार्य पुरुष कर सकते हैं, उनसे महिलाओं को रोका नहीं जाना चाहिए। मैं इस बात से भी इनकार नहीं करता कि कोई पुरानी परंपरा रही होगी, जिसके आधार पर महिलाओं का शिला के पास जाना वर्जित रहा होगा, उसका तत्कालीन काल परिस्थिति के हिसाब से कारण भी रहा होगा लेकिन क्या परंपराओं को प्रत्येक काल हेतु यथावत प्रतिस्थापित कर देना उचित होता है? मेरे अनुसार नहीं, हमने बहुत सी परंपराएं समयानुकूल होते हुए बदली हैं तो फिर इस परंपरा को क्यों नहीं बदल सकते।
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के बाद सृष्टि सृजन में यदि किसी का सर्वाधिक योगदान है तो वह नारी का है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि सनातन धर्म की सर्वोच्च पदवी पर विराजमान, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती कहते हैं कि महिलाओं द्वारा शनि शिंगणापुर में पूजा किए जाने से बलात्कार बढ़ेंगे।
एक तथाकथित संन्यासी द्वारा इस तरह की बात किए जाने से भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस देश के राजनेताओं को फुर्सत नहीं है कि वे स्वरूपानंद के बयान का विरोध कर सकें। स्वरूपानंद जी, बलात्कार किसी मंदिर अथवा मस्जिद में जाने से नहीं होते, बलात्कार होने का एकमात्र कारण कुत्सित भावना और घटिया कुसंस्कार हैं। वे कुसंस्कार जो ना खून का, ना धागे का, ना शर्म का, ना उम्र का ख्याल करते हैं। उनके लिए नारी का मतलब, बस देह तक सिमटा होता है।
बलात्कार होते हैं सामाजिक भटकाव के कारण, जिसमें आज विज्ञापनों का विशेष योगदान है। उन विज्ञापनों का जिनका उद्देश्य प्रॉडक्ट बेचने से कहीं अधिक लड़की पटवाना लगता है। हमें बदलना होगा और साथ ही बदलना होगा उन परंपराओं को, जो हम में विभेद पैदा करती हैं। मैं मानता हूं कि यह पूरा आंदोलन राजनीति से प्रेरित था, लेकिन इस आंदोलन ने सामान्य महिलाओं का दृष्टिकोण बदल दिया। सामान्य महिलाओं को लगने लगा कि हमारे साथ भेदभाव किया जा रहा है, उनकी इस मानसिकता में परिवर्तन के लिए हमें अपनी परंपराओं में परिवर्तन करने ही होंगे। हमारा दायित्व है कि हम इस देश की आधी आबादी को यह विश्वास दिलाएं कि हमने किसी काम से उन्हें रोका नहीं है बल्कि हम तो स्वागत करते हैं कि जिस परंपरा के निर्वहन की जिम्मेदारी हमारे पूर्वजों ने हमें दी थी, उसमें वे भी सहयोग कर रही हैं। सनातन की रक्षा और सनातन शब्द के अर्थ महात्मय पुनर्स्थापित करने लिए सबसे पहले ‘शंकराचार्य’ जैसी महत्वपूर्ण पदवी पर विराजित स्वरूपानंद सरस्वती को अनुयायियों सहित मानसिकता बदलनी होगी और उसके बाद परंपराओं में यथोचित परिवर्तन लाना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भारत को पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने का उद्देश्य, मात्र स्वप्न बन कर ही रह जाएगा।

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