Sunday 18 December 2016

MCU के विद्यार्थियों के नाम खुला पत्र

10 जुलाई 2013, सुबह 7 बजे वेटिंग टिकट के साथ दिल्ली पहुंचा। पता ही नहीं था कि मैंने जिस विश्वविद्यालय में एडमिशन लिया है, उसका परिसर गाजियाबाद रेलवे स्टेशन से करीब पड़ता है। खैर, दिल्ली से ऑटो लेकर कैंपस के सामने गुप्ता जी की दुकान पर पहुंचा। ना तो किसी को यहां जानता था और ना ही आने से पहले किसी सीनियर या शिक्षक से बात की थी। इसलिए गुप्ताजी की दुकान पर चाय पी और सामान उन्हीं के पास छोड़कर एक अनजान शहर में रूम खोजने लगा। 2 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद 5500 रुपए में एक रूम मिला, जिसमें ना ही कोई अलमारी थी और ना ही उस भयंकर गर्मी को कम करने के लिए कोई पंखा। मरता क्या ना करता, अडवांस किराया दिया, गुप्ता जी के यहां से सामान लेकर आया और फिर मार्केट में बाल्टी वगैरह जैसी चीजें लेने निकल गया। सुबह 10 बजे बी ब्लॉक मार्केट से कुछ जरूरी सामान लेकर वापस रूम पर आया और नहाकर कैंपस जाने के लिए निकल गया।

5 सालों तक कैंपस में सिर्फ नेतागिरी ही की थी। छात्रराजनीति के उस दौर से भारत के सबसे बड़े मीडिया संस्थान में वैचारिक संघर्ष करने तक के सफर ने जिंदगी को नए आयाम दिए। 10 जुलाई से अगले 8 दिनों तक जो झेला, उसे झेलकर तय कर लिया था कि कैंपस में आने वाले विद्यार्थियों की जितनी मदद हो सकेगी, करूंगा। अपने बैच के विद्यार्थियों से लेकर वर्तमान बैच के पचासों छात्र नोएडा आते ही सबसे पहले मेरे पास रुके। 18 जुलाई को जब पहली बार रूम बदला तो हमेशा ऐसे ही रूम लिए जहां किसी के भी किसी भी समय आने जाने पर कोई पाबंदी ना हो। मेरे बाद के बैच के बहुत से छात्र जो नोएडा आने के बाद मेरे रूम पर रुके थे, आज नौकरी करते हैं। उनकी शिकायत रहती है कि मैं उनसे मिलने नहीं आता, उनको फोन नहीं करता। लेकिन मैं क्या करूं, मैं भी उनके साथ रहना चाहता हूं, उनसे बातें करना चाहता हूं, आधी रात को उनके साथ बैठकर चाय पीना चाहता हूं, लेकिन मेरे प्रफेशनल जीवन की कुछ मजबूरियां हैं। मैं चाहकर भी वह सब नहीं कर पा रहा क्योंकि मैं जहां हूं, उस जीवन की बंदिशों ने मुझे जकड़ रखा है। नोएडा आने के बाद मुझे एमसीयू के गुरुजनों ने राष्ट्र और समाज के प्रति जिस दायित्व का बोध कराया मैं उसे नहीं छोड़ सकता और इसी के साथ मैं उस विश्वविद्यालय के प्रति अपने दायित्व को भी नहीं छोड़ सकता जिसने एक आत्ममुग्ध और गैरजिम्मेदार लड़के की शून्य में समाहित प्रतिभा को नए आयाम दिए।

हर दूसरे-तीसरे दिन कैंपस जाता हूं। वर्तमान छात्रों से व्यक्तिगत रूप से बात करता हूं, उनको विश्वास दिलाता हूं कि कभी खुद को अकेला मत समझना, उनसे दोस्त की तरह बात करता हूं, उन्हें उस दिन के बारे में बताता हूं जब तिलक लगाने की वजह से एक प्रतिष्ठित समाचार संस्थान के समाचार संपादक ने मुझे नौकरी देने से मना कर दिया था। उनसे मेरा कोई व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध नहीं होने वाला लेकिन मैं जानता हूं कि अगर आज मैंने प्यार से उनके सिर पर हाथ फेर दिया, उन्हें गले लगा लिया तो वे कभी हार नहीं मानेंगे। लेकिन पीड़ा होती है जब देखता हूं कि मेरे ही साथ के लोग, मेरे कुछ सीनियर्स अपने विश्वविद्यालय को गालियां देते हैं, अपने शिक्षकों के, अपने कुलपति के नाम को उल्टा-सीधा करके लिखते हैं। वे जिस संस्थान में काम करते हैं वहां विश्वविद्यालय के खिलाफ खबरें लिखते हैं, सोशल मीडिया पर विश्वविद्यालय को गालियां देते हैं।

