Monday 25 July 2016

हां, मैं सवर्ण हूं और शूद्र भी

किसी भी व्यक्ति के अधिकारों का हनन करना और उसे किसी काम के लिए बाध्य करना, असंवैधानिक भी है और अनैतिक भी लेकिन आज दलित उद्धार के नाम पर सवर्ण समाज को जिस तरह से निशाने पर लिया जा है उसका अर्थ मेरी समझ से परे है। मैं एक तथाकथित सवर्ण परिवार से आता हूं लेकिन जब से मैं समझने वाला हुआ हूं तब से मेरे परिवार में कभी किसी जाति विशेष से संबन्ध रखने वाले व्यक्ति के साथ किसी तरह कोई भेदभाव नहीं किया गया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत में जातिगत भेदभाव नहीं है, बिल्कुल है लेकिन उसके लिए जिम्मेदार कौन है, यह सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए।
ऋग्वेद में एक वाकसूत्र आता है:
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद्‍ बाहु राजन्य कृत:।
उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद)
इस वाकसूत्र का अर्थ है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से, वैश्य की उदर से तथा शूद्रों की पैरों से हुई है। भाष्यगत गलती या यूं कहें कि भारतीयता एवं सनातनी साहित्य को निकृष्ट दिखाने के उद्देश्य से इस देश के वामपंथी बुद्धिजीवियों और अंग्रेजी परंपरा के तथाकथित साहित्यकारों ने गलत विवेचना करके अर्थ का अनर्थ कर दिया। सोचने का विषय है कि क्या पैरों का महत्व मुख, भुजा अथवा उदर से कम है क्या? बिल्कुल नहीं। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग का अपना विशिष्ट महत्व है। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन अथवा अध्यापन। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात उस दौर के राजा या उनकी सेना में कार्यरत लोग, जिन्हें आज के समय में सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति कहा जा सकता है। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग और अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ण।
हमें समझना होगा कि साजिशन मात्र पैरों से उत्पन्न हुआ बताए जाने के कारण ‘शूद्र’ वर्ण को अपवित्र या निकृष्ट बताया गया है। जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो। मैंने पहले भी लिखा है कि जब मैं अपने घर की सफाई कर रहा होता हूं या गुरुवार को साईं मंदिर जाकर श्रमदान कर रहा होता हूं तो वह ‘शूद्रकर्म’ होता है और मुझे नहीं लगता कि इस कर्म को करने में कोई बुराई है। बल्कि मैं तो इसे बहुत अच्छा काम मानता हूं।
वर्तमान ब्राह्मणवाद या तथाकथित सवर्णवाद किसी वर्ग विशेष की देन नहीं है। इसके लिए समाज में व्याप्त कुछ स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। पुराने समय में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में आप स्वयं देखिए कि किस तरह से एक परिवार विशेष की महारानी अपने अयोग्य पुत्र को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाना चाहती हैं। वह जानती हैं कि उनका पुत्र इस लायक नहीं है कि देश की सत्ता का संचालन कर सके लेकिन पुत्र मोह के वशीभूत होकर वह ऐसा कर रही हैं। संभव है कि उस दौर में भी कुछ लोगों ने अपने वंशमोह के चलते परिभाषाएं ही बदल दीं। लेकिन इसके लिए समाज के एक वर्ग विशेष को पूरी तरह से जिम्मेदार करार देना पूरी तरह से गलत है। मैं मानता हूं कि किसी पर भी अत्याचार नहीं होना चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति अथवा वर्ग से संबन्ध रखता हो लेकिन समस्या यह है कि केरल में जब वामपंथी कट्टरवादी, विपरीत परिस्थितियों में भी राष्ट्रनिर्माण में लगे एक स्वयंसेवक को जान से मार देते हैं तो इनके कलम की स्याही सूख हो जाती है? आखिर ये लोग जब असमानता की प्रतिमूर्ति बनकर सैकड़ों मानदंडों पर भेदभाव करते हैं तो समानता का झुनझुना बजाने का ढोंग क्यों करते हैं?
सवर्णों ने हमेशा तुम्हें लूटा है, तुम्हें दबाया है, तुम्हारा शोषण किया है जैसी बातें लिखकर या कहकर हम कहीं न कहीं उन बिछड़े हुए लोगों के मन में एक वर्ग विशेष के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न कर रहे हैं। आज हमारी जिम्मेदारी है कि इन बिछड़े हुए लोगों को यह बताने के बजाय सकारात्मक पक्ष को रखें। अगर आज उनके साथ किसी तरह का अत्याचार हो तो हमारी जिम्मेदारी है कि उसकी निंदा करें और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए जो कुछ कर सकें, वह करें। लेकिन हम करते क्या हैं? उन्हें भड़काते हैं कि देखो, उस समय तुमसे सवर्णों ने टट्टी उठवाई थी और आज भी तुमको नंगा करके पीट रहे हैं। हद हो गई यार, किसी के साथ गलत हो रहा है तो उसका विरोध होना चाहिए लेकिन वोट बैंक की राजनीति के लिए आप खुद को एक वर्ग विशेष के लिए ‘उद्धारक’ बना कर पेश करें तो यह पूरी रह से गलत है क्योंकि ऐसा करने पर अनजाने में फिर से भेदभाव पनपने लगता है बस ‘कर्ता’ बदल जाता है।
