Thursday 16 June 2016

क्या सच में 'भगवान' नहीं है? जवाब है यहां

कल फेसबुक पर एक पोस्ट देखी। इस ब्लॉग को पढ़ने से पहले यदि आप यहां क्लिक करके उस पोस्ट को पढ़ लेंगे तो इस ब्लॉग को लिखने का उद्देश्य समझ में आ जाएगा। वैसे उस फेसबुक पोस्ट को लिखने वाले महाशय का सार यह था कि 'भगवान' जैसी कोई शक्ति इस सृष्टि में नहीं है। अपने इस विषय को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने कुछ प्रश्न भी उठाए थे। तो मैंने सोचा कि उनकी जिज्ञासाओं का समाधान ब्लॉग के माध्यम से करूं। एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूं कि मेरे 'भगवान' कोई क्षीर सागर में शेषनाग पर लेटे हुए पुरुष नहीं हैं बल्कि मेरे लिए भगवान का अर्थ है सकारात्मक ऊर्जा का एक अथाह सागर। चलिए, अब अपने विषय पर आते हैं।

यदि मैं यह मानता हूं कि इस दुनिया में अच्छाई है तो मुझे यह भी मानना होगा कि इस दुनिया में बुराई का भी अस्तित्व है। बहुत सीधा और सामान्य सा अन्तर है कि अच्छाई का प्रतिनिधित्व 'भगवान' और बुराई का प्रतिनिधित्व 'दानव' करते हैं। ये मात्र दो शक्तियां हैं। आगे बढ़ने से पहले एक छोटी सी कहानी है, उसे पढ़ लीजिए।

एक गांव में बहुत पुराना मंदिर हुआ करता था। उस मंदिर में एक वृद्ध पुजारी अपने परिवार के साथ रहता था। वह पुजारी सपरिवार पूरे दिन ईश्वर भक्ति में लीन रहता था। आस-पास के गरीब लोगों को दान में मिले अन्न से भरपेट भोजन कराने के पश्चात बचा हुआ भोजन अपने परिवार के साथ करता था। भगवान पर उसका अटूट विश्वास और श्रद्धा थी। स्वयं के कर्मों से वह संतुष्ट भी था।  एक बार गांव के समीप की नदी में बाढ़ आ गई। गांव के लोग गांव छोड़कर भागने लगे। जब नदी का पानी अपने विकराल रूप को धारण करने लगा तो पुजारी के परिवार के सदस्यों ने पुजारी से कहा कि आप भी हमारे साथ चलिए। लेकिन पुजारी ने यह कहकर मना कर दिया कि मुझे भगवान बचाने आएंगे। एक दिन और बीता। गांव में पानी बढ़ता ही जा रहा था लेकिन पुजारी, मंदिर छोड़ने को तैयार नहीं था। फिर उसी शाम एक गरीब आदमी जिसको वह पुजारी नियमित रूप से भोजन कराता था, पुजारी के पास आया और बोला कि पुजारी जी, हमारे साथ चलिए नहीं तो आज आपकी मृत्यु सुनिश्चित है, क्योंकि आज रात तक पूरा गांव डूब जाएगा। लेकिन पुजारी ने उसे भी यह कहकर मना कर दिया कि तुम जाओ, मुझे मेरे भगवान बचाने आएंगे। पुजारी के जवाब को सुनकर वह आदमी भी वहां से चला गया। रात हुई और पुजारी की मृत्यु हो गई। जब वह पुजारी स्वर्ग में पहुंचा तो उसने भगवान से कहा, 'मैंने तो आजीवन आपकी सेवा की, गरीबों की सेवा की, कभी किसी के साथ गलत नहीं किया तो फिर आप मुझे बचाने क्यों नहीं आए?' पुजारी के इस प्रश्न पर भगवान ने जवाब दिया कि वह व्यक्ति जो मृत्यु से पहले वाली शाम को तुम्हारे पास आया था, वह मैं ही तो था।

वैसे तो यह एक कहानी है लेकिन मेरा एक छोटा सा सवाल है कि इस पूरे घटनाक्रम को आप क्या कहेंगे? आप कुछ भी कहें, मैं तो इसे अन्धभक्ति कहूंगा। यजुर्वेद का सार है 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात् मैं ब्रह्म हूं या आत्मा ही ब्रह्म है यानी जीव ही ब्रह्म (जिसे आप भगवान कह रहे हैं) है। साथ ही सामवेद का कथन है 'तत्वमसि' अर्थात वह तुम हो। ब्रह्म यानी भगवान मैं और आप ही तो हैं। मेरे कुछ वामपंथी परिचित कहते हैं कि राम हुए होंगे लेकिन वह भगवान नहीं मात्र एक चरित्र थे। मुझे इस बात से कोई आपत्ति नहीं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक चरित्र होता है, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक विचार होता है। रही बात भगवान की तो भगवान जिसे मैं ईश्वर कहता हूं, उसका सीधी सा अर्थ है सद्चरित्र और दानव का अर्थ है दुश्चरित्र, इस सामान्य सी व्याख्या को समझने में क्या समस्या आती है यह मेरी समझ से परे है।