इन लोगों की समस्या यह नहीं है कि परिसर में उन्हें पर्याप्त संसाधन नहीं मिले बल्कि उनकी समस्या यह है कि उनका कोई शिक्षक अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी खास विचार परिवार के अग्रणी संगठन से जुड़ा था, उनकी समस्या यह है कि वे कैंपस की जिस लड़की से प्यार करते थे, उसने उनके प्यार के प्रस्ताव पर 'ना' कह दिया था, उनकी समस्या यह है कि उनके विश्वविद्यालय के निदेशक संघ के कार्यक्रमों में जाते थे, उनकी समस्या यह है कि उनके एचओडी ने उनको नौकरी नहीं दिलाई। क्या गजब के फर्जी और आधारहीन तर्क हैं। अभी 2 दिन पहले 'अलम्नाई मीट' का कार्यक्रम था, उसमें मेरे ही बैच की एक लड़की सिर्फ इसलिए नहीं आई क्योंकि वह जिस लड़के से प्यार करने लगी थी, वह किसी और से प्यार करता था। अरे इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि 2 सालों की पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय ने उनसे क्या लिया? फीस के नाम पर जो चिल्लर लिए गए, उनके बदले क्या चाहते हो? कोई शिक्षक आपको संस्थान तक पहुंचा सकता है, आपकी जगह नौकरी नहीं कर सकता, वह आपके व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं के लिए जिम्मेदार नहीं है। उन शिक्षकों के दिल के दर्द को क्या कभी इन लोगों ने महसूस करने की कोशिश की है। बहुत योग्यता होगी आप में, प्रतिभा के हिमालय शिखर की नींव होंगे आप, हनुमान होंगे आप लेकिन याद रखिएगा हनुमान को अपनी क्षमता का अंदाजा तब तक नहीं हुआ था जब तक जामवंत ने उन्हें उनकी शक्ति के विषय में बताया नहीं था। आज आपकी कलम से लिखा गया एक-एक अक्षर, आपके मुंह से निकला एक-एक शब्द उन शिक्षक रूपी जामवंतों का कर्जदार होना चाहिए जिन्होंने आपको अहसास दिलाया कि आप में योग्यता, क्षमता और प्रतिभा का अपार भंडार है।

पिछले साढ़े तीन सालों में मैं बहुत बड़े-बड़े लोगों से मिला। मैं ऐसे लोगों से मिला जिन्हें 4 साल पहले तक दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर पढ़ता था, जिन्हें प्राइम टाइम में देखकर लगता था कि बस देश इनको मिल जाए तो देश से गरीबी मिट जाएगी, लेकिन पिछले साढ़े 3 सालों में मुझे पता लगा कि जो लोग बड़े दिखते हैं, वे बड़े होते नहीं। और जो सच में बड़े होते हैं, वे अपने बड़प्पन को प्रदर्शित नहीं करते। 

मेरे एक मित्र हाल ही में हुए दिल्ली सम्मेलन की कमियां गिनाते हुए बोले कि क्यों गौरव! मजा नहीं आया ना? मैंने उनसे कहा कि विश्वविद्यालय द्वारा कराया गया सम्मेलन हम सभी पूर्व विद्यार्थियों की विफलता यानी नाकामी का मानक है। यदि हमने अपनी जिम्मेदारी समझी होती और उसका निर्वहन किया होता तो उस सम्मेलन में शिक्षक हमें नहीं बल्कि हम उन्हें स्मृतिचिन्ह दे रहे होते। 

मैंने नोएडा परिसर में विद्यार्थियों की गलती पर अरुण भगत जी जैसे मजबूत शिक्षकों को बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोते देखा है, मैंने बीएस निगम और सूर्यप्रकाश जी जैसे शिक्षकों से पितातुल्य प्रेम पाया है, मैंने रजनी नागपाल जी की ममता पाई है जिन्होंने कभी घर से 500 किलोमीटर दूर मां की कमी महसूस नहीं होने दी, मैंने राकेश योगी जैसे कवि हृदय व्यक्ति से बड़े भाई जैसे अधिकारभाव के साथ डांट खाई है। दोस्तो, लाख कमियां होंगी विश्वविद्यालय में लेकिन याद रखिएगा, वह राष्ट्र कभी प्रगति नहीं कर पाता जो अपने शिक्षकों को, अपने गुरुजनों को सम्मान देना बंद कर देता है। आप अपने जीवन में कितनी भी ऊपर पहुंच जाएं लेकिन उस सीढ़ी पर कभी उंगली मत उठाइएगा जिसने आपको ऊपर पहुंचाया है... क्योंकि वह प्रश्नचिन्ह आप किसी और पर नहीं बल्कि खुद पर लगा रहे होंगे....

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