बाबा साहब का मत थ कि वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं किसी जाति विशेष के नहीं और ब्राह्मणवाद को परिभाषित करते हुए वे कहते थे की इसका अर्थ ऊंच-नीच और अंधविश्वास का होना है जो किसी भी समुदाय में हो सकता है। अगर बाबा साहब के लिए मन में सम्मान है तो आवश्यक है कि उनके सिद्धांतों का सम्मान करें।
मनुस्मृति को गालियां देने वाले लोग और मनुस्मृति के तथाकथित ‘पूजक’ अगर उसके मूल ज्ञान को सकारात्मक दृष्टिकोण से समझ लें तो सभी समस्याओं का समाधान हो जाए। मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे व्यक्ति को वह विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। अब बात करते हैं उस खास वर्ग की जिसे दबाया हुआ बताया जाता है। मैं फिर कह रहा हूं कि उनके साथ अत्याचार हुए हैं लेकिन उसके अलावा एक पक्ष और भी है जिसे हम अनदेखा कर देते हैं।
प्रख्यात लेखक डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने भी गहन शोध के बाद इनके स्वर्णिम अतीत को विस्तार से बताने वाली पुस्तक ‘हिन्दू चर्ममारी जाति: एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास’ लिखी। डॉ. शास्त्री के अनुसार प्राचीनकाल में न तो चमार कोई शब्द था और न ही इस नाम की कोई जाति ही थी। डॉ. विजय सोनकर शास्त्री के मुताबिक, तुर्क आक्रमणकारियों के काल में चंवर राजवंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था और इसके प्रतापी राजा चंवरसेन थे। इस क्षत्रिय वंश के राज परिवार का वैवाहिक संबंध बप्पा रावल वंश के साथ था।  राणा सांगा व उनकी पत्नी झाली रानी ने चंवरवंश से संबंध रखने वाले संत रैदास को अपना गुरु बनाकर उनको मेवाड़ के राजगुरु की उपाधि दी थी और उनसे चित्तौड़ के किले में रहने की प्रार्थना की थी।
संत रविदास चित्तौड़ किले में कई महीने रहे थे। उनके महान व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें गुरु माना और उनके अनुयायी बने। सिकन्दर लोदी ने मुल्ला सदना फकीर को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा। वह जानता था की यदि रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम मतावलंबी हो जाएंगे लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गयी। स्वयं मुल्ला सदना फकीर शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सका और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर अपना नाम रामदास रखकर उनका भक्त बन गया। लेकिन हम कभी उनको यह नहीं कहेंगे कि देखो, तुम्हारे पूर्वजों ने कितने शौर्य का काम किया था। मेरा बहुत सीधा सा सवाल है कि ‘दलित’ वर्ग को भड़काकर ‘सवर्ण’ वर्ग के सामने खड़ा करना ज्यादा बेहतर है या फिर ‘सवर्ण समाज’ को ‘दलित’ वर्ग का गौरवशाली अतीत बताकर सामाजिक रूप से उनकी स्वीकार्यता को 100 प्रतिशत करना ज्यादा बेहतर है?
संत रैदास की बड़ती स्वीकार्यता के फलस्वरूप सिकंदर लोदी आगबबूला हो उठा एवं उसने संत रैदास को कैद कर लिया और इनके अनुयायियों को चमार या दूसरे शब्दों में कहें तो अछूत चंडाल घोषित कर दिया। उसने संत रैदास को बहुत शारीरिक कष्ट दिए लेकिन उस कट्टरपंथी के सामने रैदास ने स्वयं को डिगने नहीं दिया। संत रैदास पर हो रहे अत्याचारों के प्रतिउत्तर में चंवर वंश के क्षत्रियों ने दिल्ली को घेर लिया। इससे भयभीत होकर सिकन्दर लोदी को संत रैदास को छोड़ना पड़ा था। चंवर वंश के वीर क्षत्रिय जिन्हें सिकंदर लोदी ने ‘चमार’ बनाया और हमारे-आपके कुछ स्वार्थी पूर्वजों ने उन्हें अछूत बना कर खड़ा कर दिया। हम तो स्वार्थी नहीं हैं, हम तो भेदभाव नहीं करते तो फिर क्यों उनके मन में हमारे खिलाफ जहर भरा जा रहा है? मैं कहता हूं कि देश के अंतिम नागरिक के साथ भी अगर कुछ गलत हो तो पूरा देश कुछ इस तरह से एक हो जाए कि सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोग हिल जाएं। लेकिन यह नहीं चलेगा कि सोने का मुकुट और हीरे की अंगूठी पहनकर ‘दलित देवी’ के रूप में स्वयं को प्रतिस्थापित करके हमारे समाज के दो वर्गों के बीच की दूरियों को पाटने के बजाय उसे और लंबा करें।

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