Wednesday 20 July 2016

एक गैर कश्मीरी का अपने कश्मीरी भाई के नाम खुला खत

मेरे प्रिय कश्मीरी भाई,
कल यूट्यूब पर एक विडियो देखा। उस विडियो में उन भारतविरोधियों के पक्ष को रखा गया था जो कथित तौर पर पाकिस्तान से मोहब्बत करते हैं और पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं। उस विडियो को देखकर मुझे तुम्हारी याद आ गई, तुम तो हमेशा कहते हो कि तुम भारत से मोहब्बत करते हो…तुम्हारे अब्बू जान ने मां वैष्णों देवी मंदिर जाने वाले सनातनी यात्रियों को अपने खच्चर पर बैठा कर ही तो दर्शन कराए… उन्हीं सनातनी यात्रियों से मिले पारिश्रमिक से तुम्हारी पढ़ाई हुई और उसी की बदौलत तो तुम आज एक बड़े ऑफिसर बनकर बैठे हो। तुम्हारे अब्बू को तो भारतीय सेना के किसी ऑफिसर ने गोली नहीं मारी, वह भी तो यही कहते हैं, ‘मैंने कभी भारत माता की जय नहीं बोला लेकिन दिन में 5 बार नमाज पढ़ते समय हर बार इस मुल्क की सरजमीं का ही तो सजदा करता हूं।’ एक सवाल मुझे बहुत परेशान करता है कि क्या सच में भारतीय सेना इतनी बुरी है कि कश्मीर में रहने वाले मुस्लिम उससे नफरत करने लगें? और तुम हर बार मेरे इस सवाल पर बस यही कहते हो कि हमारी सेना तो हमारी लाइफलाइन है।
बहुत कन्फ्यूज हूं यार, कि आखिर किसकी मानूं… तुम सही हो या वे लोग। आखिर वे भी तो तुम्हारी तरह ही इंसान हैं… उनको इग्नोर तो नहीं किया जा सकता लेकिन अगर उनको मान लिया तो तय है कि अनर्थ हो जाएगा। अगर उनकी मानकर अपने कुछ बुद्धिजीवियों की तरह हम भी भारत सरकार से कहने लगे कि आपने फ़ौज के बल पर उनकी ज़मीन पर कब्जा करके रखा है, आपने उनको उनके ही घर में बंधक बनाकर रखा है, उन्हें आजाद छोड़ दीजिए ताकि पाकिस्तान उन पर वैसे ही कब्जा कर ले जैसे कथित तौर पर आपने किया है तो भाई, तुम्हारा क्या होगा… फिर… बस इसी ‘फिर’ की वजह से हमारी हिम्मत नहीं होती कि हम भारत सरकार के सामने कह पाएं कि ‘कश्मीर-राग’ अलापना बंद करो।
अभी हाल ही में प्रदेश में चुनाव हुए थे, तुम भी बहुत दूर से अपने गांव सिर्फ वोट डालने गए थे। बहुत खुश थे उस दिन तुम, क्योंकि तुम अपने प्रदेश की सरकार चुनने जा रहे थे और तुम्हारी तरह ही प्रदेश की 65 प्रतिशत से अधिक आवाम ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। चुनाव परिणाम आने से पहले जब मेरी तुमसे बात हुई तो तुमने मुझसे यही कहा था कि ये 65 प्रतिशत लोग बिल्कुल तुम्हारी तरह ही हैं। लेकिन भाई, क्या इन 65 प्रतिशत के लिए बाकी 35 प्रतिशत लोगों को नकार देना चाहिए। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास न रखकर वोट न देने वाले कितने प्रतिशत लोग तुम्हारे कश्मीर में हैं? क्या तुम्हारे जैसे 65 प्रतिशत लोगों को छोड़कर बाकी सारे लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते? हमारे भारत के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तो यही कहते हैं। मुझे पता है यह बात पूरी तरह से अवैज्ञानिक भी है और आधारहीन भी लेकिन फिर भी चलो कुछ समय के लिए उन बुद्धिजीवियों की बात मानकर इसी आधार पर बात करते हैं।
