Tuesday 14 June 2016

बीजेपी वाले मोदी को 'जुमलेबाज' साबित करके मानेंगे

कुछ दिन पहले काशी (वाराणसी) जाने की योजना बनी। मन काफी उत्साहित था कि अपने देश के प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में जाने का अवसर मिल रहा है। उम्मीद थी कि बनारस की तस्वीर पहले से काफी बेहतर हो गई होगी। मेरे साथ मेरे दो अन्य मित्र भी थे। जब लखनऊ में रहा करता था तो हर 4-5 महीने में बनारस जाना होता था। वहां पर मेरे कुछ रिश्तेदार भी रहते हैं तो इस नाते रुकना भी उनके घर पर ही होता था। लेकिन 3 साल पहले दिल्ली आने के बाद से बनारस जाना नहीं हुआ।
लोकसभा चुनाव के दौरान जब यह पता लगा कि बीजेपी के पीएम प्रत्याशी बनारस से चुनाव लड़ने वाले हैं तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अब बनारस की तस्वीर बदल जाएगी। बनारस और बनारस की संस्कृति को नजदीक से समझने के लिए हमने तय किया कि इस बार किसी रिश्तेदार के घर पर न रुक कर किसी गेस्ट हाऊस में रुकेंगे ताकि किसी तरह की बंदिशें न रहें। रेलवे स्टेशन पर उतरकर ऑटो से ऑनलाइन बुक किए गए गेस्ट हाऊस की ओर जैसे ही मैंने बढ़ना शुरू किया, मेरी उम्मीदें भी टूटने लगीं। मैं जो कुछ भी देख रहा था वह हैरान कर देने वाला था।  स्टेशन से कुछ ही दूरी पर नगर निगम का एक कूड़ाघर था, लेकिन कूड़ा उसके बाहर पड़ा हुआ था। एक गाय उस कूड़े में पड़ी पॉलीथीन खा रही थी लेकिन उसे रोकने वाला कोई नहीं था।
cow
प्रतीकात्मक तस्वीर।
यूपी में वैसे तो इस तरह के दृश्य सामान्य हैं लेकिन जिस पार्टी ने अपने चुनाव में गौ रक्षा को मुद्दा बनाया हो, जो पार्टी गौमांस निषेध के लिए कानून की मांग करती हो और जो पार्टी गाय को मां कहती हो, उस पार्टी के बैनर पर प्रधानमंत्री के सिंहासन पर काबिज हुए व्यक्ति के निर्वाचन क्षेत्र में मैं ऐसे दृश्यों की अपेक्षा नहीं करता था। हालांकि मैं यह नहीं मानता कि इस तरह के दृश्यों के लिए सीधे प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहरा देना ठीक होगा, लेकिन यदि उस क्षेत्र में पार्षद से लेकर मेयर तक सभी उस तथाकथित गौभक्त राजनीतिक दल के हों तो पार्टी की मूल विचारधारा तथा कार्यपद्धति में प्रदर्शित होने वाले अंतर पर एक सवाल तो बनता ही है। गाय को खाने की बात करने वालों को तो यह गौ भक्त पार्टी भारतीय संस्कृति का विरोधी करार देती है लेकिन जहां गाय की मौत को रोक सकती है वहां मूक दर्शक बनकर बैठी है।
खैर, यह एकमात्र विषय नहीं था जिससे काशी में मेरा मन दुखी हुआ। इसके अलावा भी काशी में कुछ ऐसा दिखा जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। मेरा गेस्ट हाउस मणकर्णिका घाट के पास था। जो लोग वहां गए होंगे उनको पता होगा कि उस घाट पर जाने के किए एक पतली सी गली से लगभग 2 किमी पैदल जाना होता है। यह एक ऐसा घाट है जहां पर अंतिम संस्कार की अग्नि कभी ठंडी नहीं होती, पूरे देश से इस घाट पर अपने परिजनों के अंतिम संस्कार के लिए आते हैं।