Friday 28 October 2016

दिवाली आ गई, शुरू होगा 'सेक्युलरों' का 'विधवा विलाप'

गुरुवार को अचानक टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए गए तस्लीमा नसरीन के एक इंटरव्यू पर नजर पड़ी। उस इंटरव्यू में तस्लीमा ने एक सवाल के जवाब में कहा था, ‘भारत के अधिकतर सेक्युलर लोग प्रो-मुस्लिम और ऐंटी-हिंदू हैं। वे हिंदू कट्टरपंथियों के कृत्यों का विरोध करते हैं, लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों के जघन्य कृत्यों का बचाव करते हैं।’ तस्लीमा द्वारा कही गई इस लाइन को भारत की दलगत राजनीति से न जोड़कर ‘सेक्युलरों’ की मानसिकता से जोड़कर समझने की कोशिश    की। आगे पढ़ने से पहले बेहतर होगा कि अपने मजहबी चश्मे को उतारकर एक बार सही मायनों में सेक्युलर की मूल अवधारणा को आत्मसात करें। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो तय है कि आप मुझे कट्टर अथवा सांप्रदायिक करार देंगे।

2 दिन बाद दिवाली है। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक, सभी का कहना है कि इको-फ्रेंडली दिवाली होनी चाहिए। बिलकुल ठीक बात है, हमारा पर्यावरण है, हमारी जिम्मेदारी है कि उसकी रक्षा करें। मैं मानता हूं कि मानव, समाज और पर्यावरण हित में इको फ्रेंडली दिवाली से किसी को परहेज नहीं होना चाहिए। लेकिन समस्या इस बात से है कि दुनिया के 200 से अधिक देशों में 31 दिसंबर की रात को अंग्रेजी नववर्ष का ‘जश्न’ मनाया जाता है। पूरी दुनिया में पटाखे जलाए जाते हैं, पर्यावरण को भारी नुकसान होता है और हमारे देश के तथाकथित सेक्युलर उसे ‘जश्न’ का नाम देते हैं। क्या हिंदुओं के एक त्योहार पर होने वाली आतिशबाजी, एक अन्य तथाकथित वैश्विक जश्न पर भारी पड़ रही है। आंकड़े तो यह नहीं कहते…

चलिए मान लिया कि अंग्रेजी नववर्ष एक वैश्विक पर्व है, लेकिन 25 दिसंबर की रात में भी तो यही सब होता है ना, क्या उससे पर्यावरण की हानि नहीं होती? दिवाली पर यदि पटाखे जलाए जाएं, तो हिंदू पर्यावरण का नुकसान कर रहे हैं लेकिन अगर क्रिसमस पर पटाखे जलाए जाएं, तो ईसाई अपने त्योहार का जश्न मना रहे हैं।

‘मानवहित’ की ये बातें सिर्फ दिवाली तक ही सीमित नहीं रहतीं। होली आती है तो ‘पानी बचाओ-पानी बचाओ’ की मुहिम शुरू हो जाती है। बहुत अच्छी बात है, जिस देश में लोग 20 रुपए प्रति लीटर की दर से पानी खरीदते हों, वहां ऐसी मुहिम होनी भी चाहिए। लेकिन बकरीद पर मूक जीवों के काटे जाने पर जो लाखों लीटर पानी व्यर्थ बर्बाद होता है, उस पर बात क्यों नहीं होती? एक किलो आलू के उत्पादन में 254 लीटर पानी लगता है, एक किलो आटे के उत्पादन में 1,362 लीटर पानी लगता है, लेकिन 1 किलो मांस के उत्पादन में 18 हजार लीटर पानी लगता है। लेकिन इन आंकड़ों पर कोई ‘सेक्युलर’ कुछ नहीं बोलेगा।

शिवरात्रि आने पर कहा जाता है, ये कौन लोग हैं जो एक तरफ लाखों लीटर दूध बर्बाद कर देते हैं और दूसरी तरफ बच्चे भूख से मर रहे हैं। ठीक बात है, दूध की बर्बादी किसी भी कुतर्क के सहारे उचित नहीं ठहराई जा सकती है लेकिन फिर जब अपने जीवन में हजारों लीटर दूध देने वाली गाय की हत्या होती है, तो उस समय भी ‘सेक्युलरों’ को अपने मुंह में जमी दही निकालकर बाहर फेंकते हुए गोहत्या रोकने की बात करनी चाहिए। लेकिन नहीं, उस पर बात नहीं होगी। क्योंकि अगर उस पर बात हुई तो हमारे ‘सेक्युलरों’ की ‘निरपेक्षता’ खतरे में पड़ जाएगी और ‘खाने की आजादी’ का हनन हो जाएगा।

दही हांडी की बात आएगी तो छोटे बच्चों को उनकी इच्छा के बावजूद उन्हें हांडी फोड़ने की अनुमति नहीं दी जाती है। ठीक बात है, ‘बड़ों’ की जिम्मेदारी है कि बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखें। लेकिन पीड़ा इस बात पर होती है कि दही हांडी पर तो पत्रकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, सभी बच्चों की सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन मुहर्रम के दौरान जब 2-3 साल तक के अबोध बच्चों की चमड़ियां बिना उनकी अनुमति की उधेड़ी जाती हैं, तो कोई कुछ नहीं बोलता। सवाल बस इतना सा है कि आखिर ‘सेक्युलर्स’ ऐसा दोहरा चरित्र क्यों रखते हैं?

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