माना कि 35 फीसदी लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते, तो क्या उनके लिए कश्मीर को तथाकथित ‘आजादी’ दे देनी चाहिए और भारतीय सेना हटा लेनी चाहिए? चलो यह भी कर लिया तो मानवाधिकार की जीत हो जाएगी क्या? फिर वे 35 प्रतिशत लोग तो खुश हो जाएंगे लेकिन बाकी 65 प्रतिशत लोगों का क्या होगा? वे लोग भी तो वहां उसी तरह से रहेंगे जैसे आज कथित तौर पर भारत विरोधी लोग रहे हैं। वहां की पुलिस कहती है कि ‘उनके’ पास रोजगार नहीं है इसलिए पत्थरबाजी कर रहे हैं। रोजगार के लिए पढ़ना पड़ेगा और पढ़ाई से तो कोसों दूर भागते हैं वे? अब ऐसे में सवाल यह है कि ये सब सही कैसे होगा? बस इसी सवाल का जवाब चाहता हूं तुमसे? वैसे अगर एक आतंकी बुरहान वानी की मौत पर मानवाधिकार का चोंगा ओढ़कर एसी कमरों में बैठने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी भी शांति के लिए कोई वैकल्पिक मार्ग बता सकें तो उस पर सोचा जाना चाहिए। लेकिन इसमें भी समस्या यह है कि उनको उस आतंकी का मानवाधिकार तो दिखेगा लेकिन पत्थर खाकर भी सिर्फ इंसानियत के लिए खाना खिलाने वाले सैनिकों के प्रति उनके मन में दयाभाव नहीं जगेगा।
तुमसे और तुम्हारे जैसे हर एक इंसान से बहुत मोहब्बत है मुझे लेकिन उनसे मोहब्बत कैसे करूं जो मेरे घर के पड़ोस में रहने वाले मिश्रा जी के बेटे पर पत्थर चलाते हैं। असल में वे लोग मिश्रा जी के बेटे पर पत्थर नहीं चलाते हैं, वे लोग तो भारत की ‘कब्जे वाली पॉलिसी’ पर पत्थर चलाते हैं। सही मायनों में वे पत्थर नहीं चलाते, वे तो तमाचा मारते हैं मेरे और तुम्हारे मुंह पर, कि देखो हम तो तुम्हारे घर में रहकर और जिंदा हैं। पता नहीं आज भारत सरकार ने जो कदम उठाया है उस पर तुम क्या स्टैंड लेते हो लेकिन मैं बहुत खुश हूं कि कम से कम मेरे देश के प्रधान में इतनी क्षमता तो है कि वह चंद गिने-चुने लफंगों को सजा देने में देर नहीं कर रहा है। मेरे देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों को इतनी सी बात कब समझ में आएगी कि जिस पाकिस्तान ने अपने देश में मासूम बच्चों की हत्या पर काला दिवस नहीं मनाया, वही पाकिस्तान बुरहान की मौत पर काला दिवस क्यों मनाता है? तुम तो सब समझते हो लेकिन इन बुद्धिजीवियों को समझाने का कोई रास्ता तो बता दो… ऐसे बुद्धिजीवियों को देखकर कवि वेद व्रत बाजपेई की दो पंक्तियां याद आ जाती हैं…
युद्धों में कभी नहीं हारे, हम डरते हैं छल-छंदों से,
हर बार पराजय पाई है, अपने घर के जयचंदों से…
तुम खुश रहो और इन बुद्धिजीवियों की बुद्धि-शुद्दि के लिए खुदा से दुआ करो।
इसी अपेक्षा और आकांक्षा के साथ…
तुम्हारा,
एक गैर कश्मीरी भारतीय भाई

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