मेरी समझ के अनुरूप भगवान शब्द की व्याख्या कुछ इस प्रकार है-
भ = भूमि
अ = अग्नि
ग = गगन
वा = वायु
न = नीर

शाब्दिक आधार पर भगवान यानी पंच तत्वों से बना हुआ। हमारा अथवा किसी भी जीव का शरीर भी तो इन्हीं पंच तत्वों से निर्मित है। हम अपने कर्मों के आधार पर सकारात्मता अथवा नकारात्मकता की ओर जाते हैं। यदि सकारात्मकता को आधार बनाया तो कहा जा सकता है कि हम ईश्ववरीय गुणों की ओर जा रहे हैं और अगर नकारात्मकता को आधार बनाया तो उसे दानवी प्रवृत्ति वाली श्रेणी में माना जा सकता है। कर्म ही तो भारतीय संस्कृति का आधार रहा है। और इस कर्म के सिद्धान्त का सबसे बड़ा उदाहरण मेरे आराध्य श्रीराम हैं। जब तक वह अयोध्या में थे तब तक मात्र राजकुमार राम थे और जब वह वनवास से वापस आए तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम कहलाए। 14 वर्षों के कर्मों के आधार पर ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम बने। अब बात करते हैं उस पोस्ट की जो उस सकारात्मक शक्ति पर  प्रश्नचिन्ह लगाने का प्रयास कर रही है।

उस पोस्ट में लिखा गया कि अगर कण-कण में भगवान हैं तो कण-कण में भ्रष्टाचार क्यों है?
इस सवाल का जवाब यदि वह महाशय खुद से पूछ लेते तो शायद ज्यादा संतुष्टि मिलती। भ्रष्टाचार हम और आप करते हैं और जब तक हम यह करते रहेंगे या इसे स्वीकार करते रहेंगे तब तक नहीं कहा जा सकता कि कण-कण में भगवान हैं। भ्रष्टाचार तो एक नकारात्मक प्रवृत्ति है यानि जिस तथाकथित कण में भ्रष्टाचार है, वहां भगवान नहीं दानव वास करते हैं।

उन्होंने लिखा, 'लोग कहते हैं कि बगैर भगवान की मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता, तो क्या भगवान चोरी भी करवाता है? जब सब कुछ भगवान की मर्जी से होता है तो भगवान बलात्कार भी करवाता होगा ? डकैती भी डलवाता होगा? अगर यह सब भगवान ही करवाता है तो कितना निर्दयी है भगवान!'
बिलकुल सही लिखा है उन्होंने। ऐसे दुष्कर्म करने वाला निश्चित ही घोर निर्दयी है। लेकिन क्या ये कर्म भगवान के हैं। कुतर्क चाहे कुछ भी हो लेकिन जवाब नहीं ही है। क्योंकि इन नकारात्मक कर्मों को कोई सकारात्मक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति आधार कैसे बना सकता है। जो ऐसे कर्म करे वह निश्चित ही दानवी प्रवृत्ति से प्रेरित है।

उन्होंने आगे लिखा, 'लोग कहते हैं कि भगवान गरीबों, मजलूमों, असहायों की रक्षा करता है। तो हिन्दुस्तान की आधे से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने के लिए मजबूर क्यों है? भगवान क्यों नहीं इन्हें अमीर बना देता? दुनिया में हर कहीं असहाय, मजलूम ही प्रताड़ित हो रहा है , भगवान क्यों नहीं इनकी मदद करता?' इसके अलावा भी उन्होंने कई सारे बेतुके प्रश्न उठाए हैं। इन प्रश्नों को पढ़कर ही पता लगता है कि उन्होंने भारतीय साहित्य को पढ़ने की और समझने की जरा सी भी कोशिश नहीं की। भगवान किसी को गरीब या अमीर नहीं बनाता। हमारे कर्म और हमारी व्यवस्था लोगों को अमीर-गरीब बनाती है। एसी कमरे में बैठकर मजलूमों के अधिकार की बातें अपने ऐपल आईफोन से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लिखने से गरीबी नहीं जाएगी। और ना ही इस गरीबी को दूर करने के लिए कोई अवतरित होगा। हमें अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन लाना होगा। सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ कुछ अच्छा करने का प्रयास करना होगा। इसके बाद जिसके साथ अच्छा करें, उससे पूछिएगा कि 'भगवान' जैसी कोई चीज है क्या? तो भले ही वह नास्तिक हो लेकिन उसका जवाब यही होगा, 'मेरे लिए तो भगवान आप ही हो।'

बस स्वयं में भगवान की मूल परिकल्पना को आत्मसात करने का प्रयास करिए, देखिएगा सच में अच्छा लगेगा। आपको भी और जिसके साथ अच्छा करेंगे उसको भी। मुझे लगता है कि 'भगवान' के इस रूप की स्वीकार्यता से किसी तथाकथित वामपंथी को आपत्ति नहीं होगी। और यदि अभी भी आपत्ति है तो विश्वास मानिए आप तर्कशीलता के निम्नतम स्तर पर पहुंच कर कुतर्क को ही तर्क समझने लगे हैं।

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