काशी लेकिन इस घाट पर जाने के लिए जो रास्ता है वह इतना बुरा है कि यदि बारिश हो जाए तो वहां से निकलना मुश्किल हो जाएगा। गंगा नदी में आज भी उसी तरह से शव (लाशें) बहकर आती हैं जैसे पहले आती थीं, अगर उनको रोकना संभव नहीं है तो गंगा संरक्षण मंत्रालय जैसी खानापूर्ती करने की क्या आवश्यकता है? दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट जैसे घाटों पर अच्छा काम हुआ है लेकिन क्या बनारस को उसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आधार से दूर ले जाकर मात्र पर्यटन स्थल बनाना है।
काशी की आत्मा गलियों में बसती है, हर रोज कड़ी धूप में महामूरगंज रोड पर 2 किलोमीटर की दूरी तय करने में कम से कम 1 घंटा लगता है। क्या इस समस्या से समाधान की आवश्यकता नहीं है? जब पीएम मोदी जी जन-धन योजना लेकर आए तो मुझे व्यक्तिगत रूप से लगा कि अब हर एक व्यक्ति की पहुंच बैंक तक होगी। जब कोई नकारात्मक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति मुझसे कहता था कि मोदी सरकार ने अब तक कुछ भी अच्छा किया है क्या? तो सबसे पहले मैं स्वच्छ भारत अभियान और जन-धन योजना का ही नाम लेता था क्योंकि मुझे लगता था कि इन दोनों का सीधा फायदा एक गांव में रहने वाले व्यक्ति को होगा। लेकिन आज अपनी काशी यात्रा के बाद मैं यह कह सकता हूं कि यह मेरा भ्रम था। आप कल्पना कर सकते हैं कि काशी, जहां मिनी पीएमओ बना हुआ है वहां पर 13 में से 12 एटीएम कैशलेस पड़े हुए हैं। ऐसे में एक सीधा सा और सामान्य सा सवाल है कि एक गरीब आदमी आखिर क्यों बैंक में अपना अकाउंट खुलवाए।
एक गरीब आदमी हर महीने किसी तरह से 500 रुपए बचाकर अकाउंट में जमा करता है कि अब तो एटीएम कार्ड है, कभी भी निकाल लूंगा, लेकिन जब उसका बेटा बीमार होता है तो उसे अपने 500 रुपए बनारस की सड़कों पर घूमते हुए एटीएम मशीन में कैश चेक करने में खर्च करने पड़ते है। वह सिर्फ 500 रुपए खर्च नहीं कर रहा होता है बल्कि अपने एक महीने की पूरी बचत खर्च कर रहा होता है। यह बात मैं किसी स्वकल्पित उदाहरण स्वरूप नहीं लिख रहा अपितु यह काशी के एक चाय वाले का अनुभव है। शायद मैं उसकी इस बात पर इतनी आसानी से विश्वास नहीं करता लेकिन मैंने खुद ऐसा ही कुछ झेला है तो ऐसे में संभव है कि लोगों के साथ इससे भी अधिक बुरा होता हो।
काशी को मोक्ष की नगरी माना जाता है। मैं यह भी मानता हूं कि देश के प्रधान के पास इतना समय नहीं होता कि वह मात्र अपने निर्वाचन क्षेत्र की चिंता करता रहे लेकिन क्या सांसद प्रतिनिधि, मिनी पीएमओ में काम करने वाले लोगों, मेयर, विधायकों और पार्षदों को इस बात का भान नहीं है कि पूरे विश्व से लोग इस जगह पर घूमने के लिए आते हैं। क्या यहां की व्यवस्था को देखकर उन देशी-विदेशी पर्यटकों के माध्यम से विश्व स्तर पर भारत के पीएम की इच्छा शक्ति के विषय में नकारात्मक संदेश नहीं जाता होगा? मुझे लगता है कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों को इस सवाल पर चिंतन की आवश्यकता है। कहीं उनकी कामचोरी से हमारे पीएम सच में ‘जुमलेबाज’ न साबित हो जाएं।

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